सुलह आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी | Sulah Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani 

सुलह आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी, Sulah Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani Hindi Story 

Sulah Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani 

 

(कई बार वैमनस्य की ग्रन्थियां भोले-भाले बालकों की तुतलाती सहृदय वाणी के मार्मिक आघात पाकर सहज ही खुल जाती हैं। ‘सुलह’ ऐसी ही एक कहानी है।)

काश्मीरी दरवाज़ा पुरानी दिल्ली का चांदनी चौक के बाद सबसे गुलज़ार बाज़ार है। कचहरी और हिंदू कालेज के कारण उसका दिल्ली के इतिहास में सांस्कृतिक महत्त्व भी बहुत है। हिंदू कालेज अब युनिवर्सिटी क्षेत्र में चला गया है, और हिन्दू कालेज की उस बिल्डिंग में अब कचहरी का अमल है। परन्तु वह भव्य ऐतिहासिक इमारत अब भी हिंदू कालेज के ही नाम से प्रसिद्ध है। हिंदू कालेज के कारण नगर के शिक्षित तरुण, और कचहरी के कारण भले-बुरे सभी नागरिक काश्मीरी दरवाजे जाते-आते ही रहते हैं। इसीसे नगर का यह भाग सदा चहल-पहल से भरा रहता है। इसमें पुरानी दिल्ली की रंगीनी भी है, और नई दिल्ली की शान भी। इसके अतिरिक्त, काश्मीरी दरवाजे के बाहर सत्तावन के विद्रोह के अमिट चिह्न भी हैं। दूर तक शहर-पनाह की दीवारों पर अंग्रेजों के बरसाए हुए गोलेगोलियों से शहर-पनाह और दरवाजा छलनी हुआ पड़ा है। जैसे चेचक का प्रकोप मुंह पर अपने अशुभ दाग छोड़ जाता है, वैसे ही अंग्रेज़ भी काश्मीरी दरवाजे पर अपने गोले-गोलियों के घाव छोड़ गए हैं। जब तक अंग्रेजों की अमलदारी थी, प्रत्येक अंग्रेज़ उन निशानों को गर्व से देखता था, और प्रत्येक भारतीय लाज से अपना सिर नीचा कर लेता था। पर आज वही निशान संग्राम के स्मृति-चिह्न बन गए हैं।

हिन्दू कालेज के प्रति मेरा प्रिय भाव भी बहुत था। बहुधा, मैं छात्रों के बीच भाषण दे आया हूं। बहुत बार छात्रों और अध्यापकों ने मुझे चाय-पान का आनंद प्रदान किया है। वहां के गुंजान फुलवारियों से भरे प्रांगण में ज्ञान-पिपासु तरुण छात्र-छात्राओं के हंसते मुंह देखने के प्रलोभन से मैं चाहे जब, बिना काम, और बिना बुलाए ही वहां जा पहुंचता था। अब जो सुना, कि वहां कचहरियां आ बसी हैं, मैं वहां का वातावरण देखने एक दिन जा पहुंचा। इस इमारत का एक ऐतिहासिक महत्त्व भी है, जिसे बहुत कम आदमी जानते हैं। वह यह कि सत्तावन के विद्रोह के बाद जब दिल्ली को अंग्रेजों ने दखल किया, तो उनकी पहली सरकार इसी इमारत में स्थापित हुई थी। यहीं किसी कमरे में बैठकर हडसन साहब ने नवावों और शाही खानदान के सैकड़ो आदमियों को फांसी पर चढ़ाने के प्राज्ञापत्र जारी किए थे। खयाल कीजिए, जब ‘फव्वारे’ पर, दूर तक फांसियों पर लोग लटक रहे थे, तब, इस इमारत के भीतर क्या हो रहा है, यह जानने को लोग कितनी भयपूर्ण कल्पनाएं करते होंगे। अब न रहे वे दिन, और न वे अंग्रेज। अब तो ठेठ स्वदेशी राज्य है। फिर कचहरी, जहां भीतर-बाहर हर जगह जाने का सभी को अधिकार है, वहां पहुंच गई। क्या समय का फेर है! मनुष्य की भांति, स्थान के भी भाग्य होते हैं! सो मैं, एक दिन, इस ऐतिहासिक इमारत के भाग्य-परिवर्तन को देखने वहां जा पहुंचा।

फाटक में घुसते ही ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे शांत वातावरण में आंधी आ गई हो। भोले-भाले स्वस्थ छात्रों के प्यार-भरे चेहरों के स्थान पर, उठाईगीर जैसी मतलब-भरी आंखें लिए सूटो में लिपटे हुए वकील अपने शिकार की तलाश में इधर-उधर घूम रहे थे। बढ़िया सूटों में से झांकते हुए उनके वीरान और मनइस चेहरे मतलब और मक्कारी की हंसी हंस रहे थे। उस हंसी का मतलब यह था, लड़ो भाइयों, हम तुम्हारी मदद करेंगे। तुम अपनी जेब की जमाजथा हमारे हवाले कर दो।-सब किस्म के आदमी, आबाल-वृद्ध, परेशान-से इधर से उधर घूम रहे थे। जैसे इनकी गांठ का सब कुछ यहीं खो गया है। देखता-भालता मैं पीछे के कक्ष में जा पहुंचा। बहुत बार, भावुक तरुणों ने मेरा वहां सत्कार किया था। साहित्य-चर्चा हुई थी, चाय-रसगुल्ले खाए थे। बूढ़ों और तरुणों ने मिलकर शुभ हास्य बखेरा था। परन्तु आज का वातावरण तो कुछ और ही था। एक जजसाहब ऐसी रूखी और उदासीन मुख-मुद्रा बनाए ऊंची कुर्सी पर बैठे थे, जैसे उनके चारों ओर खड़े मनुष्यों से उनका कोई सम्पर्क ही नहीं है; और, जैसे वे सब कीड़ेमकोड़े हैं; केवल एक ही महाशय भलेमानुस हैं।

कोर्ट में एक दिलचस्प मुकदमा पेश था। मुकदमा पति-पत्नी के बीच था। दम्पति शायद ईसाई थे—दोनों तरुण। पत्नी की आयु कोई पचीस वर्ष की होगी। छरहरी, लम्बी और सुन्दर श्यामल वर्ण । गोद में कोई ढाई-तीन साल का बच्चा स्वस्थ, और सुन्दर ! परिधान साधारण साड़ी। अति स्वच्छ बच्चे को कन्धे पर लिए चुपचाप खड़ी थी। मुद्रा क्रोध-भरी थी । उसकी बगल में एक सूखा, चिड़ी-सा दुबला-पतला, लम्बा -वेतुका-सा वकील अपनी मनहूस नज़रों को काले चश्मे में छिपाए, नकली गम्भीर मुद्रा में खड़ा था। उसकी बगल में ही तरुणी का पति कुछ बेचैन-सा खड़ा था। गहरी उदासी की छाया ने उसके वीरान चेहरे को एकदम उजाड़ दिया था। उसकी भूखी और खोई-सी नज़र रह-रहकर, तरुणी पर पड़ रही थी। परन्तु तरुणी एकदम भावहीन पत्थर की मूर्ति की भांति, निष्ठुर, निर्मम मुद्रा में खड़ी थी। मामला शायद छोड़-छुट्टी और गुज़ारे का था। मुद्दइया वही तरुणी थी। पति के भी बगल में एक ठिगने, गोल-मटोल गुदगुदे वकील साहब खड़े,रह-रहकर अपनी पतलून की जेब में बार-बार हाथ निकाल और डाल रहे थे। दोनों वकीलों से उनके मुवक्किल, थोड़ी-थोड़ी देर में, घुसफुस-घुसफुस बात कर लेते थे, जैसे अब इस स्थान पर वही परस्पर गहरे सगे-सम्बन्धी हों।

मुकदमा आरम्भ हुआ और जज ने तरुणी के पति से कुछ प्रश्न किए। ज्योंही युवक के मुंह से बात फूटी, तरुणी की गोद में सोया हुआ बच्चा, चौकन्ना होकर इधर-उधर देखने लगा। पिता पर दृष्टि पड़ते ही वह जोर से ‘पापा, पापा’ कह-कर, और दोनों हाथ फैलाकर पिता की गोद में जाने के लिए बावेला मचाने लगा। और तरुणी उसे अपनी गोद में जकड़े रखने के लिए भरपूर ज़ोर लगाकर, उसे चुप करने का असफल प्रयत्न करने लगी। परन्तु बालक ने ‘पापा, पापा’ का ऐसा शोर मचाया, और इस कदर रोना शुरू किया, कि अदालत का कामकाज एक-बारगी बन्द हो गया; और जज तथा वकील परेशान होकर उस नन्हे प्राणी को देखने लगे। वह प्रकृति के एक ऐसे सत्य को पुकार-पुकारकर अदालत से कह रहा था, कि मेरे दावे के सामने तुम्हारा सारा ही कानून बघारना व्यर्थ है ।

जज और वकीलों ने बहुत समझाया कि थोड़ी देर के लिए वह स्त्री बच्चे को पति की गोद में दे दे। यहां तक, कि जज ने कहा, कि बच्चे पर पति ही का अधिक हक है। पर, वह स्त्री, कसकर बच्चे को छाती से लगाए, वज़िद उसे किसी तरह पति को देने पर आमादा न हुई। लेकिन बच्चा बड़े ज़ोर से ‘पापा’ कहकर करुण क्रंदन कर रहा था। उसके दोनों नन्हे-नन्हे हाथ हवा में उठे हुए थे, और उसका वह अभागा पिता, जिसने कभी हंस-हंसकर गोद में खिलाया था, आंखों में आंसू भरे, दोनों हाथ फैलाए, अपनी पत्नी के आगे करुणा की भीख मांग रहा था। कानून चुप था। जज चुप था। वकील चुप थे। पिता और पुत्र हाथ फैलाए एकदूसरे की छाती से लगने को छटपटा रहे थे। स्त्री अदालत में अपने अधिकारों के लिए लड़ने को आमादा थी। पत्नी आत्मसम्मान की आग से दहक रही थी, पर मां विगलित हो रही थी। उस कानूनी वातावरण के भरे कमरे में, उस एक स्त्री के शरीर में जो यह त्रिवेणी-संगम हो रहा था, उसे देखनेवाला कोई न था। मां की आत्मा ने स्त्री और पत्नी की मूर्ति को परास्त कर दिया। उसने छिपी नजर से पति की ओर देखा। ऐसी करुणा की मूर्ति उसने पहले नहीं देखी थी। उसकी आंखों की ज्वाला बुझ गई। पत्नी की प्रात्मा ने प्यार बखेरना प्रारम्भ कर दिया। उसकी आंखों में मोती सज गए। और देखते-देखते ही वे झर-झर झरने लगे। गोद की पकड़ उसकी ढीली पड़ गई। और जैसे चुम्बक से खिंचकर लोहा चिपक जाता है, उसी प्रकार वह शिशु पिता की गोद में जाकर चिपट गया।

बालक ने कहा-पापा!

पिता ने कहा-बेटा!

‘तुम कहां चले गए थे पापा।’

‘बेटा, मैं काम से गया था।

‘अब मुझे छोड़कर मत जाना पापा।’

‘नहीं जाऊंगा बेटा।’

‘ममी रो रही हैं पापा। उन्हें प्यार करो।’

‘बेटा, ममी मुझसे गुस्सा हो गई है।’

‘तुम ममी को प्यार करो पापा, वे हंस पड़ेंगी।’

बालक ने माता की ओर अपने नन्हे हाथ पसार दिए। पिता ने एक कदम बढ़ाया; और वह मां के पास आ खड़ा हुआ। बालक ने एक हाथ मां के गले में डाला और दूसरा पिता के गले में। उसने मां का मुख चूम लिया, और कहा पापा! तुम ममी को प्यार करो।

डरते-डरते पति ने पत्नी का चुम्बन किया, और बालक खिलखिलाकर हंस पड़ा। पत्नी ने भरी हुई आंखों से पति की ओर ताका, उनकी आंखों में अनुनय और प्यार छलछला रहा था। पत्नी के होंठों में मुस्कान फैल गई। और तभी साहस करके पति ने पत्नी का हाथ पकड़ लिया। पत्नी, नववधू की लज्जा आंखों में सजाकर चुपचाप अदालत से बाहर चली गई। अदालत ने वकीलों की ओर देखा। पर वकील, ‘मेरी फीस’, ‘मेरी फीस’ कहते मुवक्किलों के पीछे भागे। जज ने हंसकर मिसिल एक ओर फेंककर कहा-दूसरा मुकदमा पेश करो।

**समाप्त**

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