चैप्टर 1 सेवासदन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद

Chapter 1 Sevasadan Novel By Munshi Premchand

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पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने नहीं दिया था। यौवनकाल में भी, जब चित्त भोग-विलास के लिए व्याकुल रहता है, उन्होंने निस्पृह भाव से अपना कर्तव्य पालन किया था। लेकिन इतने दिनों के बाद आज वह अपनी सरलता और विवेक पर हाथ मल रहे थे।

उनकी पत्नी गंगाजली सती-साध्वी पुत्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। पर इस समय वह चिंता में डूबी हुई थी। उसे स्वयं संदेह हो रहा था कि जीवन-भर की सच्चरित्रता बिल्कुल व्यर्थ तो नहीं हो गयी।

दारोगा कृष्णचन्द्र रसिक, उदार और बड़े सज्जन पुरुष थे। मातहतों के साथ वह भाईचारे का-सा व्यवहार करते थे, किंतु मातहतों की दृष्टि में उनके इस व्यवहार का कुछ मूल्य न था। वह कहा करते थे कि यहाँ हमारा पेट नहीं भरता, हम उनकी भलमनसी को लेकर क्या करें-चाटें? हमें घुड़की, डांट-डपट, सख्ती सब स्वीकार है, केवल हमारा पेट भरना चाहिए। रूखी रोटियाँ चांदी के थाल में परोसी जायें, वे पूरियाँ न हो जायेंगी।

दारोगाजी के अफसर भी उनसे प्रायः प्रसन्न न रहते। वह दूसरे थाने में जाते, तो उनका बड़ा आदर-सत्कार होता था, उनके अहलमद, मुहर्रिर और अरदली खूब दावतें उड़ाते। अहलमद को नजराना मिलता, अरदली इनाम पाता और अफसरों को नित्य डालियाँ मिलती थीं, पर कृण्णचन्द्र के यहाँ यह आदर-सत्कार कहाँ? वह न दावतें करते थे, न डालियाँ ही लगाते थे। जो किसी से लेता नहीं, वह किसी को देगा कहाँ से? दारोगा कृष्णचन्द्र की इस शुष्कता को लोग अभिमान समझते थे।

लेकिन इतना निर्लोभ होने पर भी दारोगाजी के स्वभाव में किफायत का नाम न था। वह स्वयं तो शौकीन न थे, लेकिन अपने घरवालों को आराम देना अपना कर्तव्य समझते थे। उनके सिवा घर में तीन प्राणी और थे; स्त्री और दो लड़कियाँ। दारोगाजी इन लड़कियों को प्राण से भी अधिक प्यार करते थे। उनके लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाते और शहर से नित्य तरह-तरह की चीजें मंगाया करते। बाजार में कोई तहदार कपड़ा देखकर उनका जी नहीं मानता था, लड़कियों के लिए अवश्य ले आते थे। घर में सामान जमा करने की उन्हें धुन थी। सारा मकान कुर्सियों, मेजों, अलमारियों से भरा हुआ था। नगीने के कलमदान, झाँसी के कालीन, आगरे की दरियाँ बाजार में नजर आ जातीं, तो उन पर लट्टू हो जाते। कोई लूट के धन पर भी इस भांति न टूटता होगा। लड़कियों को पढ़ाने और सीना-पिरोना सिखाने के लिए उन्होंने एक ईसाई लेडी रख ली थी। कभी-कभी वे स्वयं उनकी परीक्षा लिया करते थे।

गंगाजली चतुर स्त्री थी। उन्हें समझाया करती थी जरा हाथ रोककर खर्च करो। जीवन में यदि और कुछ नहीं करना है, तो लड़कियों का विवाह तो करना ही पड़ेगा, उस समय किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे? अभी तो उन्हें मखमली जूतियाँ पहनाते हो, कुछ इसकी भी चिंता है कि आगे क्या होगा? दरोगाजी इन बातों को हँसी में उड़ा देते, कहते, जैसे और सब काम चलते हैं, वैसे ही यह काम भी हो जायेगा। कभी झुंझलाकर कहते, ऐसी बात करके मेरे ऊपर चिंता का बोझ मत डालो।

इस प्रकार दिन बीतते चले गये थे। दोनों लड़कियाँ कमल के समान खिलती जाती थीं, बड़ी लड़की सुमन सुंदर, चंचल और अभिमानी थी, छोटी लड़की शांता भोली, गंभीर, सुशील थी। सुमन दूसरों से बढ़कर रहना चाहती थी। यदि बाजार से दोनों बहनों के लिए एक ही प्रकार की साड़ियाँ आतीं, तो सुमन मुँह फुला लेती थी। शांता को जो कुछ मिल जाता, उसी में प्रसन्न रहती।

गंगाजली पुराने विचार के अनुसार लड़कियों के ऋण से शीघ्र मुक्त होना चाहती थी। पर दरोगाजी कहते, यह अभी विवाह योग्य नहीं है। शास्त्रों में लिखा है, कन्या का विवाह सोलह वर्ष की आयु से पहले करना पाप है। वह इस प्रकार मन को समझाकर टालते जाते थे। समाचार पत्रों में जब दहेज-विरोधी के बड़े–बड़े लेख पढ़ते, तो बहुत प्रसन्न होते। गंगाजली से कहते कि अब एक दो साल में ही यह कुरीति मिटी जाती है। चिंता की कोई जरूरत नहीं। यहाँ तक कि इसी तरह सुमन का सोलहवां वर्ष लग गया।

अब कृष्णचन्द्र अपने को अधिक धोखा नहीं दे सके। उनकी पूर्व निश्चिंतता वैसी न थी, जो अपने सामर्थ्य के ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसका मूल कारण उनकी अकर्मण्यता थी। उस पथिक की भांति, जो दिन भर किसी वृक्ष के नीचे आराम से सोने के बाद संध्या को उठे और सामने एक ऊँचा पहाड़ देखकर हिम्मत हार बैठे। दारोगाजी भी घबरा गए। वर की खोज में दौड़ने लगे, कई जगहों से टिप्पणियाँ मंगवाईं। वह शिक्षित परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरों में लेन-देन की चर्चा न होगी, पर उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वरों का मोल उनकी शिक्षा के अनुसार है। राशि वर्ण ठीक हो जाने पर जब लेन-देन की बातें होने लगतीं, तब कृष्णचन्द्र की आँखों के सामने अंधेरा छा जाता था। कोई चार हजार सुनाता। कोई पांच हजार। और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते। आज छह महीने से दरोगाजी इसी चिंता में पड़े हैं। बुद्धि काम नहीं करती। इसमें संदेह नहीं कि शिक्षित सज्जनों को उनसे सहानुभूति थी; पर वह एक-न एक ऐसी पख निकाल देते थे कि कि दारोगाजी को निरुत्तर हो जाना पड़ता था। एक सज्जन ने कहा – “महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी दुश्मन हूँ, लेकिन क्या करूं, अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया, दो हजार रुपये केवल दहेज में देने पड़े दो हजार और खाने पीने में खर्च करने पडे़, आप ही कहिए यह कमी कैसे पूरी हो?”

दूसरे महाशय इनसे अधिक नीतिकुशल थे। बोले- “दारोगाजी, मैंने लड़के को पाला है, सहस्रों रुपये उसकी पढ़ाई में खर्च किए हैं। आपकी लड़की को इससे उतना ही लाभ होगा, जितना मेरे लड़के को। तो आप ही न्याय कीजिए कि यह सारा भार मैं अकेला कैसे उठा सकता हूँ?”

कृष्णचन्द्र को अपनी ईमानदारी और सच्चाई पर पश्चाताप होने लगा। अपनी निस्पृहता पर उन्हें जो घमंड था टूट गया। वह सोच रहे थे कि यदि मैं पाप से न डरता, तो आज मुझे यों मुझे ठोकरें न खानी पड़तीं। इस समय दोनों स्त्री-पुरुष चिंता में डूबे बैठे थे। बड़ी देर के बाद कृष्णचन्द्र बोले-“देख लिया, संसार में संमार्ग पर चलने का यह फल होता है। यदि आज मैंने लोगों को लूटकर अपना घर भर लिया होता, तो लोग मुझसे संबंध करना अपना सौभाग्य समझते, नहीं तो कोई सीधे मुँह बात नहीं करता है।“

परमात्मा के दरबार में यह न्याय होता है! अब दो ही उपाय हैं, या तो सुमन को किसी कंगाल के पल्ले बांध दूं या कोई सोने की चिड़िया फसाऊं। पहली बात तो होने से रही। बस अब सोने की चिड़िया की खोज में निकलता हूँ। धर्म का मजा चख लिया, सुनीति का हल भी देख चुका। अब लोगों को खूब दबाऊंगा; खूब रिश्वत लूंगा, यही अंतिम उपाय है, संसार यही चाहता है, और कदाचित् ईश्वर भी यही चाहता है। यही सही। आज से मैं भी वहीं करूंगा, जो सब करते हैं। गंगाजली सिर झुकाये अपने पति की बातें सुन कर दुःखित हो रही थी। वह चुप थी। आँखों में आँसू भरे हुए थे।

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