सच्चा धर्म वृंदावनलाल वर्मा की कहानी Sacha Dharm Vrindavan Lal Verma Ki Kahani Hindi Story
Sacha Dharm Vrindavan Lal Verma Ki Kahani
हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड़ागाँव दरवाजे के निकट पठान। इन मुहल्लों में केवल मुसलमान ही न बसते थे – मराठे, ठाकुर, तेली, काछी इत्यादि हिंदू बीच-बीच में। बड़ेगाँव दरवाजे मसजिद थी और थोड़ी दूर पर बिहारीजी का मंदिर। हिंदू मुसलमान, सब अपने-अपने विश्वास के अनुसार परंपरा क्रमागत त्योहारों को मनाते आए थे, कभी कोई झंझट पैदा नहीं हुआ।
उस साल डोल एकादशी और मुहर्रम एक ही दिन-सोमवार को पड़े। सुन्नी मुसलमान नौ-दस दिन पहले से ताजियों की तैयारी में लगे – अब की साल उनको ताजिए और भी अधिक धूमधाम के साथ निकालने थे; क्योंकि उनकी झाँसी स्वतंत्र हो गई थी, उनकी रानी राज कर रही थी। मंदिरों में भी खूब नाच और गाने के साथ मन का ओज प्रस्फुटित हो रहा था। इन दिनों भी झाँसी के मंदिरों में जो नित्य नई सजावट की जाती है उनको ‘घटा’ कहते हैं। किसी दिन नीली घटा, किसी दिन पीली घटा, किसी दिन कोई और। सारे मंदिर में एक ही प्रकार के रंग के वस्त्र और फूल। यह सब कई दिन एकादशी तक चलता रहा। सोमवार के रोज शाम के समय ताजिए दफनाए जाने को थे और उसी समय विमानों का जल-विहार होना था। यदि दोनों धर्मवालों में मेल-जोल हो तो मजे में सब रस्में निकाली जाएँ और यदि एक-दूसरे से अनमने हों तो एक डग भी रखने को जगह नहीं।
मोतीबाई और जूही जैसे दीवाली मनाती थीं वैसे ही ताजियादारी भी करती थीं। और उसी उत्साह के साथ वे ‘मुरली मनोहर’ के मंदिर में, जिस समय रानी दर्शन के लिए जाती थीं, नृत्य और गान भी करती थीं – उन्हीं दिनों मुहर्रम के जमाने में। परंतु उनके इस कार्य पर मुसलमान किसी प्रकार का आक्षेप नहीं कर रहे थे; क्योंकि वे प्रायः रानी के साथ रहा करती थीं।
दुर्गाबाई सुन्नी मुसलमान थी। वह भी ताजियादारी करती थी और नाचना उसका पेशा था। मंदिरों में उसके नृत्य की माँग थी। वह मंदिरों में नृत्य के लिए जाने लगी।।
कुछ मुसलमानों को असंगत लगा। चर्चा शुरू हो गई। इस चर्चा में पीरअली ने प्रधान भाग लिया।
सवेरे का समय था। ठंडी हवा चल रही थी। हलवाइयों की दुकानों पर ताजा मिठाइयाँ थालों में सजती और बिकती चली जा रही थीं। दूसरी ओर मालिनों की फूलों से भरी हुई डलियाँ थोड़ी ही देर में खाली होने को थीं।
दुर्गा नर्तकी ने हलवाई के यहाँ से मिठाई ली और मालिन के यहाँ से फूल। मार्ग में एक जगह ठेवा लगा। पैर में जरा सी चोट आई। साथ ही मिठाई के दोने से कुछ सामान नीचे जा गिरा। उसका मुँह बिदरा। पास से जानेवाला एक आदमी हँस पड़ा। दूसरे का कष्ट उसका विनोद बना। और भी कुछ लोग हँसे। एक ने कहा, ‘उठा लो दुर्गा, नीचे पड़ा हुआ सामान। वह भी एक अदा होगी।’
‘अरे रे, मुझको तो लग गई। तुम हँसते हो।’ दुर्गा हँसती हुई बोली।
वहीं पीरअली भी था। वह भी हँसा था।
‘अभी क्या हुआ, दुर्गाबाईजी!’ पीरअली ने कहा, ‘जैसा करोगी वैसा पाओगी।’
बात कुछ नहीं थी, परंतु दुर्गा को आग-सी लग गई। पीरअली शिया था। उसकी व्यर्थ बात में कोई गूढ़ प्रच्छन्न व्यंग्य अवगत करके बोली, ‘तुम कहाँ के दूध के धुले हो, मियाँ! किसी दिन तुमको भी खुदा ऐसा समझेगा कि याद करोगे।’
पीरअली – ‘मैं तुम सरीखी औरतों को मुँह नहीं लगाना चाहता, अपनी राह देखो।’
दुर्गा – ‘तुम्हीं मुँह लगने को फिरते हो। मैं तो ऐसों पर लानत भेजती हूँ।’
पीरअली – ‘खबरदार, जो बद्जबानी की, जीभ काटकर फेंक दूँगा।’
दुर्गा – ‘हाँ, बल-पौरुष औरतों पर ही चलाने आए हो; पर मेरी जबान काटने आओगे तो मैं कौन तुम्हारी जीभ की पूजा करने बैठ जाऊँगी! जानते हो किसका राज है?’
पीरअली दाँत पीसकर रह गया।
कई लोगों ने ‘जाओ, रहने दो’ कहा।
ऊपर से झगड़ा रफा-दफा हो गया, लेकिन भीतर-भीतर आग सुलग उठी। ‘एक सुन्नी औरत ने, सो भी नर्तकी वेश्या ने, एक शिया मर्द पर मुहर्रम के दिनों में लानत भेजी!’
शिया-सुन्नियों के झगड़े का इस अत्यंत क्षुद्र घटना के कारण सूत्रपात हुआ।
शिया लोग घरों में चुपचाप मातम मनाते हैं। सुन्नियों में भी मातम मनाया जाता है; परंतु ताजिया इत्यादि बनाने की कोई पाबंदी नहीं। तो भी बनाए जाते थे और धूमधाम के साथ निकाले जाते थे।
रघुनाथराव के समय में अलीबहादुर का बहुत प्रभाव था। शिया थे। कदाचित इसलिए भी राज्य की ओर से ताजियों की कोई धूमधाम नहीं की जाती थी। अलीबहादुर का प्रभाव उठ गया था, परंतु ताजिया संबंधी परंपरा अवशिष्ट थी। शिया अपने ताजिए चुपचाप निकाल ले जाते थे और उनका समय भी सुन्नियों के ताजियों के निकालने के समय से टक्कर न खाता था। परंतु एकादशी के दिन डोल भी निकलने थे – दिन में। दिन में शिया-सुन्नियों के ताजिए भी निकलने थे। दोपहर-दोपहर तक दोनों फिरकों के ताजिए निकल जाएँ और दो बजे से विमान निकलें, यही रोजाना संभव जान पड़ती थी। पर शिया-सुन्नी इस पर राजी नहीं दिखलाई पड़ते थे। दीवान ने समझाने बुझाने और मनाने की कोशिश की। विफल हुआ।
ताजियादार कहते थे –
‘हमारा ताजिया तीसरे नंबर पर उठा करता है। पहले नंबरवाला पहले उठे और चल पड़े और उसके पीछे दूसरावाला, हम तुरंत उसके पीछे हो जाएँगे।’
‘हमारा पहला नंबर जरूर है, परंतु ताजिया हमारा हमेशा तब उठा है जब शियों के ताजिए निकल गए। आप कहते हैं कि नौ बजे से ताजिए निकालना शुरू कर दो। हम तैयार हैं, परंतु शियों के ताजिए पहले निकलवा दीजिए।’
और शियों के ताजिए उतने सवेरे निकल नहीं सकते थे। विवश कोई किसी को कर नहीं सकता। धर्म का मामला ठहरा।
अच्छा यही था कि झंझट दो दिन पहले खड़ा हो गया था।
शिया लोग अपने ताजिए यदि आतुरता के साथ बड़े भोर निकाल भी ले जाएँ तो इसमें संदेह था कि सुन्नी अपने ताजिए हर साल के समय के प्रतिकूल दफना देते या नहीं।
पीरअली इस झंझट में कहीं भी ऊपर नहीं दिखलाई पड़ता था; परंतु भीतर-भीतर उसकी उत्प्रेरणा मौजूद थी।
जब दीवान समस्या को हल न कर सका तब उसने कोतवाली से पुराने कागज मँगवाए। परंतु पुराने कागज विप्लव के आरंभ में ही भस्मीभूत हो चुके थे – और उनसे कुछ सहायता मिल नहीं सकती थी। दीवान हैरान था।
निदान, मामला रानी के पास पहुँचा।
हिंदू-मुसलमानों की भीड़ इक्ट्ठी हो गई।
रानी ने समझाने का यत्न किया। लड़ाना-भिड़ाना चाहतीं तो सहज ही ऐसा कर सकती थीं; परंतु वे तो मेल कराने पर तुली हुईं थीं।
जब वे कोई सुझाव देतीं तो सब ‘बहुत ठीक, सरकार’ ‘बहुत ठीक, सरकार’ कह देते और थोड़ी देर चुप रहने के के बाद ‘किंतु’ ‘परंतु’ करने लगते।
रानी ने यकायक कहा, ‘क्या इतने हिंदू-मुसलमानों में कोई ऐसा नहीं, जो इस कठिनाई को हल कर दे?’
महल के पड़ोस में एक बढ़ई रहता था। वह आगे आया। उसने विनय की, ‘सरकार, मैं कुछ विनय करना चाहता हूँ।’
रानी – ‘कहो।’
बढ़ई – ‘सरकार, राम और रहीम सबसे बड़े हैं। उसी तरह उनका मंदिर विमान से बड़ा और इनकी मस्जिद ताजिया से बड़ी। मस्जिद में रहीम की पूजा की जाती है। मैं मस्जिद बनाकर ठीक समय पर निकाल दूँगा। सब ताजिए उनके साथ निकल जाने चाहिए। आगे-पीछे का कोई सवाल नहीं खड़ा होता।’
सुन्नी ताजिएदार सहमत हो गए।
‘मस्जिद बेशक सबसे बड़ी।’
‘मस्जिद जरूर सबसे आगे रहेगी।’
‘मस्जिद के पीछे-पीछे हम सबके ताजिए चलेंगे।’
उस बढ़ई ने दो दिन के भीतर कागज और भोडर की एक सुंदर मस्जिद बनाई। एकादशी के दिन ठीक समय पर सब ताजिए निकल गए। सबसे आगे बढ़ई की मस्जिद थी। हिंदुओं के विमानों को निकलने में विलंब हो गया; परंतु इसका किसी ने बुरा नहीं माना।
**समाप्त**
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