चैप्टर 14 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 14 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 14 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 14 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 14 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 14 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

गद्दी के कई दिन पहले ही से मेहमानों का आना शुरू हो गया और तीन दिन बाकी ही थे कि सारा कैंप भर गया। दीवान साहब ने कैंप ही में बाजार लगवा दिया था, वहीं रसद-पानी का भी इंतजाम था। राजा साहब स्वयं मेहमानों की खातिरदारी करते रहते थे; किंतु जमघट बहुत बड़ा था। आठों पहर हड़बोंग-सा मचा रहता था।

बड़े-बड़े नरेश आए थे। कोई चुने हुए दरबारियों के साथ, कोई लाव-लश्कर लिए हुए। कहीं ऊदी वर्दियों की बहार थी, तो कहीं केसरिए बाने की। कोई रत्नजटित आभूषण पहने, कोई अंग्रेजी सूट से लैस; कोई इतना विद्वान् कि विद्वानों में शिरोमणि, कोई इतना मूर्ख कि मूर्ख मंडली की शोभा ! कोई पांच घंटे स्नान करता था और कोई सात घंटे पूजा। कोई दो बजे रात को सोकर उठता था, कोई दो बजे दिन को। रात-दिन तबले ठनकते रहते थे। कितने महाशय ऐसे भी थे, जिनका दिन अंग्रेजी कैंप का चक्कर लगाने ही में कटता था। दो-चार सज्जन प्रजावादी भी थे। चक्रधर और उनकी टुकड़ी के लोग इन लोगों का सेवा-सम्मान विशेष रूप से करते थे; किंतु विद्वान् या मूर्ख, राजसत्ता के स्तम्भ या लोकसत्ता के भक्त, सभी अपने को ईश्वर का अवतार समझते थे, सभी गरूर के नशे के मतवाले, सभी विलासिता में डूबे हुए। एक भी ऐसा नहीं, जिसमें चरित्रबल हो, सिद्धांत प्रेम हो, मर्यादा भक्ति हो।

नरेशों की सम्मान-लालसा पग-पग पर अपना जलवा दिखाती थी। वह मेरे आगे क्यों चले, उन्हें मेरे पीछे रहना चाहिए था। उनका पूर्वज हमारे पुरखाओं का करदाता था। बातें करने में, अभिवादन में, भोजन करने के लिए बैठने में, महफिल में, पान और इलायची लेने में, यही अनैक्य और द्वेष का भाव प्रकट होता रहता था। राजा विशालसिंह और कर्मचारियों का बहुत-सा समय चिरौरी-विनती करने में कट जाता था। कभी-कभी तो इन महान् पुरुषों को शांत करने के लिए राजा साहब को हाथ जोड़ना और उनके पैरों पर सिर रखना पड़ता था। दिल में पछताते थे कि व्यर्थ ही यह आडंबर रचा। भगवान् किसी भांति कुशल से यह उत्सव समाप्त कर दें, अब कान पकड़े कि ऐसी भूल न होगी! किसी अनिष्ट की शंका उन्हें हरदम उद्विग्न रखती थी। मेहमानों से तो कांपते रहते थे; पर अपने आदमियों से जरा-जरा-सी बात पर बिगड़ जाते थे, जो मुंह में आता, बक डालते थे।

अगर शांति थी तो अंग्रेजी कैंप में। न नौकरों की तकरार थी, न बाजारवालों से जूती-पैजार थी। सबकी चाय का एक समय, डिनर का एक समय, विश्राम का एक समय, मनोरंजन का एक समय। सब एक साथ थियेटर देखते, एक साथ हवा खाने जाते। न बाहर गंदगी थी, न मन में मलिनता। नरेशों के कैंप में पराधीनता का राज्य था और अंग्रेजी कैंप में स्वाधीनता का। स्वाधीनता सद्गुणों को जगाती है, पराधीनता दुर्गुणों को।

उधर रनिवास में भी खूब जमघट था। महिलाओं का रंग-रूप देखकर आंखों में चकाचौंध हो जाती थी। रत्न और कंचन ने उनकी कांति को और भी अलंकृत कर दिया था। कोई पारसी वेश में थी, कोई अंग्रेजी वेश में और कोई अपने ठेठ स्वदेशी ठाट में। युवतियां इधर-उधर चहकती फिरती, प्रौढ़ाएं आंखें मटका रही थीं। वासना उम्र के साथ बढ़ती जाती है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आंखों के सामने था। अंग्रेजी फैशनवालियां औरों को गंवारिनें समझती थीं और गंवारिनें उन्हें कुल्टा कहती थीं। मजा यह था कि सभी महिलाएं ये बातें अपनी महरियों और लौडियों से कहने में भी संकोच न करती थीं। ऐसा मालूम होता था कि ईश्वर ने स्त्रियों को निंदा और परिहास के लिए ही रचा है। मन और तन में कितना अंतर हो सकता है, इसका कुछ अनुमान हो जाता था। मनोरमा को महिलाओं के सेवा-सत्कार का भार सौंपा गया था; किंतु उसे यह चरित्र देखने में विशेष आनंद आता था। उसे उनके पास बैठने में घृणा होती थी। हां, जब रानी रामप्रिया को बैठे देखती, तो उनके पास जा बैठती। इतने कांच के टुकड़ों में उसे वही एक रत्न नजर आता था।

मेहमानों के आदर-सत्कार की तो यह धूम थी और वे मजदूर, जो छाती फाड़-फाड़कर काम कर रहे थे, भूखों मरते थे। कोई उनकी खबर तक न लेता था। काम लेने को सब थे, पर भोजन के लिए पूछने वाला कोई न था। चमार पहर रात रहे, घास छीलने जाते, मेहतर पहर रात से सफाई करने लगते, कहार पहर रात से पानी खींचना शुरू करते; मगर कोई उनका पुरसांहाल न था। चपरासी बात-बात पर उन्हें गालियां सुनाते, क्योंकि उन्हें खुद बात-बात पर डांट पड़ती थी। चपरासी सहते थे, क्योंकि उन्हें दूसरों पर अपना गुस्सा उतारने का मौका मिल जाता था। बेगारों से न सहा जाता था, इसीलिए कि उनकी आंतें जलती थीं। दिन भर धूप में जलते, रात भर क्षुधा की आग में। रानी के समय में बेगार इससे भी ज्यादा ली जाती थी, लेकिन रानी को स्वयं खिलाने-पिलाने का खयाल रहता था। बेचारे अब उन दिनों को याद कर-करके रोते थे। क्या सोचते थे, क्या हुआ? असंतोष बढ़ा जाता था। न जाने कब सबके-सब जान पर खेल जाएं, हड़ताल कर दें, न जाने कब बारूद में चिनगारी पड़ जाए, दशा ऐसी भयंकर हो गई थी। राजा साहब को नरेशों ही की खातिरदारी से फुर्सत न मिलती थी, यह सत्य है; किंतु राजा के लिए ऐसे बहाने शोभा नहीं देते। उसकी निगाह चारों तरफ दौड़नी चाहिए। अगर उसमें इतनी योग्यता नहीं, तो उसे राज्य करने का कोई अधिकार नहीं।

संध्या का समय था। चारों तरफ चहल-पहल मची हुई थी। तिलक का मुहूर्त निकट आ गया था। हवन की तैयारियां हो रही थीं। सिपाहियों को वर्दी पहनकर खड़े हो जाने की आज्ञा दे दी गई थी कि सहसा मजदूरों के बाड़े से रोने-चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। किसी कैंप में घास न थी और ठाकुर हरिसेवक हंटर लिए हुए चमारों को पीट रहे थे। मुंशी वज्रधर की आंखें मारे क्रोध के लाल हो रही थीं। कितना अनर्थ है ! सारा दिन गुजर गया और अभी तक किसी कैंप में घास नहीं पहुंची ! चमारों का यह हौसला ! ऐसे बदमाशों को गोली मार देनी चाहिए।

एक चमार बोला-मालिक, आपको अख्तियार है। मार डालिए, मुदा पेट बांधकर काम नहीं होता।

चौधरी ने हाथ बांधकर कहा-हुजूर, घास तो रात ही को पहुंचा दी गई थी, मैं आप जाकर रखवा आया था। हां, इस बेला अभी नहीं पहुंची। आधे आदमी तो मांदे पड़े हुए हैं, क्या करूं?

मुंशी-बदमाश ! झूठ बोलता है, सूअर, डैम फूल, ब्लाडी, रैस्केल, शैतान का बच्चा, अभी पोलो खेल होगा, घोड़े बिना खाए कैसे दौड़ेंगे?

एक युवक ने कहा-हम लोग तो बिना खाए आठ दिन से घास दे रहे हैं, घोड़े क्या, बिना खाए एक दिन भी न दौड़ेंगे? क्या हम घोड़े से भी गए-गुजरे हैं?

चौधरी डंडा लेकर युवक को मारने दौड़ा; पर उसके पहले ही ठाकुर साहब ने झपटकर उसे चार-पांच हंटर सड़ाप-सड़ाप लगा दिए। नंगी देह, चमड़ा फट गया, खून निकल आया।

चौधरी ने युवक और ठाकुर साहब के बीच खड़े होकर कहा-हुजूर, क्या मार ही डालेंगे? लड़का है, कुछ अनुचित मुंह से निकल जाए तो क्षमा करनी चाहिए। राजा को दयावान होना चाहिए।

ठाकुर साहब आपे से बाहर हो रहे थे! एक चमार का यह हौसला कि उनके सामने मुंह खोल सके। वही हंटर तानकर चौधरी को जमाया। बूढ़ा आदमी, उस पर कई दिन का भूखा, खड़ा भी मुश्किल से हो सकता था। हंटर पड़ते ही जमीन पर गिर पड़ा। बाड़े में हलचल पड़ गई। हजारों आदमी जमा हो गए। कितने ही चमारों ने मारे डर के खुरपी और रस्सी उठा ली थी और घास छीलने जा रहे थे। चौधरी पर हंटर पड़ते देखा, तो रस्सी-खुरपी फेंक दी और आकर चौधरी को उठाने लगे।

ठाकुर साहब ने तड़पकर कहा-तुम सब अभी एक घंटे में घास लाओ, नहीं तो एक-एक की हड्डी तोड़ दी जाएगी।

एक चमार बोला-हम यहां काम करने आए हैं, जान देने नहीं आए हैं। एक तो भूखों मरें, दूसरे लात खाएं। हमारा जन्म इसीलिए थोड़े ही हुआ है? जिससे चाहे काम कराइए: हम घर जाते हैं।

ठाकुर साहब फिर हंटर फटकारकर बोले-कहाँ भागकर जाओगे? गांव में घुसने भी न पाओगे। क्या सरकारी काम को हंसी-खेल समझ लिया है?

चमार-सरकार, अपना गांव ले लें, हम छोड़कर चले जाएंगे।

ठाकुर-खेत छीन लिए जाएंगे। घर गिरा दिए जाएंगे। इस फेर में मत रहना।

चमार-आपको अख्तियार है, जो चाहे करें। हमें अब इस राज्य में नहीं रहना है। कुछ हाथ-पांव थोड़े ही कटाए बैठे हैं। अगर कहीं ठिकाना न लगेगा, तो मिरिच डमरा तो हैं ही।

मुंशी-जिसने बाड़े के बाहर कदम रखा, उसकी शामत आई। तोप पर उड़ा दूंगा।

लेकिन चमारों के सिर पर भूत सवार था। बूढ़े चौधरी को उठाकर सबके सब एक गोल में बाड़े के द्वार की ओर चले। सिपाहियों की कवायद हो रही थी। ठाकुर साहब ने खबर भेजी और बात-की बात में उन सबने आकर बाड़े का द्वार रोक लिया। सभी कैंपों में खलबली पड़ गई। तरह-तरह की अफवाहें उड़ने लगीं। किसी ने कहा-चमारों ने दीवान साहब को मार डाला। किसी ने उडाया-सिपाहियों ने गोली चला दी और पचास चमार जान से मारे गए। चारों तरफ से दौड़-दौड़कर लोग तमाशा देखने आने लगे। बाड़े का द्वार भेड़ों के बाड़े का द्वार बना हुआ था। भीतर भेड़ें थीं, घबराई हुईं। बाहर कुत्ते थे, झल्लाए हुए। भेड़ें लड़ना नहीं जानती; पर प्राण भय से भागना जानती हैं। वे उसी रास्ते से निकलेंगी, जो आंखों के सामने है। उस पर कुत्ते हों या शेर, घबराहट में भेड़ों को कुछ नहीं सूझता। सिपाहियों को अपनी वीरता दिखाने का ऐसा अवसर क्यों कभी मिला था ! निहत्थों पर हथियार चलाने से आसान और क्या है? सभी संगीन चढ़ाए तैयार थे कि हुक्म मिले और अपनी निशानेबाजी के जौहर दिखाएं।

राजा साहब अपने खेमे में तिलक के भड़कीले-सजीले वस्त्र धारण कर रहे थे। एक आदमी उनकी पाग संवार रहा था। इन वस्त्रों में उनकी प्रतिभा भी चमक उठी थी। वस्त्रों में तेज बढ़ानेवाली इतनी शक्ति है, इसकी उन्हें कभी कल्पना भी न थी। यह खबर सुनी, तो तिलमिला गए। वह अपनी समझ में प्रजा के सच्चे भक्त थे, उन पर कोई अत्याचार न होने देते थे, उनको लूटना नहीं, उनका पालन करना चाहते थे। जब वह प्रजा पर इतना प्राण देते थे, तो क्या प्रजा का धर्म न था कि वह भी उन पर प्राण देती; और फिर शुभ अवसर पर ! जो लोग इतने कृतघ्न हैं, उन पर किसी तरह की रियायत करना व्यर्थ है। दयालुता दो प्रकार की होती है-एक में नम्रता होती है, दूसरी में आत्मप्रशंसा। राजा साहब की दयालुता इसी प्रकार की थी। उन्हें यश की बड़ी इच्छा थी; पर यहां इस शुभ अवसर पर इतने राजाओं-रईसों के सामने ये दुष्ट लोग उनका अपमान करने पर तुले हुए थे। यह उन पाजियों की घोर नीचता थी और उसका जवाब इसके सिवा और कुछ नहीं था कि उन्हें खूब कुचल दिया जाता। सच है, सीधे का मुंह कुत्ता चाटता है। मैं जितना ही इन लोगों को संतुष्ट रखना चाहता हूँ, उतने ही ये शेर हो जाते हैं। चलकर अभी उन्हें इसका मजा चखाता हूँ। क्रोध से बावले होकर वह अपनी बंदूक लिए खेमे से निकल आए और कई आदमियों के साथ बाड़े के द्वार पर आ पहुंचे।

चौधरी इतनी देर में झाड़-पोंछकर उठ बैठा था। राजा को देखते ही रोकर बोला-दुहाई है महाराज की! सरकार, बड़ा अंधेर हो रहा है। गरीब लोग मारे जाते हैं।

राजा-तुम सब पहले बाड़े के द्वार से हट जाओ, फिर जो कुछ कहना है, मुझसे कहो। अगर किसी ने बाड़े के बाहर पांव रखा, तो जान से मारा जाएगा। दंगा किया, तो तुम्हारी जान की खैरियत नहीं।

चौधरी-सरकार ने हमको काम करने के लिए बुलाया है कि जान लेने के लिए?

राजा-काम न करोगे, तो जान ली जाएगी।

चौधरी-काम तो आपका करें, खाने किसके घर जाएं?

राजा-क्या बेहूदा बातें करता है, चुप रहो। तुम सबके-सब मुझे बदनाम करना चाहते हो। हमेशा से लात खाते आए हो और वही तुम्हें अच्छा लगता है। मैंने तुम्हारे साथ भलमनसी का बर्ताव करना चाहा था, लेकिन मालूम हो गया कि लातों के देवता बातों से नहीं मानते। तुम नीच हो और नीच लातों के बगैर सीधा नहीं होता। तुम्हारी यही मर्जी है, तो यही सही।

चौधरी-जब लात खाते थे, तब खाते थे, अब न खाएंगे।

राजा-क्यों? अब कौन सुरखाब के पर लग गए हैं?

चौधरी-वह समय ही लद गया है। क्या अब हमारी पीठ पर कोई नहीं कि मार खाते रहें और मुंह न खोलें? अब तो सेवा समिति हमारी पीठ पर है। क्या वह कुछ भी न्याय न करेगी? हमारी राय से मेंबर चुने जाते हैं, क्या कोई हमारी फरियाद न सुनेगा?

राजा-अच्छा? तो तुझे सेवा-समिति वालों का घमंड है?

चौधरी-हई है, वह हमारी रक्षा करती है, तो क्यों न उसका घमंड करें?

राजा साहब होंठ चबाने लगे-तो यह समिति वालों की कारस्तानी है। चक्रधर मेरे साथ कपट चाल चल रहे हैं, लाला चक्रधर ! जिसका बाप मेरी खुशामद की रोटियां खाता है। जिसे मित्र समझता था वही आस्तीन का सांप निकला। देखता हूँ, वह मेरा क्या कर लेता है। एक रुक्का बड़े साहब के नाम लिख दूं, तो बचा के होश ठीक हो जाएं। इन मुखों के सिर से यह घमंड निकाल ही देना चाहिए। यह जहरीले कीड़े फैल गए तो आफत मचा देंगे।

चौधरी तो ये बातें कर रहा था, उधर बाड़े में घोर कोलाहल मचा हुआ था। सरकारी आदमियों की सूरत देखकर जिनके प्राण-पखेरू उड़ जाते थे, वे इस समय नि:शंक और निर्भय बंदूकों के सामने मरने को तैयार खड़े थे। द्वार से निकलने का रास्ता न पाकर कुछ आदमियों ने बाड़े की लकड़ियां और रस्सियां काट डाली और हजारों आदमी उधर से भड़भड़ाकर निकल पड़े, मानो कोई उमड़ी हुई नदी बांध तोड़कर निकल पड़े। उसी वक्त एक ओर सशस्त्र पुलिस के जवान और दूसरी ओर से चक्रधर, समिति के कई युवकों के साथ आते हुए दिखाई दिए। चक्रधर ने निश्चय कर लिया था कि राजा साहब के आदमियों को उनके हाल पर छोड़ देंगे, लेकिन यहां की खबरें सुन-सुनकर उनके कलेजे पर सांप-सा लोटता रहता था। ऐसे नाजुक मौके पर खड़े होकर तमाशा देखना उन्हें लज्जाजनक मालूम होता था ! अब तक तो दूर ही से, आदमियों को दिलासा देते रहे, लेकिन आज की खबरों ने उन्हें आने के लिए मजबूर कर दिया।

उन्हें देखते ही हड़तालियों में जान-सी पड़ गई। जैसे अबोध बालक अपनी माता को देखकर शेर हो जाए । हजारों आदमियों ने घेर लिया।

‘भैया आ गए ! भैया आ गए !’ की ध्वनि से आकाश गूंज उठा।

चक्रधर को यहां की स्थिति उससे कहीं भयावह जान पड़ी, जितना उन्होंने समझा था। राजा साहब को यह जिद कि कोई आदमी यहां से जाने न पाए। आदमियों को यह जिद कि अब हम यहां एक क्षण भी न रहेंगे। सशस्त्र पुलिस सामने तैयार। सबसे बड़ी बात यह कि मुंशी वज्रधर खुद एक बंदूक लिए पैंतरे बदल रहे थे, मानो सारे आदमियों को कच्चा ही खा जाएंगे।

चक्रधर ने ऊंची आवाज से कहा-क्यों भाइयो, तुम मुझे अपना मित्र समझते हो या शत्रु?

चौधरी-भैया, यह भी कोई पूछने की बात है। तुम हमारे मालिक हो, स्वामी हो, सहायक हो! क्या आज तुम्हें पहली ही बार देखा है?

चक्रधर-तो तुम्हें विश्वास है कि मैं जो कुछ कहूँगा और करूंगा, वह तुम्हारे ही भले के लिए होगा?

चौधरी-मालिक, तुम्हारे ऊपर विश्वास न करेंगे, तो और किस पर करेंगे? लेकिन इतना समझ लीजिए कि हम और सब कर सकते हैं, यहां नहीं रह सकते। यह देखिए (पीठ दिखाकर), कोड़े खाकर यहां किसी तरह न रहूँगा।

चक्रधर इस भीड़ से निकलकर सीधे राजा साहब के पास आए और बोले-महाराज, मैं आपसे कुछ विनय करना चाहता हूँ।

राजा साहब ने त्यौरियां बदलकर कहा-मैं इस वक्त कुछ नहीं सुनना चाहता।

चक्रधर-आप कुछ न सुनेंगे, तो पछताएंगे।

राजा-मैं इन सबों को गोली मार दूंगा।

चक्रधर-दीन प्रजा के रक्त से राजतिलक लगाना किसी राजा के लिए मंगलकारी नहीं हो सकता। प्रजा का आशीर्वाद ही राज्य की सबसे बड़ी शक्ति है। मैं आपका सेवक हूँ, आपका शुभचिंतक हूँ। इसीलिए आपकी सेवा में आया हूँ। मुझे मालूम है कि आपके हृदय में कितनी दया है और प्रजा से आपको कितना स्नेह है। यह सारा तूफान अयोग्य कर्मचारियों का खड़ा किया हुआ है। उन्हीं के कारण आज आप उन लोगों के रक्त के प्यासे बन गए हैं, जो आपकी दया और कृपा के प्यासे हैं। ये सभी आदमी इस वक्त झल्लाए हुए हैं। गोली चलाकर आप उनके प्राण ले सकते हैं, लेकिन उनका रक्त केवल इसी बाड़े में न सूखेगा, यह सारा विस्तृत कैंप उस रक्त से सिंच जाए गा; उसकी लहरों के झोंके से यह विशाल मंडप उखड़ जाएगा और यह आकाश में फहराती हुई ध्वजा भूमि पर गिर पड़ेगी। अभिषेक का दिन दान और दया का है, रक्तपात का नहीं। इस शुभ अवसर पर एक हत्या भी हुई, तो वह सहस्रों रूप धारण करके ऐसा भयंकर अभिनय दिखाएगी कि सारी रियासत में हाहाकार मच जाएगा।

राजा साहब अपनी टेक पर अड़ना जानते थे; किंतु इस समय उनका दिल कांप उठा। वही प्राणी, जो दिन भर गालियां बकता था, प्रात:काल कोई मिथ्या शब्द मुंह से नहीं निकलने देता। वही दुकानदार, जो दिन भर टेनी मारता है, प्रात:काल ग्राहक से मेलजोल तक नहीं करता। शुभ मुहूर्त पर हमारी मनोवृत्तियां धार्मिक हो जाती हैं। राजा साहब कुछ नरम होकर बोले-मैं खुद नहीं चाहता कि मेरी तरफ से किसी पर अत्याचार किया जाए ; लेकिन इसके साथ ही यह भी नहीं चाहता कि प्रजा मेरे सिर पर चढ़ जाए । इन लोगों की अगर कोई शिकायत थी, तो उन्हें आकर मुझसे कहना चाहिए था। अगर मैं न सुनता, तो इन्हें अख्तियार था, जो चाहते करते; पर मुझसे न कहकर इन लोगों ने हेकड़ी करनी शुरू की, रात घोड़ों को घास नहीं दी और इस वक्त भागे जाते हैं। मैं यह घोर अपमान नहीं सह सकता।

चक्रधर-आपने इन लोगों को अपने पास आने का अवसर कब दिया? आपके द्वारपाल इन्हें दूर ही से भगा देते थे। आपको मालूम है कि इन गरीबों को एक सप्ताह से कुछ भोजन नहीं मिला?

राजा-एक सप्ताह से भोजन नहीं मिला ! यह आप क्या कहते हैं? मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि हर मजदूर को इच्छापूर्ण भोजन दिया जाए । क्यों दीवान साहब, क्या बात है?

हरिसेवक-धर्मावतार, आप इन महाशय की बातों में न आइए। यह सारी आग इन्हीं की लगाई हुई है। प्रजा को बहकाना और भड़काना इन लोगों ने अपना धर्म बना रखा है। यहां हर एक आदमी को दोनों वक्त भोजन दिया जाता था।

मुंशी-दीनबन्धु, यह लड़का बिल्कुल नासमझ है। दूसरों ने जो कुछ कह दिया उसे सच समझ लेता है। तुमसे किसने कहा बेटा, कि आदमियों को भोजन नहीं मिलता था? भंडारी तो मैं हूँ, मेरे सामने जिन्स तौली जाती थी। मैं पूछ-पूछकर देता था। बारातियों की भी कोई इतनी खातिर न करता होगा। इतनी बात भी न जानता, तो तहसीलदारी क्या खाक करता?

राजा-मैं इसकी पूछताछ करूंगा।

हरिसेवक-हुजूर, इन्हीं लोगों ने आदमियों को उभारकर सरकश बना दिया है। ये लोग सबसे कहते फिरते हैं कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बराबर बनाया है, किसी को तुम्हारे ऊपर राज्य करने का अधिकार नहीं है, किसी को तुमसे बेगार लेने का अधिकार नहीं। प्रजा ऐसी बातें सुन-सुनकर शेर हो गई है।

राजा-इन बातों में तो मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती। मैं खुद प्रजा से यही बातें कहना चाहता हूँ।

हरिसेवक-हुजूर, ये लोग कहते हैं, जमीन के मालिक तुम हो। जो जमीन से बीज उगाए, वही उसका मालिक है। राजा तो तुम्हारा गुलाम है।

राजा-बहुत ठीक कहते हैं। इसमें मुझे तो बिगड़ने की कोई बात नहीं मालूम होती। वास्तव में मैं प्रजा का गुलाम हूँ, बल्कि उसके गुलाम का गुलाम हूँ।

हरिसेवक-हुजूर, इन लोगों की बातें कहाँ तक कहूँ। कहते हैं, राजा को इतने बड़े महल में रहने का कोई हक नहीं। उसका संसार में कोई काम नहीं।

राजा-बहुत ही ठीक कहते हैं। आखिर मैं पड़े-पड़े खाने के सिवा और क्या करता हूँ।

चक्रधर ने झुंझलाकर कहा-ठाकुर साहब, आप मेरे स्वामी हैं, लेकिन झमा कीजिए, आप मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रहे हैं। मैंने प्रजा को उनके अधिकार अवश्य समझाए हैं, लेकिन यह कभी नहीं कहा कि राजा को संसार में रहने का कोई हक नहीं, क्योंकि मैं जानता हूँ, जिस दिन राजाओं की जरूरत न रहेगी, उस दिन उनका अंत हो जाएगा। देश में उसी की राज्य व्यवस्था होती है, जिसका अधिकार होता है।

राजा-मैं तो बुरा नहीं मानता, जरा भी नहीं। आपने कोई ऐसी बात नहीं कही, जो और लोग न कहते हों। वास्तव में जो राजा प्रजा के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन न करे उसका जीवन व्यर्थ है।

चक्रधर को मालूम हुआ कि राजा साहब मुझे बना रहे हैं। यह अवसर मजाक का न था। हजारों आदमी सांस बंद किए हुए सुन रहे थे कि ये लोग क्या फैसला करते हैं और यहां उन लोगों को मजाक सूझ रहा है। गरम होकर बोले-अगर आपके ये भाव सच्चे होते, तो प्रजा पर यह विपत्ति ही न आती। राजाओं की यह पुरानी नीति है कि प्रजा का मन मीठी-मीठी बातों से भरे और अपने कर्मचारियों को मनमाने अत्याचार करने दें। वह राजा, जिसके कानों तक प्रजा की पुकार न पहुँचने पाए, आदर्श नहीं कहा जा सकता।

राजा-किसी तरह नहीं। उसे गोली मार देनी चाहिए। जीता चुनवा देना चाहिए। प्रजा का गुलाम है कि दिल्लगी है।

चक्रधर यह व्यंग्य न सह सके। उनकी स्वाभाविक सहन-शक्ति ने उनका साथ छोड़ दिया। चेहरा तमतमा उठा। बोले-जिस आदर्श के सामने आपको सर झुकाना चाहिए, उसका मजाक उड़ाना आपको शोभा नहीं देता। समाज की यह व्यवस्था अब थोड़े ही दिनों की मेहमान है और वह समय आ रहा है, जब या तो राजा प्रजा का सेवक होगा या होगा ही नहीं। मैंने कभी यह अनुमान न किया था कि आपके वचन और कर्म में इतनी जल्दी इतना बड़ा भेद हो जाएगा।

क्रोध ने अब अपना यथार्थ रूप धारण किया। राजा साहब अभी तक तो व्यंग्यों से चक्रधर को परास्त करना चाहते थे, लेकिन जब चक्रधर के वार मर्मस्थल पर पड़ने लगे, तो उन्हें भी अपने शस्त्र निकालने पड़े। डपटकर बोले-अच्छा, बाबूजी, अब अपनी जबान बंद करो। मैं जितनी ही तरह देता जाता हूँ, उतने ही आप सिर पर चढ़े जाते हैं। मित्रता के नाते जितना सह सकता था, उतना सह चुका। अब नहीं सह सकता। मैं प्रजा का गुलाम नहीं हूँ। प्रजा मेरे पैरों की धूल है। मुझे अधिकार है कि उसके साथ जैसा उचित समझूं, वैसा सलूक करूं। किसी को हमारे और हमारी प्रजा के बीच में बोलने का हक नहीं। आप अब कृपा करके यहां से चले जाइए और फिर कभी मेरी रियासत में कदम न रखिएगा; वरना शायद आपको पछताना पड़े। जाइए।

मुंशी वज्रधर की छाती धक-धक् करने लगी। चक्रधर को हाथों से पीछे हटाकर बोले-हुजूर की कृपा-दृष्टि ने इसे शोख कर दिया है। अभी तक बड़े आदमियों की सोहबत में बैठने का मौका तो मिला नहीं, बात करने की तमीज कहाँ से आए।

लेकिन चक्रधर भी जवान आदमी थे, उस पर सिद्धांतों के पक्के, आदर्श पर मिटनेवाले, अधिकार और प्रभुत्व के जानी दुश्मन। वह राजा साहब के उदंड शब्दों से जरा भी प्रभावित न हुए। यह उस सिंह की गरज थी, जिनके दांत और पंजे टूट गए हों। यह उस रस्सी की ऐंठन थी, जो जल गई हो। तने हुए सामने आए और बोले-आपको अपने मुख से ये शब्द निकालते हुए शर्म आनी चाहिए थी। अगर संपत्ति से इतना पतन हो सकता है तो मैं कहूँगा कि इससे बुरी चीज संसार में कोई नहीं। आपके भाव कितने पवित्र थे! कितने ऊंचे! आप प्रजा पर अपने को अर्पण कर देना चाहते थे। आप कहते थे, मैं प्रजा को अपने पास बे-रोकटोक आने दूंगा, उनके लिए मेरे द्वार हरदम खुले रहेंगे। आप कहते थे, मेरे कर्मचारी उनकी ओर टेढ़ी निगाह से भी देखेंगे, तो उनकी शामत आ जाएगी। वे सारी बातें क्या आपको भूल गईं? और इतनी जल्द? अभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे। अब आप कहते हैं, प्रजा मेरे पैरों की धूल है। ईश्वर आपको सुबुद्धि दे!

राजा साहब कहाँ तो क्रोध से उन्मत्त हो रहे थे, कहाँ यह लगती हुई बात सुनकर रो पड़े। क्रोध निरुत्तर होकर पानी हो जाता है या यों कहिए कि आंसू अव्यक्त भावों ही का रूप है। ग्लानि थी या पश्चात्ताप; अपनी दुर्बलता का दुःख था या विवशता का; या इस बात का रंज था कि यह दुष्ट मेरा इतना अपमान कर रहा है और मैं कुछ नहीं कर सकता-इसका निर्णय करना कठिन है।

मगर एक ही क्षण में राजा साहब सचेत हो गए। प्रभुता ने आंसुओं को दबा दिया। अकड़कर बोले-मैं कहता हूँ, यहां से चले जाओ!

हरिसेवक-आपको शर्म नहीं आती कि किस से ऐसी बातें कर रहे हैं?

वज्रधर-बेटा, क्यों मेरे मुंह में कालिख लगा रहे हो?

चक्रधर-जब तक आप इन आदमियों को जाने न देंगे, मैं नहीं जा सकता।

राजा-मेरे आदमियों से तुम्हें कोई सरोकार नहीं है। उनमें से अगर एक भी हिला, तो उसकी लाश जमीन पर होगी।

चक्रधर-तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि उन्हें यहां से हटा ले जाऊं। यह कहकर चक्रधर मजदूरों की ओर चले। राजा साहब जानते थे कि इनका इशारा पाते ही सारे मजदूर हवा हो जाएंगे, फिर सशस्त्र सेना भी उन्हें न रोक सकेगी। तिल-मिलाकर बंदूक लिए हुए चक्रधर के पीछे दौड़े और ऐसे जोर से उन पर कुंदा चलाया कि सिर पर लगता तो शायद वहीं ठंडे हो जाते। मगर कुशल हुई। कुंदा पीठ में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कई हाथ पर जा गिरे। उनका जमीन पर गिरना था कि पांच हजार आदमी बाड़े को तोड़कर, सशस्त्र सिपाहियों को चीरते, बाहर निकल आए और नरेशों के कैंप की ओर चले। रास्ते में जो कर्मचारी मिला उसे पीटा। मालूम होता था, कैंप में लूट मच गई है। दुकानदार अपनी दुकानें समेटने लगे। दर्शकगण अपनी धोतियां संभालकर भागने लगे। चारों तरफ भगदड़ पड़ गई। जितने बेफिक्रे, शोहदे, लच्चे तमाशा देखने आए थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गए। यहां तक कि नरेशों के कैंप तक पहुँचते-पहुँचते उनकी संख्या दूनी हो गई।

राजा-रईस अपनी वासनाओं के सिवा और किसी के गुलाम नहीं होते। वक्त की गुलामी भी उन्हें पसंद नहीं। वे किसी नियम को अपनी स्वेच्छा में बाधा नहीं डालने देते। फिर उनको इसकी क्या परवा कि सुबह है या शाम। कोई मीठी नींद के मजे लेता था, कोई गाना सुनता था, कोई स्नानध्यान में मग्न था और कुछ लोग तिलक-मंडप जाने की तैयारियां कर रहे थे। कहीं भंग घुटती थी, कहीं कवित्त-चर्चा हो रही थी और कहीं नाच हो रहा था। कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चंपी करा रहा था। उत्तरदायित्वहीन स्वतंत्रता अपनी विविध लीलाएं दिखा रही थी। अगर उपद्रवी इस कैंप में पहुँच जाते, तो महाअनर्थ हो जाता। न जाने कितने राजवंशों का अंत हो जाता। किंतु राजाओं की रक्षा उनका इकबाल करता है ! अंग्रेजी कैंप में दस-बारह आदमी अभी शिकार खेलकर लौटे थे। उन्होंने जो यह हंगामा सुना, तो बाहर निकल आए और जनता पर अंधाधुंध बंदूकें छोड़ने लगे। पहले तो उत्तेजित जनता ने बंदूकों की परवाह न की, उसे अपनी संख्या का बल था। लोग सोचते थे, मरते-मरते हममें से इतने आदमी कैंप में पहुँच जाएंगे कि नरेशों को कहीं भागने की भी जगह न मिलेगी। हम सारे प्रांत को इन अत्याचारियों से मुक्त कर देंगे! ये सब भी तो अपनी प्रजा पर ऐसा ही अत्याचार करते होंगे।

जनता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है। गोलियों की पहली बाढ़ आई। कई आदमी गिर गए।

चौधरी-देखो भाई, घबराना नहीं। जो गिरता है, उसे गिरने दो; आज ही तो दिल के हौसले निकले हैं। जय हनुमानजी की!

एक मजदूर-बढ़े आओ, बढ़े आओ, अब मार लिया है। आज ही तो—

उसके मुंह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आई और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गई। एक क्षण के लिए सबके पैर रुक गए। जो जहां था, वहीं खड़ा रह गया। समस्या थी कि आगे जाएंया पीछे? सहसा एक युवक ने कहा-मारो, रुक क्यों गए? सामने पहुँचकर हिम्मत छोड़ देते हो! बढ़े चलो। जय दुर्गामाई की!

दूसरा बोला-आज जो मरेगा, वह बैकुण्ठ में जाएगा। बोलो हनुमान जी की जय! उसे भी गोली लगी और चक्कर खाकर गिर पड़ा।

इतने में दीवान साहब बंदूक लिए पीछे दौड़ते हुए आ पहुंचे। गुरुसेवक भी उनके साथ थे। दोनों एक दूसरे रास्ते से कैंप के द्वार पर पहुँच गए थे।

हरिसेवक-तुम मेरे पीछे खड़े हो जाओ और यहीं से निशाना लगाओ।

गुरुसेवक-अभी फैर न कीजिए। मैं जरा इन्हें समझा लूं। समझाने से काम निकल जाए, तो रक्त क्यों बहाया जाए?

हरिसेवक-अब समझाने का मौका नहीं है। अभी दम के दम में सबके-सब अंदर घुस आएंगे, तो प्रलय हो जाएगी।

किंतु गुरुसेवक के हृदय में दया थी। पिता की बात न मानकर वह सामने आ गए और ललकारकर बोले-तुम लोग यहां क्यों आ रहे हो? यह न समझो कि तुम कैंप के द्वार पर पहुँच गए हो। यहां आते-आते तुम आधे हो जाओगे।

एक मजदूर-कोई चिंता नहीं। मर-मरकर जीने से एक बार मर जाना अच्छा है। मारो, आगे बढ़ो, क्या हिम्मत छोड़ देते हो?

गुरुसेवक-आगे एक कदम भी रखा और गिरे। यह समझ लो कि तुम्हारे आगे मौत खड़ी है।

मजदूर-हम आज मरने के लिए कमर बांधकर….

अंग्रेजी कैंप से फिर गोलियों की बाढ़ आई और कई आदमियों के साथ यह आदमी भी गिर गया, और उसके गिरते ही सारे समूह में खलबली पड़ गई। अभी तक इन लोगों को न मालूम था कि गोलियां किधर से आ रही हैं। समझ रहे थे कि इसी कैंप से आती होंगी। अब शिकारी लोग बढ़ आए थे और साफ नजर आ रहे थे।

एक चमार बोला-साहब लोग गोली चला रहे हैं।

दूसरा-गोरों की फौज है, फौज।

तीसरा-चलो उन्हीं सबों को पथें? मुर्गी के अंडे खा-खाकर खूब मोटाए हुए हैं।

चौथा-यही सब तो राजाओं को बिगाड़े हुए हैं। दो शिकार भी मिल गए, तो मेहनत सफल हो जाएगी।

लेकिन कायरों की हिम्मत टूटने लगी थी। लोग चुपके-चुपके दाएं-बाएं से सरकने लगे थे। यहां प्राण देने से बाजार में लूट मचाना कहीं आसान था। देखते-देखते पीछे के सभी आदमी खिसक गए। केवल आगे के लोग खड़े रह गए थे। उन्हें क्या खबर थी कि पीछे क्या हो रहा है। वे अंग्रेजों के कैंप की तरफ मुड़े और एक ही हल्ले में अंग्रेजी कैंप के फाटक तक आ पहुंचे। अब तो यहां भी भगदड़ पड़ी। एक ओर नरेशों के कैंप से मोटरें निकल-निकलकर पीछे की ओर से दौड़ती चली आ रही थीं। इधर अंग्रेजी कैंप से मोटरों का निकलना शुरू हुआ। एक क्षण में सारी लेडियां गायब हो गईं। मर्दो में भी आधे से ज्यादा निकल भागे। केवल वही लोग रह गए, जो मोरचे पर खड़े थे और जिनके लिए भागना मौत के मुंह में जाना था; मगर उन सबों के हाथों में मार्टिन और मॉजर के यंत्र थे। इधर ईश्वर की दी हुई लाठियां थीं; या जमीन से चुने हुए पत्थर। यद्यपि हड़तालियों का दल एक ही हल्ले में इस फाटक तक पहुँच गया; पर यहां तक पहुँचते-पहुँचते कोई बीस आदमी गिर पड़े। अगर इस वक्त पचास गज के अंतर पर भी इतने आदमी गिरे होते, तो शायद सबके पैर उखड़ जाते, लेकिन यह विश्वास कि अब मार लिया है, उनके हौसले बढ़ाए हुए था। विजय के सम्मुख पहुँचकर कायर भी वीर हो जाते हैं, घर के समीप पहुँचकर थके हुए पथिक के पैरों में भी पर लग जाते हैं।

इन मनुष्यों के मुख पर इस समय हिंसा झलक रही थी। चेहरे विकृत हो गए थे। जिसने इन्हें इस दशा में न देखा हो, यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि वही दीनता के पुतले हैं, जिन्हें एक काठ की पुतली भी चाहे जो नाच नचा सकती थी। अंग्रेज योद्धा अभी तक तो मोरचे पर खडे बंदूकें छोड़ रहे थे, लेकिन इस भयंकर दल को सामने देखकर उनके औसान जाते रहे। दो-चार तो भागे, दो-तीन मूर्छा खाकर गिर पड़े। केवल पांच फौजी अफसर अपनी जगह पर डटे रहे। उन्हें बचने की कोई आशा न थी और इसी निराशा ने उन्हें अदम्य साहस प्रदान कर दिया था। वे जान पर खेले हुए थे! क्षण-क्षण पर बंदुके चलाते थे मानो बंदुके की कलें हों। जो आगे बढ़ता था, उनके अचूक निशाने का शिकार हो जाता था। इधर ढेले और पत्थरों की वर्षा हो रही थी, जो फाटक तक मुश्किल से पहुँचती थी। अब सामने पहुँचकर लोगों ने आगे बढ़कर पत्थर चलाने शुरू किए। यहां तक कि अंग्रेज चोट खाकर गिर पड़े। एक का सिर फट गया था; दूसरे की बांह टूट गई थी। केवल तीन आदमी रह गए और वही इन आदमियों को रोक रखने के लिए काफी थे। लेकिन उनके पास भी कारतूस न रह गए थे। कठिन समस्या थी। प्राण बचने की कोई आशा नहीं। भागने की कल्पना ही से उन्हें घृणा होती थी। जिन मनुष्यों को हमेशा पैरों से ठुकराया किए, जिन्हें कुली कहते और कुत्तों से भी नीच समझते रहे, उनके सामने पीठ दिखाना ऐसा अपमान था, जिसे वे किसी तरह न सह सकते थे। इधर हड़तालियों के हौसले बढ़ते जाते थे। शिकार, अब बेदम होकर गिरना चाहता था। हिंसा के मुंह से लार टपक रही थी।

एक आदमी ने कहा-हां बहादुरो, बस एक हल्ले की और कसर है; घुस पड़ो। अब कहाँ जाते हैं।

दूसरा बोला-फांसी तो पड़ेगी ही, अब इन्हें क्यों छोड़ें?

सहसा एक आदमी पीछे से भीड़ को चीरता, बेतहाशा दौड़ा हुआ आकर बोला-बस-बस, क्या करते हो ! ईश्वर के लिए हाथ रोको ! क्या गजब करते हो! लोगों ने चकित होकर देखा, तो चक्रधर थे। सैकड़ों आदमी उन्मत्त होकर उनकी ओर दौड़े और उन्हें घेर लिया। जय-जयकार की ध्वनि से आकाश गूंजने लगा।

एक मजदूर ने कहा-हमें अपने एक सौ भाइयों के खून का बदला लेना है।

चक्रधर ने दोनों हाथ उठाकर कहा-कोई एक कदम भी आगे न बढ़े। खबरदार!

मजदूर-यारो, बस एक हल्ला और !

चक्रधर-हम फिर कहते हैं, अब एक कदम भी आगे न उठे। जिले के मैजिस्ट्रेट मिस्टर जिम ने कहा-बाबू साहब, खुदा के लिए हमें बचाइए।

फौज के कप्तान मिस्टर सिम बोले-हम हमेशा आपको दुआ देगा। हम सरकार से आपकी सिफारिश करेगा।

एक मजदूर-हमारे एक सौ जवान भून डाले, तब आप कहाँ थे? यारो, क्या खड़े हो, बाबूजी का क्या बिगड़ा है? मारे तो हम गए हैं न? मारो बढ़के।

चक्रधर ने उपद्रवियों के सामने खड़े होकर कहा-अगर तुम्हें खून की प्यास है, तो मैं हाजिर हूँ। मेरी लाश को पैरों से कुचलकर तुम आगे बढ़ सकते हो।

मजदूर-भैया, हट जाओ, हमने बहुत मार खाई है; बहुत सताए गए हैं, इस वक्त दिल की आग बुझा लेने दो!

चक्रधर-मेरा लहू इस ज्वाला को शांत करने के लिए काफी नहीं है?

मजदूर-भैया, तुम शांत-शांत बका करते हो; लेकिन उसका फल क्या होता है। हमें जो चाहता है, मारता है, जो चाहता है, पीसता है, तो क्या हमीं शांत बैठे रहें? शांत रहने से तो और भी हमारी दुरगत होती है। हमें शांत रहना मत सिखाओ। हमें मारना सिखाओ, तभी हमारा उद्धार कर सकोगे।

चक्रधर-अगर अपनी आत्मा की हत्या करके हमारा उद्धार भी होता हो, तो हम आत्मा की हत्या न करेंगे। संसार को मनुष्य ने नहीं बनाया है, ईश्वर ने बनाया है। भगवान् ने उद्धार के जो उपाय बताए हैं, उनसे काम लो और ईश्वर पर भरोसा रखो।

मजदूर-हमारी फांसी तो हो ही जाएगी। तुम माफी तो न दिला सकोगे।

मिस्टर जिम-हम किसी को सजा न देंगे।

मिस्टर जिम-हम सबको इनाम दिलाएगा।

चक्रधर-इनाम मिले या फांसी, इसकी क्या परवा! अभी तक तुम्हारा दामन खून के छींटों से पाक है; उसे पाक रखो। ईश्वर की निगाह में तुम निर्दोष हो। अब अपने को कलंकित मत करो, जाओ।

मजदूर-अपने भाइयों का खून कभी हमारे सिर से न उतरेगा, लेकिन तुम्हारी यही मर्जी है, तो लौट जाते हैं। आखिर फांसी पर तो चढ़ना ही है।

चक्रधर कुंदे की चोट से कुछ देर तक तो अचेत पड़े रहे थे। जब होश आया, तो देखा कि दाहिनी ओर हड़तालियों का एक दल अंग्रेजी कैंप के द्वार पर खड़ा है, बाईं ओर बाजार लुट रहा है और सशस्त्र पुलिस के सिपाही हड़तालियों के साथ मिले हुए दुकानें लूट रहे हैं और विशाल तिलक-मंडप से अग्नि की ज्वाला उठ रही है। वह उठे और अंग्रेजी कैंप की ओर भागे। वहीं उनके पहुँचने की सबसे ज्यादा जरूरत थी। बाजार में रक्तपात का भय न था। रक्षक स्वयं लुटरे बने हुए थे। उन्हें लूट से कहाँ फुर्सत थी कि हड़तालियों का शिकार करते? अंग्रेजी कैंप में ही स्थिति सबसे भयावह थी। इस नाजुक मौके पर वह न पहुँच जाते, तो किसी अंग्रेज की जान न बचती, सारा कैंप लुट जाता और खेमे राख के ढेर हो जाते। हड़तालियों की रक्षा करनी तो उन्हें बदी न थी; लेकिन विदेशियों को उन्होंने मौत के मुंह से निकाल लिया। एक क्षण में सारा कैंप साफ हो गया। एक भी मजदूर न रह गया।

इन आदमियों के जाते ही वे लोग भी इनके साथ हो लिए; जो पहले लूट के लालच से चले आए थे। जिस तरह पानी आ जाने से कोई मेला उठ जाता है, ग्राहक, दुकानदार और दुकानें सब न जाने कहाँ लुप्त हो जाती हैं, उसी भांति एक क्षण में सारे कैंप में सन्नाटा छा गया। केवल तिलक-मंडल से अभी तक आग की ज्वाला निकल रही थी। राजा साहब और उनके साथ के कुछ गिने-गिनाए आदमी उसके सामने चुपचाप खड़े मानो किसी मृतक की दाह-क्रिया कर रहे हों। बाजार लुटा, गोलियां चलीं, आदमी मक्खियों की तरह मारे गए; पर राजा मंडप के सामने ही खड़े रहे। उन्हें अपनी सारी मनोकामनाएं अग्नि-राशि में भस्म होती हुई मालूम होती थीं।

अंधेरा छा गया था। घायलों के कराहने की आवाजें आ रही थीं। चक्रधर और उनके साथ के युवक उन्हें सावधानी से उठा-उठाकर एक वृक्ष के नीचे जमा कर रहे थे। कई आदमी तो उठाते-ही-उठाते सुरलोक सिधारे। कुछ सेवक उन्हें ले जाने की फिक्र करने लगे। कुछ लोग शेष घायलों की देख-भाल में लगे। रियासत का डॉक्टर सज्जन मनुष्य था। यहां से संदेशा जाते ही आ पहुंचा। उसकी सहायता ने बड़ा काम किया। आकाश पर काली घटा छाई हुई थी। चारों तरफ अंधेरा था। तिलक मंडप की आग भी बुझ चुकी थी। उस अंधकार में ये लोग लालटेन लिए घायलों को अस्पताल ले जा रहे थे।

एकाएक कई सिपाहियों ने आकर चक्रधर को पकड़ लिया और अंग्रेज कैंप की तरफ ले चले। पूछा, तो मालूम हुआ कि जिम साहब का यह हुक्म है। चक्रधर ने सोचा-मैंने ऐसा कोई अपराध तो नहीं किया, जिसका यह दंड हो। फिर यह पकड़-धकड़ क्यों? संभव है, मुझसे कुछ पूछने के लिए बुलाया हो, और ये मूर्ख सिपाही उसका आशय न समझकर मुझे यों पकड़े लिए जाते हों। यह सोचते हुए वह मिस्टर जिम के खेमे में दाखिल हुए।

देखा, तो वहां कचहरी लगी हुई है। सशस्त्र पुलिस के सिपाही, जिन्हें अब लूट से फुर्सत मिल चुकी थी, द्वार पर संगीनें चढ़ाए खड़े थे। अंदर मिस्टर जिम और मिस्टर सिम रौद्र रूप धारण किए सिगार पी रहे थे, मानो क्रोधाग्नि मुंह से निकल रही हो। राजा साहब मिस्टर जिम के बगल में बैठे थे। दीवान साहब क्रोध से आंखें लाल किए मेज पर हाथ रखे कुछ कह रहे थे और मुंशी वज्रधर हाथ बांधे एक कोने में खड़े थे।

चक्रधर को देखते ही मिस्टर जिम ने कहा-राजा साहब कहता है कि यह सब तुम्हारी शरारत है। तुम और तुम्हारा साथी लोग बहुत दिनों से रियासत के आदमियों को भड़का रहा है, और आज भी तुम न आता, तो यह दंगा न मचता।

चक्रधर आवेश में आकर बोले-अगर राजा साहब, आपका ऐसा विचार है, तो इसका मुझे दु:ख है। हम लोग जनता में जागृति अवश्य फैलाते हैं, उनमें शिक्षा का प्रचार करते हैं, उन्हें स्वार्थांध अमलों के फंदों से बचाने का उपाय करते हैं, और उन्हें अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने का उपदेश देते हैं। हम चाहते हैं कि वे मनुष्य बनें और मनुष्यों की भांति संसार में रहें। ये स्वार्थ के दास बनकर कर्मचारियों की खुशामद न करें, भयवश अपमान और अत्याचार न सहें। अगर इसे कोई भड़काना समझता है, तो समझे! हम तो इसे अपना कर्त्तव्य समझते हैं।

जिम-तुम्हारे उपदेश का यह नतीजा देखकर कौन कह सकता है कि तुम उन्हें नहीं भड़काता?

चक्रधर-यहां उन आदमियों पर अत्याचार हो रहा था और उन्हें यहां से चले जाने का या काम न करने का अधिकार था। अगर उन्हें शांति के साथ चले जाने दिया जाता, तो यह नौबत कभी नहीं आती।

राजा-हमें परंपरा से बेगार लेने का अधिकार है और उसे हम नहीं छोड़ सकते। आप आदमियों को बेगार देने से मना करते हैं, और आज के हत्याकांड का सारा भार आपके ऊपर है।

चक्रधर-कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परंपरा से सहते

आए हैं।

जिम-हम तुम्हारे ऊपर बगावत का मुकदमा चलाएगा। तुम dangerous (खतरनाक) आदमी है।

राजा-हुजूर, मैं इनके साथ कोई सख्ती नहीं करना चाहता, केवल यह प्रतिज्ञा लिखाना चाहता हूँ कि यह अथवा इनके सहकारी लोग मेरी रियासत में न जाएं।

चक्रधर-मैं ऐसी प्रतिज्ञा नहीं कर सकता। दीनों पर अत्याचार होते देखकर दूर खड़े रहना वह दशा है, जो हम किसी तरह नहीं सह सकते। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि राजा साहब के विचार मेरे विचारों से पूरे-पूरे मिलते थे। उन्हें अपने विचारों को बदलने के नए कारण हो गए हों, मेरे लिए कोई कारण नहीं।

राजा-मेरे प्रजा-हित के विचारों में कोई अंतर नहीं हुआ है, मैं अब भी प्रजा का सेवक हूँ, लेकिन आप उन्हें राजनीतिक यंत्र बनाना चाहते हैं, और इसी उद्देश्य से आप उनके हितचिंतक बनते हैं। मैं उन्हें राजनीति में नहीं डालना चाहता। आप उनके आत्मसम्मान की रक्षा करते हैं और मैं उनके प्राणों की। बस, आपके और मेरे विचारों में केवल यही अंतर है।

मिस्टर जिम ने सब-इंस्पेक्टर से कहा-इनको हवालात में रखो, कल इजलास पर पेश करो।

वज्रधर ने आगे बढ़कर जिम के पैरों पर पगड़ी रख दी और बोले-हुजूर, यह गुलाम का लड़का है। हुजूर, इसकी जांबख्शी करें। हुजूर का पुराना गुलाम हूँ। जब खुरजे में तहसीलदार था, तब हुजूर से सनद अता फरमाई थी, हुजूर!

मिस्टर जिम-ओ! तहसीलदार साहब, यह तुम्हारा लड़का है? तुमने उसको घर से निकाल क्यों नहीं दिया? सरकार तुमको इसलिए पेंशन नहीं देता कि तुम बागियों को पालो। हम तुम्हारा पेंशन बंद कर देगा। पेंशन इसलिए दिया जाता है कि तुम सरकार का वफादार नौकर बना रहे।

वज्रधर-हुजूर मेरे मालिक हैं। आज इसका कुसूर माफ कर दिया जाए। आज से मैं इसे घर से निकलने ही न दूंगा।

चक्रधर ने पिता को तिरस्कार भाव से देखकर कहा-आप क्यों ऐसी बातों से मुझे लज्जित करते हैं! मिस्टर जिम और राजा साहब मुझे जेल के बाहर भी कैद करना चाहते हैं। मेरे लिए जेल की कैद इस कैद से कहीं आसान है।

वज्रधर-बेटा, मैं अब थोड़े ही दिनों का मेहमान हूँ। मुझे मर जाने दो, फिर तुम्हारे जी में जो आए करना। मैं मना करने न आऊंगा।

हरिसेवक-तहसीलदार साहब, आप व्यर्थ हैरान होते हैं। आपका काम समझा देना है। वह समझदार हैं। अपना भला-बुरा समझ सकते हैं। जब वह खुद आग में कूद रहे हैं, तो आप कब तक उन्हें रोकिएगा?

वज्रधर-मेरी यह अर्ज़ है हुजूर, कि मेरी पेंशन पर रेप न आए।

जिम-तुमको इस मुकदमे में शहादत देना होगा। तुमने अच्छा शहादत दिया, तो तुम्हारा पेंशन बहाल रखा जाएगा।

चक्रधर-लीजिए, आपकी पेंशन बहाल हो गई, केवल मेरे विरुद्ध गवाही भर दे दीजिएगा।

राजा-बाबू चक्रधर, अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। आप प्रतिज्ञा लिखकर शौक से घर जा सकते हैं। मैं आपको तंग नहीं करना चाहता। हां, इतना ही चाहता हूँ कि ऐसे हंगामे न खड़े हों।

चक्रधर-राजा साहब, क्षमा कीजिएगा, जब तक असंतोष के कारण दूर न होंगे, ऐसी दुर्घटनाएं होंगी और फिर होंगी। मुझे आप पकड़ सकते हैं, कैद कर सकते हैं। इससे चाहे आपको शांति हो. पर वह असंतोष अणुमात्र भी कम न होगा, जिससे प्रजा का जीवन असह्य हो गया है। असंतोष को भड़काकर आप प्रजा को शांत नहीं कर सकते। हां, कायर बना सकते हैं। अगर आप उन्हें कर्महीन, बुद्धिहीन, पुरुषार्थहीन मनुष्य का तन धारण करने वाले सियार और सुअर बनाना चाहते हैं, तो बनाइए, पर इससे न आपकी कीर्ति होगी, न ईश्वर प्रसन्न होंगे और न स्वयं आपकी आत्मा ही तुष्ट होगी।

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