मूल्य आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी | Mulya Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani

मूल्य आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी, Mulya Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani Hindi Story 

Mulya Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani

(एक स्वाभिमानी युवती का विवाह एक धनवान युवक से हुआ। परन्तु युवक ने धन के मद से युवती के स्वाभिमान को आहत करना चाहा। युवती के स्वाभिमान और पति के धन के बीच संघर्ष का एक अद्भुत चित्रण इस कहानी में है। आचार्यश्री की यह श्रेष्ठतम कहानी है।)

सिलहट, आसाम से लेकर बम्बई तक का लम्बा सफ़र हर हालत में एक थकाने वाला सफ़र है। यदि वह ग़रीब आदमी का तीसरे दर्जे की रेलगाड़ी में हुआ तब तो हर स्टेशन पर बरसाती मच्छरों की तरह गन्दे और अशिक्षित मुसाफ़िरों की भरमार और रेल-पेल रहती है और छुआछूत की बीमारियों के रोग-जन्तुओं के संक्रमण का भय ही भय है। परन्तु बड़े आदमी इन तमाम बातों से बरी होने पर भी थकते हैं। फ़र्स्ट क्लास के आरामदेह डब्बे, सरसराते बिजली के पंखे, पद-पद पर सोडा, बर्फ़ और सटर-पटर सेवाएं, यह सब उनके सफ़र की थकान को नहीं दूर कर सकतीं। सो क्यों? अजी, इसीलिए कि वे अमीर जो हैं। उन्हें थकाने के लिए अमीरी ही का बोझा क्या कुछ कम है? सो अमला और नवीन दोनों ही जब लम्बा सफ़र पूरा कर, अपनी-अपनी अलसाई देह लिये फ़र्स्ट क्लास के डब्बे से बाहर आ, क़ीमती फ़ीरोजी रंग की कार में बैठे और उससे उतर अपने बंगले की हरी-भरी रोंसो को पार करते बंगले की दूसरी मंज़िल में ठाठ से सजे-धजे शयनागार में नत-जानु नौकरों की अभ्यर्थना स्वीकार करते हुए पहुंचे, तब नवीन ने अपना हैट एक ओर फेंककर एक आरामकुर्सी पर बैठते हुए अमला से कहा – यह सफ़र भी एक मुसीबत है अमला! मैं समझता हूं तुम ख़ूब थक गई होंगी, मेरे ख़याल में अब तुम ज़रा आराम कर लो, फिर शाम को आज सिनेमा चलेंगे। – अमला, जो एकाएक इस नए पति-घर में पहली बार आ, भौचक-सी उस सजे-धजे शयनागार की क़ीमती चीज़ों पर एक दृष्टि डाल खिड़की के पास आ खड़ी हुई थी, पति की यह बात सुनकर धीरे से बोली – धन्यवाद।

नवीन ने मुस्कुराकर पूछा – धन्यवाद काहे का अमला?

‘आपकी इस सहानुभूति का, जो आपने मेरे प्रति प्रकट की।’

‘ओह!’ – नवीन ने एक ज़ोर की हंसी का ठहाका मारा।

‘इतना हंसते क्यों हैं महाशय?’ – अमला ने होंठ और साथ ही भौंहें सिकोड़कर कुछ क्रुद्ध स्वर में कहा।

‘महाशय, यहां महाशय कौन है अमला?’

‘आप हैं न, क्या मैं आपको क्षुद्राशय कहने की ज़ुर्रत कर सकती हूं? जिन्होंने उदारतापूर्वक सिर्फ़ मुझे ही लेकर मेरे पिता के सारे कर्जे की बेबाकी कर दी है।’

‘क़र्जे की बेबाकी – सिर्फ़ तुम्हें लेकर? यह तुम क्या कह रही हो अमला?’ नवीन ने आतुर वाणी से कहा।

‘ठीक ही तो, दूसरा कोई नीच आदमी होता तो मेरे पिता की मोटर, जोड़ी, घोड़ा, मकान, बाग सब नीलाम करा लेता, शायद इज़्ज़त भी ले लेता। पांच लाख रुपए कुछ थोड़े नहीं होते महाशय! इस वक़्त पिता जी के पास पांच हजार रुपए भी तो नक़द न थे।’

‘तो तुम यह कहना चाहती हो कि उन रुपयों के बदले मैंने तुम्हें ब्याह लिया?’

‘ब्याह लिया? ब्याह किसे कहते हैं, जनाब? वह प्राणों का विनिमय, जीवन का मोल और आत्मा का पवित्रता का एकीकरण है, वह उस प्रकार का सौदा नहीं, जैसा आपने किया है।’

‘मैंने सौदा किया है?’

‘क्यों नहीं, आपका क़र्जा एक आदमी पर था, वह उसे चुका नहीं सकता था, उसकी लड़की आपको पसन्द आ गई, उसके बदले आपने क़र्जे की बेबाकी कर दी, यह क्या बढ़िया सौदा नहीं हुआ?’

‘परन्तु…’

‘परन्तु-वरन्तु कुछ नहीं महाशय, मैं आपसे कहे देती हूं कि मैं आपके बनियेपन को घृणा करती हूं, और सदा घृणा करती रहूंगी। आपको याद रखना चाहिए कि स्त्रियां मोल नहीं खरीदी जाती हैं – जीती जाती हैं। आपने मुझे मोल ख़रीदा है, परन्तु मेरे शरीर को, न कि आत्मा को। मेरी आत्मा स्वतन्त्र है। मैंने न आपको वरा है और न आप मेरे पति हैं। इसी से आप मेरे प्रति जो भी सद्व्यवहार करेंगे उसके लिए सभ्यता की दृष्टि से आपको धन्यवाद देना मेरा कर्तव्य है। न मैं गंवारिन हूं और न असभ्य, जो शिष्टाचार के नियमों में मैं चूक करूं।’

एक भीनी मुस्कुराहट नवीन के चेहरे पर आई। उसने छाती पर हाथ धर सिर झुकाकर कहा – आपके सौजन्य

और शिष्टाचार की मैं क्योंकर बड़ाई करूं मिस अमला, परन्तु यदि आप आज्ञा दें तो मैं निवेदन करूं कि अभी तो मैंने सिर्फ़ आपको पांच लाख में खरीदा ही है, अब मैं आपको शीघ्र ही विजय भी करूंगा। मैं जैसा कुशल व्यापारी हूं वैसा ही सफल विजेता भी। मिस अमला, क्या मैं आशा करूं कि कुछ दिन आप इस ग़रीब के झोंपड़े में उसका आतिथ्य स्वीकार कर उसे प्रतिष्ठा प्रदान करेंगी? यह सेवक आपकी सेवा से अपने को कृतार्थ समझेगा। – इतना कहकर नवीनचन्द्र तीव्रगति से कमरे से बाहर हो गए। अमला के सारे तीर-तमंचे धरे ही रह गए। वह उस शयन-कक्ष में कुछ देर होंठ काटती रही और फिर उस फूलों से सजे पलंग पर, जो उसकी सुहागरात के लिए सजाया गया था, गिरकर फूट-फूटकर रोने लगी।

वैभव से परिपूर्ण महानगरी बम्बई की उस वैभवपूर्ण अट्टालिका में सुन्दर-सुखद छपरखट पर पड़ी अमला गम्भीर चिन्तन में निमग्न थी। विधि-विधान से जिसके साथ सब विवाह-विधि पूर्ण हुई, वह कैसे पति नहीं माना जा सकता? कौन शक्ति उसे हिन्दू-नारी का पति होने से रोक सकती है? फिर नवीन बाबू की आयु यद्यपि कुछ अधिक है, पर वे अतिशय सुन्दर, सुगठित और सभ्य व्यक्ति हैं। सम्पत्ति तो उनके पास अथाह है। सद्व्यवहार और उदारता में भी वे एक हैं। गत छह माह से अमला का उनका परिचय है। इस बीच उन्होंने कभी भी कोई अभद्र आचरण उसके साथ नहीं किया है। उसके साथ उनका यह विवाह यद्यपि उसकी स्वीकृति से हुआ है, पर यह भी कोई स्वीकृति है? पिता ने जब कहा कि उनकी इज़्ज़त-आबरू, मर्यादा सभी कुछ उसके हाथ में है। बिना उनसे ब्याह किए वे पथ के भिखारी हो जाएंगे। उनकी पीढ़ियों की मर्यादा मिट्टी में मिल जाएगी। तब अमला के पास स्वीकृति को छोड़कर दूसरा उपाय क्या था? पर यह स्वीकृति तो लाचारी की स्वीकृति है। इसमें कोर्टशिप, स्वातन्त्र्य, पसन्द और प्रेम कहां है? इसीलिए उसने उच्च-शिक्षा प्राप्त की थी कि इस भांति वह बेच दी जाए? फिर भी अमला के विचार का एक विषय यह था कि आखिर नवीन में उसकी नापसन्दगी की चीज क्या है? बहुत सोचने पर भी वह उनमें कोई दोष नहीं निकाल पाती। पर उसका गर्वीला हृदय जब इस निर्णय पर पहुंचता था कि यह विवाह उन्होंने रुपए के बल पर किया है, और उस पर उनकी यह गर्वोक्ति कि अभी तो उन्होंने सिर्फ़ ख़रीदा ही है, वे उसे विजय भी करेंगे, तो उसका आत्माभिमान हाहाकार कर उठता था, और वह कहती थी, नहीं-नहीं, कभी नहीं। यह आदमी मेरा पति नहीं है। मैं कभी भी इसको आत्म-समर्पण न करूंगी। कभी भी नहीं। भले ही जान चली जाए।

सोचते-सोचते उसका मुंह लाल हो आया। आंसू सूख गए। राधा ने धीरे से कमरे में आकर विनीत स्वर में कहा – बहू रानी, क्या आज घूमने चलेंगी? मालिक ने पूछा है, वे मोटर में बैठे इन्तज़ार कर रहे हैं।

‘नहीं, मुझे काम है।’ अमला ने रुखाई से जवाब दिया। परन्तु उसने खिड़की से झांककर देखा, नवीन बाबू कार की बगल में खड़े ऊपर मुंह उठाए अमला की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अमला की आत्मा जैसे अकस्मात गल गई। उसने दासी को रोककर कहा – ठहर राधा, उनसे कह, मैं आती हूं।

राधा सुनकर हंस दी और वह मालिक को यह असाध्य सुसन्देश सुनाने चली।

अमला ने नवीन के पास आकर कहा – आज्ञा पालन में देर हुई, क्षमा कीजिए। क्या मैं पीछे बैठ जाऊं?

‘आप यदि आगे, मेरे पास बैठकर मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाएं तो अच्छा है। ड्राइव मैं ही करूंगा।’

‘जैसी मालिक की आज्ञा’ वह चुपचाप कार में बैठ गई। बैठने के समय अत्यन्त संयत भाव से उसने अपने कपड़े व साड़ी को समेटकर ठीक कर लिया। नवीन ने मुस्कुराहट छिपाकर धन्यवाद दिया और तीर की भांति कार छोड़ दी। अनन्त सागर धरिणी से टक्कर ले रहा था, धवल फेन-राशि उठती, गिरती और गरजती थी। कार सागर-तीर की साफ़ सीमेंट की सड़क पर जैसे वायु-गति से तैर रही थी। लम्बे सन्नाटे को तोड़कर नवीन ने कहा – देखा आपने?

‘क्या?’

‘इन लहरों का उत्पात, अकारण ही अशान्त हो रही हैं, तूफ़ानी ढंग से उठती हैं, किनारे पर टक्कर मारती हैं। और विफल मनोरथ पीछे लौट जाती हैं। मर्यादा के बन्धन में समुद्रतल बंधा है। भला ये क्रुद्ध लहरें उस मर्यादा का उल्लंघन कर सकती हैं?’

अमला ने व्यंग्य को समझा, वह होंठ काटकर चुप रह गई। कार उड़ी जा रही थी। दो-चार सफ़ेद रंग की चिड़ियां समुद्र-तट पर उड़कर मछली के शिकार को ताक रही थीं। नवीन ने कहा – उधर ये लहरें अपनी कुटिल भ्रूभंग में लगी हैं, इधर बेचारी मछलियां व्यर्थ ही उनकी चपेट में आकर इन पक्षियों का शिकार बनती हैं। कहो, गुस्सा किसी पर और भोगे कोई?

अमला ने जैसे असहनशील होकर कहा – किसका गुस्सा कौन भोगता है?

‘देख़ती तो हो अमला, लहरों का गुस्सा बेचारी असहाय मछलियां भोगती हैं।’

‘तो मैं क्या करूं ?’ अमला ने तिनककर कहा । पर तुरन्त नवीन के आर्द्र स्वर और कम्पित हाथों को देखा। उसने सोचा, मैंने कुछ कठोर बात कह दी। उसने कहा- आप इन असंयत लहरों के लिए क्या दंड तजवीज़ करते हैं ?”

‘कुछ नहीं अमला, मेरा ख़याल है तूफ़ानी वायु ज्यों ही बन्द हो जाएगी, लहरें शान्त और स्निग्ध हो जाएंगी। और तब हम दोनों एक छोटी सी डोंगी पर सवार हो, उस धवल क्षुद्र पक्षी की भांति उन लहरों पर सैर करने लगेंगे। धीर समीर हमें ले चलेगी और सूर्य की स्वर्ण-किरणें हमें आलोक दिखाएंगी।’

नवीन का कंठ कम्पित हो गया । अमला दूर जलराशि में मग्न होते सूर्य को एकटक देख रही थी। उसे जैसे मालूम हुआ कि नवीन पत्ते की भांति कांप रहे हैं, और एक अत्यन्त गोपनीय आंसू उनके नेत्र – कोण में झांककर सूख गया है। उसका नारीत्व जैसे विगलित होने लगा ।

फिर बात नहीं हुई। अन्धकार बढ़ने से पहले ही दोनों घर लौट आए। इस बार अमला उन्हें धन्यवाद देने का साहस न कर सकी। वह तीर की भांति तेज़ी से अपने कमरे में चली गई। नवीन बाबू धीरे-धीरे सोचते हुए घर में घुसे।

अमला सोच में पड़ गई। जैसे कोई चोर उसके मन में घर कर बैठा हो । नवीन के प्रति जैसे उसके प्राण खिंच रहे हों । प्यार का एक बीज उसके हृदय में विकसित हो रहा था, पर उसका आत्माभिमान मचलता था । वह सोचती थी, यह विशाल महल और अटूट सम्पत्ति उसी की है, पर वह उसे हठपूर्वक पराई समझ रही है। यह क्या उसका अपने ऊपर अन्याय नहीं है? उसे सुख और आराम के सब सुख-साधन उपस्थित थे, नवीन उसका बहुत मान करते थे । सेवक, दासी उसकी इच्छा पूर्ति को उपस्थित थीं, फिर भी जैसे उसे शून्य – सा लग रहा था । पिता को उसने प्यार किया था, उनकी उसे याद आती थी। पिता के पास जाने की कभी-कभी उसकी इच्छा प्रबल होती थी, परन्तु जब वह सोचती कि पिता ने उसे बिना उसकी इच्छा के बेच दिया है, वह क्रोध और दर्प से कहती – नहीं-नहीं, कभी नहीं – मैं कभी उस घर न जाऊंगी। उन्होंने मुझे बेच दिया है, मेरे साथ अन्याय किया है। मैंने उनकी आज्ञा पालन करके अपने कर्तव्य पितृ-भक्ति को पूर्ण कर दिया, बस अब अधिक और नहीं।

तब फिर अब क्या करूं? नवीन बाबू के प्रति उसका मन जब खिंचता था, वह बेचैन हो जाती थी। कभी – कभी उसके मन में होता, मैं उनके हृदय से जा लगूं। स्त्रीत्व की यह नैसर्गिक गति थी। पर उसकी शिक्षा, संयम, आत्म-सम्मान उसे रोकता था। वह कहती, वही क्यों नहीं आकर माफ़ी मांगते ! पहले उसका ख़याल था, मैं कभी उन्हें माफ़ न करूंगी, फिर सोचने लगी, अगर सच्चे मन से माफ़ी मांगे तो ? परन्तु उन्होंने तो मुझे चुनौती दी है, चुनौती | और कैसी गर्वोक्ति है – अभी ख़रीदा ही है अब विजय करूंगा। विजय करेंगे वे ? नहीं-नहीं। कभी नहीं देखूंगी कैसे वे विजय करते हैं! क्रोध और अभिमान से ओत-प्रोत अमला तड़पकर पलंग पर लोट जाती, फिर रोने लगती। रोते- रोते उसका अभिमान गल जाता। वह फिर उन्हीं बातों की सोच में पड़ जाती।

इधर तीन-चार दिन से उसकी भेंट नवीन बाबू से नहीं हुई थी । वह प्रतिक्षण उनके आने की प्रतीक्षा कर रही थी । पर वह सुन चुकी थी कि उन्हें बहुत ही काम है और वे बहुत व्यस्त हैं। ओह ! कैसे दुख का विषय है कि वह किसी काम में बिल्कुल भी व्यस्त नहीं हैं? कोई कैसे व्यस्त रहता है ? उसका मेधावी मस्तिष्क किसी काम में व्यस्त रहा चाहता था। एकाएक उसके मन में आया क्यों न मैं कहीं कोई नौकरी कर लूं ? जब मैं उन्हें पति ही नहीं मानती – यह घर ही जब मेरा नहीं, तब अतिथि की भांति पड़ी क्यों रहूं? मैं उन अधम स्त्रियों में नहीं हूं, जो पुरुषों के आश्रित रहती हैं और उनका भार कहाती हैं? मैंने एम. ए. पास किया है। मुझे चेष्टा करने से कहीं भी एक अच्छी नौकरी मिल सकती है। उससे मैं अपना वह मूल्य भी चुका दूंगी, जिसमें मैं बेच दी गई हूं।

उसके हृदय में आत्म-सम्मान की उमंगें हिलोरें मारने लगीं। उसने कहा, अवश्य ही मैं अपना मूल्य चुका दूंगी। मैं पिता का ऋण चुकाऊंगी। पिता का ऋण पुत्र चुकाता है, पुत्री क्यों न चुकाए ? फिर, पिता ने पुत्र ही की भांति मुझे शिक्षा दी है। वह दृढ़तापूर्वक उठी और नवीन के काम करने के कमरे की ओर चली ।

नवीन बैठे कुछ ज़रूरी काग़ज़ देख रहे थे। अमला को आते देख व्यस्त भाव से उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा – आइए ।

‘मैंने क्या इस समय यहां आकर आपका बहुत हर्ज़ किया?”

‘नहीं-नहीं, अमला ! … हां, मैं बड़े काम में फंसा रहा, आपके पास आ ही न सका। आप बैठिए तो।’

अमला ने बैठते हुए कहा – मैं चाहती हूं कि मैं भी किसी काम में लगूं।

‘काम में ? यह कैसी बात ? कैसे काम में ?”

‘यही कोई छोटी-मोटी नौकरी मिल जाए, मेरा सर्टिफ़िकेट कुछ मदद दे सकेगा। सीखने से काम भी आ जाएगा ! मैं कोई भी नौकरी कर सकती हूं।’

‘परन्तु अमला… तुम्हें हां…. आपको नौकरी करने की ज़रूरत क्या है ?”

‘ज़रूरत है, एक तो मैं ख़ाली बैठे-बैठे जीवन और समय नष्ट नहीं करना चाहती, दूसरे और भी एक बात है।’

‘कौन बात ?’ नवीन ने अचकचाकर पूछा ।

‘मैं अपना मूल्य चुका देना चाहती हूं।’

‘कैसा मूल्य ?’

‘आपने जिस मूल्य में मुझे ख़रीदा है।’

‘ओह! वे पांच लाख रुपए और उनका ब्याज !’

एक भीनी मुस्कान उनके होंठों पर दौड़ गई। उन्होंने कहा – पर यह तो बहुत कठिन बल्कि असम्भव-सा मालूम होता है अमला देवी। पांच लाख रुपए बहुत होते हैं, सूद ही ढाई हज़ार रुपए महीना होता है । इतना तुम नौकरी करके कैसे चुका सकती हो ? तुमने एम. ए. पास किया है। ज़्यादा से ज़्यादा तुम्हें दो-तीन सौ की नौकरी मिल सकती है। मैं अगर सिफ़ारिश करूं और ज़मानत दूं तो इससे दूनी तक पांच सौ तनख़्वाह मिल सकती है।

‘तो आप अपनी ज़मानत और सिफ़ारिश पर मुझे एक अच्छी नौकरी दिला दीजिए। आपका अहसान होगा। सूद न सही; मूल ही चुकाऊंगी। आख़िर मैं कब तक आपके ऊपर आतिथ्य का भार डाले रहूं?’ उसके होंठ फड़कने लगे। वह इसी सिलसिले में कुछ और भी कहा चाहती थी, पर नवीन की भावभंगी से वह सहमकर चुप हो गई। उसके अन्तिम वाक्य से नवीन के हृदय में आघात लगा है, यह उसने देखा । वह अपराधिनी की भांति नवीन की ओर देखती रही।

नवीन ने फीकी मुस्कुराहट होंठों पर लाकर कहा – आतिथ्य के भार की बात भी ठीक है आपकी । अच्छी बात है। मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। हां, आपके आतिथ्य में कोई कमी तो नहीं, आपको यहां कोई कष्ट तो नहीं। मैं यह कहने की धृष्टता तो नहीं कर सकता कि आप इस घर को अपना घर समझें । पर फिर भी मैं आशा करता हूं कि आप अपनी आवश्यकताओं के लिए संकोच … ।

नवीन की बातें जैसे वेदना और व्यंग्य की सीमा लांघ रही थीं, उन्हें सुनने की सामर्थ्य अमला में न थी। वह पूरी बात न सुनकर ही वहां से भाग गई। चलते समय उसने कुछ अस्फुट शब्द कहे। उन्हें नवीन ठीक-ठाक न समझ सके। वे मन की वेदना को छिपाने के लिए दोनों हाथों से माथा थामकर बैठ गए।

दूसरे दिन प्रातः काल नवीन ने अमला को एक पुर्जा लिख भेजा । उसमें लिखा था – आप क्या अभी मेरे साथ चाय पीकर मुझे प्रतिष्ठा बख्शेंगी ? कल जो बातें हुई थीं, उस सम्बन्ध में मुझे कुछ निवेदन भी करना है। एक अच्छी नौकरी की उम्मीद है।

जवाब में अमला स्वयं ही चली आई। चाय पीते-पीते उसने पूछा- कैसी नौकरी है ?

‘नौकरी बड़ी जोखिम की है, पर मैं आशा करता हूं आप उसे कर सकेंगी। हां, काम सीखना होगा।’

‘मुझे क्या करना होगा ?’

‘एक बड़े फ़र्म की मैनेजरी की नौकरी है। वेतन मिलेगा हज़ार रुपए महीना । मगर एक लाख की नक़द ज़मानत चाहिए ।’ नवीन बाबू मुस्कुराहट छिपाने को दूसरी ओर देखने लगे।

‘इतनी भारी ज़मानत मैं कहां से दे सकूँगी ! ‘

‘आपके लिए मैं ज़मानत दे सकता हूं। अगर आप दो बातों का वचन दें।’

‘दो बातें कौन ?’

‘एक यह कि आप उसे स्वीकार करें, दूसरे आप मेहनत से और ईमानदारी से काम सीखें, समझें और करें ।’

अमला की आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा- पहली बात स्वीकार करना बहुत कठिन है। मैं आपके एक लाख रुपए जोखिम में नहीं डाल सकती । रही दूसरी बात, सो क्या आप मेरी ईमानदारी पर शक करते हैं?

‘यह बात नहीं अमला,’ नवीन ने अमला के दर्द को समझकर कहा- असल बात तो यह है कि आपके हाथों लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों रुपए का व्यापार होगा, आपकी ज़रा सी असावधानी से फ़र्म-मालिक को लाखों की हानि हो सकती है। फ़र्म की पूरी ज़िम्मेदारी आप ही पर रहेगी, क्योंकि फ़र्म के मालिक शीघ्र ही व्यवसाय के सम्बन्ध में जापान जाना चाहते हैं।

‘मैं ऐसी जोखिम की नौकरी नहीं कर सकती,’ अमला ने टूटे हृदय से कहा ।

‘तब सौ रुपए की एक नौकरी कन्या पाठशाला की और है, चेष्टा करने से एक-दो ट्यूशन भी मिल सकती हैं। डेढ़ सौ तो दौड़-धूप कर आप कमा ही सकती हैं, पर इससे क्या आप अपना मूल्य चुका सकती हैं ?’

अमला मर्माहत हुई। कुछ देर तक उसके मुख से बात नहीं निकली। उसने सोचा, सौ-डेढ़ सौ ? इतना तो मैं अनायास ही एक दिन में ख़र्च कर दे सकती हूं – उसके कैशबक्स में न जाने कौन नोटों के बंडल भर जाता है। हालांकि वह कभी कुछ ख़र्च नहीं करती और कैशबक्स छूती भी नहीं । उसने भय, अनुनय और संकोच आंखों में भरकर कहा आप कह सकते हैं कि मैं अबला स्त्री इतनी भारी नौकरी ठीक तौर पर बजा सकूँगी ?

‘क्यों नहीं, पुरुषों में क्या सुरख़ाब के पर लगे हैं? मैंने कह तो दिया, यदि आप मेहनत और ईमानदारी…’

‘यह आप न कहिए,’ अमला ने उत्तेजित होकर कहा- जहां तक मेहनत और ईमानदारी का सम्बन्ध है, मैं प्राणों की बाज़ी लगा दूंगी।

‘तो न केवल आप उस फ़र्म की मैनेजर ही रहेंगी। प्रत्युत उसकी एक बड़ी हिस्सेदार भी हो जाएंगी। और अपना मूल्य ही नहीं, सूद भी एक बार नहीं पांच बार चुका सकेंगी। ‘ओह! क्या यह सम्भव हो सकता है?’ वह आपे से बाहर होकर आवेश में उठकर नवीन बाबू की ओर चली, पर फिर धम से कुर्सी पर बैठ गई। उसने अत्यन्त दीन भाव से कहा-यद्यपि यह मेरा परम स्वार्थ है, पर आप दया करके अगर मेरी ज़मानत दे दें तो … ।

उसके होंठ कांपने लगे और आंखों में आंसू आ गए। नवीन ने बलपूर्वक अपने आंसू आंखों की कोर में छिपाकर कहा-जैसी आपकी आज्ञा । तो आप मेरे साथ ऑफ़िस चलने को तैयार रहिए । ग्यारह बजे, भोजन के बाद हम चलेंगे।

‘आज ही, अभी ?’

‘जी हां,’ नवीन बाबू ने ज़रा रुखाई से कहा और टेबिल से उठ खड़े हुए।

अमला को फिर कुछ कहने का साहस न हुआ । उसने सहमती आवाज़ में कहा – मैं तैयार रहूंगी।

वह चली गई।

नवीन बाबू जब अमला को साथ लेकर अपने ऑफ़िस में पहुंचे और ऑफ़िस के हिन्दुस्तानी और यूरोपियन कर्मचारियों का अभिवादन ग्रहण करते हुए अपनी शानदार टेबल पर और अमला को एक क़ीमती कुर्सी पर बैठने का संकेत कर स्वयं भी बैठ गए, तब अमला ने विस्मय – विस्फारित आंखों से नवीन बाबू की ओर देख मानो मन ही मन कहा – ऐसा तुम्हारा वैभव है?

नवीन के कुर्सी पर आसीन होते ही उनकी यूरोपियन प्राइवेट सेक्रेटरी डाक लेकर अदब से हाज़िर हुई |

नवीन ने बिना उसकी ओर देखे कहा – धन्यवाद मिस सूफ़ी, पर कुछ मिनट ठहरो । अभी मि. रॉबर्ट को ज़रा मेरे पास भेज दो। – मिस सूफ़ी ने शिष्टाचार के लिए गर्दन झुकाई और चली गई। दूसरे ही क्षण एक प्रौढ़ यूरोपियन ने आकर नवीन को अभिवादन किया। नवीन ने अभिवादन का जवाब देकर उसे बैठने का संकेत करके कहा – मि. राबर्ट, मैं आपका परिचय अमला देवी से कराता हूं, आपको एक महीने में जापान के ऑफ़िस में जाना होगा और यहां का कुल काम यही करेंगी। इस एक महीने में आप सब काम इन्हें समझा दें, जिसमें अड़चन न हो। सम्भव है मुझे भी जापान जाना पड़े, क्योंकि वहां का मामला सुलझता दीख नहीं रहा है। खैर, आपने क्या अमलादेवी का एप्वाइंटमेंट पत्र तैयार कर लिया है ?

‘जी हां, यह है’ – उन्होंने एक काग़ज़ उनके सामने बढ़ाया। उस पर सरसरी नज़र डालकर और दस्तख़त करके अमला की ओर बढ़ाते हुए नवीन ने कहा – लो अमला, आज से आप इस फ़र्म की मैनेजर हुईं, आपको एक हज़ार रुपया मासिक वेतन, एक कार और पचास रुपए रोज़ भत्ता मिलेगा। परन्तु एक ही मास में आपको तमाम काम सीख लेना होगा।

अमला यह देखकर हक्का-बक्का हो रही थी। सबसे बड़ी बात नवीन के चेहरे का वह भाव था, जिसके सामने अधीनता के सिवा दूसरी कोई बात नहीं की जा सकती थी । घर पर जो उनके चेहरे पर प्रेम, विनय, कोमलता के भाव थे वे यहां नहीं थे। यहां उनकी तेजपूर्ण शासन और अधिकार की मूर्ति थी । अमला ने खांस – खखारकर कहा- तब क्या मैं यह समझू कि मैं आप ही की नौकर हूं।

‘अगर आपको इसमें कुछ आपत्ति न हो, यह एग्रीमेंट है, आपको स्वीकार हो तो दस्तख़त कर दें,’ उन्होंने मालिकाना रुआब और कुशल व्यापारी की भांति कहा।

अमला ने एग्रीमेंट पढ़ा, और चुपचाप दस्तख़त कर दिए। उसने ठंडी और मुर्दा आवाज़ में कहा – नहीं, मुझे कोई उज्र नहीं है पर … पर मैं रहूंगी कहां ? –

नवीन ने निर्लेप भाव से कहा- अभी आपका जैसा रहन-सहन चल रहा है, वही रहेगा। और बरबस अपनी हंसी रोकने के लिए उन्होंने ज़ोर से घंटी बजाते हुए कहा – मिस्टर रॉबर्ट, अब आप इन्हें इनके ऑफ़िस में ले जा सकते हैं।

लेडी टाइपिस्ट मधुर सेंट की गन्ध फैलाती हुई कमरे में आ अदब से खड़ी हो गई, और अमला हृदय का भार साहसपूर्वक उठाकर मिस्टर राबर्ट के पीछे-पीछे चल दी। नवीन ने एक ठंडी सांस ली और अपने काम में लग गए।

अमला बड़ी ही टेढ़ी लड़की थी । एक ही महीने में उसने इस तत्परता और मुस्तैदी से काम को अपने कब्जे में किया कि ऑफ़िस में उसका आतंक छा गया। समय- कुसमय की उसे परवाह न थी । भावुकता को उसने भुला दिया था। काम की उसे धुन थी, वह आंधी की भांति काम ख़तम करती थी । मिस्टर राबर्ट जब उसके काम की गुप्त रिपोर्ट नवीन को देते तब एक आनन्द – मिश्रित सन्तोष उनके हृदय को भर देता था। इस बीच ऑफ़िस वर्क को छोड़कर उसने बहुत कम नवीन से भेंट की। नवीन ने भी धैर्यपूर्वक संयम रखा। फिर भी वे सन्ध्या समय उसे घुमाने ले जाते। उसका मन बहलाते और उसकी आत्मा को अपने निकट भी लाने की चेष्टा करते थे। अमला पर इसका कुछ असर पड़ता था कि नहीं यह ईश्वर जाने, पर वह नवीन बाबू के प्रति अति विनीत और आज्ञाकारिणी हो गई थी।

महीने की समाप्ति पर ज्योंही अमला को पहला वेतन मिला, उसे ज्यों का त्यों लेकर वह नवीन के पास आई। नवीन असमय में उसे आया देख बोले- क्या बात है, अमला ?

अमला ने रुपया मेज़ पर रखकर कहा यह क़र्ज़ ख़ाते में जमा कर लीजिए ।

नवीन ने अमला की ओर कुछ देर देखकर कहा-असल में या सूद के पेटे ?

‘जैसा आप ठीक समझें।’

नवीन ने कुछ न कहकर घंटी बजाई । एक मिस हाथ में पेंसिल काग़ज़ ले हाज़िर हुई। नवीन ने कहा यह रुपया मेमसाहब का जमा करके रसीद ला दो। – मिस सिर झुकाकर चल दी और नवीन अपने काग़ज़ों को उलटने लगे। अमला चुपचाप बैठी रही। क्लर्क ने रसीद लाकर अमला के हाथ में दे दी। नवीन की इस समय की नीरस- भावना से हृदय में आघात खाकर अमला चुपचाप उठकर जाने लगी। नवीन भी मान में थे। पर उन्होंने उसे जाते देखकर कहा- हां, अमला मुझे आपसे कुछ कहना है।

अमला लौट पड़ी। उसने अपेक्षाकृत नकली विनीत भाव से सिर झुका लिया।

नवीन ने नरमी से कहा – बैठ जाइए अमला, अब आपको एक महीना अपना काम करते हो गया। काम सीखने के लिए इतना ही समय दिया गया था। अब जापान में मि. राबर्ट की बड़ी ही ज़रूरत है और वे परसों चले जाएंगे। काम का कुछ ऐसा पेंच आ पड़ा है कि शायद मुझे भी जाना पड़े।

अमला एकाएक बेचैन होकर बोली- आपको ?

नवीन को अमला के स्वर में एक नई वस्तु दीख पड़ी, जैसी कि प्रथम नहीं देखी गई थी। उन्होंने और भी मृदुल भाव से कहा- हां अमला, मैं न जाऊंगा तो भय है कि मुझे लाखों का घाटा हो जाएगा। पर मैं आशा करता हूं, आप सब संभाल लेंगी। एक ही महीने में आपने जैसी योग्यता का परिचय दिया है, उससे मुझे विश्वास हो गया है।

अमला का कंठ – स्वर कांप गया, पर उसने कहा-आपके न होने पर मुझे भय है….।

नहीं-नहीं, मैं एक क्षण भी वहां व्यर्थ न ठहरूंगा। ज्यों ही परिस्थिति ठीक हुई मैं लौट आऊंगा। इन दो दिनों में अब हमको बहुत काम करना होगा । मि. राबर्ट का तो सब काम आपने समझ ही लिया। मेरा काम दो दिन में समझना है और मुझे सफ़र की तैयारी करनी है।

अमला का कंठ सूख गया। उसकी वह आकुल मूर्ति देख नवीन आनन्द – विभोर हो गए।

अमला ने एकाएक कहा-एक निवेदन है।

‘कहिए ?’

‘आपने मेरी योग्यता जांच ली, शायद विश्वास भी कर लिया ।’ नवीन ने घबराकर अमला की ओर देखा । अमला ने कहा- अब अगर आप उचित समझें तो अपनी ज़मानत हटा लें। मैं प्रतिज्ञा करती हूं कि….

अमला की आंखों से टप-टप आंसू टपक पड़े। नवीन भी आंसू न रोक सके। उन्होंने अमला का हाथ अपने कांपते हाथों में लेकर कहा अमला, अगर तुम मुझे समझ सको… ।

इस बार का यह ‘तुम’ अमला को बड़ा प्रिय लगा। वह उसी भांति नवीन के हाथों हाथ दिए रोती रही।

नवीन के चले जाने पर अमला का हृदय हाहाकार करने लगा। उसकी आंखें जैसे अन्धी और कान बहरे हो गए। उसे सब ओर अंधेरा और शून्य दीखने लगा । और वह समझ गई कि धूर्त महाजन ने न सिर्फ़ उसे ख़रीदा ही है, प्रत्युत जीत भी लिया है । वह उसी की है, सोलह आना उसकी। नवीन उसके प्राणों में, रोम-रोम में बस गया है। उसका अभिमान न जाने कहां चला गया, उसका हृदय मानो पुकार – पुकारकर कहने लगा, कहां हो, ओ निष्ठुर महाजन ! ओ विजयी नवीन ! आओ और अमला की असहाय लतिका को सहारा दो, हृदय से लगाओ ! और तभी उसे यह भी भान हुआ कि यह घर, कारबार और सब-कुछ मेरा है। नवीन के उन आंसुओं ने भेद खोल दिया था, उसे एक नए जीवन का भेद प्रकट हो गया था और वह घर में पागल सी दौड़ती नवीन की चीज़ों को प्यार करने के लिए घूमती फिर रही थी। नवीन के चित्र के आगे उसने नतमस्तक होकर सिर झुकाया, उस पर फूल चढ़ाए। ऑफ़िस में आकर वह पहले नवीन की कुर्सी को आंचल से झाड़कर उसे चूमती, तब काम में जुटती । उसके उन्माद को रोकने में सिर्फ़ भारी ज़िम्मेदारी और काम का पहाड़ ही सहायक हो रहा था। वह नौ बजे ही ऑफ़िस आ जाती और वहां वह अंधेरा होने तक बैठी काम करती रहती । वह अपनी जिम्मेदारी समझ गई थी। करोड़ों के व्यापार और विश्व भर से पत्र-व्यवहार का उत्तरदायित्व उस पर था। दिन के बाद दिन और महीने के बाद महीने बीतते गए। नवीन के ख़त आते थे। उनमें सिर्फ़ काम-काज की बातें रहती थीं। उनमें वह प्यार की एक छाया खोजने को तड़पती थी। वह सोचती थी कि कभी वे निष्ठुर एक प्यार का शब्द भी न लिखेंगे ? कभी सोचती, मैं ही लिखू। पर वह लिख न सकी । चार महीने बीत गए ।

और एक दिन व्यापार की दुनिया में तूफ़ान आया । बाज़ार के भाव उलट-पुलट गए। बैंक अकस्मात बन्द हो गए। फ़र्म के हेड क्लर्क ने अमला के पास बदहवासी से आकर कहा पचास लाख रुपया नक़द हाथ में न होने से हमारा टाट उलट जाएगा । परसों दस बजे हमें पचास लाख रुपए की बैंक की हुंडियों का भुगतान करना होगा । हमारा रुपया जिन फ़र्मों में जमा है यह उनकी सूची है, पर उनसे कुछ भी मिलना सम्भव नहीं, क्योंकि बैंक बन्द हो रहे हैं । सारी परिस्थिति को देखकर अमला का सिर चकरा गया। पर उसने साहस से काम लिया। उसने कहा आख़िर, एकाएक यह क्या हो गया ?

‘एक व्यापारी ने आठ करोड़ का दिवाला निकाल दिया। उसके साथ कई फ़र्म और दो-तीन बैंक भी पिस मरे। हमारी भी वही गत होगी।’

अमला ने क्रुद्ध होकर कहा-बको मत, मैं यह जानना चाहती हूं कि हमें कुल कितना रुपया देना है।

‘पचास लाख हुजूर ।’

‘कब तक ?’

‘परसों दस बजे तक ।’

‘अपने पास कुल रक़म कितनी है ।’

‘मुश्किल से पन्द्रह लाख।’

‘पावना कितना है ?’

‘लगभग इतना ही है। यह फ़ेहरिस्त है, पर इसमें से कुछ मिलने की आशा नहीं।’

‘क्यों?’

‘बैंक बन्द हैं और व्यापारी सब इसी स्थिति में हैं जिसमें हम।’

अमला सोच में पड़ गई। क्लर्क ने कहा- क्या मालिक को ख़बर कर दी जाए ?

अमला ने भू-संकोच कर कहा – इसके लिए समय कहां है ? – इसके क्षण भर बाद उसने फिर कहा अच्छा, तुम अपना रुपया तैयार रखना । और मोटर लाने की आज्ञा दी।

पौने दस बज रहा था। दो दिन तक बिना खाए-पिए, सोए, सब पावनेदारों पर घूम- फिरकर, अपने सब गहने- पाते बेचकर अमला कुल चालीस लाख रुपए इकट्ठा कर सकी। उन्हें टेबल पर रखे वह अतिशय उद्विग्न मन से पन्द्रह मिनट बाद जो सर्वनाश होने वाला है, उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। और रुपया पाने की कुछ आशा न थी और फ़र्म का दिवाला निकलने वाला था । अमला विकल भाव से ऑफ़िस में टहल रही थी । एक-एक मिनट पहाड़-सा जा रहा था। दस मिनट और बीत गए, सिर्फ़ पांच मिनट रह गए, पांच मिनट । इन पांच मिनटों में उसी के हाथ से उसके पति की मालिक की सब प्रतिष्ठा जाने वाली है। उसने सोचा अगर ऐसा हआ तो वह आत्मघात कर लेगी। ऑफिस के कर्मचारी सन्नाटा बांधे चुप बैठे थे। एक मोटर आकर द्वार पर लगी । और नवीन तूफ़ान की तरह एक हैंड बैग लिये ऑफ़िस की ओर दौड़े, कर्मचारियों के मुंह से चीख निकल गई।

अमला ने समझा वह घड़ी आ गई। उसने दराज़ से पिस्तौल निकाली और दूसरे ही क्षण वह नवीन की गोद में मूर्च्छित थी। हैंड बैग की तरफ़ संकेत करके कैशियर से नवीन ने कहा- उसमें पचास लाख रुपए के नोट हैं। हुंडियां चुकता कर दो और वह अपने बलिष्ठ हाथों में अमला को लिये मोटर की ओर लपके।

मोटर बंगले में आई । अमला होश में आ गई थी । और स्वप्न की भांति बीती घड़ियों को स्मरण कर रही थी। अमला ने भयभीत होकर कहा – वे हुंडियां … ?

‘संकट टल गया प्रिये! हुंडियों का भुगतान हो गया। साथ ही यह तुम्हारा कमीशन चालीस लाख रुपया है। मैंने कहा था न कि अच्छी नौकरी है। आज मैनेजर हो, किसी दिन हिस्सेदार बन जाओगी और अपना पांच गुना मूल्य चुका सकोगी।’

‘तुम्हारा मूल्य मैं कभी न चुका सकूँगी स्वामी,’ अमला ने नवीन के हृदय में मुंह छिपा लिया। अमला को अपनाकर नवीन कृतकृत्य हो गए।

वही बम्बई से आसाम तक का लम्बा थकाने वाला सफ़र दोनों कर रहे थे। एक बार पिता का आशीर्वाद प्राप्त करने की लालसा अमला न रोक सकी, इसी से दोनों जा रहे थे। हां, थकान के स्थान पर स्फूर्ति, उमंग और जीवन था। दोनों ने दोनों को पा लिया था।

**समाप्त**

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