चैप्टर 2 सेवासदन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद

Chapter 2 Sevasadan Novel By Munshi Premchand

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दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहां सारा कारोबार ‘श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और बत्तीस रुपये प्रति सैकड़े से कम सूद न लेते थे। वही मालगुजारी वसूल करते थे, वही रेहननामे-बैनामे लिखाते थे। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ की रकम दबाने का किसी को साहस न होता था और न अपनी रकम के लिए कोई दूसरा आदमी उनसे कड़ाई कर सकता था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ को रुष्ट करके उस इलाके में रहना कठिन था।

महंत रामदास के यहाँ दस-बीस मोटे-ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे। वह अखाड़े में दंड पेलते, भैंस का ताजा दूध पीते, संध्या को दूधिया भंग छानते और गांजे-चरस की चिलम तो कभी ठंडी न होने पाती थी। ऐसे बलवान जत्थे के विरुद्ध कौन सिर उठाता?

मंहतजी का अधिकारियों में खूब मान था। ‘श्री बांकेबिहारीजी’ उन्हें खूब मोतीचूर के लड्डू और मोहनभोग खिलाते थे। उनके प्रसाद से कौन इंकार कर सकता था? ठाकुरजी संसार में आकर संसार की रीति पर चलते थे।

महंत रामदास जब अपने इलाके की निगरानी करने निकलते, तो उनका जुलूस राजसी ठाटबाट के साथ चलता था। सबके आगे हाथी पर ‘श्रीबांकेबिहारीजी’ की सवारी होती थी, उनके पीछे पालकी पर महंत जी चलते थे, उसके बाद साधुओं की सेना घोड़ों पर सवार, राम-नाम के झंडे लिए अपनी विचित्र शोभा दिखाती थी, ऊंटों पर छोलदारियां, डेरे और शामियाने लदे होते थे। यह दल जिस गाँव में जा पहुँचता था, उसकी शामत आ जाती थी।

इस साल महंतजी तीर्थयात्रा करने गए थे। वहाँ से आकर उन्होंने एक बड़ा यज्ञ किया था। एक महीने तक हवनकुंड जलता रहा, महीनों तक कड़ाह न उतरे, पूरे दस हजार महात्माओं का निमंत्रण था। इस यज्ञ के लिए इलाके के प्रत्येक आसामी से हल पीछे पांच रुपया चंदा उगाहा गया था। किसी ने खुशी से दे दिया, किसी ने उधार लेकर और जिनके पास न था, उसे रुक्का ही लिखना पड़ा। ‘श्रीबांकेबिहारीजी’ की आज्ञा को कौन टाल सकता था? यदि ठाकुर जी को हार माननी पड़ी, तो केवल एक अहीर से, जिसका नाम चैतू था। वह बूढ़ा दरिद्र आदमी था। कई साल से उसकी फसल खराब हो रही थी। थोड़े ही दिन हुए ‘श्रीबांकेबिहारीजी’ ने उस पर इजाफा लगान की नालिश करके उसे ऋण के बोझ से और दबा दिया था। उसने यह चंदा देने से इनकार किया, यहां तक कि रुक्का भी न लिखा। ठाकुरजी ऐसे द्रोही को भला कैसे क्षमा करते? एक दिन कई महात्मा चैतू को पकड़ लाए।

ठाकुरद्वारे के सामने उस पर मार पड़ने लगी। चैतू भी बिगड़ा। हाथ तो बंधे हुए थे, मुँह से लात-घूंसों का जवाब देता रहा और जब तक जबान बंद न हो गई, चुप न हुआ। इतना कष्ट देकर ठाकुरजी को संतोष न हुआ, उसी रात को उसके प्राण हर लिए। प्रातः काल चौकीदार ने थाने में रिपोर्ट की।

दरोगा कृष्णचन्द्र को मालूम हुआ, मानो ईश्वर ने बैठे-बिठाये सोने की चिड़ियाँ उनके पास भेज दी। तहकीकात करने चले।

लेकिन महंत जी की उस इलाके में ऐसी धाक जमी हुई थी कि दारोगाजी को कोई गवाही न मिल सकी। लोग एकांत में आकर उनसे सारा वृतांत कह जाते थे, पर कोई अपना बयान नहीं देता था।

इस प्रकार तीन-चार दिन बीत गए। महंत पहले तो बहुत अकड़े रहे। उन्हें निश्चय था कि यह भेद न खुल सकेगा। लेकिन जब पता चला कि दारोगाजी ने कई आदमियों को फोड़ लिया है, तो कुछ नरम पड़े। अपने मुख्तार को दरोगाजी के पास भेजा। कुबेर की शरण ली। लेन-देन की बातचीत होने लगी। कृष्णचन्द्र ने कहा – “ मेरा हाल तो आप लोग जानते हैं कि रिश्वत को काला नाग समझता हूँ।“

मुख्तार ने कहा –  “हां यह तो मालूम है, किंतु साधु-संतों पर कृपा रखनी ही चाहिए।“

इसके बाद दोनों सज्जनों में कानाफूसी हुई मुख्तार ने कहा – “ नहीं सरकार, पांच हजार बहुत होते हैं। महंतजी को आप जानते हैं। वह अपनी टेक पर आ जायेंगे, तो चाहे फांसी ही हो जाए, जौ-भर न हटेंगे। ऐसा कीजिए कि उनको कष्ट न हो, आपका भी काम निकल जाए।“

अंत में तीन हजार में बात पक्की हो गई।

पर कड़वी दवा खरीदकर लाने, उसका काढ़ा बनाने, और उसे उठाकर पीने में बहुत अंतर है। मुख्तार तो महंत के पास गया और कृष्णचन्द्र सोचने लगे, यह मैं क्या कर रहा हूँ?

एक ओर रुपयों का ढेर था और चिंता-व्याधि से मुक्त होने की आशा, दूसरी ओर आत्मा का सर्वनाश और परिणाम का भय। न ‘हाँ’ करते बनता था, न नहीं।

जन्म भर निर्लोभ रहने के बाद इस समय अपनी आत्मा का बलिदान करने में दारोगाजी को बड़ा दुःख होता था। वह सोचते थे, यदि यही करना था, तो आज से पच्चीस साल पहले क्यों न किया, अब तक सोने की दीवार खड़ी कर दी होती। इलाके ले लिए होते। इतने दिनों तक त्याग का आनंद उठाने के बाद बुढ़ापे में यह कलंक, पर मन कहता था, इसमें तुम्हारा क्या अपराध? तुमने जब तक निभ सका, निबाहा। भोग-विलास के पीछे अधर्म नहीं किया, लेकिन जब देश, काल, प्रथा और अपने बंधुओं का लोभ तुम्हें कुमार्ग की ओर ले जा रहे हैं, तो तुम्हारा क्या दोष? तुम्हारी आत्मा अब भी पवित्र है। तुम ईश्वर के सामने अब भी निरपराध हो। इस प्रकार तर्क करके दारोगाजी ने अपनी आत्मा को समझा लिया।

लेकिन परिणाम का भय किसी तरह पीछा न छोड़ता था। उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली थी। हिम्मत न खुली थी। जिसने कभी किसी पर हाथ न उठाया हो, वह सहसा तलवार का वार नहीं कर सकता। यदि कहीं बात खुल गई, तो जेलखाने के सिवा और कहीं ठिकाना नहीं, सारी नेकनामी धूल में मिल जाएगी, आत्मा तर्क से परास्त हो सकती है, पर परिणाम का भय तर्क से दूर नहीं होता। वह पर्दा चाहता है। दारोगाजी ने यथासंभव इस मामले को गुप्त रखा। मुख्तार को ताकीद कर दी कि इस बात की भनक भी किसी के कान में न पड़ने पाए। थाने के कांस्टेबलों और अमलों से भी सारी बातें गुप्त रखी गईं।

रात के नौ बजे थे। दारोगाजी ने अपने तीनों कांस्टेबलों को किसी बहाने से थाने के बाहर भेज दिया। चौकीदारों को भी रसद का सामान जुटाने के लिए इधर-उधर भेज दिया था और आप अकेले बैठे हुए मुख्तार की राह देख रहे थे। मुख्तार अभी तक नहीं लौटा, कर क्या रहा है? चौकीदार सब आकर घेर लेंगे, तो बड़ी मुश्किल पड़ेगी। इसी से मैंने कह दिया था कि जल्द आना। अच्छा मान लो, जो महंत तीन हजार पर भी राजी न हुआ तो? नहीं, इससे कम न लूंगा। इससे कम में विवाह हो ही नहीं सकता।

दारोगाजी मन-ही-मन हिसाब लगाने लगे कि कितने रुपये दहेज में दूंगा और कितने खाने-पीने में खर्च करूंगा।

कोई आध घंटे के बाद मुख्तार के आने की आहट मिली। उनकी छाती धड़कने लगी। चारपाई से उठ बैठे, फिर पानदान खोलकर पान लगाने लगे कि इतने में मुख्तार भीतर आया।

कृष्णचन्द्र –  “कहिए?”

मुख्तार –  “महंतजी…”

कृष्णचन्द्र ने दरवाजे की तरफ देखकर कहा –  “रुपये लाए या नहीं?”

मुख्तार – “जी हाँ, लाया हूँ, पर महंतजी ने…”

कृष्णचन्द्र ने फिर चारों तरफ चौकन्नी आँखों से देखकर कहा –  “मैं एक कौड़ी भी कम न करूंगा।“

मुख्तार – “ अच्छा, मेरा हक तो दीजिएगा न?”

कृष्णचन्द्र – “ अपना हक महन्तजी से लेना।“

मुख्तार –  “पांच रुपया सैकड़े तो हमारा बंधा हुआ है।“

कृष्णचन्द्र –  “इसमें से एक कौड़ी भी न मिलेगी। मैं अपनी आत्मा बेच रहा हूँ, कुछ लूट नहीं रहा हूँ।“

मुख्तार –  “आपकी जैसी मर्जी, पर मेरा हक मारा जाता है।“

कृष्णचन्द्र –  “मेरे साथ घर तक चलना पड़ेगा।“

तुरंत बहली तैयार हुई और दोनों आदमी उस पर बैठकर चले। बहली के आगे-पीछे चौकीदारों का दल था। कृष्णचन्द्र उड़कर घर पहुँचना चाहते थे। गाड़ीवान को बार-बार हांकने के लिए कहकर कहते – “ अरे, क्या सो रहा है? हांके चल।“

ग्यारह बजते-बजते लोग घर पहुँचे। दारोगाजी मुख्तार को लिए हुए अपने कमरे में गए और किवाड़ बंद कर दिए। मुख्तार ने थैली निकाली। कुछ गिन्नियाँ थीं, कुछ नोट और कुछ नकद रुपये। कृष्णचन्द्र ने झट थैली ले ली और बिना देखे-सुने उसे अपने संदूक में डालकर ताला लगा दिया।

गंगाजली अभी तक उनकी राह देख रही थी। कृष्णचंद्र मुख्तार को विदा करके घर में गए। गंगाजली ने पूछा– “इतनी देर क्यों की?”

कृष्णचन्द्र– “काम ही ऐसा आन पड़ा और दूर भी बहुत था।“

भोजन करके दारोगाजी लेटे, पर नींद न आती थी। स्त्री से रुपये की बात कहते उन्हें संकोच हो रहा था। गंगाजली को भी नींद न आती थी। वह बार-बार पति के मुँह की ओर देखती, मानों पूछ रही थी कि बचे या डूबे।

अंत में कृष्णचन्द्र बोले –  “यदि तुम नदीं के किनारे खड़ी हो और पीछे से एक शेर तुम्हारे ऊपर झपटे, तो क्या करोगी?”

गंगाजली इस प्रश्न का अभिप्राय समझ गई। बोली–  “नदी मे चली जाऊंगी।“

कृष्णचन्द्र– “चाहे डूब ही जाओ?”

गंगाजली– “हाँ डूब जाना शेर के मुँह में पड़ने से अच्छा है।“

कृष्णचन्द्र – “ अच्छा, यदि तुम्हारे घर में आग लगी हो और दरवाजों से निकलने का रास्ता न हो, तो क्या करोगी?”

गंगाजली–  “छत पर चढ़ जाऊंगी और नीचे कूद पडूंगी।“

कृष्णचन्द्र– “इन प्रश्नों का मतलब तुम्हारी समझ में आया?”

गंगाजली ने दीनभाव से पति को ओर देखकर कहा–  “तब क्या ऐसी बेसमझ हूँ?”

कृष्णचन्द्र–  “मैं कूद पड़ा हूँ। बचूंगा या डूब जाऊंगा, यह मालूम नहीं।“

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