थोड़ी दूर और वृंदावनलाल वर्मा की कहानी Thodi Door Aur Vrindavan Lal Verma Ki Kahani Hindi Short Story
Thodi Door Aur Vrindavan Lal Verma Ki Kahani
जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिंध होकर मुल्तान से गजनी जाना चाहता था। लूट के सामान के साथ फौज की यात्रा भारी पड़ रही थी। भीमदेव व अन्य राजपूत उस पर टूट पड़ने के लिए इधर-उधर से सिमट रहे थे। महमूद इनसे बच निकलने के लिए कूच पर कूच करता चला गया। अंत में लगभग छह सहस्र राजपूतों से उसकी मुठभेड़ हो ही गई।
महमूद की सेना राजपूतों की उस टुकड़ी से संख्या में कई गुनी बड़ी थी। विजय का उल्लास महमूद की सेना में, मार्ग की बाधाओं के होते हुए भी, लहरें मार रहा था। उधर राजपूत जय की आशा से नहीं, मारने और मरने की निष्ठा से जा भिड़े थे।
उन छह सहस्र राजपूतों में से कदाचित ही कोई बचा हो। परंतु अपने कम-से-कम दुगुने शत्रुओं को मारकर वे मरे थे।
इस लड़ाई से महमूद का मन खिन्न हो गया। उस समय वह और अधिक युद्ध के संकट को नहीं ओढ़ना चाहता था। महमूद ने गहन रेगिस्तान का मार्ग पकड़ा। सोचा, उत्तर-उत्तर चलते किसी दिन मुल्तान और फिर वहाँ से गजनी पहुँच जाने में कठिनाई नहीं पड़ेगी।
आतुरता के साथ दो-तीन दिन चलते-चलते यकायक उसने देखा तो सामने सिवाय बालू एवं रेतीले टीलों के और कुछ नहीं। मार्ग का नाम-निशान तक नहीं।
ऊँटों पर लदा पीने का पानी कम होने लगा। दूर-पास पानी की एक बूँद भी अप्राप्य। राजपूतों के संकट से पार हुए तो रेगिस्तान का यह प्राणघातिन विभीषिका चारों ओर।
वहाँ रेतीले टीलों के पीछे के छाग (बकरा) की खालों में पानी पीठ पर कसे दो ग्रामीण उसकी छावनी में आए। अधनंगे, बिलकुल फटेहाल। उनके पास पानी देखकर महमूद के सिपाहियों को ढाँढ़स मिला।
उनसे पूछा, ‘कौन हो? कहाँ के हो?’
उत्तर मिला, ‘हिंदू हैं। एक गाँव के रहनेवाले’
‘पानी कहाँ से लाए?’
‘आगे जरा दूर से।’
‘कहाँ है पानी? कितनी दूर?’
‘सुल्तान को बतलावेंगे।’
‘चलो उनके पास। इनाम मिलेगा।’ सिपाही उन दोनों को महमूद के पास ले गए। महमूद ने इनाम का वचन दिया। वे दोनों महमूद की सेना के मार्ग-प्रदर्शक बने। सेना उनके पीछे-पीछे चलने लगी।
कई दिन हो गए। न तो किसी के पदचिह्न वहाँ और न पानी का कोई पता। प्रचंड आँधी बालू के ढेर उठाती, उड़ाती और फिर कहीं जमा देती।
महमूद ने खिसियाकर दोनों मार्ग-प्रदर्शकों को अपने पास बुलवाया।
‘कहाँ है पानी? और कितनी दूर?’
‘थोड़ी दूर।’
‘यह कैसी थोड़ी दूर! रोज यही कह देते हो!’
‘बस, बिलकुल थोड़ी सी दूर।’
संध्या हो गई। महमूद ने टीलों में अपनी सेना का पड़ाव डाल दिया। ऊँटों पर पानी थोड़ा सा ही और रह गया था। एकाध दिन यह ‘थोड़ी दूर’ और चली कि सेना के पशु और मानव – दोनों का ढेर इन टीलों में हो जाएगा।
महमूद के एक नायक ने समाधान किया – ‘इन गँवारों को फासले की जानकारी बिलकुल नहीं। एक गाँव से दूसरे गाँव के बीच की दूरी को कह देते हैं – वह रहा गाँव थोड़ी दूर। होता है वह गाँव कई कोस के फासले पर।’
‘उन दोनों की मसकों में कितना पानी रह गया है?’ महमूद ने पूछा।
‘एक दिन के पीने लायक, बस।’
‘तब तो कल के बाद पानी के पास पहुँच जावेंगे। ये लोग यों ही अपनी जान नहीं देंगे। इनाम पाने की भी उम्मीद है इन्हें। वैसे हैं दोनों कोड़े खाने के हकदार।’
दूसरे दिन भोर के पहले ही महमूद ने कूच कर दिया। दिन भर चले। साँझ हो गई। पानी का फिर भी कहीं कोई लक्षण नहीं।
फिर वही ‘थोड़ी दूर’। महमूद क्रोध से भर गया। उसके ऊँटों पर पानी बहुत थोड़ा सा रह गया था। ज्यों ज्यों करके रात काटी, फिर प्रातःकाल के पहले ही कूच करना पड़ा; क्योंकि मार्ग-प्रदर्शकों ने आश्वासन दिया था कि दिन में अवश्य अभाव की समाप्ति हो जावेगी।
तीसरा पहर लग गया। सूर्य की किरणों से आग सी बरस रही थी। प्रचंड आँधी और जलती हुई किरणें आसपास मृगजल तो दिखला रही थीं, पर प्यास बुझानेवाला जल कहीं भी नहीं। रेत के टील इतने अधिक दिखलाई पड़ने लगे कि ठिकाना नहीं। सेना को चलना दुःसह हो गया। महमूद ने निश्चय किया। दोनों पथ-प्रदर्शकों को बुलवाया।
‘अब कितनी दूर है पानी?’
‘बस थोड़ी सी ही दूर।’
‘महमूद की आँखों से लौ-सी छूट पड़ी।’
‘तुम्हारे पास कितना पानी है?’
‘चुक गया।’
‘कितनी देर में पानी के पास पहुँचोगे?’
‘आ गए समझो।’
‘कहाँ?’
‘इन्हीं टीलों में।’
‘इन टीलों में!’
उन दोनों के क्षीण मलीन चेहरों पर मुसकान की छोटी सी लहर आई।
‘हाँ, इन्हीं टीलों में।’
महमूद का क्रोध और भी भभका।
‘यहाँ तो कुछ भी नहीं है! ये टीले तो पानी के कब्रिस्तान जान पड़ते हैं। सच बतलाओ, नहीं तो अभी सिर कटवाकर फिंकवा दूँगा।’
उन दोनों के चेहरों पर मुसकान की जगह आभा छहर गई। घुसी हुई आँखों में तेज आ बैठा।
‘सच यह है कि पानी के इस कब्रिस्तान में हमें तुम सबका कब्रिस्तान बनाना है।’
‘क्या?’
‘बिलकुल यही है। तुम हमारे देश का नाश करने आए हो। हम तुम्हें मिटाकर रहेंगे।’
‘अभी मार दो इन दोनों को!’ महमूद तड़पा।
‘मार दो। हमने अपने देश को जिंदा रहने का मार्ग दिखलाया। मरने से हमें जो कुछ मिलेगा, वह तुम सोच ही नहीं सकते।’
मरने के समय उन दोनों के चेहरों पर आभा सदा के लिए आ बैठी।
महमूद चला गया। अनेक कठिनाइयों के उपरांत उसे मुल्तान का मार्ग मिल गया था। और उन दोनों ने जो मार्ग दिखलाया, उससे इतिहास धन्य हो गया।
**समाप्त**
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