राजपूतनी का प्रायश्चित सुदर्शन की कहानी | Rajputani Ka Prayashchit Sudarshan Ki Kahani 

राजपूतनी का प्रायश्चित सुदर्शन की कहानी, Rajputani Ka Prayashchit Sudarshan Ki Kahani , Rajputani Ka Prayashchit Sudarshan Story In Hindi

Rajputani Ka Prayashchit Sudarshan Ki Kahani

कुँवर वीरमदेव कलानौर के राज्य हरदेवसिंह के पुत्र थे, तलवार के धनी और पूरे रणवीर। प्रजा उन पर प्राण देती थी, और पिता देख-देखकर फूला न समाता था। वीरमदेव ज्यों-ज्यों प्रजा की दृष्टि में सर्वप्रिय होते जाते थे, उनके सद्गुण बढ़ते जाते थे। प्रातःकाल उठकर स्नान करना, निर्धनों को दान देना, यह उनका नित्यकर्म था, जिसमें कभी चूक नहीं होती थी। वे मुस्कराकर बातें करते थे, और चलते-चलते बाट में कोई स्त्री मिल जाती, तो नेत्र नीचे करके चले जाते। उनका विवाह नरपुर के राजा की पुत्री राजवती से हुआ। राजवती केवल देखने में ही रूपवती न थी, वरन् शील और गुणों में भी अनुपम थी। जिस प्रकार वीरमदेव पर पुरुष मुग्ध थे, उसी प्रकार राजवती पर स्त्रियाँ लट्टू थीं। कलानौर की प्रजा उनको ‘चन्द्र-सूर्य की जोड़ी’ कहा करती थी।

वर्षा के दिन थे, भूमि के चप्पे-चप्पे पर से सुन्दरता निछावर हो रही थी। वृक्ष हरे-भरे थे, नदी-नाले उमड़े हुए थे। वीरमदेव सफलगढ़ पर विजय प्राप्त करके प्रफुल्लित मन से वापस आ रहे थे। सम्राट् अलाउद्दीन ने उनके स्वागत के लिए बड़े समारोह से तैयारियाँ की थीं। नगर के बाजार सजे हुए थे। छज्जों पर स्त्रियाँ थीं। दरबार के अमीर अगवानी को उपस्थित थे। वीरमदेव उत्फुल्ल बदन से सलामे लेते और दरबारियों से हाथ मिलाते हुए दरबार में पहुँचे। उनका तेजस्वी मुखमंडल और विजयी चाल-ढाल देखकर अलाउद्दीन का हृदय बदल गया। परंतु वह प्रकट हँसकर बोला–‘वीरमदेव! तुम्हारी वीरता ने हमारे मन में घर कर लिया है। इस विजय पर तुमको बधाई है।

वीरमदेव को इससे प्रसन्नता नहीं हुई। हंत! यह बात किसी सजातीय के मुख से निकलती! यह बधाई किसी राजपूत की ओर से होती, तो कैसा आनंद होता! विचार आया, मैंने क्या किया! वीरता से विजय प्राप्त की, परंतु दूसरे के लिए। युद्ध में विजयी, परंतु सिर झुकाने के लिए। इस विचार से मन में ग्लानि उत्पन्न हुई। परंतु आँख ऊँची की तो दरबारी उनकी ओर ईर्ष्या से देख रहे थे और आदर-पुरस्कार पाँवों में बिछ रहा था। वीरमदेव ने सिर झुकाकर उत्तर दिया–‘हुजूर का अनुग्रह है, मैं तो एक निर्बल व्यक्ति हूँ।’

बादशाह ने कहा–‘नहीं, तुमने वास्तव में वीरता का काम किया है। हम तुम्हें जागीर देना चाहते हैं।’

वीरमदेव ने कहा–‘मेरी एक प्रार्थना है।’

‘कहो।’

‘कैदियों में एक नवयुवक राजपूत जीतसिंह है, जो पठानों की ओर से हमारे साथ लड़ा था। वह है तो शत्रु, परंतु अत्यंत वीर है। मैं उसे अपने पास रखना चाहता हूँ।’

अलाउद्दीन ने मुस्कराकर उत्तर दिया–‘मामूली बात है, वह कैदी हमने तुम्हें बख्शा।’

 दो वर्ष पश्चात् वीरमदेव कलानौर को वापस लौटे, तो मन उमंगों से भरा हुआ था। राजवती की भेंट के हर्ष में पिछले दुःख सब भूल गये। तेज चलने वाले पक्षी की नाई उमंगों के आकाश में उड़े चले जाते थे। मातृभूमि के पुनर्दर्शन होंगे। जिस मिट्टी से शरीर बना है, वह फिर आँखों के सम्मुख होगी। मित्र-बन्धु स्वागत करेंगे, बधाइयाँ देंगे। उनके शब्द जिह्वा से नहीं, हृदय से निकलेंगे। पिता प्रसन्न होंगे, स्त्री द्वार पर खड़ी होगी।

ज्यों-ज्यों कलानौर निकट आ रहा था, हृदय की आग भड़क रही थी। स्वदेश का प्रेम हृदय पर जादू का प्रभाव डाल रहा था मानो पाँवों को मिट्टी की जंजीर खींच रही थी। एक पड़ाव शेष था कि वीरमदेव ने जीतसिंह से हँसकर कहा–‘आज हमारी स्त्री बहुत व्याकुल हो रही होगी।’

जीतसिंह ने सुना, तो चौंक पड़ा और आश्चर्य से बोला–‘आप विवाहित हैं क्या?’

वीरमदेव ने बेपरवाही से उत्तर दिया–‘हाँ मेरे विवाह को पाँच वर्ष हो गये।’ जीतसिंह का चेहरा लाल हो गया। कुछ क्षणों तक वह चुप रहा, परन्तु फिर न सह सका, क्रोध से चिल्लाकर बोला–‘बड़े हृदय शून्य हो, तुम्हें ऐसा न समझता था।’

वीरमदेव कल्पना के जगत् में सुख के महल बना रहे थे। यह सुनकर उनका स्वप्न टूट गया। घबराकर बोले–‘जीतसिंह, यह क्या कहते हो।

जीतसिंह अकड़कर खड़ा हो गया और तनकर बोला–‘समरभूमि में तुमने पराजय दी है, परंतु वचन निबाहने में तुम मुझसे बहुत पीछे हो।

‘बाल्यावस्था में मेरी तुम्हारी प्रतिज्ञा हुई थी। वह प्रतिज्ञा मेरे हृदय में वैसी-की-वैसी बनी हुई है, परन्तु तुमने अपने पतित हृदय की तृप्ति के लिए नया बाग और नया पुष्प चुन लिया है। अब से पहले मैं समझता था कि मैं तुमसे पराजित हुआ, परन्तु अब मेरा सिर ऊँचा है। क्योंकि तुम मुझसे कई गुना अधिक नीचे हो। पराजय लज्जा है, परंतु प्रेम की प्रतिज्ञा को पूरा न करना पतन का कारण है।’

वीरमदेव यह वक्तृता सुनकर सन्नाटे में आ गये और आश्चर्य से बोले–‘तुम कौन हो? मैंने तुमको अभी तक नहीं पहचाना।’

‘मैं…मैं सुलक्षणा हूँ।’

वीरमदेव के नेत्रों से पर्दा हट गया, और उनको वह अतीत काल स्मरण हुआ, जब वे दिन-रात सुलक्षणा के साथ खेलते रहा करते थे। इकट्ठे फूल चुनते इकट्ठे मंदिर में जाते और इकट्ठे पूजा करते थे। चंद्रदेव की शुभ्र ज्योत्स्ना में वे एक स्वर से मधुर गीत गाया करते थे और प्रेम की प्रतिज्ञाएँ किया करते थे। परंतु अब दिन बीत चुके थे, सुलक्षणा और वीरमदेव के मध्य में एक विशाल नदी का पाट था।

सुलक्षणा ने कहा–‘वीरमदेव! प्रेम के पश्चात दूसरा दर्जा प्रतिकार का है। तुम प्रेम का अमृत पी चुके हो, अब प्रतिकार के विषपान के लिए अपने होठों को तैयार करो।’

वीरमदेव उत्तर में कुछ कहा चाहते थे कि सुलक्षणा क्रोध से होठ चबाती हुई खेमें से बाहर निकल गयी, और वीरमदेव चुपचाप बैठे रह गये।

दूसरे दिन कलानौर के दुर्ग से घनगर्ज शब्द ने नगरवासियों को सूचना दी, वीरमदेव आते हैं। स्वागत के लिए तैयारियाँ करो।

हरदेवसिंह ने पुत्र का मस्तक चूमा। राजवती आरती का थाल लेकर द्वार पर आयी कि वीरमदेव ने धीरता से झूमते हुए दरवाजे में प्रवेश किया। परंतु अभी आरती न उतार पायी थी कि एक बिल्ली टाँगों के नीचे से निकल गई और थाल भूमि पर आ रहा। राजवती का हृदय धड़क गया, और वीरमदेव को पूर्व घटना याद आ गयी।

अभी सफलगढ़ की विजय पुरानी नहीं हुई थी, अभी वीरमदेव की वीरता की साख लोगों को भूलने न पायी थी कि कलानौर को अलाउद्दीन के सिपाहियों ने घेर लिया। लोग चकित थे, परंतु वीरमदेव थे कि यह आग सुलक्षणा की लगायी हुई है।

कलानौर यद्यपि दुर्ग था, परंतु इससे वीरमदेव ने मन नहीं हार दिया। सफलगढ़ की नूतन विजय से उनके साहस बढ़े हुए थे। अलाउद्दीन पर उनको असीम क्रोध था। मैंने उसकी कितनी सेवा की, इतनी दूर की कठिन यात्रा करके पठानों से दुर्ग छीनकर दिया, अपने प्राणों के समान प्यारे राजपूतों का रक्त पानी की तरह बहा दिया और उसके बदले में, जागीरों के स्थान में यह अपमान प्राप्त हुआ है।

परंतु राजवती को सफलगढ़ की विजय और वीरमदेव के आगमन से इतनी प्रसन्नता न हुई थी, जितनी आज हुई। आज उसके नेत्रों में आनंद की झलक थी और चेहरे पर अभिमान तथा गौरव का रंग। वीरमदेव भूले हुए थे, अलाउद्दीन ने उन्हें शिक्षा देनी चाही है। पराधीनता की विजय से स्वाधीनता की पराजय सहस्त्र गुना अच्छी है। पहले उसे ग्लानियुक्त प्रसन्नता थी–अब हर्षयुक्त भय। पहले उनका मन रोता था, परंतु आँखें छिपाती थीं। आज हृदय हँसता था और आँखें मुस्कराती थीं। वह इठलाती हुई पति के सम्मुख गयी और बोली–‘क्या संकल्प है?’

वीरमदेव जोश और क्रोध से दीवाने हो रहे थे, झल्लाकर बोले–‘मैं अलाउद्दीन के दाँत खट्टे कर दूँगा।’

राजवती ने कहा–‘जीवननाथ! आज मेरे उजड़े हुए हृदय में आनंदनदी उमड़ी हुई है!’

‘क्यों?’

‘क्योंकि आज आप स्वाधीन राजपूतों की नाईं बोल रहे हैं। आज आप वे नहीं हैं, जो पंद्रह दिन पहले थे। उस समय और आज में महान अंतर हो गया है। उस दिन आप पराधीन वेतन-ग्राही थे, आज एक स्वाधीन सिपाही हैं। उस दिन आप शाही प्रसन्नता के अभिलाषी थे, आज उसके समान स्वाधीन हैं। उस दिन आपको सुख-सम्पत्ति की आकांक्षा थी, आज आन की धुन है। उस समय आप नीचे जा रहे थे, आज आप उठ रहे हैं।’

राजवती के यह गौरव भरे शब्द सुनकर वीरमदेव उछल पड़े, और राजवती को गले लगाकर बोले–‘राजवती! तुमने मेरे मन में बिजली भर दी है। तुम्हारे यह शब्द रण-क्षेत्र में मेरे मन को उत्साह दिलाते हुए मुझे लड़ायेंगे। दुर्ग तुम्हारे अर्पण है।’

दुंदुभी पर चोट पड़ी, राजपूतों के दिन खिल गये। माताओं ने पुत्रों को हँसते हुए बिदा किया। बहनों ने भाइयों को तलवारें बाँधी। स्त्रियाँ स्वामियों से हँस-हँसकर गले मिलीं, परन्तु मन में उद्वग्निता भरी हुई थी! कौन जाने, फिर मिलाप हो या न हो।

दुर्ग के कुछ अंतर नदी बहती थी। राजपूत उसके तट पर डट गये। सेनापति की सम्मति थी कि हमको नदी के इस पार रहकर शाही सेना को पार होने से रोकना चाहिए, परन्तु वीरमदेव जोश में पागल हो रहे थे, उन्होंने कहा–‘हम नदी के उस पार शाही सेना से युद्घ करेंगे और सिद्ध कर देंगे कि राजपूतों का बाहुबल शाही सेना की शक्ति से कहीं अधिक है।’

राजपूतों ने महादेव की जय के जयकारे बुलाते हुए नदी को पार किया और वे शाही सेना से जुट गये।

राजपूत शाही सेना की अपेक्षा थोडे़ थे, परन्तु उनके साहस बढ़े हुए थे, और राजपूत बराबर आगे बढ़ रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था, मानो शाही सेना पर राजपूतों की निर्भीकता और वीरता ने जादू कर दिया है। परन्तु यह अवस्था अधिक समय तक स्थिर न रही। शाही सेना राजपूतों की अपेक्षा कई गुना अधिक थी, इसलिये संध्या होते-होते पासा पलट गया। राजपूतों को नदी के इस पार आना पड़ा।

इससे वीरमदेव को बहुत आघात पहुँचा। उन्होंने रात को एक ओजस्विनी वक्तृता दी, और राजपूतों के पूर्वजों के साखे सुना-सुनाकर उनो उत्तेजित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि राजपूतों ने क्रुद्ध सिंहों के समान तैरकर दूसरे दिन नदी पार करने की प्रतिज्ञा की, परंतु मनुष्य कुछ सोचता है, परमात्मा की कुछ और इच्छा होती है। इधर यह विचार हो रहे थे, उधर मुसलमान भी सोये न थे। उन्होंने कल्मा पढ़ कर कसमें खायीं कि मरते-मरते मर जायेंगे, परन्तु पीठ न दिखायेंगे। मुट्ठी भर राजपूतों से हारना सख्त कायरता है। लोग क्या कहेंगे? यह लोग कहेंगे कि भय लोगों से बहुत कुछ करवा देता है।

प्रातः काल हुआ तो लड़ाके वीर फिर आमने-सामने हुए और लोहे से लोहा बजने लगा। वीरमदेव की तलवार गजब ढा रही थी। वे जिधर झुकते थे, पूरे के पूरे साफ कर देते थे। उनकी रणदक्षता से राजपूत सेना प्रसन्न हो रही थी, परंतु मुसलमानों के हृदय बैठे जा रहे थे। यह मनुष्य है या देव, जो न मृत्यु से भय खाता है, न घावों से भय खाता है, न घावों से पीड़ित होता है। जिधर झुकता है विजय लक्ष्मी फूलों की वर्षा करती है। जिधर जाता है, सफलता साथ जाती है। इससे युद्घ करना लोहे के चने चबाना है। शाही सेना नदी के दूसरे पार चली गयी।

वीरमदेव ने राजपूतों के बढ़े हुए साहस देखे, तो गद्गद हो गये, सिपाहियों से कहा, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ और घोड़ा नदी में डाल दिया, इस साहस और वीरता पर मुसलमान आश्चर्यचकित हो रहे; परंतु अभी उनका विस्मय कम न हुआ था कि राजपूत किनारे पर आ गये, और तुमुल संग्राम आरम्भ हो गया। मुसलमान सेना लड़ती थी रोटी के लिए, उनके पैर उखड़ गये। राजपूत लड़ते थे मातृभूमि के लिए, विजयी हुए। शाही सेना में भगदड़ मच गयी, सिपाही समरभूमि छोड़ने लगे। वीरमदेव के सिपाहियों ने पीछा करना चाहा, परंतु वीरमदेव ने रोक दिया। भागते शत्रु पर आक्रमण करना वीरता नहीं, पाप है। और जो यह नीच कर्म करेगा, मैं उसका मुँह देखना पसंद न करूँगा।

विजयी सेना कलानौर में प्रविष्ट हुई। स्त्रियों ने उन पर पुष्प बरसाये, लोगों ने रात को दीपमाला की। राजवती ने मुस्कराती हुई आँखों से वीरमदेव का स्वागत किया और उनके कंठ में विजयमाला डाली। वीरमदेव ने राजवती को गले लगा लिया और कहा–‘मुझे तुझ पर मान है, तू राजपूतनियों में सिरमौर है।’

इस पराजय ने अलाउद्दीन के हृदय की भड़कती अग्नि पर तेल का काम किया। उसने चारों ओर से सेना एकत्रित की और चालीस हजार मनुष्यों से कलानौर को घेर लिया। वीरमदेव अब मैदान में निकलकर लड़ना नीतिविरुद्ध समझ दुर्ग में दुबक रहे।

दुर्ग बहुत दृढ़ और ऊँचा था। उसमें प्रवेश करना असंभव था। शाही सेना ने पड़ाव डाल दिया और वह रसद के समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगी। सात मास व्यतीत हो गये, शाही सेना निरंतर डेरा डाले पड़ी रही। दुर्ग में रसद घटने लगी। वीरमदेव ने राजवती से कहा–‘प्रिये! अब क्या होगा?’

राजवती बोली–‘आपका क्या विचार है?’

वीरमदेव ने उत्तर दिया–‘शाही सेना बहुत अधिक है। इससे छुटकारा पाना असम्भव है। परन्तु यह सब युद्ध मेरे लिये है, गेहूँ के साथ घुन भी पिसेंगे, यह क्यों?’

राजवती ने आश्चर्य से सिर ऊपर किया और कहा–‘यह क्या जीवननाथ! क्या शाही सेना आपको पाकर दुर्ग की ईंट न बजा देगी?

वीरमदेव ने ठंडी साँस भरी और कहा–‘अलाउद्दीन कलानौर नहीं, वरन् मुझे चाहता है।

‘और यदि वह आपको प्राप्त कर ले तो दुर्ग पर अधिकार न जमायेगा?’

‘यह नहीं कहा जा सकता है। हाँ, यदि मैं अपने आपको शाही सेना के अर्पण कर दूँ, तो संभव है, सेना हटा ली जाय।’

राजवती ने मन ही मन सोचा यदि कलानौर को भय नहीं, तो हमारे लिए इतना रक्त बहाने की क्या आवश्यकता है?

वीरमदेव ने कहा–‘प्रिये! तुम रातपूत स्त्री हो?’

‘हाँ।’

‘राजपूत मरने-मारने को उद्यत रहते हैं?’

‘हाँ।’

‘जाति पर प्राण निछावर कर सकते हैं?’

‘हाँ’।

‘मैं तुम्हारी वीरता की परीक्षा करना चाहता हूँ।’

राजवती ने संदेह भरी दृष्टि से अपने पति की ओर देखा और धीमे से कहा–मैं उद्यत हूँ।’

वीरमदेव ने कुछ देर सोचकर कहा–‘इस युद्ध को समाप्त करना तुम्हारे वश में है।’

राजवती समझ न सकी कि इसका क्या अभिप्राय है; चकित-सी होकर बोली–‘किस तरह?’

‘तुम्हें अपनी सबसे अधिक प्रिय वस्तु बलिदान करनी होगी।’

‘वह क्या?’

‘मुझे गिरफ़्तार करा दो, निर्दोष बच जायँगे ।’

राजवती का कलेजा हिल गया। रोकर बोली–‘प्राणनाथ! मेरा मन कैस मानेगा?’

‘राजपूत की आन निभाओ।’

राजपूत ने कहा–‘आपकी इच्छा सिर आँखों पर, परंतु यह बोझ असह्य है।’

वीरमदेव ने प्रसन्न होकर राजवती को गले लगा लिया और मुँह चूमकर वे बाहर चले गये। राजवती भूमि पर लेटकर रोने लगी।

दो घंटे के पश्चात दुर्ग में एक तीर गिरा, जिसके साथ कागज लिपटा हुआ था। हरदेवसिंह ने खोलकर देखा। लिखा था–हम सिवा वीरमदेव के कुछ नहीं चाहते। उसे पाकर तत्काल घेरा हटा लेंगे।

यह पढ़ कर हरदेवसिंह का हृदय सूख गया। वीरमदेव को बुलाकर बोले–‘क्या तुमने मुसलमान सेना को कोई संदेश भेजा था?’

‘हाँ, क्या उत्तर आया है?’

हरदेवसिंह ने कागज वीरमदेव को दिया और फूट-फूटकर रोने लगे। रोते-रोते बोले–बेटा! यह क्या? तुमने यह क्या संकल्प किया है? अपने को गिरफ़्तार करा दोगे?’

वीरमदेव ने उत्तर दिया–‘पिता जी! यह सब कुछ केवल मेरे लिए है! यदि आन का प्रश्न होता, दुर्ग की संरक्षा का प्रश्न होता, तो बच्चा-बच्चा न्योछावर हो जाता, मुझे आशंका न थी। परंतु अब कैसे चुप रहूँ, यह सब रक्तपात केवल मेरे लिए है। यह नहीं सहा जाता।’

उस रात्रि के अंधकार में दुर्ग का फाटक खुला और वीरमदेव ने अपने आपको मुसलमान सेनापति के अर्पण कर दिया। प्रातःकाल सेना ने दुर्ग का घिराव हटा लिया।

स्त्री का हृदय भी विचित्र वस्तु है। वह आज प्यार करती है, कल दुत्कार देती है। प्यार की खातिर स्त्री सब कुछ करने को तैयार हो जाती है, परंतु प्रतिकार के लिए उससे भी अधिक भयानक कर्म कर बैठती है।

सुलक्षणा असामान्य स्त्री थी। उसके हृदय में बाल्यावस्था से वीरमदेव की मूर्ति विराज रही थी। उसे प्राप्त करने के लिए वह पुरुष के वेश में पठानों के साथ मिलकर वीरमदेव की सेना से लड़ी और इस वीरता से लड़ी कि वीरमदेव उस पर मुग्ध हो गये। परन्तु जब उसे पता लगा कि मेरा स्वप्न भंग हो गया है, तो उसने क्रोध के वशीभूत भयंकर कर्म करने का निश्चय कर लिया। अनेक यत्नों के पश्चात वह अलाउद्दीन के पास गयी। अलाउद्दीन पर जादू हो गया। सुलक्षणा अतीव सुंदरी थी। अलाउद्दीन बिलासी मनुष्य था, प्रेमकटारी चल गयी। सुलक्षणा ने जब देखा कि अलाउद्दीन बस में है, तो उसने प्रस्ताव किया कि यदि आप वीरमदेव का सिर मँगवा दें, तो मैं आपको और आपके दीन को स्वीकार करूँगी। अलाउद्दीन ने इसे स्वीकार किया। इस अंतर में सुलक्षणा ने निवास के लिए पृथक महल खाली कर दिया।

आठ मास के पश्चात् सुलक्षणा के पास संदेश पहुँचा कि कल प्रातः काल वीरमदेव का सिर उसके पास पहुँच जायगा। सुलक्षणा ने शांति की श्वास लिया, अब प्रेम की प्यास बुझ गयी। उसने मुझे तुच्छ समझकर ठुकराया था। मैं उसके सिर को ठोकर मारूँगी। वीरमदेव ने मुझे तुच्छ स्त्री समझा, परंतु यह विचार न किया कि स्त्री देश भर का नाश कर सकती है। प्रेम भयानक है, परंतु प्रतिकार उससे भी अधिक भयंकर है। सुलक्षणा हँसी। इस हँसी में प्रतिकार का निर्दय भाव छुपा हुआ था।

विचार आया, मरने से पहले एक बार उसे देखना चाहिए। वह उस दुर्दशा में लज्जित होगा। सहायता के लिए प्रार्थना करेगा। मैं गौरव से सिर ऊँचा करूँगी। वह पृथ्वी में घुसता जायगा, मेरी ओर देखेगा परन्तु करुण दृष्टि से। उस दृष्टि पर खिलखिलाकर हँस देने पर उसे अपनी और मेरी अवस्था का ज्ञान होगा।

इतने में बादशाह सलामत आये। सुलक्षणा के मन की इच्छा पूरी हुई। कुँआ प्यासे के पास आया। बादशाह ने देखा, सुलक्षणा सादी पोशाक में है। इस पर सुंदरता उससे फूट-फूटकर निकल रही है। हँसकर बोला–‘सादगी के आलम में यह हाल है, तो जेवर पहनकर बिल्कुल ही गजब हो जायगा। कहो तबीयत अच्छी है?’

सुलक्षणा ने लजाकर उत्तर दिया–‘जी हाँ, परमात्मा की कृपा से।’

‘तुम्हारी चीज सुबह तुम्हारे पास पहुँच जायगी।’

‘मैं बहुत कृतज्ञ हूँ, परंतु एक प्रार्थना है, आशा है आप स्वीकार करेंगे।’

अलाउद्दीन ने सुलक्षणा के चेहरे की ओर देखते हुए कहा–‘क्या आज्ञा है?’

मैं वीरमदेव से एक बार साक्षात् करना चाहती हूँ। प्रातःकाल से पहले एक बार भेंट करने की इच्छा है।’

अलाउद्दीन ने सोचा, चिड़िया जाल में फँस चुकी है, जाती कहाँ है? वीरमदेव को चिढ़ाना चाहती है, इसमें हर्ज की बात नहीं। यह विचारकर उसने कहा–‘तुम्हारी बात मंजूर है, लेकिन अब निकाह जल्दी हो जाना चाहिए।’

सुलक्षणा ने उत्तर दिया–‘घबराइए नहीं, अब दो-चार दिन की बात है।’

बादशाह ने अँगूठी सुलक्षणा को दी कि दारोगा को दिखाकर वीरमदेव से मिल लेना और आप प्रसन्न होते हुए महल में रवाना हो गये।

सुलक्षणा ने नवीन वस्त्र पहने, माँग मोतियों से भरवायी, शरीर पर आभूषण अलंकृत किये और वह दर्पण के सामने जा खड़ी हुई। उसने अपना रूप सहस्त्रों बार देखा था, परन्तु आज वह अप्सरा प्रतीत हो रही थी। कमरे में बहुत-सी सुन्दर मूर्तियाँ थीं, एक-एक करके सबसे साथ उसने अपनी तुलना की, परन्तु हृदय में एक भी न जमी। अभिमान सौंदर्य का कटाक्ष है। सुलक्षणा अपने रूप के मद में मतवाली होकर झूमने लगी।

कहते हैं, सुन्दरता जादू है, और उससे पशु भी वश में हो जाते हैं। सुलक्षणा ने सोचा, क्या वीरमदेव हृदय से शून्य है। यदि नहीं, तो वह मुझे देखकर फड़क न उठेगा? अपनी की हुई उपेक्षाओं के लिए पश्चात्ताप न करेगा? प्रेम सब कुछ सह लेता है परन्तु उपेक्षा नहीं सह सकता। परन्तु थोड़े समय पश्चात् दूसरा विचार हुआ। यह क्या? अब प्रेम का समय बीत चुका, प्रतिकार का समय आया है। वीरमदेव का दोष साधारण नहीं है। उसे उसकी भूल सुझानी चाहिए। यह श्रृंगार किसके लिए है? मैं वीरमदेव के घावों पर नमक छिड़कने चली हूँ, उसे अपनी सुन्दरता दिखाने नहीं चली।

यह सोचकर उसने वस्त्र उतार लिये। और वीरमदेव को जलाने के लिये मुसलमानी वस्त्र पहनकर पालकी में बैठ गयी।

रात्रि का समय था, गगन-मंडल तारों से जगमगा रहा था। सुलक्षणा बुरका पहने हुए कैदखाने के दरवाजे पर गयी और बोली–‘दारोगा कहाँ है?’

सिपाहियों ने कहारों के साथ शाही कर्मचारी को देखकर आदर से उत्तर दिया–‘हम उन्हें अभी बुलाते हैं।’

सुलक्षणा ने नर्मी से कहा–‘इसकी आवश्यकता नहीं है। मैं वीरमदेव को देखूँगी, कैदखाने का दरवाजा खोल दो।’

सिपाही काँप गये और बोले, ‘यह हमारी शक्ति से बाहर है।’

सुलक्षणा ने कड़ककर कहा, ‘आज्ञा पालन करो। तुम रानी सुलक्षणा की आज्ञा सुन रहे हो। यह देखो शाही अँगूठी है।’

रानी सुलक्षणा का नाम राजधानी के बच्चे-बच्चे को जिह्वा पर था। कोई उसके गौर वर्ण का अनुमोदक था, कोई रसीले नयनों का। कोई गुलाब से गालो का, कोई पंखुड़ियों से होठों का। जब से उसने अलाउद्दीन पर विजय पाई थी। तब से उसकी सुन्दरता की कहानियाँ घर-घर में प्रसिद्ध हो रही थीं। उसे किसी ने नहीं देखा, परन्तु फिर भी कोई न था। जो इस बात की डींग मारकर मित्रों में प्रसन्न न होता हो कि उसने सुलक्षणा को देखा है।

सिपाहियों ने सुलक्षणा का नाम सुना और शाही अँगूठी देखी, तो उसने प्राण सूख गये। काँपते हुए बोले, ‘जो आज्ञा हो, हम हाज़िर हैं।’ यह कहकर उन्होंने कैदखाने का दरवाजा खोल दिया और वे दीपक लेकर उस कोठरी की ओर रवाना हुए, जिसमें अभागा वीरमदेव अपने जीवन की अंतिम रात्रि के श्वास पूरे कर रहा था। सुलक्षणा के पैर लड़खड़ाने लगे। अब वह सामने होगा, जिसकी कभी मन में आराधना किया करती थी। आज उसे वध की आशा सुनाने चली हूँ।

सिपाहियों ने धुँधला-सा दीपक दीवट पर रख दिया और आप दरवाजा बंद करके बाहर चले गये। सुलक्षणा ने देखा, वीरमदेव फर्श पर बैठा हुआ है और मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। सुलक्षणा के हृदय पर चोट पहुँची। यह राजपूत कुल-भूषण है और धर्म पर स्थिर रहकर जाति पर न्योछावर हो रहा है। मैं भ्रष्टा होकर अपनी जाति के एक बहुमूल्य व्यक्ति के प्राण ले रही हूँ। यह मर जायगा, तो स्वर्ग के द्वार इसके स्वागत के लिए खुल जाएँगे। मैं जीवित रहूंगी, परन्तु नरक के पथ में नीचे उतरती जाऊँगी। इसके नाम पर लोग श्रद्धा के पुष्प चढ़ाएँगे, मेरे नाम पर सदा धिक्कार पड़ेगी। यह मैंने क्या कर दिया? जिससे प्रेम करती थी, जिसके नाम की माला जपती थी, जिसकी मूर्ति मेरा उपास्य देव थी, जिसके स्वप्न देखती थी, उसे आप कहकर मरवाने चली हूँ। जिस सिर को अपना सिर मौर समझती थी, उसे नेत्र कटा हुआ कैसे देखेंगे? सुलक्षणा की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। प्रेम की दबी हुई अग्नि जल उठी। सोया हुआ स्नेह जागृत हो पड़ा। हृदय में पहले का प्रेम लहराने लगा, नेत्रों में पहला प्रेम झलकने लगा। सुलक्षणा की नींद खुल गयी।

सुलक्षणा लड़खड़ाते हुए पैरों से आगे बढ़ी, परन्तु हृदय काँपने लगा। पैर आगे करती थी, परन्तु मन पीछे रहता था। वीरमदेव ने सिर उठाकर देखा, तो अचम्भे में आ गये। और आश्चर्य से बोले, ‘सुलक्षणा! यह क्या? क्या प्रेम का प्रतिकार धर्म, न्याय और जाति का रुधिर पान करके भी तृप्त नहीं हुआ, जो ऐसी अँधियारी रात्रि में यहाँ आयी हो?’

सुलक्षणा की आँखों से आसुओं का फव्वारा उछल पड़ा, परन्तु वह पी गयी। उसे आज ज्ञान हुआ कि मैं कितनी पतित हो गयी हूँ, तथापि सँभलकर बोली–‘नहीं अभी मन शांत नहीं हुआ।’

‘क्या माँगती हो? कहो, मैं देने को उद्यत हूँ;’

‘इसी से यहाँ आयी हूँ, मेरे घाव का मरहम तुम्हारे पास है।’

वीरमदेव ने समझा, मेरा सिर लेने आयी है। सुनकर बोले, ‘मरहम यहाँ कहाँ है, मैं तो स्वयं घाव बन रहा हूँ, परन्तु तुम जो कहोगी, उससे पीछे न रहूँगा।’

सुलक्षणा ने अपना मुख दोनों हाथों से ढाँप लिया, वह फूट-फूटकर रोना लगी। रोने के पश्चात हाथ जोड़कर बोली, ‘तुमने एक बार मेरा हृदय तोड़ा है, अब प्रतिज्ञा भंग न करना।’

वीरमदेव को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने मन में सोचा, हो-न-हो, यह अपने किये पर लज्जित हो रही है, और यह बचाव का उपाए ढूँढ़ती है। आश्चर्य नहीं, मुझसे क्षमा माँगती हो। गंभीरता से पूछा, ‘क्या कहती हो?’

सुलक्षणा ने विनती करके कहा, ‘मेरे वस्त्र पहनो और यहाँ से निकल जाओ।’

वीरमदेव ने घृणा से मुँह फेर लिया और कहा, ‘मैं राजपूत हूँ।’

सुलक्षणा ने रोकर उत्तर दिया, ‘तुम मेरे कारण इस विपत्ति में फँसे हो। जब तक मैं स्वयं तुमको यहाँ से निकाल न दूँ, तब तक मेरे मन को शान्ति न होगी। तुमने घाव पर मरहम रखने की प्रतिज्ञा की है। राजपूत प्रतिज्ञा भंग नहीं करते। देखो इंकार न करो, सिर न हिलाओ; मैंने पाप किया है, उसका प्रायश्चित करने दो।’

स्त्री का अन्तिम शस्त्र रोना है। जहाँ सब यत्न व्यर्थ हो जाते हैं वहाँ यह युक्ति सफल होती है। सुलक्षणा को रोते हुए देखकर वीरमदेव नर्म हो गये और धीरे से बोले, ‘इसमें दो बातें शंकनीय हैं। पहली तो यह कि तुम मुसलमान हो चुकी हो। यह वस्त्र मैं नहीं पहन सकता। दूसरे मैं निकल गया तो मेरी विपत्ति तुम पर टूट पड़ेगी।’

सुलक्षणा ने उत्तर दिया, ‘मैं अभी तक अपने धर्म पर स्थिर हूँ। यह वस्त्र तुम्हें जलाने के लिए पहने थे, परन्तु अब अपने पर लज्जित हूँ। इसलिए तुम्हें यह शंका न होनी चाहिए।’

‘और दूसरी बात?’

‘मुझे तनिक भी कष्ट न होगा। मैं सहज ही में प्रातःकाल छूट जाउँगी।’

सुलक्षणा ने झूठ बोला, परन्तु यह झूठ अपने लिए नहीं, दूसरे के लिये था। यह पाप था, परंतु जिस पर सैकड़ों पुण्य निछावर किये जा सकते हैं। वीरमदेव को विवश होकर उसके प्रस्ताव के साथ सहमत होना पड़ा।

जब उन्होंने वस्त्र बदल लिये, तो सुलक्षणा ने कहा, ‘यह अंगूठी दिखा देना।’

वीरमदेव बुरका पहनकर निकले। सुलक्षणा ने शांति का श्वास लिया। वह पिशाचनी से देवी बनी। बुराई और भलाई में एक पग का अन्तर है।

सुलक्षणा की आँखें अब खुलीं और उसे ज्ञान हुआ कि मैं क्या करने लगी थी, कैसा घोर पाप, कैसा अत्याचार! राजपूतों के नाम को कलंक लग जाता। आर्यस्त्रियों का गौरव मिट जाता। सीता-रुक्मिणी की आन जाती रहती। क्या प्रेम का परिणाम कर्म-धर्म का विनाश है? क्या जो प्रेम करते हैं, वह हत्या भी कर सकते हैं? क्या जिसके मन में प्रेम के फूल खिलते हैं, वहाँ उजाड़ भी हो सकता है? क्या जहाँ प्रीति की चाँदनी खिलती है, जहाँ आत्म-बलिदान के तारे चमकते हैं, वहाँ अंधकार भी हो सकता है? जहाँ स्नेह की गंगा बहती है, जहाँ स्वार्थ-त्याग की तरंगें उठती हैं, वहाँ रक्त की पिपासा भी रह सकती है? जहाँ अमृत हो, वहाँ विष की आवश्यकता है? जहाँ माधुर्य हो, वहाँ कटुता का निवास क्योंकर? स्त्री प्रेम करती है, सुख देने के लिए। मैंने प्रेम किया, सुख लेने के लिए। प्रकृति के प्रतिकूल कौन चल सकता है? मेरे भाग्य फूट गये परंतु जिनसे मेरा प्रेम है, उनका क्यों बाल-बाँका हो? प्रेम का मार्ग विकट है, इस पर चलना बिरले मनुष्य का काम है। जो अपने प्राणों को हथेली पर रख ले, वह प्रेम का अधिकारी है।

जो संसार के कठिन-से-कठिन काम करने को उद्यत हो, वह प्रेम का अधिकारी है। प्रेम बलिदान सिखाता है, हिसाब नहीं सिखाता। प्रेम मस्तिष्क को नहीं हृदय को छूता है। मैंने प्रेमपथ पर पैर रखा, फल मुझे मिलना चाहिए। वीरमदेव नेस विवाह किया, पति बना, संतानवान हुआ, अब उसको पहले की प्रेम की बातें सुनाना मूर्खता नहीं तो क्या है। मैंने पाप किया है, उसका प्रायश्चित करूँगी। रोग की औषधि कड़वी होती है।

इतने में कैदखाने का दरवाजा खुला। पिछले पहर का समय था। आकाश से तारागण लोप हो गये थे। कैदखाने का दीपक बुझ गया और कमरे में सुलक्षणा के निराश हृदय के समान अंधकार छा गयी, प्रायश्चित का समय आ गया है, उसने कम्बल को लपेट लिया और चुप-चाप लेट गयी। घातक के हाथ में दीपक था, उसने ऊँचा करके देखा, कैदी सो रहा है। पाप कर्म अधंकार में ही किये जाते हैं।

जल्लाद धीरे-धीरे आगे बढ़ा और सुलक्षणा के पास बैठ गया। उसने कम्बल सरकाकर उसका गला नंगा किया और उस पर छुरी फेर दी। सुलक्षणा ने अपने रक्त से प्रायश्चित किया आप मरकर हृदयेश्वर को बचाया। जिसके रुधिर की प्यासी हो रही थी, जिसकी मृत्यु पर आनंद मनाना चाहती थी, उसकी रक्षा के लिए सुलक्षणा ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। प्रेम के खेल निराले हैं।

पिछले पहर का समय था। उषाकाल की पहली रेखा आकाश पर फूट पड़ी। जल्लाद सिर लपेटे हुए अलाउद्दीन के पास पहुँचा और झुककर बोला, ‘वीरमदेव का सिर हाज़िर है।’

अलाउद्दीन ने कहा, ‘कपड़ा उतारो।’

जल्लाद ने कपड़ा हटाया। एक बिजली कौंध गयी, अलाउद्दीन कुर्सी से उछल पड़ा। यह वीरमदेव का नहीं सुलक्षणा का सिर था। अलाउद्दीन बहुत हताश हुआ। कितने समय के पश्चात आशा की श्यामल भूमि सामने आयी थी परन्तु देखते-ही-देखते निराशा में बदल गयी। राजपूतनी के प्रतिकार का कैसा हृदय वेधक दृश्य था! प्रेम-जाल में फँसी हुई हिंद स्त्री का प्रभाव-पूर्ण बलिदान, पतति होने वाली आत्मा का पश्चात्ताप!

यह समाचार कलानौर पहुँचा, तो इस पर शोक किया गया, और वीरमदेव कई दिन तक रोते रहे। राजवती ने एक मंदिर बनाकर उसके ऊपर सुलक्षणा नाम खुदवा दिया। अब न वीरमदेव इस लोक में है न राजवती, परंतु वह मन्दिर अभी तक विद्यमान है, और लोगों को राजपूतनी के भयंकर प्रायश्चित का स्मरण करा रहा है।

**समाप्त**

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