मेरा गुल्ला कहाँ है? पद्मा सचदेव की कहानी | Mera Gulla Kahan Hai Padma Sachdev Ki Kahani 

मेरा गुल्ला कहाँ है ? पद्मा सचदेव की कहानी डोगरी कहानी, Mera Gulla Kahan Hai Padma Sachdev Ki Kahani, Dogri Story In Hindi 

Mera Gulla Kahan Hai Padma Sachdev Ki Kahani 

चारों तरफ पहाड़ों से घिरी वादी में डल लेक नगीने की तरह चमक रही थी। डल लेक की छाती पर हौले-हौले एक शिकारा आगे बढ़ रहा था। मैं अधलेटी सी हिमालय की बयार को अपने चेहरे पर महसूस कर रही थी। बीरबहूटी की तरह धीरे-धीरे मस्त बयार मेरे चेहरे पर रेंग रही थी। इसका कोई रंग न था। इसे मैं आँखें बंद करके ही महसूसना चाहती थी।

शिकारे के चप्पू गुल्ला के हाथ में थे। शिकारा हाउस बोटों की कतार से जरा सा आगे बढ़ा। पीछे लालीता, खुशामदीद, बहिश्त कई हाउस बोट बुजुर्गों की तरह सिर जोड़े बैठे थे। शिकारा चल रहा था। चप्पू की हल्की सी आवाज की लयात्मकता माहौल में रस घोल रही थी। लहरें जैसे लहरा दे रही थीं। सृष्टि हैरान सी खड़ी-की-खड़ी रहकर डल लेक में अपना चेहरा देख रही थी। अचानक गुल्ला के हाथ रुक गए। चप्पू चलना बंद हुआ तो संगीत रुक गया। मैंने जरा सी आँख की कोर खोली। सामने कमलों का फैलाव था। दूर तक फैले कमल, कमल-ही-कमल अपनी डंडियों पर इठलाते, बलखाते, शरमाते कमल झूम रहे थे।

आसपास छोटे डोंगों में बैठे बच्चों के हाथों में भी कमल थे। एक आठ-नौ बरस की नंग-धड़ंग लड़की अपने डोंगे से धड़ाम से जल में कूदी। पारदर्शी पानी के नीचे डल की घास इठला रही थी। निरंतर नहाती घास के पत्ते बेहद चिकने और फिसलवाँ हो रहे थे। इस पानी में लड़की की देह एक मछली की तरह उलटती-पलटती ऊपर को आई। उसने सिर बाहर निकालकर झटका और झटककर आँखें खोलीं। उसके हाथ में लाल गुलाब था। दूर चारचिनारी के चारों चिनार एक-दूसरे की तरफ पीठ करके खड़े मनुष्य हो गए। उनके हाथों में भी एक-एक लाल कमल था। लड़की ने हाँफते हुए मुझसे पूछा, “लाल कमल लोगी?”

मैंने आँखें मीचे-मीचे ही कहा, ”नहीं।”

उसने कहा, “लो, लेना पड़ेगा। हर बरस तुम यहाँ आकर मुझसे कमल लेती हो। अब क्‍यों नहीं लोगी? ये कमल तुम्हें लेना ही पड़ेगा।”

मैं हिमालय की गोद में झूलती रही थी। उसकी उद्दंडता पर अचरज से चौंककर मैंने आँखें खोलीं और गुल्ला की तरफ देखा। उसके हाथों में चप्पू तसवीर हो रहे थे। उसके दोनों हाथ में भी लाल कमल थे। मैंने ध्यान से देखा, उनमें से खून बह रहा था। गुल्ला के चेहरे पर दहशत थी।

अचानक लड़की की आवाज गूँजी, “ले लो, ये कमल ले लो। एक रुपया ही दे देना।”

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अब मैंने लड़की को देखा। वह पानी में खड़ी थी। डल का पानी जम गया था। वह शीशे की तरह चमक रहा था। आसमान बेरंग-बेनूर था। डल के जमे हुए पानी की चमक आँखों को चुभने लगी। मैंने देखा, लड़की जमे हुए पानी में अडोल खड़ी थी। उसके हाथों में लाल कमल थे। उनमें से खून चू रहा था।

टप-टप-टप!

जमी हुई झील पर खून की परतें-दर-परतें थीं। कमल की आँखों में उतरा हुआ खून बह रहा था।

लड़की की आवाज फिर गूँजी, “लो न! कमल नहीं लोगी? देखो, इस बार डल में सिर्फ लाल कमल खिले हैं। पीले या सफेद कमल नहीं खिले। अब यहाँ कभी भी पीले या सफेद कमल न होंगे, सिर्फ लाल ही कमल होंगे। लो, ले तो न!”

मैंने अब पूरी आँखें खोल दीं। कमल के फूल से खून की बूँद ऐसे ही झरती, जैसे समंदर पर डूबते हुए सूरज की लाली की एक बूँद। लड़की एकदम बड़ी हो गई थी। वह अभी भी निर्वस्त्र थी। उसके बदन पर पानी की जगह खून की बूँदें थीं। उसके हाथों में कमल के फूल थे। उनसे गिरती लहू की बूँदें जमी हुई डल पर गिरतीं व फैलकर गोल हो जातीं।

मैंने लड़की को देखा। वह मुसकराई। उस हँसी में दहशत का दरिया पार कर लेनेवाली पीड़ा थी।

मुझे लगा, ये ललद्यद की तरह हँस रही है। जैसे ललद्यद की सास उसे पत्थर नीचे रखकर ऊपर चावल परोसकर देती थी, ताकि वो ज्यादा लगें और ललद्यद मुसकराती थी, वैसे ही वह लड़की हँस रही थी। उसे देखकर मुझे डर लगा। मैंने गुल्ला की तरफ देखा। वह वहाँ न था। मेरा शिकारा बिना मल्लाह के डोल रहा था। चप्पू डल पर नुचे हुए पंखों की तरह पड़े थे।

मैंने जोर से पूछा, “’गुल्ला, तुम कहाँ हो, कहाँ है मेरा गुल्ला, गुल्ला, तुम कहाँ हो, कहाँ हो?

मैं हिचकियाँ लेकर रो रही थी। मेरी जाग खुल गई। मैं अपने घर में अपने सोने वाले कमरे में थी। थोड़ी देर तक मुझे समझ न आई कि मैं कहाँ हूँ। मैंने आँखें फाड़-फाड़कर चारों ओर देखा।

मैं लाल कमल के खून के आँसू रोते फूलों का नजारा भुला देना चाहती थी। अपनी आवाज सुनना चाहती थी। मेरी आवाज भीतर, कहीं बहुत भीतर, मेरी रूह की बावड़ी से नीचे, बहुत नीचे थी। मैंने कोशिश करके कहा, ”मैं कहाँ हूँ? ‘”

मैं घर में थी। अपने बिस्तर पर थी, पर मेरा गुल्ला कहाँ गया? मैंने फिर चारों ओर देखा और रोकर कहा, ”मेरा गुल्ला कहाँ है?”

मैंने अपनी आवाज सुनकर लौटने की कोशिश की। टेलीफोन पर ऐसे ही कोई काल्पनिक नंबर डायल किया। वह बज रहा था। सामने घड़ी में सुबह के चार बजे थे। घड़ी टिक-टिक कर रही थी।

तो यह स्वप्न था।

पर कितना सत्य, कितना मुखर, कितना उजला! इस भयानक सत्य ने फिर यह सवाल मेरे सामने आ रखा, कहाँ है मेरा गुल्ला?

यह गुल्ला किसी किस्से का हीरो नहीं, किसी अफसाने का किरदार नहीं, किसी कहानी का राजकुमार नहीं, यह सचमुच का गुल्ला था। यह सचमुच का गुल्ला है। मेरा अपना गुल्ला, मेरा गुलाम मुहम्मद। हर वक्‍त हँसता रहता था। ड्यूटी पर आता तो भी खुश रहता, जाने लगता तो भी खुश रहता। उसकी उन दिनों नई-नई शादी हुई थी। सारा दिन शरमाया सा रहता था। मैं उसकी बीवी के बारे में पूछती तो शरमाकर भाग जाता और हँसने लगता।

इस बात को बत्तीस या तैंतीस वर्ष हो गए। मैं अस्पताल में दाखिल थी। बह वहाँ मेरे वार्ड में खिदमतगार था।

शुरू के दिनों में जब मैं बहुत बीमार थी, तबका गुल्ला तो बहुत याद नहीं, लेकिन होश में आने के बाद का गुल्ला याद है। उसका घर निशात बाग के पास था। उसका बाप दूध बेचता था। उनकी अपनी गायें-भैंसें थीं। गुल्ला वार्ड में आकर पूछता, ” क्या छुई खबर? ”

वह मेरा हाल हमेशा कश्मीरी में ही पूछता था। मैं मुसकराकर कहती, “’ठीक हूँ गुल्ला! ‘”

वह खुश हो जाता।

एक दिन पूछने लगा, “आप गाय को माँ कहते हो न?”

मैंने कहा, ”हाँ।”

वह खचरी सी हँसी हँसकर बोला, “गाय को क्यों माँ कहते हो?”

मैंने बड़े इत्मीनान से कहा, ”गुल्ला, जिसकी माँ नहीं रहती न, उसे भी गाय के दूध पर पाला जा सकता है। इसलिए यह माँ हीं तो हुई।”

गुल्ला को नुकता समझ में आ गया। सिर हिलाकर बोला, “हाँ, यह ठीक है। फिर तो गाय सबकी माँ है।”

मैंने कहा, “हाँ, सभी की।”

“मैं गायों की खूब खिदमत करता हूँ। रोज सवेरे अँधेरे में जब मसजिद में अजान होती है, मैं उठ जाता हूँ। सकीना सोई रहती है।

मैंने मुसकराकर पूछा, “ तुम्हारी बीवी न?”

“हाँ, तुम तो मोज हो भई।”

मैंने कहा, “हाँ, माँ से कुछ छुपा नहीं रहता।”

“फिर मैं तुम्हें मोज ही कहूँगा।”

“हाँ, मोज ही कहना।”

इस तरह गुलाम मुहम्मद उर्फ गुल्ला मेरा बेटा हो गया।

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गुल्ला मुझसे सात-आठ साल ही बड़ा था, पर उसके चेहरे की मासूमियत किसी भी बच्चे जैसी हो सकती थी। मोज कहने के बाद न सिर्फ वह मेरा खास खयाल ही रखता, बल्कि इज्जत भी बहुत करता था। वह पहाड़ियों पर गायों को चरने छोड़ आता तो वहाँ से कोई अलभ्य फूल, कोई पत्ता मेरे लिए जरूर लाता। हर इतवार को वह पशुओं को गीले कपड़े से पोंछता या गरमियों में नहलाता था, फिर मुझे कहता, “गायें मुझे बड़ा प्यार करती हैं। शाम को चारा डालता हूँ तो प्यार से हाथ चाटती हैं, पोंछता हूँ तो एकदम चुपचाप खड़ी रहती हैं।”

मैंने कहा, ”इनसान करें-न-करें, पर पशु खिदमत की कद्र करते हैं। देखो न, तुम मेरी इतनी सेवा करते हो! तुम मुझे बडे अच्छे लगते हो।”

गुल्ला हँसा। मेरी चद्दर बदलते हुए बोला, ”तुम तो मेरी मोज हो न! ”

“हाँ गुल्ला!”

सवेरे दातुन या अखरोट के पत्ते भी मुझे गुल्ला लाकर देता। फिर कहता, ”इससे दाँत एकदम सफेद होते हैं।” कभी-कभी कोई ऐसा फूल लाकर मेरे पास दवाई की किसी खाली बोतल में रखकर कहता, “इस साल ये फूल खूब खिले हैं। बस, एक तोड़ लाया हूँ। ऐसा फूल तुम्हें कभी नहीं मिलेगा।”

मैं जंगली फूलों को सूँघती। उनमें से खट्टी-मीठी खुशबू आती। जंगली गुलाब की महक निराली ही होती। उसके पीले चमकते रंग में भी गजब का निखार और कशिश होती। उसकी खुशबू में हिमालय से आई बयार की ताजगी होती। मेरी चारपाई पर सारा दिन जंगली गुलाब अपनी महक-भरी उसाँसें छोड़ता रहता। अपने घर से बिछुड़ने का दुःख किसे नहीं होता! पूरे कमरे में फैली उसकी महक में खोई-खोई मैं उसके दु:ख का नाप करती रहती।

एक रोज मुल्ला बड़ा खुश था। आते ही बोला, “हे मोजी, आज असी ओस बख्शी साहेब आमुत।” (हे माँ, आज हमारी तरफ बक्शी साहेब आया था।)

मैंने वैसे ही पूछ लिया, “कौन बख्शी साहेब?”

“ओ मोजी, बख्शी साहेब को नहीं जानती? करे, कश्मीर के प्राइम मिनिस्टर। मोजी, तुम पागल हो?”

मैंने पूछा, “जम्मू के नहीं?”

“हाँ, जम्मू के भी।”

मैंने उसे छेड़ते हुए पूछा, ” बख्शी साहेब ने तुम्हें क्या कहा?”

“मुझे क्या कहता? हमने सलाम किया। उसने भी सलाम किया। बस।”

मैंने फिर उसे छेड़ा, ”बख्शी साहेब ने तुम्हारा नाम नहीं पूछा?”

वह शरमा गया, फिर कहने लगा, ‘“तुम पागल हो? वह नाम क्‍यों पूछता? जो मेरा नाम, वह उसका नाम ।”

मैंने कहा, “पर तुम्हारा नाम तो गुल्ला है!”

वह लापरवाही से बोला, “हाँ, जब वह छोटा होगा, तब उसका नाम भी गुल्ला ही होगा। कश्मीर में हर गुलाम मुहम्मद कभी-न-कभी गुल्ला जरूर होता है।” मैंने उसे सवालिया निगाहों से देखा।

वह कहने लगा, ‘“यह सच है। देखो, जो गुलाम मुहम्मद रेडियो पर गाता है न, उसका नाम भी बचपन में गुल्ला था। उसने मुझे बताया था।”

फिर वह मेरी टेबल साफ करते-करते हब्बा खातून का गीत गाने लगा :

“वरिवैन सथ बारे छस नो

चार कर म्योन मालिन्यो हो

वरिवैन सथ…”

(ससुरालवालों के साथ निभ नहीं रही है। ओ मैकेवालो, मेरा कोई उपाय करो ।)

मैं सुनती रही। फिर उसकी नजर मुझ पर पड़ी तो, बोला, ”अरे मोजी, मैं तो तुम्हें बताना ही भूल गया। यहाँ बच्चों के वार्ड में एक गुल्ला आया है।”

फिर वह हँस पड़ा।

मैंने पूछा, “कौन सा गुल्ला?”

“वही, जिसका सिर साफ है। साफ, पूरा साफ।”

“साफ, कैसा साफ? क्या तुम्हारा सिर साफ नहीं है?”

“ओ हो! उसके सिर पर उस्तरा फिरा है। उसके सिर में बीमारी थी न? ”

मैंने कहा, ”अच्छा, वह जो लंबा सा कुरता पहने पूरे वार्ड में घूमता रहता है?”

“हाँ-हाँ, वही।’”

फिर जब डॉक्टर वार्ड में राउंड करके चले गए, तब गुल्ला गुल्ले को ले आया। वह पाँच-छह बरस का लड़का था। उसे सिर में बीमारी थी। पूरे सफाचट सिर पर एक तरफ पट्टी बँधी थी, पर वह इससे बेनियाज था। आते ही बोला, ”आपा, तुम्हारे पास बिस्कुट है?”

मैंने हैरान होकर उसे देखा। पहली मुलाकात में यह कैसा सवाल?

वह मुझे बेवकूफ समझकर बोला, “नहीं जानती? बिस्कुट गोल-गोल, मीठी सी।”

मैंने पूछा, “बिस्कुट का क्या करोगे?”

उसने कहा, “कुछ नहीं, देखूँगा कैसी होती है।” यह कहकर वह चला गया। जाते-जाते बोला, “फिर आऊँगा, अब जाता हूँ।”

शाम को मैंने गोल बिस्कुटों का पैकेट मंगवाया। फिर किसी को भेजकर गुल्ले को बुलावा भेजा।

अपने सिर की परवाह किए बगैर वह भागता हुआ आया और आते ही उतावली से बोला, “बिस्कुट आ गए?”

उसे मालूम नहीं कैसे पता चला, पर मैंने यह सुना था कि सिर में टी.बी. होती है तो आदमी जहीन हो जाता है।

वह आकर बड़े इत्मीनान से मेरी चारपाई पर यूँ बैठा, जैसे हमेशा से यहीं बैठता आया हो। फिर बोला, ”दे दो न!”

मैंने उसकी गोदी में बिस्कुटों का पैकेट रख दिया। उसके बाद उसने मेरी तरफ न देखा। पैकेट फाड़कर बिस्कुट खाने लगा। ऐसे मनोयोग से उसे खाते देख मुझे बेहद तृप्ति हुई। वह हर बिस्कुट को कुतर लेता, ताकि मैं न माँग लूँ। फिर जब पूरा पैकेट खत्म हुआ तो वह इत्मीनान से बोला, “बिस्कुट अच्छी थी।”

मैंने कहा, ”मैं क्या जानूँ! मुझे तो तुमने एक भी न दी।”

“इतनी थोड़ी थी, तुम्हें क्या देता! पर हाँ, कल जरूर दूँगा।” यह कहकर वह हाथ झाड़कर चला गया।

अब मैं गुल्ला के लिए रोज बिस्कुट मँगवाती थी और वह इत्मीनान से खाकर, हाथ पोंछकर चल देता।

अपने मुँह में बिस्कुट ठूँसे हुए वह एक दिन बोला, ‘“आपा, तुम गम न करो। जब मैं पाँचवीं चढ़ूँगा, तब तुमसे निकाह कर लूँगा।”

मैंने संजीदगी से पूछा, “क्या तब भी तुम्हें बिस्कुट मँगवाकर देनी पड़ेंगी?”

वह भावी शौहर के रुआब से बोला, “हाँ, बिस्कुटों के बगैर मैं तुमसे शादी थोड़ी ही करूँगा और तब मैं बड़ा हो जाऊँगा और शाम तक तुम्हें सौ रुपया कमाकर दूँगा। जब गरमियों में हिंदोस्तान से विजिटर आएँगे, तब मैं दिन-रात काम करके तुम्हारे लिए रुपए कमाऊँगा। हाँ, पर देखो, खाना तुम्हें ही बनाना पड़ेगा। मैं तुम्हें मुरगा कटवाकर ला दूँगा।”

मैंने कहा, “तुम क्‍यों नहीं काटोगे? ”

“न-न, मैं क्यों काटूँ? मुझे खून से डर लगता है।”

मैंने कहा, ”गुल्ला, तुम तो छोटे हो। शादी कैसे होगी?”

“मैं तब छोटा थोड़े ही रहूँगा। मैं बहुत बड़ा हो जाऊँगा। तब तुम मुझे गुलाम मुहम्मद कहना, गुल्ला नहीं और जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, तब तुम छोटी हो जाना और जब काजी साहेब निकाह के लिए पूछें, तब हाँ कर देना, पर खाना बनाना सीखना। मेरी माँ तब खाना नहीं बनाएगी। हाँ, तुम ही बनाना।”

“तुम क्या-क्या खाओगे? ”

“क्या खाऊँगा? हाक और भात। कभी-कभी तुम उसमें गोश्त भी डालना, फिर वह मजेदार होगा।’!

मैंने एक आज्ञाकारिणी भावी पत्नी की तरह सिर झुकाकर मंजूर कर लिया और कहा, “मीट के शोरबे में हाक खूब मुलायम हो जाएगा।”

“मैं तुम्हें गाँव से शाली (कश्मीरी चावल) मँगवाकर दूँगा। वह चावल अच्छा होता हैं। हिंदोस्तान में कहीं भी नहीं मिलता।” बिस्कुट खा चुकने के बाद घर के खाने की याद आते ही गुल्ला को माँ की याद आई। कहने लगा, “मेरी माँ बड़ा अच्छा गोश्त पकाती है। जब कभी मुरगा कटता था, मैं वहाँ से उठ जाता था। मुझे उससे डर लगता था। मुरगे को पता चल जाता था, उसे काटा जाएगा, इसलिए वह जोर-जोर से रोता था।”

मैंने कहा, “फिर तुम उसे खाते क्‍यों हो?”

वह बोला, “खुदा ने उसे खाने के लिए बनाया है।”

मैंने उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरा, फिर पूछा, “गुल्ला, खुदा ने मुझे और तुम्हें बीमार क्यों कर दिया?”

वह सोचने सा लगा। फिर बड़े-बुजुर्ग की तरह बोला, “अपने-अपने गुनाह तो भुगतने ही पड़ते हैं।”

मैंने कहा, “’गुल्ला, तुमने तो कोई गुनाह नहीं किया। मैंने भी नहीं किया। फिर यह मूजी बीमारी क्यों हुई?”

गुल्ला गंभीर हो गया। फिर बोला, “हम जो गुनाह करते हैं, उनका पता हमें नहीं रहता। अल्ला मियाँ खुद हिसाब रखते हैं।” वह जैसे इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहता था। यह कहकर भाग गया।

मैं उसे जाते हुए देखती रही।

फिर एक दिन मुँह में बिस्कुट भरकर उसने कहा था, ”आपा, मेरे गुनाह खत्म हो गए हैं। मैं ठीक हो गया हूँ। आज बड़े साहेब ने आकर कहा, गाँव से किसी को बुला लो। मुझे आकर ले जाएगा। आपा, तुम्हें भी खुदा जल्दी ही निजात देगा।” उसने बुजुर्गों की तरह दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहा, ”आमीन!”

मैंने भी कहा, “सुम्ब आमीन!”

फिर वह चला गया।

गुल्ला चला गया। फिर भी गुल्ला था। वह मेरी खिदमत करता था और सारे कश्मीर की खबरें मुझे सुनाता था।

वह जब मौज में होता, मुझे कहता, ”मेरे बाप को तो बख्शी साहेब ने पाला है।”

मैं पूछती, “वह कैसे?”

वह कहता, “मेरा भाई तो उसी के पास चौकीदार था। बख्शी साहेब बड़ा आदमी हुआ तो उसे कांसपिटल बना दिया। बख्शी साहेब ही उसका बाप है।”

मैं उसकी इस इबादत पर हैरान रह जाती। कितना सीधा-सच्चा इनसान था मेरा गुल्ला। इतने बरसों बाद ख्वाब में आया भी तो कब, जब कमल के फूलों से महक की जगह खून की बूँदें चूने लगीं। जब आग लग गई। जब कश्मीर एक खबर हो गया।

इस गुल्ले को तो मैं जानती थी; पर यह कौन गुलाम मुहम्मद है, जिसकी तसवीर आज अखबार के मुख पृष्ठ पर है, जिसके हाथ में ए.के. 47 है, जिसके मुँह पर नकाब है, जिसकी आँखों में दहशत है, जिसके हाथों में खून लगा है, जिनमें बंदूक है, जो किसी को भी मार सकती है?

अगर यही मेरा गुल्ला है तो इसके मासूम हाथों में बंदूक पकड़वानेवाले हाथ किसके हैं, इसका जिम्मेदार कौन है, कौन है इसका जिम्मेदार?

**समाप्त**

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