पहले कौन वृंदावनलाल वर्मा की कहानी | Pehle Kaun Vrindavan Lal Verma Ki Kahani

पहले कौन वृंदावनलाल वर्मा की कहानी Pehle Kaun Vrindavan Lal Verma Ki Kahani Hindi Story In Hindi 

Pehle Kaun Vrindavan Lal Verma Ki Kahani

मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है।

मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर था और मेवाड़ अपनी बान पर। उस गढ़ पर दोनों का अपना-अपना दावा था। एक का पाँच सौ वर्ष पुराना तो दूसरे का सात सौ वर्ष पुराना। गढ़ का स्वामित्व कभी मेवाड़ के हाथ में रहा, कभी जोधपुर के। गढ़ का और कोई महत्त्व न था।

जब उस वर्ष मेवाड़ का एक आक्रमण असफल रहा, तब मेवाड़ के महाराणा बहुत उदास हो गए। दरबार किया। सामंत-सरदार इकट्ठे हुए। महाराणा ने अपनी वेदना व्यक्त की। तुरंत दो सरदार खड़े हो गए। एक सिसौदिया, दूसरा हाड़ा।

सिसौदिया सरदार ने कहा, ‘मुझे बीड़ा बख्शा जावे। मैं उस गढ़ में पहले प्रवेश करूँगा।’ इसका नाम रणवीरसिंह था।

उसी क्षण हाड़ा सरदार भी बोला, ‘पहले मुझे। मैं पहले पहुँचूँगा गढ़ के भीतर।’ इसका नाम गजराजसिंह था।

दोनों में गढ़ पर पहले विजय प्राप्त करने की होड़ लग गई। महाराणा की वेदना तो चली गई, परंतु किस सरदार को पहले बीड़ा उठाने दें, इस कठिन समस्या ने उन्हें परेशान कर दिया।

अंत में महाराणा ने निर्धार किया, ‘दोनों एक साथ बीड़ा उठा लो। गढ़ में जो पहले प्रवेश कर लेगा, विजय का टीका उसी के माथे पर लगाया जावेगा।’

दोनों ने मान लिया और सोने के थाल में से एक साथ पान के बीड़े उठा लिये। दोनों सरदारों ने अपनी-अपनी तैयारी को चरमता की सीमा पर पहुँचा दिया। कौन पहले पहुँचकर गढ़ का फाटक तोड़े और भीतर प्रवेश करे, इस होड़ में दोनों कुछ समय उपरांत एक साथ गढ़ के निकट जा पहुँचे। जोधपुर की ओर से भी तैयारी थी; परंतु उस प्रचंड आक्रमण की जोधपुर के गढ़ नायक को आशंका न थी, जिसका सामना उसे करना पड़ा। मेवाड़ के उन सरदारों ने गढ़ को चारों ओर से ऐसा घेरा कि जोधपुर से कुमुक का प्राप्त करना असंभव हो गया; और एक दिन आया, जब गढ़ के फाटक पर ही जोर-शोर का युद्ध हो पड़ा। तोपों तथा बंदूकों की धाँय-धाँय और साँय-साँय कुछ देर के बाद शिथिल पड़ गई। इधर तलवारें चमकने लगीं, उधर गढ़ के ऊपर से निवारण के उपाय किए जाने लगे।

कवच, झिलम और टोप से ढके रणवीर सिसौदिया और गजराज हाड़ा ने अपने-अपने हाथी को गढ़ का फाटक तोड़ने के लिए एक साथ जा अड़ाया। दोनों के हाथी, जो लोहे के मोटे तवों से प्रच्छन्न थे, अपने-अपने सरदार के जोश का साथ दे रहे थे। सरदारों की होड़ ने परस्पर द्वेष का रूप पकड़ा। एक ही राज्य, एक ही सेना और एक ही उद्देश्य के होते हुए भी वे एक-दूसरे के अविलंब विनाश की कामना कर उठे।

धाड़! धाड़!! गजराज के हाथी ने प्रचंड वेग और बल के साथ फाटक पर ठोकरें दीं। रणवीर ने भी अपने हाथी से यही कराना चाहा।

धाड़! धाड़!! धाड़!!! गजराज के हाथी ही ने पागल-सा होकर ठोकरें दीं और फाटक टूट गया। गजराज ने मुड़कर तिरस्कार की दृष्टि से रणवीर को छेद-सा डाला। गजराज का हाथी गढ़ के भीतर प्रवेश करना ही चाहता था कि उसके कानों में सिसौदिया के शब्द पड़े—‘मैं पहले!’ देखा तो रणवीर के हाथी पर रणवीर का रुंड मात्र था—तड़पता हुआ रुंड और हाथ से छूटने ही वाली लहूलुहान तलवार। हाड़ा ने सामने जो देखा तो हाथी के आगे सिसौदिया का कटा हुआ सिर। उसपर टोप नहीं था। सिसौदिया ने अपना ही सिर अपने हाथ से काटकर उचटा दिया था। इस प्रकार मरकर भी उसने आगे रहने का गौरव पाना चाहा।

जब विजय के टीके का समय आया, महाराणा के दरबार भर में प्रसन्न कोई नहीं दिखलाई पड़ रहा था। महाराणा भी खिन्न मन थे और मन-ही-मन सिसौदिया सरदार के शौर्य की सराहना और अविवेक की भर्त्सना कर रहे थे।

हाड़ा सरदार ने टीका लगवाने से इनकार कर दिया। अब उसके मन में न द्वेष था और न हिंसा। हाड़ा ने विनय की, ‘घणीखमा अन्नदाता, जिस माथे पर विजय का टीका लगना चाहिए था, वह तो यहाँ है ही नहीं!’

**समाप्त**

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