पैंतालीस रुपये महीने आर. के. नारायण की कहानी हिंदी में | Paintalis Rupye R K Narayan Story In Hindi

पैंतालीस रुपये महीने आर. के. नारायण की कहानी हिंदी में Paintalis Rupye R K Narayan Story In Hindi , Forty Five A Month R K Narayan English Story In Hindi 

Paintalis Rupye R K Narayan Ki Kahani 

शान्ता कक्षा में और अधिक ठहर नहीं पा रही थी। उसने मिट्टी के खिलौने, संगीत, ड्रिल, अक्षर और संख्याओं के काम पूरे कर लिये थे, और अब रंगीन कागज काट रही थी। यह उसे तब तक करना था जब तक घंटी न बज जाती और टीचर कह न देती, ‘अब तुम लोग घर जा सकते हो, ‘ या ‘अब कैंचियाँ रख दो और अक्षरों का अभ्यास करो।” शान्ता, समय क्या हुआ है, यह जानने के लिए परेशान थी। उसने बगल में बैठी सहेली से पूछा, ‘पाँच बज गये क्या?’

‘शायद,’ सहेली ने जवाब दिया।

‘या छह बजे हैं ?’

‘यह तो नहीं लगता,” सहेली बोली, ‘क्योंकि छह बजे रात हो जाती है।’

‘तो क्या पाँच बजे हैं?’

‘हाँ।’

‘तो मुझे जाना चाहिए। पिताजी घर आ गये होंगे। उन्होंने कहा है, पाँच बजे तैयार रहना। शाम को हम सिनेमा देखने जायेंगे। अब मुझे चलना चाहिए। उसने कैंची रख दी और टीचर से बोली, ‘मैडम, मुझे घर जाना है।’

‘क्यों, शान्ता?’

‘क्योंकि पाँच बज गये हैं।’

‘किसने कहा कि पाँच बज गये ?’

‘कमला ने।’

‘अभी पाँच नहीं बजे। बजे हैं-अच्छा, सामने घड़ी देखकर बताओ कि कितने बजे हैं। उस दिन मैंने तुम्हें घड़ी देखना सिखाया था।’

शान्ता ने हॉल में लगी घड़ी को ध्यान से देखा, उस पर लिखे अंक धीरे-धीरे पढ़ने की कोशिश की और कहा, ‘नौ बजे हैं।’

टीचर ने दूसरी लड़कियों को बुलाया और पूछा, ‘कौन बतायेगा कि घड़ी में क्या बजा है ?’

कइयों ने शान्ता की तरह यही कहा कि नौ बजे हैं। इस पर टीचर ने कहा, ‘तुम सिर्फ घड़ी की बड़ी सुई देख रही हो। छोटी को भी देखो, वह कहाँ है?’

‘ढाई पर है।’

‘तो समय क्या हुआ?’

‘ढाई।’

‘नहीं। दो बजकर पैंतालीस मिनट। समझे? अब सब अपनी सीटों पर वापस जाओ. ।’

दस मिनट बाद शान्ता फिर टीचर के पास आकर बोली, ‘मैडम, क्या पाँच बज गये? मुझे पाँच बजे तैयार रहना है, नहीं तो पिताजी बहुत नाराज होंगे। उन्होंने कहा है, घर जल्दी आना।’

‘किस वक्त ?’

‘अभी।’

टीचर ने उसे जाने की आज्ञा दे दी। शान्ता ने अपनी किताबें उठाई और खुश होकर क्लास से बाहर चली गई। घर पहुँचकर किताबें जमीन पर फेंकी और चिल्लाई, ‘माँ…।”

माँ पड़ोस के घर से दौड़कर आई, जहाँ वह गप्पें मारने चली गई थी।

माँ ने पूछा, ‘तुम इतनी जल्दी क्यों आ गई?”

‘पिताजी लौट आये?” उसने पूछा। वह कुछ खाने-पीने को तैयार न हुई और पहले कपड़े बदलने की जिद करने लगी। माँ ने ट्रंक खोलकर कपड़े निकाले तो शान्ता ने बहुत महीन कपड़े की फ्रॉक पसंद की, जबकि माँ उसे लंबी स्कर्ट और मोटा कोट पहनाना चाहती थी। फिर शान्ता ने अपने डिब्बे में से, जिसमें वह रबड़, पेंसिल, रंग वगैरह रखती थी, एक बहुत चमकीला रिबन निकाला। इस पर माँबेटी में गरमागर्म बहस हो गई कि यह रिबन इस ड्रेस पर अच्छा लगता है या नहीं, लेकिन अंत में माँ को बेटी की बात माननी पड़ी। शान्ता ने अपनी पसंद की गुलाबी, फ्रॉक पहनी, देर तक बाल काढ़े और मिगटेल चुटिया में हरे रंग का रिबन लगाकर खड़ी हुई। फिर चेहरे पर पाउडर लगाया और माथे पर लाल बिंदी चिपकाई। फिर बोली, ‘पिताजी कहेंगे, कितनी अच्छी लड़की है कि वक्त पर तैयार हो गई। तुम भी हो चलोगी, माँ?’

‘आज नहीं।’

शान्ता घर के दरवाजे पर खड़ी हो गई। माँ ने कहा, ‘पिताजी तो पाँच बजे के बाद ही आयेंगे। अभी तो चार ही बजे हैं, धूप में खड़ी मत हो।’

सूरज घर के पीछे छिपने लगा था और शान्ता जानती थी कि अब औधेरा हो जायेगा। शान्ता माँ के पास जाकर पूछने लगी, ‘पिताजी अभी तक क्यों नहीं आये?’

‘मुझे क्या पता! शायद ऑफिस में काम आ गया होगा।’

शान्ता ने चेहरा बनाया। ‘मुझे ऑफिस के लोग पसंद नहीं हैं। वे अच्छे नहीं होते…।’

वह फिर दरवाजे पर चली गई और इन्तजार करने लगी। माँ भीतर से चिल्लाई, ‘शान्ता, घर में रहो। अँधेरा होने लगा है। वहाँ मत खड़ी हो।’

लेकिन शान्ता भीतर नहीं गई, गेट पर ही खड़ी रही। तभी उसे एक विचार आया। वह ऑफिस ही पहुँच जाये और पिताजी को लेकर सिनेमा देखने चली जाये। लेकिन उसे पता नहीं था कि ऑफिस कहाँ है। वह रोज देखती थी कि पिताजी सड़क पर आगे की गली से मुड़ जाते हैं। वहाँ पहुँचकर शायद ऑफिस अपने आप आ जाता होगा। उसने पीछे मुड़कर देखा कि माँ तो नहीं खड़ी है, और फिर सड़क पर चल पड़ी।

झुटपुटा हो रहा था। हर चीज बहुत बड़ी दिख रही थी, घरों की दीवालें बहुत ऊँची लग रही थीं और अगल-बगल चलती साइकिलें और गाड़ियाँ एक-दूसरे पर गिरती लग रही थीं। वह सड़क के किनारे-किनारे चलती रही। रोशनियाँ जलने लगीं और लोगों की छायाएँ दिखाई देने लगीं। शान्ता दो मोड़ मुड़ चुकी थी और समझ नहीं पा रही थी कि वह कहाँ है! वह सड़क के किनारे बैठकर नाखून दाँत से काटने लगी। सोच रही थी, घर कैसे पहुँचेगी। तभी पड़ोस के घर का नौकर सामने से आता दिखाई दिया। वह हिम्मत करके उसके सामने जाकर खड़ी हो गई।

‘अरे, तुम यहाँ क्या कर रही हो?” उसने पूछा।

‘पता नहीं, मैं यहाँ कैसे आ गई। अब मुझे घर ले चलो।” इस तरह वह नौकर के साथ घर आ गई।

आज सवेरे शान्ता के पिता वेंकट राव दफ्तर जाने की तैयारी कर रहे थे कि सिनेमा का विज्ञापन करने वाली एक गाड़ी सामने से निकली। शान्ता सड़क पर दौड़ गई और एक पर्चा ले आई। उसे पिताजी को देकर कहने लगी, ‘आज मुझे यह पिक्चर दिखाने ले चलो।”

सवाल सुनकर वह चुप हो गये। उनका यह बच्चा जिन्दगी के खेल-कूद और खुशियों से कितना महरूम है। आज तक वे शान्ता को दो ही दफा पिक्चर दिखाने ले गये थे। पड़ोसी घरों के बच्चे जहाँ गुड़े-गुड़ियों और खिलौनों से खेलते रहते थे और हमेशा घूमते-फिरते थे, उनकी बच्ची इस घर में बिलकुल अकेली खेल-कूद के बिना पल रही है। उन्हें अपने दफ्तर पर गुस्सा आने लगा। चालीस रुपये महीने में जैसे उन्होंने उसे खरीद ही लिया था।

वे अपनी पत्नी और बच्ची की जिन्दगी के लिए अपने को कोसने लगे। लेकिन पत्नी तो बड़ी थी और पड़ोस की औरतों के साथ गप-शप कर सकती थी लेकिन यह बेचारी लड़की क्या करती! उसकी जिन्दगी तो बिलकुल खाली और हँसीखेल से वंचित थी। उसे रोज दफ्तर में सात और कभी-कभी आठ बजे तक काम करना पड़ता था, और जब वह घर आते तो बच्ची सो चुकी होती थी। अक्सर इतवार को भी उसे दफ्तर बुला लेते थे। वे क्यों यह सोचते थे कि उसकी कोई अपनी जिन्दगी नहीं है। उसे कभी इतना भी समय नहीं मिलता था कि बच्ची को पार्क में घुमाने या सिनेमा दिखाने ले जाये। अब वह दफ्तर वालों को दिखा देगा कि वह उनका खिलौना नहीं है। जरूरत पड़ी तो वह मैनेजर से लड़ भी पड़ेगा।

यह निश्चय करके वह बोला, ‘आज शाम को तुम्हें लेकर सिनेमा देखने चलेंगे। पाँच बजे तैयार रहना।’

‘सचमुच!. माँ! आज पिताजी शाम को सिनेमा दिखाने ले जायेंगे।’

माँ किचेन से बाहर आई और हँसकर पति से कहने लगीं, ‘बच्चे से झूठे वादे मत किया करो…।”

वेंकट राव ने आँखें तरेरकर उसे देखा। कहा, ‘बकवास मत करो। तुम्हारा ख्याल है तुम्हीं अपने वादे पूरे करती हो।’

फिर शान्ता से कहा, ‘पाँच बजे तैयार रहना, मैं तुम्हें जरूर ले जाऊँगा। अगर तैयार न मिली तो मैं गुस्सा करूंगा।’

निश्चय करके वह दफ्तर गया। दिन भर काम करेगा और पाँच बजे उठ जायेगा। अगर ये लोग पहले जैसी हरकतें करेंगे तो वह सीधे बॉस के पास चला जायेगा और कहेगा, ‘मैं इस्तीफा दे रहा हूँ। मेरे लिए आपके इन कागजों से ज्यादा जरूरी मेरी बच्ची की खुशी है।’

दिन भर उसकी मेज पर कागजों के ढेर आते-जाते रहे। वह उन्हें पढ़ता, दस्तखत करता और त्रुटियाँ निकालता। फिर उसके किये संशोधनों में कमियाँ निकाली जाती, डांट पड़ती, अपमान किया जाता। दोपहर बाद उसे काफी पीने का सिर्फ पाँच मिनट का समय मिला।

जब दफ्तर की घड़ी ने पाँच बजाये और कर्मचारी घर जाने लगे। वह मैनेजर के पास जाकर बोला, ‘सर मैं घर जाऊँ?”

मैनेजर ने सिर उठाया और बोला, ‘तुम ?’ एकाउंट और कैश डिपार्टमेन्ट पाँच बजे बंद हो जाये, यह कैसे संभव था। ‘तुम कैसे जा सकते हो?’

‘मुझे कुछ जरूरी काम है, सर,” यह कहते हुए वह मन-ही-मन इस्तीफे के लिए दिये जाने वाले शब्दों को दोहराने लगा : ‘यह मेरा इस्तीफा है, सर।’ मन की आँखों से उसने देखा कि शान्ता तैयार होकर दरवाजे पर खड़ी है और इन्तजार कर रही है।

‘दफ्तर के काम से ज्यादा जरूरी कोई काम नहीं है। जाकर अपनी सीट पर बैठो और काम करो। जानते हो, मैं कितने घंटे काम करता हूँ?”

मैनेजर ने कहा। मैनेजर दफ्तर खुलने से तीन घंटे पहले आता था और बंद होने के तीन घंटे बाद जाता था। क्लर्क लोग आपस में उसके लिए कहते, ‘इसकी बीवी इसे घर पर जूते लगाती होगी, इसलिए इस बड़े उल्लू को दफ्तर ज्यादा अच्छा लगता है।’

‘तुमने दस-आठ अंतर की संख्या के सोर्स का पता लगाया?’ मैनेजर ने पूछा।

‘इसके लिए मुझे दो सौ वाउचर चेक करने पड़ेंगे। मैं सोच रहा था कि यह काम कल कर लिया जाये।’

‘हरगिज नहीं। अभी यह काम करके लाओ, ‘ मैनेजर ने सख्ती से कहा।

‘यस, सर, ‘ वेंकट ने धीरे से कहा और सीट पर जा बैठा।

घड़ी ने साढ़े पाँच बजाये। इतने सारे वाउचर देखने में पूरे दो घंटे लगने थे। दफ्तर के सभी लोग जा चुके थे। सिर्फ वह और उसके डिपार्टमेन्ट का एक क्लर्क काम कर रहे थे और मैनेजर साहब थे।

वेंकट क्रोध में था। उसने निश्चय कर लिया। वह गुलाम नहीं था कि चालीस रुपल्ली पर दिन-रात खटता रहे। इतना रुपया तो वह आसानी से कमा सकता था, और न भी कमा सके तो भी भूखे मर जाना इससे ज्यादा अच्छा होता।

उसने एक कागज उठाया और लिखना शुरू किया : ‘यह मेरा इस्तीफा है। अगर आप लोग सोचते हैं कि चालीस रुपये में आपने मेरा शरीर और आत्मा सब खरीद लिये हैं, तो आप गलती पर हैं। मैं सोचता हूँ कि मैं और मेरे परिवार के लिए, इन चालीस रुपयों पर आप सालोंसाल से मुझसे रात-दिन गुलामी करा रहे हैं, इससे तो भूखे रहकर मर जाना कहीं अच्छा है। आप तो मुझे इन्क्रीमेन्ट भी देना नहीं चाहते। आप लोग खुद को तो बड़े-बड़े इन्क्रीमेन्ट हर साल देते रहते हैं, लेकिन क्या कभी हम लोगों का भी ख्याल करते हैं। जो हो, अब मुझे आपकी नौकरी में रुचि नहीं है और मैं इस्तीफा दे रहा हूँ। अगर मैं और मेरे परिवार के लोग भूखे रहकर मर गये तो हमारे भूत आप लोगों पर जिन्दगी भर मँडराते रहेंगे।”

इस्तीफा लिखकर उसने कागज मोड़ा, लिफाफे में रखा, गोंद से चिपकाया और ऊपर मैनेजर का नाम लिख दिया। फिर सीट से उठा और मैनेजर के सामने जाकर खड़ा हो गया। मैनेजर ने लिफाफा उसके हाथ से ले लिया और सामने पैड पर रख लिया।

‘वेंकट राव,” वह बोला, ‘मैं तुम्हें एक खुशी का समाचार दे रहा हूँ। हमारे मालिकों ने आज इन्क्रीमेन्ट के बारे में बात की और मैंने तुम्हारे लिए पाँच रुपये इन्क्रीमेन्ट की सिफारिश की है। अभी आर्डर नहीं निकला है, इसलिए तुम यह बात अपने तक ही रखना।’

यह सुनते ही वेंकट राव ने हाथ आगे बढ़ाकर मेज पर रखा लिफाफा उठा लिया और उसे अपनी जेब में रख लिया।

‘क्या है यह खत ?’

‘सर, मैंने कैजुल लीव के लिए अर्जी लिखी थी लेकिन अब…।”

‘तुम्हें अगले पंद्रह दिन तक कोई भी छुट्टी नहीं मिल सकती।”

‘जी, सर। मैं समझता हूँ। इसीलिए मैं अर्जी वापस ले रहा हूँ, सर।’

‘ठीक है। अच्छा, वह गलती पकड़ में आई?’

‘मैं ध्यान से वाउचर देख रहा हूँ। घंटे भर में गलती पकड़ लूँगा।”

वह नौ बजे घर पहुंचा। शान्ता सो चुकी थी। उसकी माँ ने कहा, ‘उसने अपनी फ्रॉक भी नहीं बदली। कहती रही, पता नहीं तुम कब आ जाओ और सिनेमा देखने चलें। खाना भी नहीं खाया और लेटी भी नहीं कि कहीं फ्रॉक गुड़ी मुड़ी न हो जाये…।’

बच्ची को गुलाबी फ्रॉक पहने, बाल काढ़े, पाउडर लगाये, सोते देख वेंकट राव का मन विचलित हो उठा। ‘मैं इसे रात के शो में क्यों न ले जाऊँ?”

यह सोचकर उसने उसे छू कर कहा, ‘शान्ता! शान्ता!” शान्ता ने पैर हिलाये और परेशानी से इधर-उधर होकर फिर सो गयी। माँ ने फुसफुसाकर कहा, ‘जगाओ मत.’ और थपथपाकर फिर सुला दिया।

वेंकट राव बच्ची को एक क्षण देखता रहा। फिर बोला, ‘पता नहीं अब इसे रात का शो भी दिखाने ले जा पाऊँगा या नहीं. मुझे इन्क्रीमेन्ट दिया जा रहा है।’

**समाप्त**

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