शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी वृंदावनलाल वर्मा की कहानी | Shaheed Ibrahim Khan Gardi Vrindavan Lal Verma Ki Kahani

शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी वृंदावनलाल वर्मा की कहानी Shaheed Ibrahim Khan Gardi Vrindavan Lal Verma Ki Kahani Hindi Story 

Shaheed Ibrahim Khan Gardi Vrindavan Lal Verma Ki Kahani

(1)

‘इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।’

अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा ।

सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरदार इब्राहिम गार्दी भी पकड़ लिया गया। वह अन्त तक लड़ता रहा था और घायल हो जाने के कारण पकड़ लिया गया था। घायल इब्राहिम गार्दी को नवाब शुजाउद्दौला के टोले में, जो अफ़गान शाह अहमदशाह अब्दाली की छावनी के भीतर ही था, पकड़ कर रख लिया गया। अवध का नवाब घायल सरदार का वध नहीं करना चाहता था, परन्तु अहमदशाह के रुहेले सलाहकारों और स्वयं अहमदशाह को इब्राहिमख़ाँ के नाम से घृणा थी। वह अकस्मात् शुजाउद्दौला के सिपाहियों के हाथ पड़ गया था। अहमद शाह को इब्राहिम के पकड़े जाने और शुजा के टोले में होने का समाचार मिल गया । इसलिये उसने इब्राहिम को अपने सामने पेश किये जाने के लिये शुजा के पास दूत भेजा।

शुजाउद्दौला इब्राहिम की उपस्थिति से इनकार न कर सका। उसने अनुरोध किया, ‘इब्राहिमखाँ काफ़ी घायल हो गया है। अच्छा हो जाने पर पेश कर दूंगा।’

दूत ने अपने शाह का हठ प्रकट किया,-‘उसको हर हालत में इसी पल जाना होगा।’

शुजा का प्रतिवाद क्षीण पड़ गया। फिर भी उसने कहा, ‘सोचिये इब्राहिम मराठों के दस हजार सिपाहियों का सालार था। घायल हुआ । अब कैद में है। कम से कम इस वक्त तो नहीं बुलाया जाना चाहिये ।

दूत ने नहीं माना । उसको अहमदशाह अब्दाली का स्पष्ट आदेश था। शुजाउद्दौला को उस आदेश का पालन करना पड़ा।

(2)

मराठों के प्रधान सेननायक सदाशिवराव भाऊ का सिर कट कर पहले ही आ चुका था। वह भी नितान्त घायल अवस्था में ही अब्दाली के सिपाहियों के हाथ लग सका था। बालाजी बाजीराव पेशवा का पुत्र विश्वासराव भी पानीपत की लड़ाई में उसी दिन मारा गया था। संध्या के पूर्व ही उसका सिर भी कटकर आ गया।

विश्वासराव का सौन्दर्य मृत्यु के सिर पर भी खेल रहा था। अध मुंदी आँखें, स्वाभाविक अर्थ विस्फोत मुस्कान-मानो यमराज को भी मुग्ध कर लेने की ठान रही हों। उसके अनिर्वचनीय रूप की महिमा को सुनकर रक्त में सने हुये अनेक अफ़गान सरदार और सिपाही ठट के ठट बाँधकर जमा हो गये। उन्होंने अपने डेरों के सामने लड़ाई में मारे गये हिन्दुस्थानी सिपाहियों के मुण्डों के ढेर लगा रखे थे जिनके समक्ष ये नाचकूद कर जशन मना रहे थे। विश्वासराव का सौन्दर्य हिन्दुस्थान भर में विख्यात था। उसके कटे हुये सिर को देखने के लिये वे उस जशन को छोड़कर दौड़े आये। ‘क्या मनुष्य इतना सुन्दर हो सकता है। उनकी बर्बरता बारबार प्रश्न कर रही थी।

वे चिल्ला उठे,-‘हम हिन्दुओं के शाह को काबुल ले जायेंगे। इसकी लाश को हमेशा तेल में रखेंगे। उनके बढ़ते हुये हठ को देखकर अब्दाली के रुहेले सलाहकार ने अनुरोध किया, ‘हटाइये इसको; फिकवा दीजिये कहीं।’

उसने यही सम्मति सदाशिवराव के शव के लिये भी पेश की। अहमदशाह ने मान लिया ।

इसके बाद अहमदशाह के सामने इब्राहिम गार्गी लाया गया। अहमदशाह ने पूछा-‘तुम मराठों की दस पल्टनों के जनरल थे ?’ उसने उत्तर दिया–‘ज़रूर था ।’

‘पहले तुम फ्रांसीसियों के नौकर थे ?’

‘था, तभी तो गार्दी कहलाता हूं।’

‘फिर हैदराबाद के निज़ाम के यहां नौकर हुये ?’

‘सही है।’

‘तुमने निज़ाम की नौकरी क्यों छोड़ दी?’

‘क्योंकि निज़ाम के रवैये को मैंने अपने उसूल के खिलाफ पाया।’ ‘तुम्हारे उसूल ! तुमने फिरंगी ज़बान भी पढ़ी है ?’

‘जी हां।’

‘मुसलमान होकर फिरंगी ज़बान पढ़ी! फिर मराठों की नौकरी की!! खैर । अब जो कुछ तुमने किया उस पर तुमको तोबा करनी चाहिये । तुमको शर्म आनी चाहिये।

घावों की परवाह न करते हुये इब्राहिम बोला-‘तोबा और शर्म ? आप क्या कहते हैं अफगान शाह ? आपके देश में अपने मुल्क की मुहब्बत और खून देने वालों को क्या तोबा करनी पड़ती है ? और, क्या उसके लिये सिर नीचा करना पड़ता है।’

‘तुम जानते हो कि किसके सामने हो ? किससे बातें कर रहे हो ?’ अहमदशाह ने तेज़ होकर कहा।

‘जानता हूं। और, नहीं भी जानता हूँगा तो जान जाऊँगा। पर यह यकीन है कि आप खुदा के फरिश्ते नहीं हैं ।’

मैं इतनी बड़ी फतह के बाद गुस्से को नहीं आने देना चाहता । ताज्जुब है, मुसलमान होकर तुमने जिन्दगी को इस तरह बिगाड़ा!’

‘तब आप यह जानते ही नहीं कि मुसलमान कहते किसको हैं । जो अपने मुल्क के साथ घात करे, जो अपने मुल्क को बरबाद करने वाले परदेसियों का साथ दे, वह मुसलमान नहीं।’

‘मुझको मालूम हुआ है, तुम फिरंगियों के कायल रहे हो। उनकी शागिर्दी में ही तुमने यह सब सीखा है। क्या तुम नमाज़ पढ़ते हो ?’

‘हमेशा; पांचों वक्त ।’

अहमदशाह के चेहरे पर व्यंग भरी मुस्कराहट आई और आँखों में वध की क्रूरता । बोला, ‘फिरंगी या मराठी ज़बान में नमाज़ पढ़ते होगे ! खुदा को राम कहते होगे !’

इब्राहिम ने घावों की पीड़ा दबाते हुये कहा, ‘क्या खुदा अरबी, फारसी या पश्तो ज़बानों को ही समझता है ? क्या वह मराठी या फ्रांसीसी को नहीं जानता ? क्या राम खुदा नहीं है और क्या खुदा राम नहीं है ?’

अहमदशाह अब्दाली की नाक में नासूर था। उसमें से फुफकार निकल पड़ी।

बोला, ‘क्यों कुफ्र बकता है ? तोबा कर; नहीं तो टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायेंगे।’

‘मेरे इस तन के टुकड़े हो जाने से रूह के टुकड़े तो होंगे नहीं।’ इब्राहिम ने दृढ़ स्वर में कहा ।

घायल इब्राहिम के ठंडे स्वर से अहमदशाह की क्रूरता कुण्ठित हुई । एक क्षण सोचने के बाद बोला, ‘अच्छा, हम तुमको तोबा करने के लिये वक्त देते हैं । तोबा कर लो तो हम तुमको छोड़ देंगे। अपनी फौज में अच्छी नौकरी भी देंगे। तुम फिरंगी तरीके पर हमारी फौज के कुछ दस्ते तैयार करो।’

कराह को दबाये हुये इब्राहिम के ओठों पर एक रीनी-झीनी हँसी आ गई। इब्राहिम अहमदशाह के उस खिलवाड़ को समाप्त करना चाहता था।

उसने कहा, ‘अगर छूट पाऊँ तो पूना में ही फिर पल्टने तैयार करूं और फिर इसी पानीपत के मैदान में उन अरमानों को निकालू जिनको निकाल नहीं पाया और जो मेरे कलेजे में धधक रहे हैं।’

‘अब समझ में आ गया-तुम असल में बुतपरस्त हो।’

‘ज़रूर हूँ, लेकिन मैं ऐसी बुत को पूजता हूँ जो दिल में बसी हुई है और ख्याल में मीठी है। जिन बुतों को बहुत से हिन्दू पूजते हैं और आप लोग भी, मैं उनको नहीं पूजता।’

‘हम लोग भी ! खबरदार !’

‘हां, आप लोग भी। मरे हुये सिपाहियों के सिरों के ढेर जो हर तम्बू के सामने लगाये गये हैं और जिन के सामने आप के पठान और रुहेले सिपाही नाच नाचकर जशन मना रहे हैं, वह सब क्या है ? क्या यह बुतपरस्ती नहीं ? हिन्दुओं की और आप लोगों की बुतपरस्ती में सिर्फ इतना ही फर्क है कि जिन बुतों को वे पूजते हैं उनसे खून नहीं बहता और न बदबू आती है।’

‘हूं ! तुम बहुत बदज़बान हो!’ तुम्हारा भी वही हाल किया जायगा जो तुम्हारे सदाशिवराव भाऊ का हुआ है।’

पीड़ित, चकित, इब्राहिम के मुंहसे निकल पड़ा,-‘क्यों । उनका क्या हुआ।’

उत्तर मिला,-‘मार दिया गया, सिर काट लिया गया।’

‘ओफ़!’ घायल इब्राहिम ने दोनों हाथों से सिर थाम कर कहा।

अब्दाली को उसकी पीड़ा रुची । बोला, ‘और तुम लोगों का वह खूबसूरत छोकरा विश्वासराव भी मारा गया।’

इब्राहिम की बुझती हुई आँखों के सामने और भी अंधेरा छा गया। उसने कम्पित, कुपित स्वरमें कहा, ‘विश्वासराव ! विश्वासराव!! मेरे मुल्क का नाज़ !!! मेरे सिपाहियों के हौसले का ताज !!! ओफ़’ इब्राहिम गिर पड़ा!

अहमदशाह उस के तड़पने पर प्रसन्न था। उसकी निर्ममता ने सोचा, शहीद को जीत लिया । इब्राहिम ज़रा सा उठकर भरभराते हुये स्वर में बोला, ‘पानी!’

अब्दाली कड़का,-‘पहले तोबा कर ।’

जहाँ के तहाँ पड़कर इब्राहिम ने कहा, ‘तोबा ! शहीद कहीं तोबा करता है ? तोबा करें वे लोग जो कैदियों, घायलों और निहत्थों का कतल करते हैं।’

अब्दाली से नहीं सहा गया ! इब्राहिम भी नहीं सह पा रहा था। अब्दाली ने उसके टुकड़े टुकड़े करके वध करने की आज्ञा दी।

एक अंग कटने पर इब्राहिम की चीख में से निकला, ‘मेरे ईमान पर पहली नियाज़ ।’ दूसरे पर क्षीण चीख में से,-‘हम हिन्दू मुसल मानों की मिट्टी से ऐसे सूरमा पैदा होंगे जो वहशियों और जालिमों का नाम निशान मिटा देंगे।’

फिर अन्त में मराठों के ब्रिगेडियर जनरल इब्राहिमख़ाँ गार्दी के मुंह से केवल एक शब्द निकला-‘अल्लाह!’ जिसको फरिश्तों ने पंखों और इतिहास के पन्नों ने सावधानी के साथ अपने आँसुओं में छिपा लिया।

**समाप्त**

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