दिल्‍ली का अंतिम दीपक सुदर्शन की कहानी | Dilli Ka Antim Deepak Sudarshan Ki Kahani 

दिल्‍ली का अंतिम दीपक सुदर्शन की कहानी, Dilli Ka Antim Deepak Sudarshan Ki Kahani, Dilli Ka Antim Deepak Sudarshan Story In Hindi 

Dilli Ka Antim Deepak Sudarshan Ki Kahani 

(1)

जिन्‍होंने सन् 1880 में दिल्‍ली का चाँदनी चौक देखा है उन्‍होंने सुभागी का भाड़ अवश्‍य देखा होगा। आज वह भाड़ दिखाई नहीं देता, न सायंकाल उसका धुआँ आकाश की ओर जाता नजर आता है। वह पूरबी स्त्रियों का समूह, वह गरीबों का जमाव, वह बच्‍चों का कोलाहल, जिस पर रसीले गीतों की मोहिनी निछावर की जा सकती है, यह सब अतीत काल की भूली हुई कहानी हो गई है। उसके स्‍थान पर अब एक शानदार दुकान खड़ी है, जहाँ अमीरों की गाड़ियाँ आकर रुकती हैं। कभी वहाँ सुभागी का भाड़ जलता था और गरीब लोग आकर अनाज भुनाते थे। सुभागी कुरूपा स्‍त्री थी, आयु भी चालीस वर्ष से कम न होगी। उसकी आवाज डरावनी थी। रात को एकांत स्‍थान में दिखाई पड़ जाने से चुड़ैल का सन्‍देह होना स्‍वाभाविक था। मगर इस पर भी चाँदनी चौक में ऐसे आनन्‍द और संतोष का जीवन बिता रही थी जो राजमहलों में रानियों को भी प्राप्‍त न होगा। वह गरीब थी, उसके पास रुपया-पैसा न था, न बहुमूल्‍य वस्‍त्र थे। भाड़ झोंकने से केवल उतनी ही प्राप्ति होती थी, जितनी से शरीर और आत्‍मा का सम्‍बन्‍ध स्थिर रह सकता है। परन्‍तु उसके पास एक वस्‍तु ऐसी थी जो न राजमहलों में थी, न कुबेर के कोष में थी। उसके पास हृदय का संतोष और शांति की नींद थी, जिसे न चोर चुरा सकता था, न राजा छीन सकता था। वह उन्‍नीसवीं सदी में रहते हुए चौहदवीं सदी का जीवन व्‍यतीत कर रही थी। जैसे किसी के चारों तरफ आग काले नाग के समान अपना भयानक मुँह खोले लपक रही हो, मगर वह हरे वृक्षों से ढकी हुई नदी के किनारे बैठा उसकी लहरों से खेल रहा हो और उसे इस बात की कोई चिन्‍ता, कोई शंका न हो कि मेरे चारों तरफ आग भभक रही है। वह समझता है, यहाँ पानी है, इस पर आग का असर न होगा। इधर आएगी तो आप ही बुझेगी, मेरा क्‍या बिगाड़ लेगी। यही दशा सुभागी की थी। उसने अपने जीवन के चालीस वर्ष इसी झोंपड़े में काटे थे। इसे देखकर उसका हृदय-मयूर नाचने लग जाता था। दिल्‍ली बदल गई, चाँदनी चौक बदल गया, मकान बदल गए। यहाँ तक कि दिल्‍ली की प्राचीन सभ्‍यता भी बदल गई, परन्‍तु सुभागी और उसके पास के भाड़ में कोई परिवर्तन न हुआ। यदि प्रकृति के नियम बदल जाते और धरती की कच्‍ची मिट्टी को निगले हुए मुर्दे उगलने की आज्ञा मिल जाती तो वे पहचान न सकते कि वह वही दिल्‍ली है। परन्‍तु सुभागी के भाड़ को देखकर वे अपनी समस्‍त शक्तियों से चिल्‍ला उठते कि यह वही दिल्‍ली है। सच पूछो तो यह सुभागी का भाड़ नहीं था, नवीन दिल्‍ली के शरीर में प्राचीन दिल्‍ली की आत्‍मा विराजमान थी। यह झोंपड़ा नहीं थी, दिल्‍ली के अँधेरे प्रकाश में पुराने भारतवर्ष का दीपक जल रहा था। आज वह सादगी की जान, संतोष का नमूना, पुराने समय की अंतिम यादगार कहाँ है? वे आत्‍मसम्‍मान के भाव किधर चले गए? किस देश को? दिल्‍ली के बाजार इसका उत्‍तर नहीं देते। पहले मंदिर गया था, अब दीपक भी दिखाई नहीं देता।

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सुभागी का झोंपड़ा गगनभेदी अट्टालिकाओं के बीच इस तरह खड़ा था, जैसे अहंकार और अभिमान के बीच सच्‍चा आनन्‍द खड़ा मुस्‍करा रहा हो। सुभागी को किसी से डाह न था, न ऊँचे मकान देख उसका जी जलता। उसके लिए यह झोंपड़ा और वह भाड़ ही सब कुछ था। तीस वर्ष गुजरे, जब उसका भड़भूजा उसे ब्‍याह कर लाया था तब से वह यहीं थी। मरते समय उसके पति ने कहा था, “मैं तुझे लेने आऊँगा।” बात साधारण थी, परन्तु सुभागी के दिल में बैठ गई। आजकल की स्त्रियाँ शायद इस बात को निष्‍फल और निर्मूल कहकर भुला देतीं। मगर सुभागी पुराने समय की नीच (?) स्‍त्री थी। वह अपने प्रीतम की प्रतिज्ञा को कैसे भूल जाती! यह उसके पति का वचन था। सोचती थी – कौन जाने, किस समय आ जाए। उसकी आत्‍मा इस झोंपड़े को, इस भाड़ को ढूँढ़ेगी, मेरा नाम ले-लेकर बुलाएगी। पुराने जमाने का भड़भूजा नई दिल्‍ली में घबरा जाएगा। समझेगा – “सुभागी ने प्रीति की रीति नहीं निबाही, प्रेम का दीया वायु के झोंकों ने बुझा दिया।” और यह वह विचार, वह भाव था, जिसके लिए सुभागी ने स्‍त्री होकर संसार के दु:खों का सामना मर्दों के समान किया। शरीर भद्दा था, परन्‍तु दिल कैसा सुन्‍दर, कैसा मनोहर था! लोहे की खान में सोने का डला छिपा था।

(2)

इसी प्रकार कई वर्ष बीत गए और बदल जाने वाली दुनिया में न बदलने वाली सुभागी उसी तरह अपने परदेशी पिया का रास्ता देखती रही। मगर उसे उसकी सुध न आई। यहाँ तक कि चाँदनी चौक के अमीर व्‍यापारियों की लोभी आँखें सुभागी के भाड़ की तरफ उठने लगीं। ऐसी चाह से कोई रसिया अपनी हृदयेश्‍वरी की तरफ भी न देखता होगा। सोचते थे, कैसा अच्‍छा मौका है, यहाँ दुकान बने तो बाजार की शोभा बढ़ जाए। कई व्‍यापारियों ने यत्‍न किया, थैलियाँ लेकर सुभागी के पास पहुँचे, मगर सुभागी ने बेपरवाही से उनकी तरफ देखा और कहा – “यह जमीन न बेचूँगी। यहाँ मेरा स्‍वामी बिठा गया है। मुझे लेने आएगा तो कहाँ ढूँढ़ेगा। यह झोंपड़ा नहीं, तीर्थराज है। इसे बेच दूँ तो मेरा भला किस जुग में होगा?”

एक व्‍यापारी ने कहा – “सुभागी! अब वह कभी न लौटेगा। तू आशा छोड़ दे।”

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सुभागी ने उत्‍तर दिया – “परन्‍तु उसका वचन कैसे झूठा हो जाएगा। उसके शब्‍द आज तक मेरे कानों में गूँज रहे हैं।”

एक और अदूरदर्शी ने कहा – “इस बुढ़ापे में इतना परिश्रम क्‍यों करती है? झोंपड़ा बेच दे और भगवान का भजन कर।”

सुभागी बोली – “झोंपड़ा गया तो भजन की सुध भी जाती रहेगी। जिसने पिया को भुला दिया, वह भगवान को खाक याद करेगी।”

एक मुँहफट ने कहा – “तू सठिया गई है। रुपए ले और चैन की बंसी बजा। अब सारी आयु छाती फाड़कर काम करने का क्‍या तूने ठेका ले लिया है?”

सुभागी ने उत्‍तर दिया – “यह तो जन्‍म का काम है, मरने पर ही छूटेगा। चार दिन के सुख के लिए अपना घर कैसे बेच दूँ?”

“मगर इसमें है क्‍या?”

“मरने वाले की समाधि है। समाधि को किसी ने बेचा है?”

“तू तो बावली हो गई है।”

“भगवान इसी तरह उठा ले, यही प्रार्थना है। तुम अपनी रकम अपने पास ही रहने दो। मेरे लिए यह झोंपड़ा ही सब कुछ है।”

“हम तुम्‍हें और मकान दे देंगे।”

“परायी वस्‍तु अपनी कैसे बन जाएगी?”

“उसमें सब तरह का आराम रहेगा। यह झोंपड़ा तो किसी कामकाज का नहीं है।”

“अपनी बच्‍चा बदसूरत हो तो भी प्‍यारा लगता है।”

इसी प्रकार प्रलोभनों ने बीसियों आक्रमण किए, मगर संतोष के सामने सब व्‍यर्थ गए, जिस तरह पानी की लहरें चट्टान से टकराकर पीछे हट जाती है।

(3)

सुभागी के त्रिया-हठ ने सब का उत्‍साह भंग कर दिया। उन्‍होंने समझ लिया कि बुड्ढी भाड़ न बेचेगी। मगर सेठ जानकीदास ने हिम्‍मत न हारी। उनकी दो दुकानें थीं और यह भाड़ उन दोनों के बीच में था। आसपास फानूस जलते थे, मध्‍य में दीया टिमटिमाता था। यह दीया सुभागी के लिए जीवन-ज्‍योति से कम न था। उसे देखकर उसका हृदय ब्रहानन्‍द में लीन हो जाता था। मगर जानकीदास उसे देखते तो उनकी आँखों में लहू उतर आता था। सोचते, यह जगह मिल जाए तो दुकानों का कलंक मिट जाए। हजारों जवान मरते हैं, इस बुढ़िया को मौत नहीं आती। मगर बुढ़िया से मिलते तो बहुत सत्‍कार का भाव दिखाते। तलवार पर मखमल का गिलाफ चढ़ा हुआ था।

एक दिन की बात है, सुभागी वृक्षों के रूखे-सूखे पत्‍ते और टूटी-फूटी टहनियाँ चुनने गई। दोपहर का समय था, सूरज की किरणें चारों तरफ नाच रही थीं। सुभागी बेपरवाही से पत्‍ते और लकड़ियाँ बीन रही थी। एकाएक आकाश में काली घटा छा गई और ठण्‍डी-ठण्‍डी वायु चलने लगी। सुभागी ने एकत्र किए हुए पत्‍ते आदे कपड़े में बाँधे और नगर की ओर चली। परन्‍तु तीन मील की दूरी कोई साधारण दूरी न थी। इस पर सुभागी की बूढ़ी टाँगें। वर्षा ने बुढि़या को घेर लिया। बादल बरसने लगे। मगर ये बादल न थे, सुभागी का दुर्भाग्‍य था। एक वृक्ष के नीचे खड़ी हो गई और सोचने लगी, सायंकाल को क्‍या करूँगी? ये पत्‍ते भी भींग गए तो भाड़ कैसे गर्म होगा? भाड़ गर्म न हुआ तो खाऊँगी क्‍या? हाथ उठा-उठाकर प्रार्थना की कि तनिक वर्षा रुक जाए तो घर पहुँच जाऊँ। परन्‍तु बादलों ने सुभागी की न सुनी। वे आकाश के वासी थे, पृथ्‍वी के बेटों की उन्‍हें क्‍या चिन्‍ता थी! जल-थल एक हो गया। उस दिन की वर्षा वर्षा न थी, भगवान का कोप था। आठ घण्‍टे वह वर्षा हुई कि चारों तरफ कोलाहल मच गया। यमुना में बाढ़ आ गई। सहस्रों गरीबों के मकान गिर गए। गाय-बैल इस तरह बहे जाते थे, मानो घास-फूस के तिनके हैं। उनको बचाने वाला कोई न था और यह पानी बाहर ही न था, दिल्‍ली के गली-कूचों में भी फुंकारें मारता फिरता था। जिनके मकान पक्‍के थे वे बेपरवाह थे, जिनके कच्‍चे थे उनका धीरज छूटा जाता था। और पानी कहता था, आज बरसकर फिर न बरसूँगा।

सुभागी एक वृक्ष पर बैठी हुई इधर-उधर देखती थी और निराशा की ठण्‍डी साँसें भरती थी। उसके आसपास पानी ही पानी था। दूर तक कोई मनुष्‍य दिखाई न देता था। उसके एकत्र किए हुए पत्‍ते किसी अभागे स्‍वप्‍न के सदृश जल में विसर्जित होकर पता नहीं कहाँ चले गए थे। परन्‍तु सुभागी को उसकी चिन्‍ता न थी। उसके दिल में एक ही चिन्‍ता थी, एक ही इच्‍छा कि किसी तरह घर पहुँच जाऊँ। पता नहीं भाड़ का क्‍या हाल होगा। पानी तले डूब गया होगा। मिट्टी का ढेर रह गया होगा। यदि उसके बस में होता तो उसी समय वहाँ पहुँच जाती, पर पानी रास्‍ता रोके खड़ा था, सुभागी तड़पकर रह गई। उस समय उसने एक कबूतरी देखी जो एक वृक्ष की डाल पर बैठी थी। सुभागी ने सोचा, अगर मैं कबूतरी होती तो उड़कर चली जाती, पानी मेरा क्‍या बिगाड़ लेता। इतने में कबूतरी ने पर खोले और उड़कर वह दृष्टि से ओझल हो गई। यह देखकर सुभागी ने सोचा, राम जाने वह कबूतरी कहाँ गई है, शायद मेरे झोंपड़े की ही तरफ गई हो। उसने चाहा कि मैं भी दौड़कर वहाँ चली जाऊँ। परन्‍तु झुककर देखा तो आधा वृक्ष अभी तक पानी के अन्‍दर था और मार्ग दिखाई न देता था। सुभागी की आँखों से आँसुओं की दो बूँदें गिरीं और वर्षा के ठण्‍डे जल में विलीन हो गई।

दूसरे दिन प्रात:काल सुभागी वृक्ष से उतरी और शहर को चली। पानी बरसना बंद हो चुका था, पर आसमान में बादल अभी बाकी थे। सुभागी का शरीर सर्दी से अकड़ा जाता था, आँखों से आग-सी निकल रही थी, पैरों में शक्ति न थी। परन्‍तु वह फिर भी चल रही थी, जैसे संध्‍या समय गऊ अपने भूखे बछड़े की तरफ भागती है। वहाँ पुत्र-स्‍नेह का आकर्षण होता है, यहाँ घर का मोह था। मिट्टी में भी मोहिनी है। मगर इसे देखने के लिए दिव्‍य-दृष्टि की आवश्‍यकता है। खाली आँख से वह दिखाई नहीं देती।

सुभागी चाँदनी चौक में पहुँची तब उसका दिल बैठ गया। अब न वह झोंपड़ा ही बाकी था, न भाड़। उनके स्‍थान में मिट्टी का एक ढेर और घास-फूस के तिनके पड़े थे और इनके नीचे उसका साधारण माल-असबाब दब गया था। सुभागी के दिल पर जैसे किसी ने आग के अंगारे रख दिए मगर उसने धीरज नहीं छोड़ा। थोड़ी देर बाद लोगों ने देखा, तो वह झोंपड़ा खड़ा कर रही थी। दूसरे दिन भाड़ भी तैयार हो गया। सुभागी फूली न समाती थी, उसके पाँव पृथ्‍वी पर न पड़ते थे। उसने अपना उजड़ा हुआ घर बसा लिया था, जहाँ उसका पति उसे ब्‍याह कर लाया था।

(4)

भाड़ बन गया, पर गर्म होना उसके प्रारब्‍ध में न लिखा था। सुभागी बीमार हो गई, उसे बुखार आने लगा। सेठ जानकीदास ने पूछा – “सुभागी! तुझे यह क्‍या हो गया?”

सुभागी – “सेठजी! वर्षा की सरदी खा गई हूँ।”

जानकीदास – “और फिर दूसरी रात भी तो तू आराम से न बैठी। झोंपड़ा तैयार न होता तो कौन-सी प्रलय हो जाती।”

सुभागी ने आश्‍चर्य की दृष्टि से सेठ साहब की ओर देखा और पीड़ा से बेहाल होकर कहा – “सिर छिपाने को भी तो स्‍थान न था, कहाँ ठोकरें खाती फिरती?”

जानकीदास – “तू मेरे यहाँ चली आती तो क्‍या हर्ज था, मैं तेरा पड़ोसी हूँ।”

सुभागी – “इसकी तो तुमसे आशा ही है।”

जानकीदास – “सुभागी, तू बनावट करती है। मेरी राय तो यह है कि मेरे यहाँ चली चल। वहाँ तेरी सेवा-सुश्रूषा होगी। बोल, क्‍या इरादा है?”

सुभागी के दिल में पहले तो खयाल आया कि चली चलूँ, वृद्धावस्‍था में चार दिन आराम से कट जाएँगे। पर फिर झोंपड़े के मोह ने इरादा बदल दिया। साथ ही पति के अंतिम शब्‍द भी स्‍मरण हो आए। आह भरकर बोली – “सेठजी! इस झोंपड़े से मैं न निकलूँगी, मेरी अर्थी निकलेगी।”

जानकीदास – “तो यह कहो ना, मरने की ठानी है।”

सुभागी – “अगर मौत ही भाग में लिखी है तो उसे कौन टाल सकता है? परन्‍तु यह झोंपड़ा तो न छूटेगा।”

जानकीदास कुछ देर चुप रहे। इसके बाद एकाएक उनके दिल में कोई सुरुचिकर विचार उत्‍पन्‍न हुआ जैसे निराशा के अँधेरे में आशा की किरण दिखाई दे जाती है। धीरे से बोले – “बहुत अच्‍छा! पर मुझे इतनी तो आज्ञा दो कि तुम्‍हारी दवा-दारू और खाने-पीने का प्रबन्‍ध करा दूँ। नहीं तो मुझे तुमसे सदा शिकायत रहेगी।”

सुभागी सीधी-सादी स्‍त्री थी। उसने नई सभ्‍यता के छल-कपट नहीं देखे थे। वह उस युग की स्‍त्री थी जब लोग झूठ बोलना पाप समझते थे। सेठ साहब की मीठी-मीठी बातों ने उसका दिल मोह लिया। उसकी तरफ उसका ध्‍यान न गया। उसने उपकार के भाव से थरथराती हुई आवाज से कहा – “भगवान तुम्‍हारा भला करे। तुम आदमी नहीं देवता हो।”

सुभागी का इलाज होने लगा। ऐसी लगन से किसी दयालु अमीर ने अपने प्रिय संबंधी का भी इलाज न किया होगा। रात को कई-कई बार उठते और सिरहाने खड़े रहते। रुपया-पैसा तो पानी के समान बहा दिया। उन्‍हें उसकी परवाह न थी। उनका खयाल था कि किसी तरह बुढ़िया बच जाए तो भाड़ की जगह आप दे देगी और यदि न देगी तो कहूँगा कि मेरा रुपया चुका दे। गरीब भड़भूँजन है, इतना रुपया कहाँ से लाएगी।

छह महीने के बाद सुभागी चारपाई से उठी, तो उसका बाल-बाल सेठ साहब का ऋणी थी। उनका धन उसके झोंपड़े को न खरीद सकता था, सहानुभूति ने उसे भी खरीद लिया। अब सुभागी पहली सुभागी न थी, बेपरवा, प्रसन्‍न-वदन, शान्‍त स्‍वभाव। अब उसकी जगह एक खरीदी हुई दासी रह गई थी, जिसके चेहरे पर कभी-कभी स्‍वधीन सुहागी की स्‍वच्‍छ कान्ति दिखाई दे जाती थी। एक दिन वह था, जब सुभागी सेठ जानकीदास के आगे से ऐंठकर निकल जाती थी, परन्‍तु आज उनके सामने उसकी आँखें न उठती थीं। जिस काम को सख्‍ती न कर सकती थी उसे नरमी ने कर दिया। सुभागी सेठ साहब के पाँव से लिपट गई और रोने लगी परन्‍तु सेठ साहब ने उसे इस तरह उठा लिया जैसे वह उनकी अपनी माँ हो।

कुछ दिनों के बाद चाँदनी चौक के व्‍यापारियों ने सुना कि सुभागी ने अपना झोंपड़ा सेठ साहब के हाथ बेच दिया है। यह खबर मामूली न थी, लोग चौंक पड़े। उनको इस पर विश्‍वास न होता था। सिर हिलाकर कहते, यह भी सेठ साहब की चाल है, बुढ़िया जीते-जी झोंपड़ा न छोड़ेगी। कोई कहता, सेवा की थी, मेवा पा लिया। कोई कहता, अनहोनी बात है, किसी ने यों ही उड़ा दी। लेकिन जब झोंपड़ा उखाड़कर फेंक दिया गया और खुदाई का काम आरम्‍भ हो गया तब सबको विश्‍वास हो गया कि सेठ साहब ने बाजी मार ली।

(5)

सुभागी सीधी-सादी जरूर थी, पर मूर्ख नहीं थी। सेठ साहब की बातचीत से उसे कुछ-कुछ संदेह होने लगा। मगर कभी-कभी यह भी खयाल आता कि कहीं मैं भूल तो नहीं कर रही हूँ। सुभागी असमंजस में पड़ गई। उसने आज तक किसी के सामने हाथ न पसारा था, न किसी के आगे आँखें झुकाई थीं। गरीब होकर वह अमीरों की-सी शान बनाए रहती थी। इस बीमारी ने उसका मान-धन लुटा दिया। उसका जीवन बच गया, पर जीवन-ज्‍योति जाती रही। वह अपनी दृष्टि में आप गिर गई। अब चाँदनी चौंक में उसके लिए आत्‍मभिमान की चाल चलनी कठिन थी। उसका हृदय कहता था, इस कलंक ने मुझे कहीं मुँह दिखाने के योग्‍य नहीं रखा।

कुछ दिन इसी तरह गुजरे। मगर हर रोज सन्‍ध्‍या के समय उसे ऐसा अनुभव होता, मानो उसके हृदय का अँधेरा, कंधों का बोझा, जीवन का जंजाल बढ़ता चला जा रहा है, जैसे ऋणी का ऋण दिन-प्रतिदिन ज्यादा होता जाता है। सोच-समझकर उसने यह निश्‍चय किया कि सेठ साहब का ऋण टहल-सेवा करके चुका दूँ, नहीं तो चित्‍त को शान्ति न मिलेगी। यह सोचकर उसने एक दिन सेठ साहब से कहा – “सेठ साहब! तुमने बड़ी कृपा की है। मेरा रोम-रोम तुम्‍हें आशीर्वाद दे रहा है। मुझमें यह उपकार उतारने का साहस नहीं। एक गरीब मजदूरनी क्‍या करेगी। पर मुझे मालूम तो हो कि मेरी बीमारी पर कितना खर्च हुआ है। धीरे-धीरे उतार दूँगी।”

सेठ साहब का कलेजा धड़कने लगा। जिस क्षण की बाट जोहते थे वह आ गया। बही से हिसाब देखकर बोले – “साढ़े चार सौ।”

“साढ़े चार सौ?” सुभागी का चेहरा कानों तक लाल हो गया। उसे ऐसा मालूम हुआ मानो जमीन-आसमान घूम रहे हैं। कुछ देर चुपचाप खड़ी सोचती रही। इसके बाद आह भरकर बोली – “साढ़े चार सौ? इतनी रकम मेरी बीमारी पर उठ गई?”

जानकीदास ने सिर नीचे डाल लिया और कहा – “रोज डॉक्‍टर आता था।”

सुभागी हतबुद्धि-सी खड़ी रह गई। क्‍या कहे, क्‍या न कहे, कुछ निश्‍चय न कर सकी। जैसे भूले हुए मुसाफि़र को रात के अँधेरे में रास्‍ता नहीं मिलता तो हारकर बैठ जाता है, वैसे ही सुभागी ने किंर्त्‍तव्‍यविमूढ़ होकर उत्‍तर दिया – “यह ऋण मुझसे तो न उतरेगा।”

जब हमें कोई सख्‍त बात कहनी होती है तब जबान के नर्म बन जाते हैं। सेठ साहब ने अत्‍यन्‍त कोमल स्‍वर में कहा – “झोंपड़ा बेंच दो। ऋण उतर जाएगा।” सेठ साहब जानते थे कि सुभागी के कौन बैठा है जो उसकी मौत के बाद झोंपड़े पर अधिकार जमाने आएगा। इस समय वे अधीर हो रहे थे, जैसे नादान लड़का बुड्ढे पिता की मौत से पहले ही उसकी सम्‍पत्ति का मालिक बनना चाहता है।

सुभागी की आँखें खुल गईं। जहाँ फूल थे, वहाँ काँटा दिखाई दिया। अब कोई संदेह न था। सुभागी की आँखों में शील था। यह पिशाचकाण्‍ड देखकर वह दूर हो गया, तेज होकर बोली – “जबान सँभालकर बोल। झोंपड़े की तरफ देखा भी तो आँखें निकाल लूँगी।”

सेठ साहब हँसे। इस हँसी में वे निर्दयता के भाव छिपे थे जो कसाइयों के दिल में भी न होंगे। फिर जरा ठहरकर बोले – “तो सुभागी! मेरी रकम लौटा दो। मैं तुम्‍हारा झोंपड़ा नहीं माँगता।”

सुभागी ने अभिमान से सिर उठाया और एक-एक शब्‍द पर जोर देकर बोली – “अगर सच्‍चे भड़भूँजे की बेटी होऊँगी तो तुम्‍हारी कौड़ी-कौड़ी चुका दूँगी। पर यह झोंपड़ा तुम्‍हारे हाथ कभी न बेचूँगी।”

जानकीदास – “बहुत अच्‍छी बात है। मैं भी देखता हूँ कि कौन तुम्‍हें थोलियाँ खोले देता है।”

सुभागी – “मेरा भगवान मर नहीं गया है।”

जानकारीदास – “अगर तुम्‍हारा झोंपड़ा बच जाए तो मुझे कम खुशी न होगी। मुझे तो अपनी रकम चाहिए।

सुभागी – “मुझे पता न था कि तुम्‍हारे दिल में कपट भरा है।”

जानकीदास – “कलयुग का जमाना है। अब नेकी करना भी पाप हो गया है।”

सुभागी – “पर तुमसे नेकी करने को कहा किसने था?”

जानकीदास – “भूल हो गई, क्षमा कर दो। फिर ऐसा न होगा।”

सुभागी – “मैं समझती थी, नेक आदमी है! पर आज आँखों से पर्दा हट गया।”

जानकीदस – “यही गनीमत है।”

सुभागी – “तुम्‍हें झोंपड़ा न मिलेगा। समझते होगे दोनों दुकानें मिलाकर महल खड़ा कर लूँगा। इससे मुँह धो रखो।”

अब जानकीदास को भी क्रोध आ गया, तेज होकर बोला – “देखता हूँ, कौन माई का लाल मुझे रोकता है। एक महीने के अंदर-अंदर इस झोंपड़े का नाम-निशान तक न रहेगा।”

जिसका हाथ नहीं चलता उसकी जबान बहुत चलती है। सुभागी ने जो कुछ जी में आया कहा और अपने झोंपड़े में जाकर रोने लगी। कभी अपने भाग्‍य को देखती, कभी झोंपड़े की कच्‍ची दीवारों को, और फूट-फूटकर रोती जैसे लड़की ससुराल जाते समय रोती है। उस समय उसके हृदय में कितना दुख होता है, सीने पर कितना बोझ! उसे दुनिया की कोई चीज अच्‍छी नहीं लगती। यही अवस्‍था सुभागी की थी। झोंपड़े की एक-एक वस्‍तु देखकर उसका दिल लहू के आँसू बहाता था। इसी उधेड़बुन में तीन-चार दिन गुजर गए।

चौथे दिन एक आदमी (शम्‍भूनाथ) ने आकर पूछा – “सुभागी! अब तेरा क्‍या हाल है? तूने बड़ा कष्‍ट पाया।”

सुभागी – “भगवान की दया है।”

शम्‍भूनाथ – “सुना है, सेठ जानकीदास ने तेरे लिए बहुत खर्च किया है?”

सुभागी – “भैया! उस पापी का नाम न लो।”

शम्‍भूनाथ – “शहर में तो बड़ा जस हो रहा है। कहते हैं, उसने सुभागी को बचा लिया। आदमी काहे को है, देवता है।”

सुभागी – “मेरा बस चले तो मैं उसका मुँह नोच लूँ।”

शम्‍भूनाथ – “असली बात क्‍या है?”

सुभागी – “ऐसा हत्‍यारा सारी दिल्‍ली में न होगा। साठ-सत्‍तर रुपए खर्च करके कहता है, साढ़े चार सौ उठ गए। मैंने सोचा था, सारी आयु सेवा करती रहूँगी। पर उसकी आँख तो झोंपड़े पर है। कहता है, या रुपए दे या झोंपड़ा बेच। देखो तो कैसा अंधेर है। इतना भी नहीं सोचता कि मेरे कौन बाल-बच्‍चे हैं, मरूँगी तो झोंपड़ा उसी को दे जाऊँगी। पर अब तो मेरा जी खट्टा हो गया है।

शम्‍भूनाथ – “राम राम! कलयुग का जमाना है। ऐसा हमने कभी नहीं सुना था।”

सभागी – “भैया! यह झोंपड़ा तो उसे कभी न दूँगी।”

शम्‍भूनाथ ने सहानुभूति से कहा – “मगर क्‍या करोगी। वह तो नालिश कर देगा।”

सुभागी निरुत्‍तर हो गई। इस बात का कोई जवाब न था। आँखें सजल हो गईं जो बेबसी की अंतिम सीमा है। एकाएक उसने सिर उठाया और धीरे से कहा – “तुम्‍हीं न खरीद लो। मैं तुम्‍हारे हाथ आज ही बेच दूँगी।”

शम्‍भूनाथ उछल पड़ा – “सुभागी, तुमने खूब सोचा।”

सुभागी – “दाँत खट्टे हो जाएँगे सेठ साहब के। मुँह देखते रह जाएँगे।”

शम्‍भूनाथ – “पता नहीं, संसार इतने पाप क्‍यों करता है?”

सुभागी – “धरती साथ तो चली न जाएगी।”

उसके बाद खरीद-फरोख्‍त की बातचीत होने लगी। आठ सौ रुपए पर मामला हो गया। सुभागी के सीने से बोझ-सा हट गया, मगर फिर चित्‍त पर उदासीनता सी छा गई जैसे कोई व्‍यापारी अपने सौदे में कमाकर फिर किसी चिन्‍ता में निमग्‍न हो जाता है और इस चिन्‍ता में उसकी खुशी जुगनू की चमक के समान आँखों से ओझल हो जाती है।

रात इन्‍हीं चिन्‍ताओं में गुजर गई। दूसरे दिन वह कचहरी में थी और कचहरी का आदमी उससे कह रहा था – “बुढ़िया! यहाँ अँगूठा लगा दे।”

(6)

सुभागी ने ये शब्‍द सुने मगर ठीक ऐसे, जैसे कोई स्‍वप्‍न में दूर की आवाज सुनता है और उसका तात्‍पर्य कुछ समझता है, कुछ नहीं समझता। उसने असावधानी से अँगूठा आगे कर दिया। कचहरी के आदमी ने उस पर स्‍याही पोत दी और उसे पकड़कर उसका निशान कागज पर लगा दिया। उसे क्‍या खबर थी कि यह स्‍याही मैंने कागज पर नहीं, अपने भविष्‍य की शांति और चित्‍त के संतोष पर फेर दी है। शम्‍भूनाथ ने आठ सौ रुपए गिनकर उसकी झोली में डाल दिए, सुभागी की आँखें चमकने लगीं। यह चमक दीपक की लौ थी, जो बुझने से पहले एक बार हँसती है और फिर सदा के लिए अंधेरे में लीन हो जाती है। कचहरी के बाहर आकर सुभागी को खयाल आया कि मैंने यह क्‍या कर डाला। इतने रुपए यदि उसे पहले मिल जाते तो अपने झोंपड़े में जाकर शायद सौ बार गिनती और तब उन्‍हें कहीं दबा देती। पर अब कहाँ जाए? उसने बहुत सोचा, चारों तरफ देखा, परन्‍तु कोई स्‍थान दिखाई न दिया। लम्‍बी-चौड़ी दुनिया में वह अकेली थी। उसका कोई न था। उसके पास रुपए थे, सेठ साहब का ऋण चुकाकर भी उसके पास साढ़े तीन सौ बच जाते। लेकिन उसके पास रुपए रखने की जगह न थी। अंधी-बहरी दुनिया में कौन उसका हाथ थामेगा, किस छत के तले जाकर वह विश्राम करेगी। इधर-उधर सब आदमी थे, किंतु सब पराए थे, उसका अपना कोई न था। एक झोंपड़ा था सारी आयु का मूनिस – गमख्‍वार। सुभागी ने उसमें आधी जवानी और आधे बुढ़ापे के दिन गुजारे थे। छोटे-छोटे बच्‍चे, गरीब स्त्रियाँ, मजदूर – ये सब आकर उससे अनाज भुनवाते थे। वह इन्‍हें अपना आत्‍मीय समझती थी। आज सब बिछुड़ गए। आज उसके घर का द्वार उसके लिए बंद हो गया। बेचारी कहाँ जाए? किधर जाए? लोग कचहरी से निकलते तो तेज़ी से शहर की ओर जाते। उनके घर होंगे। पर सुभागी का घर कहाँ है? उसके पास राजसी महल न था, शानदार भवन न था, था एक फूस का झोंपड़ा और कच्‍चा भाड़। बेदर्दों ने वह भी छीन लिया। सुभागी रोने लगी। उसके हृदय-बेधी शब्‍दों ने राह जाते मुसाफि़रों के पाँव पकड़ लिए, किंतु वह कुछ कर नहीं सकते थे।

संध्‍या समय था। सुभागी सेठ जानकीदास की दुकान पर पहुँची और डरते-डरते एक तरफ खड़ी हो गई, जैसे कोई फकीरनी हो। अब उसमें वह उत्‍साह, वह साहस न था, जिसकी सारी दिल्‍ली में धूम मची हुई थी। उस समय वह घर की मालकिन थी, अब बेघर थी, जिसका सारे संसार में कोई न था। सेठ साहब ने उसे देखा तो आँखों में पानी छलकने लगा। अहंकार के लाखों शत्रु हैं, नम्रता का एक भी नहीं। लोग भेड़ मारने को बंदूक लेकर नहीं निकलते। अब सेठ साहब को किस पर क्रोध आता? एक बेघर की भिखारिन पर? वे लोभी थे, पर ऐसे पतित, इतने अधम न थे। बोले – “सुभागी!”

सुभागी ने झोली सेठ के पाँव पर उलट दी और कहा – “ये लो तुम्‍हारे रुपए हैं। सँभाल लो। तुमने साढ़े चार सौ कहा था, यह आठ सौ हैं। बाकी ब्‍याज समझ लो।”

कितना भारी अंतर है! सेठ साहब अमीर थे, साढ़े चार सौ न बख्‍श सके। सुभागी गरीब थी, साढ़े तीन सौ ऐसे फेंक दिए जैसे वे रुपए न थे, मिट्टी के ढेले थे। सेठ साहब को अपने पतन का अनुभव हुआ तो लज्‍जा ने मुँह लाल कर दिया। वे आगे बढ़े कि सुभागी के पाँव पर गिरकर क्षमा के लिए प्रार्थना करें। उन्‍हें आज पहली बार ज्ञान हुआ कि इस बुड्ढी के हृदय में घर का ऐसा प्‍यार, इतना मोह भरा है। परन्‍तु सुभागी वहाँ न थी। हाँ, उसके रुपए दुकान के फर्श पर बिखरे पड़े थे। ये रुपए न थे, सुभागी के दिल के टुकड़े थे, लहू में सने हुए। सेठ साहब पर घड़ों पानी पड़ गया।

आधी रात को सुभागी अपने झोंपड़े में पहुँची, पर इस तरह जैसे कोई चोर हो। वह फूँक-फूँक कर पाँव धरती थी। कोई सुन न ले, कोई देख न ले। कभी वह इस झोंपड़े की रानी थी, आज परदेसिन। आज उसका इस पर कोई स्‍वत्‍व, कोई अधिकार न था। उसने दीया जलाया, सब कुछ वहीं पड़ा था। उसी तरह। एक पीतल की थाली, एक लोटा, दो कटोरियाँ, एक टूटी-टाटी चारपाई, बस यही सब कुछ उसकी जायदाद थी। आज वह उससे विदा होने आई है। वह नए जमाने की स्त्रियों में से न थी, जो अपना घर छोड़ते समय एक आँसू भी नहीं बहातीं, न उनके दिल पर ऐसे दुखोत्‍पादक दृश्‍य का कोई प्रभाव पड़ता है। वह पुराने युग की अनपढ़ और असभ्‍य स्‍त्री थी, जिसके लिए घर छोड़ना और शरीर छोड़ना दोनों बराबर थे। वह अपनी चीजों से लिपट-लिपटकर रोई, मानो वे निर्जीव वस्‍तुएँ न थीं, उसकी जीती-जागती सखियाँ थीं। इस समय सुभागी का हृदय रो रहा था। प्रात:काल लोगों ने देखा, सब कुछ वहीं पड़ा है। केवल सुभागी का पता नहीं। घर मौजूद था, शंभूनाथ की मार्फत खुद सेठ साहब ने खरीदा था। इसके लिए उन्‍होंने कई साल यत्‍न किया, उसकी जगह उसी को लौटा दे। अब यह झोंपड़ा उन्‍हें अपनी दुकानों का कलंक मालूम होता था। उन्‍होंने सुभागी की खोज की पर उसका पता न मिला, यहाँ तक कि सेठ साहब निराश हो गए।

(7)

मगर सुभागी कहाँ थी? दिल्‍ली से बाहर, जमुना के किनारे, जंगल में। कैसी आन वाली स्‍त्री थी! जहाँ घर की मालकिन बनकर कई साल गुजारे थे, वहाँ बेघर होकर एक दिन भी न गुजार सकी और उसी रात जंगल में चली गई। उसे शहर से घृणा हो गई थी। वह चाहती थी ऐसे स्‍थान में जा रहे, जहाँ किसी परिचित का मुँह भी दिखाई न दे। वह मनुष्‍य की छाया से भी दूर भागती थी। उसका दिल टूट गया था। अब उसके कान आदमी की आवाज के भूखे न थे, न उसके लिए जगत में आशा का मोहक गीत बाकी था। वह भूखी-प्‍यासी पागलों के समान चली जा रही थी। पता नहीं, कहाँ? शायद वहाँ, जहाँ मनुष्‍य समाज की सहानुभूति और आशा-किरण का जादू न हो। वह अब ऐसा स्‍थान ढूँढ़ती थी, जहाँ कोई प्रसन्‍नता, कोई अभिलाषा, कोई मोहनी न हो। रात के अँधेरे में पत्‍थरों से टकराती, झाड़ियों से उलझती, गड्ढों में गिरती-पड़ती, ऊँच-नीच फाँदती सुभागी इस प्रकार चली जाती थी, जिस प्रकार उड़ते हुए पक्षी की छाया चली जाती है और इसे कोई रोक नहीं सकता। किसी दूसरे समय वह इस जंगल में आकर काँप उठती, पर इस समय उसे जंगल से जरा भी भय न था। दुख और निराशा में भय भी नहीं रहता और जो अँधेरा उसके हृदय में समाया हुआ था उसके सामने बाहर का अँधेरा तुच्‍छ था। वह मनुष्‍य और मनुष्‍य के विचार दोनों से दूर भाग रही थी। जंगल के हिंस्र जीव-जंतु उसे आदमी से कहीं अधिक दयावान्, शीलवान और उच्‍च मालूम होते थे। सोचती, ये झूठ नहीं बोलते, धोखा नहीं देते, बगल में छुरी दबाकर मुँह से मीठी-मीठी बातें नहीं करते। इन्‍हें चापलूसी करना नहीं आता। ये मनुष्‍य से हजार गुना अच्‍छे हैं। मनुष्‍य से इनकी तुलना करना घोर अपमान करना है।

इसी तरह सोचती और मनुष्‍य-समाज और आधुनिक सभ्‍यता को कोसती हुई सुभागी जंगल के अँधेरे में बढ़ती चली जाती थी कि भूख-प्‍यास और सर्दी ने उसके पाँव पकड़ लिए और वह एक पत्‍थर पर बैठकर रोने लगी। रात का समय था। जंगल में अंधकार छाया हुआ था। आदमी का पुतला तक दिखाई न देता था। सुभागी अपने भाड़ का स्‍मरण कर रोती थी पर उसके आँसुओं को देखने वाला सिवा आसमान के तारों के और कोई न था।

यहाँ सुभागी को पुराने जमाने की एक कुटिया मिल गई। इसमें उसने एक महीना काटा। वृक्षों के फल खाती, जमुना का पानी पीती और रात को घास पर लेटी रहती। यहाँ उसको कोई कष्‍ट न था, न खाने-पीने के लिए मजदूरी करनी पड़ती थी। किंतु घर का मोह यहाँ भी न गया। यह मिट्टी की जंजीर जीते-जी किसके पाँव से कब उतरी? विवश होकर एक दिन उसने कुटिया को छोड़ दिया और दिल्‍ली को लौट पड़ी। इस समय उसके पाँव पृथ्‍वी पर नहीं पड़ते थे। मगर शहर के समीप आकर उसका दिल बैठ गया। कहाँ जाऊँगी? इस शहर में मेरा कौन है? लोग देखेंगे तो क्‍या कहेंगे? सोच-सोचकर निश्‍चय किया कि रात को जाऊँगी, जिसमें कोई देखने न पाए। पर रात बहुत देर में आई। हतभागों से समय की भी शत्रुता है।

सुभागी अपने झोंपड़े के पास पहुँची तो उस पर बिजली-सी गिर गई। वहाँ झोंपड़ा न था, न उसका भाड़ दिखाई देता था। जमीन खुदी हुई थी, छोटी-छोटी दीवारें खड़ी थीं। यह इमारत न थी, उसके सुखों की समाधि थी। सुभागी ने एक चीख मारी और वहीं बैठ गई। किन- किन आशाओं से आई थी, सब पर पानी फिर गया। उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो चाँदनी चौक की सारी रोशनी बुझ गई है और आसमान के तमाम तारों ने अँधेरे की चादर से मुँह छिपा लिया है। एकाएक उसे खयाल हुआ कि मेरा पति मुझे लेने आएगा तो कहाँ ढूँढ़ेगा?

दूसरे दिन इस दुकान के दरवाजे पर उसका मृत शरीर पड़ा था। उसका वचन झूठा न निकला। उसने दुनिया छोड़ दी, पर अपना झोंपड़ा न छोड़ा। आज वह सुभागी कहाँ चली गई? किधर? किस देश को? वहीं, जहाँ उसका पति, उसका भाड़, उसका झोंपड़ा जा चुका था। वह पुराने युग की स्‍त्री थी, अपने घर के बिना अकेली कैसे रहती? नई दिल्‍ली में पुरानी दिल्‍ली का अंतिम दीया जल रहा था, वह भी बुझ गया।

सेठ जानकीदास कई दिन तक घर से बाहर नहीं निकले।

**समाप्त**

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