एक रुकी हुई चिट्ठी आर. के. नारायण की कहानी | Ek Ruki Hui Chitthi R. K. Narayan Story In Hindi

एक रुकी हुई चिट्ठी आर. के. नारायण की कहानी, Ek Ruki Hui Chitthi R K Narayan Story In Hindi, R K Narayan Ki Kahani

Ek Ruki Hui Chitthi R K Narayan Story

डाकिया थानप्पा विनायक मुदाली स्ट्रीट और उसकी चार गलियों में चिट्ठियाँ बाँटने का काम करता था, लेकिन इतने काम में ही उसे छह घंटे लगते और इसके बाद मार्केट रोड स्थित मुख्य डाकखाने में वह हिसाब देने वापस लौट जाता था। वह जिस किसी को डाक वगैरह बाँटता, उन सबके साथ घुल-मिलकर बातचीत करता था। कबीर स्ट्रीट के 13 नंबर मकान में जो आदमी रहता था, वह अक्सर आधे रास्ते तक आकर पूछता कि क्या मेरी कोई चिट्ठी है। थानप्पा उसे तब से देखता आ रहा था जब यह युवक था, और घर के बाहर सड़क के किनारे बनी पटरी पर अब भी, जब उसके बाल सफेद हो चले थे, वह वर्ग पहेली भरकर भेजने से मिलने वाले पुरस्कार की प्रतीक्षा में आज भी उसका इन्तजार करता रहता था। ‘अभी इनाम नहीं आया,’ डाकिया रोज यही कहता, ‘लेकिन निराश मत होना, कभी न कभी जरूर आयेगा।’

किसी दूसरे से वह कहता, ‘इस बार तुम्हारा पैसा आने में देर हो रही लगती है।’ हैदराबाद से तुम्हारे बेटे की चिट्ठी, मैडम जी फिर आई है। अब उसके कितने बच्चे हैं? ‘ मुझे नहीं पता था कि तुमने मद्रास में इस जॉब के लिए अर्जी भेजी है। बता देते तो अच्छा होता। खैर, मैं जब तुम्हारा नियुक्ति-पत्र लाऊँगा, तब तुमसे नारियल की खीर जरूर खाऊँगा।’ इस तरह बातें करता वह धीरे-धीरे आगे बढ़ता, कहीं-कहीं आधा घंटा भी ठहरता। खासतौर पर जब किसी का मनीआर्डर आता, तो उसके पास जमकर बैठ जाता और यह रुपया किस-किस काम में खर्च किया जायेगा, यह सब जाने बिना न उठता। मौसम ज्यादा गरम होता, तो किसी के भी यहाँ छाछ का गिलास पीने रुक जाता और आराम से खा-पीकर ही उठता। मुहल्ले के सब लोग उसे चाहते थे क्योंकि वह सब की आशाओं, आकांक्षाओं और क्रियाकलापों का भागीदार बन चुका था।

इन सब संबंधों में वह सब से ज्यादा घनिष्ट 10, विनायक मुदाली स्ट्रीट के रामानुजम के साथ हो गया था। येरेवेन्यू डिवीजन आफिस में क्लर्क थे और एक पीढ़ी से थानप्पा इस पते पर चिट्ठियाँ पहुँचाता रहा था। बहुत साल पहले रामानुजम से उसका परिचय हुआ था। उसकी पत्नी गाँव गई हुई थी और रामानुजम के लिए उसका पत्र आया था। थानप्पा ने मुहर लगाते वक्त यह कार्ड देखा और बाँटने के लिए रवाना होते समय सबसे पहले इसी पते पर पहुंचा, जबकि इससे पहले करीब डेढ़ सौ खत उसे बाँटने थे। वह सीधा रामानुजम के घर पहुँचा और दरवाजा खट-खटाकर जोर से आवाज लगाई, ‘पोस्टमैन। ‘रामानुजम ने दरवाजा खोला तो बोला, ‘चिट्ठी मैं बाद में दूँगा, पहले मिठाई खिलाइये। आप पिता बन गये हैं, सालों की प्रार्थना-पूजा के बाद लड़की हुई लड़कियाँ।… कामाक्षी, कितना सुंदर नाम रखा है!”

वर्षों बाद लम्बी, शर्मीली इस लड़की कामाक्षी से वह कह रहा था, ‘बेटी, अपनी फोटो तैयार रखना। शर्माओ मत। तुम्हारे बाबा की चिट्ठी आई है, तुम्हारा फोटो माँगा है। इसकी जरूरत इसीलिए पड़ी होगी, क्योंकि…।”

फिर रामानुजम को चिट्ठी पकड़ाते हुए उसने कहा, ‘अब पिताजी अक्सर चिट्ठी लिखते हैं, ‘ठीक है न…, और तब तक वह वहीं रुका रहा, जब तक चिट्ठी का पूरा मजमून नहीं जान लिया। चिट्ठी पढ़कर रामानुजम कुछ परेशान नजर आये। डाकिया पूछने लगा, ‘खबर तो अच्छी है न?’ फिर बरामदे में लगे खंभे का सहारा लेकर खड़ा हो गया, थैला नीचे रख दिया। रामानुजम कहने लगे, ‘मेरे ससुरजी सोचते हैं कि बेटी के लिए दूल्हे की तलाश में मैं पीछे पड़ रहा हूँ। उन्होंने खुद एक-दो जगह कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। वे सोचते हैं कि मैं इस पर ध्यान ही नहीं दे रहा…।”

‘बुजुर्ग लोग जरा ज्यादा ही चिन्ता करते हैं।’ डाकिये ने कहा। इस पर रामानुजम ने बताया, ‘बात यह है कि उन्होंने लड़की की शादी के लिए दस हजार रुपया रख छोड़ा है और चाहते हैं कि जल्द-से-जल्द पति ढूँढ़ लिया जाये। लेकिन पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता…।”

डाकिये ने हाँ-में-हाँ मिलायी, कहा, ‘आप ठीक कहते हैं। जब तक वक्त नहीं आता, कुछ नहीं किया जा सकता।’

महीनों तक डाकिया चिट्ठियाँ पहुँचाता रहा और खबर का इन्तजार करता रहा। ‘वही पुरानी खबर है थानप्पा… कुंडलियाँ नहीं मिल पा रही हैं… उनकी माँग बहुत ज्यादा है. उन्हें लड़की पसंद नहीं आ रही…।’ ‘पसंद नहीं… अरे, लड़की तो राजकुमारी लगती है। मुझे तो ये लोग अंधे लगते हैं…’ थानप्पा गुस्से से कहता।

शादी के दिन खत्म हो जायेंगे, तीन ही मुहूर्त बचे हैं, आखिरी मुहूर्त 20 मई का है। लड़की बहुत जल्द सत्रह बरस की हो जायेगी। बाबा की चिट्ठियाँ तीखी होती जा रही थीं। रामानुजम ने सब कोशिशें कर ली थीं और सभी में निराशा हाथ लगी थी। वह असहाय लग रहे थे। बोले, ‘थानप्पा, लगता है मेरे लिए कहीं भी कोई दामाद नहीं है… ।’

‘ऐसी अशुभ बात मत कीजिए, ‘डाकिये ने धीरज बँधाते हुए कहा, ‘ईश्वर अब कुछ जरूर करेगा…।’ फिर कुछ देर सोचने के बाद कहने लगा, ‘एक लड़का है दिल्ली में, दो हजार रुपये कमाता है। टेप्पिल स्ट्रीट के माकुंदा की उस पर नजर थी। माकुंदा और आपकी जाति भी शायद एक ही है…।”

‘हाँ।’

‘वे कई महीने से बात चला रहे हैं। सौ के करीब चिट्ठियाँ आई-गई होंगी…। लेकिन मुझे निश्चित पता है कि बात टूट चुकी है… कुछ पैसे पर मामला अटक गया है। उन्होंने पोस्टकार्ड पर अपनी आखिरी माँग रख दी है, जिससे ये लोग बहुत गुस्सा हैं। ये पोस्टकार्ड ही अपमान के हथियार बन गये हैं। अब तो बहुतसी जरुरी बातें भी पिक्चर पोस्टकाडों पर लिख कर भेज दी जाती हैं। दो साल पहले जब राजप्पा अमेरिका गया था, तब वह अपने बेटों को हर हफ्ते पिक्चर पोस्टकाडों पर ही चिट्ठियाँ भेजता रहता था…।” इसके बाद वह कहने लगा, ‘मैं माकुंदा से लड़के की कुंडली माँग लाऊँगा। देखते हैं…।”

और दूसरे दिन वह कुंडली लेकर आ भी गया। बोला, ‘लड़के के माँ-बाप भी दिल्ली में ही हैं। आप उन्हें तुरंत लिख दीजिये। अब वक्त बेकार करना ठीक नहीं है।’

रामानुजम के परिवार में आशा की किरण चमक उठी।

‘मुझे अभी सौ चिट्ठियाँ बाँटनी हैं, लेकिन इस पर दिल्ली की मुहर देखकर मैं पहले यहीं चला आया। खोलिये और बताइये, क्या लिखा है….।’ वह उत्सुकता से काँप रहा था। ‘कितनी जल्दी जवाब दिया है।… तो उन्हें फोटो पसंद आ गया।… किसे नहीं आयेगा?’

एक दिन वह कहने लगा, ‘रोज एक खत आ रहा है। सोचता हूँ कामाक्षी की शादी होने तक छुट्टी ले लूँ…।”

‘तुम तो यूँ कह रहे हो, मानो शादी कल ही होनी है। अभी पता नहीं, कितनी मुश्किलें आयेंगी। फोटो पसंद आना ही तो सब कुछ नहीं होता।’

परिवार के लोग एक गंभीर समस्या से उलझ रहे थे : रामानुजम लड़की को लेकर क्या मद्रास जाये, जहाँ लड़के के माँ-बाप दो-एक दिन के लिए आ जायेंगे। इस बात पर जबरदस्त मतभेद था। रामानुजम, उसकी माँ और पत्नी, किसी के इस पर निश्चित विचार नहीं थे, लेकिन सभी एक-दूसरे का जबरदस्त विरोध कर रहे थे।

‘अगर हम लड़की को इस तरह दिखाते फिरेंगे तो शहर के सब लोग हम पर हँसेंगे…,” पत्नी जोर देकर कह रही थी।

‘कैसे अजीब ख्याल हैं! अगर हम इन पुराने ख्यालों पर डटे रहेंगे तो जिन्दगी भर दामाद की सूरत देखने को नहीं मिलेगी। जरूरत पड़े तो हमें लड़की दिल्ली ले जाकर भी दिखा देनी चाहिए… ।’ पति ने चिल्लाकर कहा।

‘ठीक है, जो तुम्हारी मर्जी हो, करो। फिर मुझसे राय लेने की जरूरत ही क्या है। ‘पत्नी ने चिढ़कर जवाब ठोंका।’

गुस्से की गर्मागर्मी में कोई फैसला होता नजर नहीं आ रहा था। शाम को डाकिया सब काम निबटाकर यहाँ आ जाता और सोच-विचार में शामिल होता। वह बोला, ‘छोटा मुँह बड़ी बात। मैं आपके लिए तीसरा आदमी हूँ। लेकिन मेरा कहना यही है कि फौरन गाड़ी पकड़कर मद्रास चले जाइये। जो बात सालभर की चिट्ठीपत्री से नहीं बनती, वह सामने बैठकर घंटे भर में तय हो जाती है।’

उसकी बात मान ली जाती है। फिर कुछ दिन बाद-‘आपके लिए मैडम जी, मद्रास से यह चिट्ठी आई है। आपके पति की लगती है। क्या खबर भेजी है उन्होंने?’-पत्र हाथ में पकड़ाते हुए थानप्पा ने कहा, फिर बोला, ‘मेरे पास कुछ रजिस्ट्री-चिट्ठियाँ हैं, जो देनी हैं। मैं उन्हें बाँटकर आता हूँ।’

लौटकर उसने पूछा, ‘दोनों मिल लिये क्या?’

सो’हाँ कामाक्षी के पिता ने लिखा है कि वे कामाक्षी को देख चुके हैं और उनकी बातचीत से लगता है कि कामाक्षी उन्हें पसंद आ गई है…।’

‘बढ़िया खबर है यह। मैं अभी जाकर विनायक मंदिर में नारियल चढ़ाता हूँ।’

‘लेकिन,’ रामानुजम की पत्नी, जो आधी खुश और आधी परेशान लग रही थी, कहने लगी, ‘एक कठिनाई और है। हम चाहते थे कि शादी अगले महीने करें, जो ज्यादा शुभ है. इतनी जल्दी सब इन्तजाम करना बहुत मुश्किल होगा। लेकिन उनका कहना है कि शादी करनी है तो 20 मई से पहले हो जानी चाहिए. नहीं तो तीन साल तक शादी नहीं हो सकेगी। लड़का किसी ट्रेनिंग के लिए बाहर चला जायेगा…।”

कुछ दिन बाद डाकिये ने इनश्योरेंस का लिफाफा रामानुजम को थमाते हुए कहा, ‘बाबा अपनी बात के पक्के निकले। उन्होंने पूरी रकम भेज दी है। अब आपको पैसे की कमी नहीं होगी। इन्तजाम में लग जाइये। मुझे खुशी है, उन्होंने भी रिश्ता पसन्द कर लिया है। क्योंकि पैसे से ज्यादा उनके आशीर्वाद की जरूरत है। मेरा ख्याल है, उन्होंने अपना आशीर्वाद भी इस खत में भेजा है…।”

‘हाँ हाँ, भेजा है। मेरे ससुर भी इस रिश्ते से बहुत खुश हैं’, ‘रामानुजम ने जवाब दिया।

मालगुडी कस्बे में दस हजार रुपये की शादी काफी बड़ी बात थी। रामानुजम परेशान थे कि इतने कम समय में सब इन्तजाम कैसे किया जा सकेगा, क्योंकि मदद करने वाला कोई भी नहीं था। थानप्पा ने काम के बाद बचा हुआ सारा समय उनकी सहायता करने में लगा दिया। समय बचाने के लिए दूसरे घरों में बातचीत करना भी उसने एकदम खत्म कर दिया। अब वह खत देते समय किसी का इन्तजार नहीं करता, बस, खिड़की या दरवाजे से भीतर चिट्ठी फेंककर और एक आवाज ‘चिट्ठी’ लगाकर आगे बढ़ जाता। अगर कोई उसे रोककर पूछता, ‘क्या बात है, इतनी जल्दी में क्यों हो?’ तो वह यह कहकर आगे बढ़ लेता, ‘मुझे 20 मई तक बात न करने की सुविधा चाहिए। इसके बाद आप जितनी चाहेंगे, बात करूंगा, आपके घर में ही डेरा डाल लूँगा।’

रामानुजम भी भारी तनाव में थे। जैसे-जैसे शादी का दिन पास आता जा रहा था, चिन्ता से उनकी कैंपकपी बढ़ती जाती थीं। ‘सब काम ठीक-ठाक निपट जाना चाहिए। कोई मुश्किल न खड़ी हो जाये, ‘ वे बार-बार कहते थे।

‘चिंता मत कीजिये आप, ईश्वर की कृपा से सब काम खुशी-खुशी पूरा हो जायेगा। वे जितना पैसा चाहते थे, आपने दे ही दिया है, भेंट-उपहार भी पकड़ा दिये हैं। ये अच्छे लोग हैं।’

‘बात यह नहीं है। यह आखिरी मुहूर्त है। अगर कुछ संकट खड़ा हो गया तो लड़का तीन साल के लिए बाहर चला जायेगा, फिर हममें से कोई भी तीन साल तक तो इन्तजार नहीं करेगा।’

शादी के दिन मुहूर्त के चार घंटे बाद की बात है। शादी हो चुकी थी और घर में शान्ति छा गई थी। दिल्ली से आया दूल्हा पंडाल में कुर्सी पर आराम से बैठा था। चंदन और फूलों की खुशबू वातावरण में फैली थी, हवन के घी और सामग्री का धुआँ आसमान में तैर रहा था। लोग दूल्हे के इर्द-गिर्द बैठे बातें कर रहे थे।

तभी थैले में चिट्ठियाँ भरे थानप्पा फाटक पर आ खड़ा हुआ। कई लड़के उसे देखते ही दौड़कर उसके पास पहुँच गये और बोले, ‘किस-किस की चिट्ठियाँ लाये हो?” उसने कहा, ‘जिसकी चिट्ठियाँ हैं, उनको मैं अभी देता हूँ।’ वह दूल्हे के पास पहुँचा और बहुत से पत्रों का एक थैला बड़ी इज्जत से उसे दिया।

‘इसमें अनेक लोगों की शुभकामनाएँ और आशीर्वाद हैं आपकेलिए।इन सबके साथ मेरी अपनी शुभकामनाएँ भी हैं., ‘ यह कहते हुए डाकिया बहुत खुश, साथ ही गंभीर नजर आ रहा था।

दूल्हे ने मुस्करा कर धन्यवाद दिया तो डाकिया फिर कहने लगा, ‘हम सबको इस बात का गर्व है कि आप जैसा शानदार दामाद इस घर को मिला है। मैं बेटी कामाक्षी को तब से जानता हूँ जब वह एक दिन की थी, और तभी से मैं जानता हूँकि उसे बहुत अच्छा पति प्राप्त होगा।’ इसके बाद उसने हाथ जोड़कर नमस्कार किया और दूसरों की चिट्ठियाँ उन्हें देने और भोजन-भंडार में कुछ खानेपीने घर के भीतर चला गया।

दस दिन बाद उसने फिर दरवाजा खटखटाया और कामाक्षी को बुलाकर उस का पहला पत्र उसे सौंपा। ‘अरे, इसमें से तो खुशबू आ रही है। मुझे यह खुशबू तभी आने लगी थी जब तीन स्टेशन पहले यह डाक के डिब्बे में यहाँ आ रहा था। मैंने ऐसे सैकड़ों खत पहुँचाये हैं। अब मेरी बात सुनो। तुम्हें अपना दसवाँ खत लिखने के बाद वह तुम्हें आदेश देगा कि सामान बाँधो और उसके पास पहुँच जाओ-तब तुम्हारे दो पंख उग आयेंगे और उसी दिन तुम उड़कर उसके पास पहुँच जाओगी, इस सड़क और थानप्पा सभी को भूलकर-है न यही बात?’

कामाक्षी शर्म से लाल होती, उसके हाथ से पत्र लेकर पढ़ने के लिए घर के भीतर घुस गई। डाकिया बोला, ‘मेरा ख्याल है कि खत में क्या लिखा है, यह जानने के लिए इन्तजार करने की जरूरत नहीं है।’

फिर एक छुट्टी के दिन, जब उसे विश्वास था कि रामानुजम घर पर ही मिलेंगे, वह जा पहुँचा और उन्हें एक कार्ड पकड़ा दिया। कार्ड देखते ही रामानुजम बोले, ‘बुरी खबर लगती है, थानप्पा। मेरे चाचा, पिता के भाई, सलेम में बहुत बीमार हैं और वे चाहते हैं कि मैं तुरंत वहाँ पहुँच जाऊँ।”

एक तार भी है…।”

तार पढ़कर रामानुजम बोले, ‘अरे, वे तो गुजर भी गये.’ और यह कहकर वे बाहर पत्थर पर ही बैठ गये, मानी जान ही निकल गई हो।

थानप्पा भी बहुत दुखी लग रहा था। कुछ देर बाद रामानुजम सँभले, खड़े हुए और घर में भीतर जाने लगे। थानप्पा ने कहा, ‘एक मिनट रुकिये, मेरी बात सुनिये। मुझे एक माफी मांगनी है। इस कार्ड की तारीख देखिये।’

‘उन्नीस मई, यानी करीब पंद्रह दिन पहले का है यह।’

‘जी हाँ और तार भी उसके दूसरे दिन ही आ गया था। यानी शादी के ही दिन.। मुझे बड़ा दुख हुआ। लेकिन जो होना था, हो गया था। मैंने अपने से यही कहा और दोनों को अपने ही पास रख लिया. कहीं इनसे शादी ही न रुक जाये।’

रामानुजम ने डाकिये को घूर कर देखा और बोले, ‘यह खबर तब मिलती तो मैं शादी को जरूर रोक देता… ।’

डाकिया सिर झुकाये खड़ा था, कुछ देर बाद धीरे से बोला, ‘आप चाहें तो मेरी शिकायत कर सकते हैं। मेरी नौकरी चली जायेगी। यह गंभीर अपराध है।’ यह कहकर वह सीढ़ियों से उतरा और खत बाँटने सड़क की ओर चला।

रामानुजम कुछ देर उसे देखते रहे, फिर चिल्लाकर बोले, ‘रुकना!”

थानप्पा ने घूमकर देखा, रामानुजम कह रहे थे, ‘यह मत सोचना कि मैं तुम्हारी शिकायत करूंगा। मुझे इसी बात का अफसोस है कि तुमने ऐसा किया..।”

‘मैं आपकी भावनाएँ समझता हूँ…” यह कहता हुआ डाकिया अगले मोड़ से गली के भीतर चला गया।

**समाप्त**

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