हमवतन पद्मा सचदेव की कहानी | Hamwatan Padma Sachdev Ki Kahani

हमवतन पद्मा सचदेव की कहानी डोगरी कहानी, Hamwatan Padma Sachdev Ki Kahani Dogri Story In Hindi 

Hamwatan Padma Sachdev Ki Kahani

कोलाबा जानेवाले बस स्टैंड पर मैं अकेली खड़ी थी। वर्ली सी फेस के सामने बंबई का समुद्र हाथ-मुँह धोकर सुबह के पूरी तरह खिलने का इंतजार कर रहा था। उसकी छाती पर अठखेलियाँ करते समुद्र-पाखी लहरों के साथ ऊपर-नीचे जा रहे थे। दूर तक फैले समुद्र पर जहाँ मटियाला सा नजर आता था, वहाँ खड़े दो-तीन जहाज चित्र की तरह मढ़े लग रहे थे। तभी सुबह के साथ अठखेलियाँ करती हवा ने मेरे कान में आकर कहा, ”कोलाबा जानेवाली बस आ रही हैsss।”

बस घूँss करके झटके के साथ आकर रुकी। मैं बस पर चढ़कर बिना रुके सीढ़ियों से ऊपर की मंजिल पर दौड़कर चढ़ गई और आगे की सीट पर बैठ गई। समुद्र की लहरों ने मुझे पकड़ना चाहा। ज्योंही खूब ऊँची छलाँग उन्होंने लगाई तो मैं पूरी उसमें भीग गई। बस दौड़ने लगी तो मुझे लगा, मैं हिंडोले पर झूल रही हूँ। बस बाएँ मुड़ती तो मैं पूरी-की-पूरी पीतल की गगरी की तरह बाएँ झुक जाती और दाएँ मुड़ती तो दाएँ लुढ़क जाती। सीट की लोहे की डंडी को जोर से थामे हाजी अली के आगे से निकली तो मैंने हाजी अली पीर को झुककर आदाब करके सैनिकों की लंबी उम्र की भीख माँगी। हाजी अली का सुंदर चौराहा पार करके मैं पेडर रोड में दाखिल हुई तो मुझे होश आया और 1971 की जंग में जख्मी हुए जवानों की सूरतें आँखों में घूमने लगीं।

भारत-पाक में छिड़ा युद्ध खत्म हो गया था। बच गई थीं कुछ साँसें, जिन्हें जंग के मैदान से उठाकर लाना पड़ा था। मुझे खयाल आया, इसी तरह कई जख्मी पाकिस्तान में भी होंगे। मैं कोलाबा के मिलिटरी अस्पताल में आए घायल सैनिकों को देखने जाती थी। वहाँ के सभी डॉक्टर व नर्स मुझे जानते थे। वही बता देते थे, आज इस मरीज के पास जाकर बैठो, आज उस सिपाही से बातें करो। मैं उनकी दवाई का भी पूरा ध्यान रखती और उनसे बातें करती रहती। बड़ा सुकून मिलता। यूँ लगता, इस जंग में मेरा भी योगदान है। मैं इनकी सेवा करके देश की सेवा कर रही हूँ। रास्ते में मैने अपनी हैसियत के मुताबिक एक दर्जन केले, एक दर्जन संतरे और कुछ गुलाब के फूल खरीदे। सीढियाँ चढ़कर मैं अस्पताल के पहले माले पर पहुँची, तो व्हील चेयर पर उकड़ूँ बैठा एक सिपाही आँखों पर हाथ रखे कराह रहा था, “’हाये माये, के कराँ (हे माँ, क्‍या करूँ?)?”

मैं चौंकी, यह डोगरा जवान है। मैंने वहीं से व्हील चेयर पर हाथ रखा और खिदमतगार की तरफ मुसकराकर देखा और साथ-साथ चल पड़ी। कमरे में जब उसे बिस्तर पर लिटाया गया तो फिर वह एक बार बोला, “’हाये माये, बड़ी पीड़ ए (हे माँ, बड़ी पीड़ा है।)।”

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मेरा कलेजा बाहर आ गया। उसकी आवाज में पता नहीं कितने दर्द भरे थे। ‘माँ’ कहते वक्‍त जब उसके होंठ मिले तो उसके सूजे हुए होंठों पर खून का एक कतरा निकल आया। डॉक्टर ने आकर उसे एक इंजेक्शन दिया। उसका मुँह-सिर ढका ही था। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और धीरे, बहुत धीरे जैसे माँ अपने सोए बच्चे की बगल में जाकर लेटती है, डोगरी की लोरी गानी शुरू कर दी :

“तूँ मल्‍ला तूँ लोक भन्‍नन, ठीकरियाँ बदाम भन्ने तूँ,

तूँ मल्‍ला तूँ लोक ब्हौन, मंडियाँ नेयाँ करें तूँ।”

(मेरे बच्चे, लोग ठीकरे तोड़ें तो तू बादाम तोड़ें, लोग अदालत में बैठें तो तू उनका न्याय करे। यही मेरो दुआ है।)

उसकी साँस हल्की होती गई। उसने बड़ी कोशिश करके एक आँख जरा सी खोली और इत्मीनान से मुझे देखा। उसके गाल मुसकराहट में खिंचे। उसके होंठों पर खून का कतरा एक विद्रोही की तरह आ निकला। उसने गरदन को जरा सी जुंबिश देकर कहा, “गाओ, और गाओ।’” लोरी का अंतरा अभी अधर में ही फड़फड़ा रहा था कि वह तृप्त बच्चे की तरह सो गया।

उसके सोते ही अपने दोनों हाथों से मुँह छुपाकर मैंने अपने आँसू बह जाने दिए। पता नहीं यह कब तक चला। बेआवाज आँसू निकालने में बड़ी तकलीफ होती है। आवाज अंदर ही घुटकर फड़फड़ाती रहती है। खारा पानी निकलने के बाद भी कुछ भीतर रह जाता है, जो बादलों में बिजली की तरह मुखर होता रहता है।

अचानक कंधे पर एक हाथ का कसाव मुझे बाहरी दुनिया में ले आया। मैंने अपनी चुनरी से आँसू पोंछे और घूमकर देखा। सिपाही की उम्र का ही एक डॉक्टर सफेद कोट पर झूलता स्टेथेस्कोप हाथ में थामे बड़ी हमदर्दी से मुझे देख रहा था। उस वार्ड में छह बीमार थे। सबके बिस्तर के आगे परदे लगे थे। उनके भीतर युद्ध की भयावहता का नंगा रूप खुला पड़ा था। डॉक्टर ने मुझे पीछे आने का इशारा किया। बाहर कॉरीडोर में आते ही उसने बहुत धीमी आवाज में पुछा, “आपको कैसे पता चला?”

मैं हैरान सी डॉक्टर को देखने लगी। शायद उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। वह सवालिया निगाहों से मुझे देखने लगा। मैंने कहा, “मैं रोज यहाँ मरीजों के पास आकर बैठती हूँ। यह डोगरी बोल रहा था, तो मैं इसके पीछे-पीछे चली गई। यह मेरा हमवतन है। इससे बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता। इसे क्या हुआ है डॉक्टर साहब? “

वह वार्ड के अंत में खिड़की से झाँकते समुद्र को देखते हुए बोला, “इसके दिमाग में छर्रे घुस गए हैं। यह बम फटने के स्थान से अपने साथी को उठाकर लाया था। हम कुछ नहीं कर सकते। बस, जब तक है, तब तक इसकी देखभाल कर सकते हैं। इसकी तकलीफ किसी से देखी नहीं जाती। जब यह चिल्लाता है, तब दीवारें भी सहमकर काँपने लगती हैं।”

मैंने पूछा, “इसके घरवालों को तार दे दिया होगा? जम्मू से यहाँ आने में भी दो दिन लगेंगे।”

डॉक्टर चुपचाप सोचने लगा। फिर बोला, “पर आप आती रहिए। मरने से पहले किसी अपने को देखकर इसे यकीनन खुशी होगी।”

मैंने पूछा, “डॉक्टर साहब, इसे कब तक होश आएगा?”

डॉक्टर मायूस होकर बोला, “दर्द पर मुनहसिर है। चार-पाँच घंटे तक आ सकता है।”

चार घंटे बाद जब मैं लौटी तो वह सूप पी रहा था। मैं आकर उसकी चारपाई के पास रखे स्टूल पर बैठ गई। मैंने पूछा, ”हुन ठीक ओ न?”

उसने कहा, “हाँ, इस वक्‍त तो ठीक हूँ।” सूप पीते वक्‍त मुँह खोलने में उसे तकलीफ हो रही थी, पर अब उसके होंठ पहले से कम सूजे हुए थे। उसने लड़खड़ाती आवाज में पूछा, ‘इत्थें कीयाँ आइयाँ? ”

मैंने कहा, “मैं यहाँ रोज घायल सिपाहियों को देखने आती हूँ। नर्सें बता देती हैं, किसके पास बैठूँ। किसी-किसी की सेवा करने का मौका मिल जाता है। कई लड़कियाँ आती हैं। सिपाहियों से बातें करके लगता है, देश की रक्षा में हमारा भी योगदान है और आपको तो पता ही होगा, हमारे सैकड़ों-हजारों लोकगीत सिपाहियों पर ही रचे गए हैं। मुझे अपने सिपाही बहुत अच्छे लगते हैं।”

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उसने खुश होकर कहा, ”आपको सिपाहियों के लोकगीत आते हैं?”

मैंने कहा, “हाँ, हर डोगरी औरत को आते हैं।”

वह आग्रह से बोला, ”मेरे लिए गाइए न!”

मैंने अपना गला धीरे से साफ किया और ऐसे गुनगुनाने लगी, जिसे सिर्फ वह सुन सके :

“बोल मेरिये जिंदडिये

दूर सपाई कीयाँ रोहंदे न?”

(मेरी जान, बताओ सिपाही दूर कैसे रहते हैं?)

उसे अपनी भाषा में गीत सुनकर सुकून मिल रहा था, जैसे मादरी जबान उसका दर्द पी रही थी। आसपास मरघट जैसी खामोशी थी। थोड़ी देर बाद मैं चुप हो गई। मैंने धीरे से पूछा, “आप कहाँ के हैं?”

उसने कहा, “चनैनी का हूँ। जम्मू से कश्मीर जाते हुए दाई तरफ सफेद-सफेद महल है न, वहीं एक नदी बहती है। वहीं बिजलीघर भी है। चनैनी के राजा की माँ हमारे ही गाँव की बेटी थी। मैं कई बार राजा के महल में भी गया हूँ।’” राजा की बात करते-करते उसके चेहरे पर बड़प्पन की एक परछाई उजलाने लगी। मुझे लगा, यह खुद भी राजा है।

मैंने पूछा, “घर में कौन-कौन हैं?”

उसकी आँखें भर आई, फिर वह मुसकराकर बोला, ‘“सब कोई है। मेरी माँ, बापूजी, बड़ी भाभी, भाईजी और उनके बच्चे। वैसे तो गाँव में हर कोई अपना ही होता है।” फिर वह बोला, “बोबोजी (बड़ी बहन), आप कहाँ की हैं?”

मैंने कहा, ‘“पुरमंडल की हूँ। नाम सुना है?”

वह उत्साह से बोला, “मैं वहाँ शिवरात्रि में गया था। देविका में भी नहाया था। देविका को गुप्तगंगा कहते हैं न?”

मैंने मुसकराकर कहा, “हाँ।”

फिर वह बोला, ”मैं अपनी भाभी को लिवाने गया था।”

मैंने पूछा, ”तुम्हारी भाभी कौन से मुहल्ले की है?”

उसने रस में डूबकर कहा, ”बोबो, मुहल्ला तो नहीं जानता, पर उसके घर अत्ती है। भाभी की छोटी बहन अत्ती। यह उसका नाम है।”

मैंने पूछा, “यह क्या नाम हुआ, अत्ती? ”

उसने मुसकराकर कहा, “अति से बना होगा? वह काम अति में ही करती है। पानी भरने जाएगी तो 16 घड़े भर लाएगी। एक बार में दो घड़े उठाती है अत्ती।”

उसका चेहरा मुलायम हो आया। पूरे वजूद पर जैसे अत्ती छा गई।

मैंने उससे बड़े स्नेह से पूछा, “तुम्हें अत्ती अच्छी लगती है न?”

वह शरमा गया।

मैंने मन के आकाश में सपने का एक गुब्बारा बनाकर छोड़ दिया। ऊपर, बहुत ऊपर। फिर सोचा, अपने गाँव में अत्ती को ढूँढ़ना कोई मुश्किल न होगा। ढूँढ़ ही लूँगी, पर किसके लिए?

वह कह रहा था, ”मेरी माँ रोज सवेरे मुझे किरड़ पिलाती थी। किरड़ जानती हो न?”

मैंने कहा, “हाँ, जिस दही से मक्खन नहीं निकाला जाता, उस लस्सी को किरड़ कहते हैं।”

हम दोनों ही एक साथ बोलकर हँस पड़े।

मैं उसका हाथ सहला रही थी। वह कह रहा था, “बोबोजी, मेरे बापू भी फौज में ही थे। लड़ाई में उनकी बाँह पर गोली लगी तो पेंशन पाकर घर आ गए। अब उनकी पेंशन और थोड़ी सी खेती से ही गुजारा होता है।”

मैंने पूछा, “और तुम्हारा भाई?”

वह कहने लगा, ”भाई तो जम्मू-कश्मीर रूट पर बस चलाता है। कभी जम्मू, कभी कश्मीर। महीने में एक-दो दिन घर भी रहने आता है।”

मैंने कहा, ”फिर तो तुम उसके साथ बस पर खूब घूमते होगे?”

सिपाही का चेहरा और नरम हो गया। कहने लगा, “कई बार भाई अपने साथ बस में ले जाता था। बटोत में हमारा ननिहाल हैं न! भापा मुझे वहीं छोड़ जाता था। आती बार वापस ले आता था। मेरे ननिहाल में मेरे मामा-मामी मुझे बड़ा प्यार करते हैं। उनके दडूनियों के बाग हैं। उनसे खट्ठा अनारदाना बनता है। हम गरमियों में अनारदाने की चटनी पीसकर खीरे में भरकर खाते हैं।”

हम दोनों हँस पड़े।

मैंने पूछा, “तुम फौज में कब से हो?”

बोला, “यही कोई चार साल से। बापू तो चाहते थे, वहीं चनैनी में ही दुकानदारी करूँ। बापू को जब एकमुश्त पैसा मिला तो उनकी यही मरजी थी, पर मैं अड़ गया। मैंने कहा, “हमारे परिवार से हमेशा कोई-न-कोई फौज में जाता ही है। अब आप आ गए हैं तो मैं जाऊँगा।” यह कहकर वह मुसकराया, फिर बोला, “आज या कल कोई घर से भी आ जाना चाहिए; पर आप तब भी आती रहना।”

“क्यों नहीं आऊँगी, जरूर आऊँगी।” मैंने कहा।

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तभी मैंने देखा, उसके चेहरे पर दर्द की लहरें उठने लगी थीं। ज्वारभाटे के इंतजार में उसने दोनों हाथों से चारपाई की पाटी पकड़ ली। तभी डॉक्टर घबराया सा दाखिल हुआ। उसे पता नहीं कैसे मालूम हो गया था। उसके साथ नर्स थी। डॉक्टर मुझे देखकर सुकून व इत्मीनान से बीमार के पास झुका और उससे बोला, ”देखा न, घर से भी कोई-न-कोई आ ही गया। मैंने कहा था ना!”

सिपाही मुसकराया, फिर बोला, ”अभी मैं दर्द बरदाश्त कर सकता हूँ। बोबोजी भी यहीं हैं।”

डॉक्टर ने सवालिया निगाह से मुझे देखा। मैंने कहा, ”डॉक्टर साहब, डोगरी में बोबो बड़ी बहन को कहते हैं।” फिर सिपाही की ओर मुखातिब होकर उससे कहा, “मैं तुम्हारी चनैनी भी हूँ। चिंता न करो। हमारा गाँव हमेशा हमारे साथ ही रहता है।” पता नहीं यह मैंने कैसे कह दिया। अपने गाँव के नाम से वह तड़पकर मुसकराया। मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा :

“चन म्हाड़ा चढ़ेया ते लिशके बिच्च थालिया

चमकी चनैन मोइये दिक्ख रात्ती कालिया

मिलना जरूर मेरी जान हो।

(मेरा चाँद थाली में चमक रहा है। देखो, चनैनी कस्बा काली रात में कैसे उज्ज्वल होकर चाँद की तरह निकल आया है। मेरी जान, मिलना जरूर ।)

देखो, तुम्हारी चनैनी पर भी लोकगीत बना है।”

वह मुझे अविश्वास से देख रहा था। शायद वह सोच रहा था कि मैं चनैनी हूँ या नहीं। चनैनी उसका खूबसूरत कस्बा, उसका जन्म-स्थान, जहाँ काली रातों में चमकते राजाओं के सफेद महल हैं, जहाँ बहती नदी के पानी से झाँकते गोल-गोल पत्थर तारों की तरह जगमग करते हैं, जहाँ से श्रीनगर जाती बस की घुमावदार चाल को उसका कस्बा टुकुर-टुकुर ताकता रहता है, जैसे नंग-धड़ंग बच्चे हैरानी से बस की रोशनियाँ देखते हैं। डॉक्टर ने सिपाही को इंजेक्शन लगा दिया था। वह धीरे-धीरे नींद की गोद में जा रहा था।

डॉक्टर ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैं रो रही थी। क्या ये टुकुर-टुकुर ताकती इसकी आँखें सचमुच में निश्चल हो जाएँगी? क्या यह अपनी जन्मभूमि के लिए तड़पनेवाला सिपाही यहाँ बंबई के किसी श्मशान घाट में राख हो जाएगा, या इसके घरवाले इसका शव चनैनी ले जाएँगे, कौन जाने? मैं तो यूँ ही लपेट में आ गई थी। डॉक्टर की आवाज से मैं चैतन्य हुई। मैंने अपने आँसू बह जाने दिए। डॉक्टर ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। बाहर आकर मिन्‍नत से बोला, ”आप कल भी आएँगी न?”

मैंने कहा, “हाँ।”

डॉक्टर ने कहा, “आप कभी भी आइए, पर सुबह नाश्ते के वक्‍त यह थोड़ा चैतन्य रहता है।”

घर जाते समय मुझे लग रहा था, मेरा आत्मीय, मेरा अपना, मेरा वतनजाया यहाँ अकेला पड़ा है। मेरी तरह कई वापस जा रहे थे। कोई आशा के साथ, कोई दुविधा के साथ। सिपाही को डॉक्टर ने दो-तीन दिन से ज्यादा न दिए थे।

अगली सुबह मैं पहुँची तो वह नाश्ता कर चुका था। नर्स उसका मुँह पोंछ रही थी। छरों से भरे सिर पर सफेद कपड़ा कफन की तरह लिपटा हुआ था। उसने मुसकराकर मेरी ओर देखा तो वह मुझे किसी दरवेश की तरह लगा। दरवेश, जो अपनी जगह से निकलकर बाहर आ गया हो। नर्स ने आँखों-ही-आँखों में पूछा। मैंने कलाकंद का दोना उसकी तरफ कर दिया। नर्स भी मुसकराने लगी थी। उसने कलाकंद का दोना हाथ में लिया और सिपाही को खिलाने लगी। सिपाही ने काफी कलाकंद खा लिया तो कहा, “’सिस्टर, तुम भी खाओ न।” सिस्टर मुसकराती रही। सिपाही ने मुझे कहा, “इस कलाकंद में मुझे उस गुड़ की बर्फी की याद आती है, जो हमारी चनैनी में दुर्गा हलवाई बनाता था।” इस बात पर हम तीनों हँसे तो हँसते ही चले गए। सिपाही के गले में जैसे कुछ फँसा। मैंने उसकी पीठ पर हाथ फेरा और नर्स उसे पानी पिलाने लगी। काफी देर में उसकी साँस सामान्य हुई। वह ठीक होते ही कहने लगा, “बोबोजी, आज बड़ा आनंद आया। मुझे कलाकंद बड़ा प्रिय है।”

मुझे उस पर बड़ा प्यार आया। मैंने प्रसन्‍न होकर कहा, “तुम कहो तो कल राजमा-चावल ले आऊँ?”

उसकी आँखें चमकने लगीं। वह बोला, ”राजमा-चावल खाए सच में बड़े दिन हो गए। क्या राजमा पुंछ के हैं? “

मैंने कहा, “हाँ, पुंछ के ही हैं।’” वह बेहद खुश हुआ तो मैंने उसे छेड़ा, “क्या अत्ती को चिट्ठी लिखूँ?”

वह शरमा गया। एक क्षण के लिए जैसे उसकी सारी पीड़ा काफूर बनकर उड़ गई। फिर कनखियों से मुझे देखकर बोला, “कैसी बात करती हो बोबो! भाईजी सुनेंगे तो मार ही डालेंगे।”

वह पता नहीं जानता था या नहीं, मार डालने के लिए उसके सिर में धँसे छर्रे धीरे-धीरे जहर बनकर उसे अपने आगोश में ले रहे हैं। बेहोशी फिर उस पर तारी होने लगी थी। उसका मुँह चमक रहा था। उसके हाथों ने कसकर मेरे दुपट्टे का कोना पकड़ा हुआ था। मैंने सोचा, यह सो जाएगा तो इसकी ऊँगलियों में फँसा यह दुपट्टा कैसे निकालूँगी? मन के भीतर पहाड़ी बादलों के सीने में चमकती बिजली कड़कने लगी। मैंने उसके माथे पर हाथ फेरते-फेरते कहा, “यहाँ से ठीक होकर तुम चनैनी जाओगे या बटोत?”

उसने यत्त करके जवाब दिया, “पहले यहाँ से तो निकलूँ। इस चारपाई से मैं बड़ा तंग हूँ। लगता है, यह दर्द की रस्सियों से बुनी हुई है और सारी रस्सियाँ मेरे इर्द-गिर्द लिपटी हुई हैं।”

मैं उसकी दार्शनिकता पर मुग्ध हुई। नींद में जाता-जाता वह बोला, ”राजमा बहुत गलाना और मिर्चें कम डालना।”

मैंने कहा, “ठीक है, अब तुम सो जाओ। मैं कल सुबह आऊँगी।” उसने आँखें खोलने की कोशिश की। मैंने कहा, “सो जाओ और देखो, सिपाही घबराता नहीं है। डोगरा सिपाहियों के हौसले सिपाहियों के गीत गानेवालों के सुरों में बुलंद रहते हैं।” वह मुसकराया। उसकी मुसकराहट रोने से ज्यादा उदास थी। उसने मेरा आँचल पकड़ लिया था। उसकी साँस शिशु की साँस की तरह कोमल और स्निग्ध हो गई थी। मेरा आँचल भी उसके हाथों से छूट रहा था। मैंने धीरे से उसे खींचा और उसकी चारपाई पर हाथ धरे उसकी साँस का आरोह-अवरोह देखने लगी।

नर्स ने आकर कहा, ”अब ये चार-पाँच घंटे सोएगा बाई! तुम जाओ।”

मैंने कहा, “नर्स, अगर तुम्हारे रहते उसे होश आ गया तो उसे कहना, मैं कल उसके लिए खाना जल्दी ही लेकर आऊँगी।”

अगले दिन खाने से डिब्बा भरकर, राजमा की खुशबू को बंद करके मैं अस्पताल में उसके वार्ड की ओर जा रही थी, तो सोच रही थी, राजमा-चावल खाकर सिपाही कितना खुश होगा। मेरी चाल तेज हो गई। स्त्री को खाना बनाकर खिलाने में अनिर्वचनीय सुख मिलता है। मेरे कदम तेज होते गए। उत्साह दौड़ने लगा। जब मैं उसके वार्ड में पहुँची तो देखा, उसके बेड पर तीन- चार सिर झुके हुए हैं। टाँग में पलस्तर चढ़ा है और सिर पर वह सफेद कफन सा भी नहीं है। वह कराह रहा था। मैं पास जाकर खड़ी हुई। रोटी के गरम डिब्बे पर टपकते अपने आँसुओं की आवाज मैं सुन सकती थी। डॉक्टर उसे देख रहे थे। यह सिपाही कोई दूसरा था। जिसके लिए मैं राजमा-चावल लाई थी, वह कहाँ चला गया? तभी मैंने देखा, कलवाली नर्स एक ट्रे रखकर जा रही थी। मैं उसके पीछे भागी। मैंने कॉरीडोर में उससे पूछा, ”सिस्टर, वह कहाँ है, जिसके लिए मैं राजमा-चावल लाई हूँ?”

सिस्टर बोली, “उसके बाद तो उसे होश नहीं आया। कल रात ही उसे ले गए थे। यह सोल्जर आधी रात को आया है।”

नर्स के लिए यह रोज की बात थी। मैं कितनी देर वहीं खड़ी रही। फिर जाते- जाते मैंने अस्पताल के फाटक के साथ वह डिब्बा रखा और घर चली आई।

इस बात को कई बरस हो गए हैं। एक बार जम्मू जाने पर सिपाही की बड़ी याद आई तो तड़के ही मैं चनैनी की बस पर सवार हो गई। अगली सीट पर बैठे-बैठे मोड़ों की प्रदक्षिणा से निढाल होकर आँख लगी तो जगह-जगह सिपाही दिखाई देने लगा, जैसे वह मेरे साथ-साथ चनैनी जा रहा हो। पता नहीं उसके माँ-बाप, भाई, भाभी, बच्चे कैसे होंगे? और अत्ती का तो ब्याह हो गया होगा। वह कहाँ जान पाएगी, उससे ब्याह करने की एक ख्वाहिश चिता में भस्म हो चुकी है।

ठंडी पहाड़ी हवा बार-बार आकर मेरे बालों पर हाथ फिरा रही थी। ख्वाब में मुसकराते सिपाही का चेहरा मोड़ों पर झाँकनेवाले सूरज की तरह चमक रहा था। मुझे लगा, वह भी मेरे साथ चनेनी जा रहा है। अभी मैं पूरी-की-पूरी सिपाही के तसव्बुर में थी कि कंडक्टर की कर्कश आवाज कानों मैं पड़ी, ”चलो उतरो, चनैनी, चनैनी की सवारियाँ।”

मैंने उतरकर आसपास देखा, दो लोग गठरियाँ उठाए चल रहे थे। मैं उनके पीछे-पीछे हो ली। पता नहीं क्‍यों; उनको मैंने सिपाही के घर का पता पूछने के काबिल नहीं समझा। बाजार में चारों तरफ देख-देखकर मैं हलवाई की दुकान ढूँढ़ रही थी। दुर्गा हलवाई की गुड़ की बर्फी का जिक्र उसने किया था। मैं धीरे-धीरे दाएँ-बाएँ देखती जा रही थी। एक गली में खड़ी कुछ औरतें नल पर पानी भर रही थीं। बे सबकी सब मुझे देखने लगीं।

एक ने पूछा, “आप किसके घर जाएँगी?”

मैंने कहा, “मैं दुर्गा हलवाई को ढूँढ़ रही हूँ।”

एक फूहड़ सी औरत हँसती-हँसतो बोली, “दुर्गा हलवाई की तो लॉटरी खुल गई लगती है।”

मुझे उसकी बदतमीजी पर क्रोध आ रहा था, पर उसके पहले ही दूसरी लड़की मुझे अपने साथ ले गई। रास्ते में उसने कहा, “यह करमो बड़ी खच्चर है। कुछ मेंटली भी है। इसकी बात कोई नहीं सुनता। अब देखिए, दुर्गा हलवाई की आँखों का ऑपरेशन खराब हो गया। वह दुकान के बाहर ही चारपाई डाले पड़ा रहता है और जो कोई जाता है, उसको कोंच-कोंचकर सभी के बारे में पूछता है–कौन हो, किसके बेटे हो, तेरा बाप कहाँ है, भाई की चिट्ठी आई कि नहीं? आपको भी बड़ा बोर करेगा।”

मैंने सोचा, यह बोर शब्द पहाड़ों पर भी पहुँच गया है। तभी वह एक दुकान के आगे आकर खड़ी हुईं। एक हट्टा-कट्टा साँड़ सा लड़का खोया भून रहा था। उस लड़की ने कहा, ”ये शहर से आई हैं। चाचू को पूछ रही हैं।”

उसने खोया भूनते-भूनते ही कहा, “आज वह नहीं आएगा। उसे मलेरिया हुआ है। इनको घर ले जाओ।”

ऊबड़-खाबड़ गली के सिरे पर उसका घर था। बाहर धूप में खटोला डाले दुर्गा उकड़ूँ होकर लेटा था। हम उसके करीब जाकर खड़े हो गए। उसने आहट पाकर पूछा, ” कौन है? ”

लड़की ने कहा, “’चाचू, ये तुम्हें मिलाने आई हैं।”

“कौन, प्यारी हो?”

“हाँ चाचू! ये कुछ पूछना चाहती हैं।”

उसने अपना स्थान नहीं बदला, फिर बोला, “क्या पूछना हैं? जल्दी करो, वरना खाँसी शुरू हो गई तो… “

मैंने जल्दी से कहा, “सिपाही का पता करने आई हूँ। उसका घर कहाँ है? ” हलवाई ने कहा, “कौन, मंगतू? अच्छा, वह सिपाही! वाह मेरे शेर, आपको भी चकमा दे गया।”

मैं हैरान होकर हलवाई को देखने लगी। उसकी बंद आँखें भी सोच में डूबी थीं। वह बोला, “सतरोड़ा था वह। सतरोड़ा जानती हैं। राजाओं की नाजायज औलादें। उसका अपना कोई न था। वह हमेशा अपनी कहानियाँ गढ़ता था। सुना था, पाकिस्तान की जंग में मारा गया। गाँव में पटवारी को तार आया था। मेरी दुकान पर भी कभी-कभी आकर बैठता था। उसे गुड़ की बर्फी बड़ी पसंद थी।” उसे शायद मेरी चुप्पी खल रही थी। कहने लगा, “बुआ, इस तरह के कई मंगतू हैं, जो सपने देखते-देखते उन्हें सच समझने लगते हैं। उसकी माँ कभी की मर गई थी। उसे कौन देखता? महल के बाहर उसे कोई छोड़ गया था। मेरी दुकान के थड़े पर ही पला था। सर्दियों में मेरी भट्ठी के नीचे वह और कालू पड़े रहते थे। फिर कोई उसे कंबल भी दे गया था, पर मरा सिपाही होकर। शाबाश! अब तो मेरे कालू को मरे भी काफी देर हो गई। अपनी बारी देखो कब आती है। कालू कुत्ता था, पर मंगतू उससे ऐसे बातें करता था, जैसे वह भी आदमी का बच्चा हो।” थोड़ी देर वह चुप रहा। फिर जैसे उसे ध्यान आया। कहने लगा, “जाओ-जाओ बुआ, भीतर चलो। बहुएँ तुम्हें चाय-पानी पूछेंगी।”

इतना बोलकर वह हाँफने लगा। मेरी सुनने-बोलने की शक्ति खत्म हो गई थी। यहाँ तक साथ-साथ आता मंगतू बार-बार आँखों के सामने आ रहा था। मैं उस जगह से कदम उठाने का हौसला बुनने लगी, जहाँ मंगतू उसका परिवार, अत्ती और उसके सपने दफन हो गए थे।

**समाप्त**

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