कान के बूंदे सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानी | Kaan Ke Bunde Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani

कान के बूंदे सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानी, Kaan Ke Bunde Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani Short Story In Hindi 

Kaan Ke Bunde Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani

Kaan Ke Bunde Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani

कीमत पर विचार करने का समय न था, अतएव वे सिटी कोतवाल से मिलकर, जिससे उनकी बड़ी घनिष्ठता थी, हीरालाल को अपनी जमानत पर छुड़ा लाए। बूंदे के साथ ही नौ रुपए देकर वकील साहब ने हीरालाल को कचहरी भेजा और स्वयं भी कचहरी गए। किंतु दिन भर उनके मस्तिष्क में यह बात फिरती रही कि दो हजार रुपए कीमत के बुंदे आखिर इसकी स्त्री के पास कहाँ से आए। इन बुंदों के साथ कौन-सा, कैसा रहस्य छिपा है। वकील साहब एक बार जानने के लिए उत्कंठित से हो उठे।

हिरासत से बाहर आते ही हीरालाल ने झुककर वकील साहब के पैर छू लिए। अभी तक वह वकील साहब को केवल अपनी नौकरी के ही कारण न छोड़ सकता था, किंतु आज से तो वह उनका भक्त भी हो गया और उसने मन-ही-मन निश्चय किया कि चाहे इनके साथ रहकर मुझे अनेक विपत्तियाँ ही क्यों न उठानी पड़ें, परंतु अब इस देवता आदमी का साथ आजन्म न छोड़ूँगा।

शाम को बुंदों को लिए हुए वह वकील साहब के एहसान के भार से दबा हुआ घर लौटा। जेब से बुंदे निकालकर पत्नी के सामने रख दिए, कमला ने उत्सुकतापूर्वक पूछा, “क्यों पसंद नहीं आए?”

हीरालाल बोला, “वाह पसंद क्यों नहीं आए, इतने अच्छे बुंदे और पसंद नहीं आते? बनने को भी दे दिए गए।”

कमला बोली, “बुंदे बनने को दिए? पर मैं तो यह कहना भूल ही गई थी, यह यहाँ के नहीं मद्रास के बने हैं। जब मैं बहुत छोटी थी, तब हम लोग बाबू के साथ मद्रास गए थे। वहीं माँ के लिए बाबू ने इसे खरीदा था।”

हीरालाल बोला, “शायद यही बात हुई होगी? जब सुनारों ने बनाने से इनकार कर दिया होगा, तभी वकील साहब ने लौटाया होगा।” हीरालाल ने बुंदों की कीमत के बारे में, अपने पकड़े जाने के बारे में और वकील साहब ने उसे किस तरह छुड़ाया, इस बारे में अपनी स्त्री से कुछ भी न कहा।

शहर में प्लेग का प्रकोप हुआ। सब लोग शहर छोड़-छोड़कर बाहर झोपड़े बनाकर या बँगलों पर रहने के लिए निकल आए। वकील साहब ने अपने बँगले में नौकरों की एक कोठरी में हीरालाल को रहने की जगह दे दी।

एक ही अहाते में रहते हुए संभवतः दो-तीन महीने बीत गए, किंतु वकील साहब की पत्नी हीरादेवी और कमला से किसी प्रकार की जान-पहचान न हो सकी।

हीरादेवी ने उच्चकोटि की शिक्षा पाई थी। वह संस्कृत में काव्यतीर्थ और अंग्रेजी में बी०ए० थीं। साधारण सुंदर थीं, पर स्वभाव जरा रूख़ा था। वे मौके-मौके पर ही हँसती थीं। साधारण लोगों से वह बातचीत भी कुछ कम करती थीं। उन्हें अपने धन, विद्या और एक प्रतिष्ठित परिवार की कन्या होने का गर्व था। अपने आश्रित एक मुंशी की स्त्री से बातचीत करने में वह समय का दुरुपयोग समझती थीं। इसलिए उन्होंने कमला को कभी न बुलवाया । इधर कमला इसके बिलकुल प्रतिकूल थी। वह अनिंद्य सुंदरी थी। खूब गोरा रंग, आकर्षक आँखें, पतले-पतले लाल होंठ, जिन पर सदा हँसी खेलती रहती। वह बड़ी नम्र और मिलनसार थी। पढ़ी-लिखी बहुत साधारण थी। हिंदी की पुस्तकों के अतिरिक्त चिट्ठी-पत्री लिख-पढ़ लेती थी। अंग्रेजी के कोई-कोई अक्षर पहिचान लेती थी। फिर भी उसे व्यवहार-ज्ञान था, गृहकार्य में कुशल थी। साधारण-से-साधारण कपड़ों को भी ढंग से पहिनना जानती थी। साधारण कपड़ों को ही वह इस ढंग से पहिनती थी कि वह उसके शरीर पर मूल्यवान जान पड़ते। बीस साल की उमर होने पर भी चौदह साल की किशोरी जान पड़ती । उनके स्वभाव में एक प्रकार की लापरवाही और अल्हड़पन था, जो इस बात का साक्षी था कि इसने भी अपने जीवन में कभी अच्छे दिन देखे हैं।

जिस दिन से कमला को मालूम हुआ कि हीरादेवी ने उसके इयरिंग मंगवाए और पसंद किए हैं, उनसे मिलने के लिए कमला की उत्सुकता और भी बढ़ गई। एक दिन दोपहर को वह हीरादेवी से मिलने गई, जिसकी सूचना हीरालाल ने अपने मालकिन को पहिले से ही दे रखी थी। बरामदे में एक चटाई पड़ी थी, कमला उसी पर बैठ गई। साधारण आवभगत के बाद हीरादेवी पास पड़ी हुई कुरसी पर बैठकर एक मासिक पत्रिका के पन्ने उलटने लगीं। बीच-बीच में वह कमला की बातों का उत्तर भी देती जाती थी। उन्होंने अपने किसी भी व्यवहार से यह प्रकट न होने दिया कि कमला के आने से उन्हें किसी तरह की प्रसन्नता हुई, प्रत्युत उन्होंने यही प्रकट किया कि उसके आने से उनके काम में कुछ विघ्न ही पड़ा। उनके मुँह के भाव से कुछ ऐसा प्रकट हो रहा था, जैसे उन्हें कमला के रूप और लावण्य से ईर्ष्या हो रही हो। कमला एक साधारण जामदानी की कढ़ी हुई गुलाबी रंग की साड़ी और वैसा ही ब्लाउज पहने थी। हाथों में तीन-तीन काँच की चूड़ियाँ और कानों में वही हीरे के इयरिंग चमक रहे थे। वह इस आशा में थी कि हीरादेवी यदि कुछ भी उसके बुंदे के विषय में पूछेंगी तो वह बातों-ही-बातों में उन्हें बतला देगी कि यद्यपि इस समय दिनों के फेर से वह उनके मुंशी की स्त्री है किंतु वह भी किसी समय बड़े घर की लड़की थी और उसने भी अच्छे दिन देखे हैं। उसके पास एक नहीं अनेक जेवर थे, इन बुंदों की तरह, किंतु हीरादेवी ने उसके साथ बातचीत करने में जो उदासीनता दिखलाई, उससे कमला के आत्म-सम्मान को धक्का लगा, वह यहाँ आके पछता रही थी। वह उठकर घर जाने की आज्ञा लेने ही वाली थी कि इसी समय हीरादेवी किसी कार्यवश कुछ देर के लिए भीतर चली गईं। कमला को रुक जाना पड़ा, वह वहीं चटाई पर बैठी उसी मासिक पत्रिका के पन्ने उलटने लगी। ठीक इसी समय वकील साहब ने घर में प्रवेश किया। कमला वकील साहब को पहचानती थी किंतु वकील साहब उसे न जानते थे। कमला उठकर खड़ी हो गई, वह कहीं छिप जाने का स्थान ढूँढ़ने लगी।

इधर वकील साहब को एक संभ्रांत महिला को इस तरह बरामदे में चटाई पर बैठाना कुछ अपमानजनक मालूम हुआ। पहिले तो वह उलटे पाँव बाहर लौट जाने वाले थे। परंतु न जाने क्या सोचकर उन्होंने कमला को संबोधन करके कहा, आप यहाँ बाहर क्यों बैठी हैं? आइए ड्रांइगरूम में बैठिए; मैं उन्हें बुला लेता हूँ। कमला कुछ न बोली, चित्रछाया की तरह वकील साहब के पीछे-पीछे जाकर ड्राइंगरूम में बैठ गई। सच बात तो यह थी कि हीरादेवी की तरफ से इतना निरादर और वकील साहब के द्वारा इतना आदर, दोनों के व्यवहार में इतना अंतर देखकर कमला कुछ विस्मित-सी हो गई। वकील साहब ने अंदर जाकर पत्नी से कहा और फिर बाहर आकर बैठ गए।

हीरादेवी ने समझा कि कोई और मिलने आया है। इसलिए वह अपने कपड़े बदलने लगीं। कपड़े बदलकर रसोइए को चाय तैयार करने के लिए कहकर वह ड्राइंगरूम में आईं किंतु वहाँ किसी और को नहीं, कमला को ही पति के साथ खुले मुँह मखमला कोच पर बैठे देखकर हीरादेवी के शरीर में आग लग गई। वह कुछ बोली नहीं, रूखे भाव से आकर वहीं दूसरी कोच पर बैठ गईं। उनके आते ही कमला उठकर खड़ी हो गई और उनकी ओर लक्ष्य करके कहा, अब आज्ञा दीजिए, मैं घर जाऊँ? हीरादेवी के कुछ बोलने के पहिले ही वकील साहब बोल उठे, “बैठिए चाय तैयार हो गई है। चाय ले के जाइए।”

एक तीव्र दृष्टि से पति की ओर देखकर हीरादेवी ने कमला से कहा, “हाँ! चाय पी के ही जाना, तैयार तो हो गई है।”

पर कमला रुकी नहीं।

कमला की सुंदरता की छाप वकील साहब के हृदय पर प्रथम दृष्टि में ही पड़ गई, इसलिए वह सबकी नजर बचाकर कभी-कभी कमला के मुँह की ओर देख लिया करते थे, किसी बुरे भाव से नहीं । वे सौंदर्योपासक थे। प्रत्येक सुंदर वस्तु को देखना उनकी दृष्टि में आवश्यक था। शिष्टाचार के तौर पर कमला के जाते समय हीरादेवी ने उसे कभी-कभी आते रहने के लिए कहा। कमला इस कृपा के लिए उन्हें धन्यवाद देकर अपने घर गई।

कमला के जाते ही पत्नी पर तिरस्कार सूचकदृष्टि डालकर वकील साहब ने पूछा, “यह कौन थी? वहाँ चटाई डालकर बैठा दिया। इतना बड़ा ड्राइंगरूम किसलिए है?”

हीरादेवी भी उसी भाव से तीव्र स्वर में बोलीं, “तो तुम क्या चाहते हो कि मैं नौकरों-चाकरों को भी अपने साथ ही कुर्सी पर बैठाया करूँ। यह तो तुम्हीं से होगा, मैंने तो यह नहीं सीखा। फिर भी अब वाद-विवाद करने का क्या तात्पर्य है, जब तुमने उसे बुलाकर अपने पास कुर्सी पर बैठा ही लिया था।”

वकील साहब ने उत्सुकता से पूछा, “नौकर-चाकर? नौकर-चाकर से तुम्हारा क्या तात्पर्य है?”

हीरादेवी ने रुखाई से कहा, “यह मुंशी की ही तो स्त्री थी न? नौकर-चाकर नहीं तो क्या मेरी हमजोली है।”

वकील साहब कुछ नम्न होकर बोले, “मुंशी की ही स्त्री सही। हीरालाल मेरा मुंशी है, उसकी स्त्री तो नहीं है? उसके साथ तुम्हें नौकरों का-सा बर्ताव कदापि न करना चाहिए। जो सम्मान करना जानता है, वह सम्मान पाता भी है। फिर गरीबों का सम्मान तो धनिकों से अधिक करना चाहिए। यदि तुम उसे अपने साथ पहिले से ही ड्राइंगरूम में लेकर बैठतीं, तो तुम्हारे सम्मान में कुछ भी अंतर न आता, तुम्हारे विषय में वह ऊँचे विचार लेकर ही जाती।”

हीरादेवी अब झुँझला उठीं, “क्यों तंग किए जा रहे हो, मुझसे नहीं बन पड़ा, तुमने तो कर ही दिया, फिर अब अफसोस किस बात का, और इतने पर भी संतोष न हो, जाके उसके आँसू पोंछ आओ, मुझे कोई शिकायत न होगी।” कहकर हीरादेवी उठकर दूसरे कमरे में चली गईं।

मेज पर चाय ठंडी हो रही है, उस तरफ न वकील साहब का ध्यान था और न हीरादेवी का। हीरादेवी के जाते ही वकील साहब थके हुए से एक कोच पर लेट गए। बात-बात पर वह पत्नी के वाद-विवाद और तर्क से थक गए थे। विवाह से पहिले जब उन्हें मालूम हुआ कि उनकी भावी पत्नी ग्रेजुएट है, संस्कृत में कात्यतीर्थ है, तो उन्हें न जाने कितनी प्रसन्‍नता हुई थी। अपने कल्पना जगत्‌ में उन्होंने अपने एक छोटे-से सोने के संसार को देखा, जिसमें सहयोग से गृहस्थी नंदनवन हो जाती है। इसी सुस्वप्न को देखते-देखते वे विवाह के बंधन में बंध गए और उन्होंने अपने भाग्य की सराहना की, मित्रों ने बधाई के पुल बाँध दिए। नववधू अधिक सुंदरी न थी, पर सुशिक्षित थी, इसका वकील साहब को गर्व था। आज उनका गर्व धूल हो चुका था। रह-रह के उन्हें ऐसा जान पड़ता था, जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़ी भूल कर डाली है, जिसका कोई प्रतिकार नहीं। पत्नी के उद्दंड स्वभाव से वे बहुत असंतुष्ट थे। हीरादेवी में उन्हें स्त्रियोचित गुण ढूँढ़े न मिलते थे। पत्नी से अधिक संकोच और शील की मात्रा उनके ही स्वभाव में थी जिसके कारण वह पत्नी से कभी कुछ कह-सुन न सकते थे और कहते भी तो कैसे ? हीरादेवी आखिर उनसे किस बात में कम थीं? वे वकील थे, हीरादेवी भी कुछ दिनों तक पटना के गर्ल्स स्कूल में प्रिंसिपल रह चुकी थीं। वकील साहब बी०ए०, एल०एल०बी० थे, तो हीरादेवी बी०ए०, बी०टी० थीं। विद्या, डिगरी या रुपया कमाने की कला, वकील साहब से हीरादेवी किसी बात में तिल भर कम न थीं। फिर उनसे वह किस बात में दबतीं? और दबतीं भी कैसे? उन्होंने स्त्रियों के समानाधिकार पर बड़े-बड़े लेख लिखे थे। और तर्क के द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि स्त्री और पुरुष का प्रत्येक बात में समान अधिकार है। किंतु वकील साहब से कोई पूछता, इस समान अधिकार का परिणाम उनके हक में कैसा सिद्ध हुआ! वे तो जानते ही न थे कि गार्हस्थ्य सुख कैसा होता है। वे तरस रहे थे। हीरादेवी उनके लिए एक मित्र की तरह थीं। बाकी घर का सारा काम तो नौकर करते थे। हीरादेवी भी ग्रेजुएट थीं, वे इन छोटी-छोटी बातों में अपने अमूल्य समय को नष्ट न कर सकती थीं और न कभी वकील साहब की ही हिम्मत पड़ती कि उनसे किसी काम के लिए कहते। सौ की जगह दो सौ खर्च होता, पर एक दिन भी उन्हें अच्छा भोजन न मिलता । वैसे तो सामने थाली में कई चीजें होतीं, पर सब बेस्वाद, नीरस; जैसे-तैसे पेट भरते थे। हीरादेवी पहिली ही बार गर्भवती हुई थीं। प्रसव के लिए उन्होंने अपनी माता के पास जाना उचित समझा। वकील साहब ने इसे ज्यादा ठीक समझा, क्योंकि यहां इनके घर दूसरी कोई स्त्री थी ही नहीं। अतएव गर्भ के छठे मास में ही हीरादेवी अपनी मां के घर चली गई।

एक दिन कचहरी से लौटकर वकील साहब चाय के लिए बैठे ही थे कि हीरालाल एक थाली में कुछ मिठाइयां, जो एक सुंदर बेलबूटेदार रुमाल से ढकी थीं लेकर आया, बोला – “घर में बनाया था तो मैंने कहा, थोड़ा-सा आपके लिए भी ले चलूं, बहू जी तो हई नहीं, अब आपके लिए कौन बनाता होगा?”

वकील साहब ने मन-ही-मन सोचा-ये थीं ही तो कब बना के खिला देती थीं। प्रकट में बोले- “क्यों तकलीफ की हीरालाल, महाराज तो बना ही दिया करता है, जो कुछ मैं चाहता हूं।जेड

हीरालाल ने धीरे से थाली को मेज पर रखकर रुमाल हटा लिया फिर बोला, ” वकील साहब ये पकौड़ियां खाइए, अभी बन रही हैं, बिल्कुल गरम हैं और चाय के साथ आपको अच्छी भी लगेंगी।”

वकील साहब पकौड़ियों के शौकीन थे, तश्तरी की सब पकौड़ी साफ कर गए। हीरालाल शरमाया, शायद वह बहुत कम लाया था। खाने के बाद बोले, “दरअसल हीरालाल बहुत अच्छी पकौड़ियां बनी हैं, बाकी मिठाइयां भी वहुत अच्छी हैं। क्या तुम्हारे घर की बनी हैं?”

हीरालाल प्रसन्‍न होके बोला, “हां सरकार, हम लोग तो बाजार की मिठाई खाते ही नहीं, वह तो सब अपने हाथ से बना लेती हैं, सस्ती-की-सस्ती पड़ती हैं, और बाजार से अच्छी भी रहती हैं।”

वकील साहव बोले, “मालूम होता है कि भोजन बनाने में बड़ी चतुर हैं, पर वह तो मिर्जापुर तरफ की हैं। देहात की लड़कियों को तो मैंने भोजन की कला में निपुण कहीं नहीं देखा।”

हीरालाल बोला, “दिनों का ही फेर समझिए वकील साहब, यह मुंशी नवलकिशोर राय की लड़की है। एक ही रात डाकुओं ने ऐसा जबरदस्त डाका डाला कि इनका सब कुछ लूट ले गए | इन्हें अपनी मां के साथ जाफर मामा के घर मिर्जापुर में रहना पड़ा। देहात में रही तो क्या हुआ, इनकी मां बहुत चतुर थीं, उन्होंने ही इन्हें सब कुछ सिखाया। उन कान के बुंदों के अतिरिक्त मोतियों का एक चंद्रहार भी उसके पास है। वकील साहब, मैं क्या बताऊं, उसके हाथ में जैसे जादू है। मामूली दाल-भात बनाती है, पर इतना स्वादिष्ट कि क्या बताऊं।”

वकील साहब आश्चर्य से बोले, “अच्छा यह मुंशी नवलकिशोर राय की कन्या हैं। वह तो इलाहाबाद के वड़े भारी वकीलों में से थे! तभी यह इतनी चतुर हैं।”

हीरालाल ने प्रसन्नता का भाव जाहिर करते हुए कहा—”वकील साहब गुस्ताखी माफ हो, एक अर्ज करता हूं । आप कल सबेरे मेरे झोपड़े में ही भोजन कीजिए, हम गरीबों के भोजन का स्वाद भी लीजिए।”

वकील साहब को अपने मुंशी के यहाँ भोजन करना जरा उचित न मालूम हुआ । बोले, “क्यों तकल्लुफ करते हो हीरालाल? यह जो इतनी चीजें लाए हो, यही मेरे कल तक के लिए काफी है, फिर क्यों तकलीफ करते हो।”

हीरालाल बोला, “इसमें तकलीफ की क्या बात है वकील साहब। उसका स्वभाव तो ऐसा ही है कि अगर दस खाने वाले आ जाएँ तो उसे दूनी खुशी होती है, सुस्ती तो उसमें नाम की नहीं है और खाने वालों को खिला-पिला के चाहे उसके खाने के लिए एक कौर भी न बचे, उसे बड़ा संतोष होता है।”

वकील साहब बोले, “अच्छा, भोजन तो तुम्हारे घर का मैं स्वीकार कर लेता हूँ पर मैं वहाँ खाने न जाऊँगा, तुम खाना यहीं ला देना।”

हीरालाल खुशी-खुशी अपने घर गया, वकील साहब कपड़े पहिन के क्लब गए।

क्लब से उस दिन वकील साहब जल्दी ही लौट आए। उनका जी वहाँ भी न लगा । एक अजीब तरह की परेशानी उन्हें तंग किए डालती थी। भोजन के लिए महराज पूछने आया। कई बार पूछने पर जैसे सोते-सोते चौंककर उन्होंने जवाब दिया-नहीं।

महराज इस ‘नहीं’ का अर्थ कुछ भी न लगा सका। दुबारा फिर पूछा, “साहब भोजन लाऊँ क्या?जेड

वकील साहब झल्ला उठे। बोले, ” अभी कहा था न मत लाओ। क्या एक बार के कहने से नहीं समझ सकते? “

महराज चुपचाप चला गया। उस दिन किसी की हिम्मत वकील साहब से बोलने की न हो सकी । किंतु नौ बजे रात को फिर हीरालाल दरवाजा खटखटाता हुआ पहुँचा। वकील साहब इतने रात को उसके आने का कारण समझ गए। फिर भी और दिनों की तरह वे उसे झिड़क न सके, बल्कि आदर के साथ बैठाया और नम्रता से बोले-“क्या है हीरालाल? मालूम होता है कि आज पीने के लिए नहीं है कुछ।”

हीरालाल हँस पड़ा और बोला, “सरकार जब तक आपके पास हूँ मुझे क्या तकलीफ हो सकती है। जब मेरे पास न रहेगा, आपके पास आऊँगा।”

“अच्छा, यह बात है।” कहते हुए वकील साहब ने दो रुपए जेब से निकालकर फेंक दिए।

आज पहली बार हीरालाल को बिना किसी प्रकार की झिकझिक किए पीने के लिए इतनी आसानी से रुपया मिल गया। रुपया तो वह सदा ही ले लिया करता था, किंतु घंटों माथापच्ची के बाद। वकील साहब के इतने शीघ्र रुपया निकालकर देने का अर्थ उसने लगाया, उस दिन की अत्यधिक आमदनी । रुपया उठाते-उठाते बोला, ” मालूम होता है आज खूब आमदनी हुई है। वकील साहब, रुपए हों तो दो-तीन और दे दो न, घर में खर्च के लिए बिलकुल नहीं है।”

वकील साहब बोले, “अच्छा तुम्हें दो दे दिए तो तुम लालच में पड़ गए।”

हीरालाल नम्रता से बोला, “नहीं, वकील साहब घर में तंगी न होती, तो मैं कभी न माँगता, आप तो मुझे जानते हैं, बस मुझे पीने भर को मिल जाए, फिर मुझे कुछ न चाहिए। आज तो उसने कहा कि रुपया चाहिए इसलिए आपसे कहा। नहीं तो क्या कभी कहता?”

आज की, वकील साहब की आमदनी कुल पाँच रुपए ही थी, उन्होंने बाकी के तीन रुपए निकालकर हीरालाल के हवाले कर दिए। देते-देते उन्होंने ताकीद कर दी कि देखो सबके सब मत पी जाना, घर में खर्च के लिए दे देना।

हीरालाल बोला, “नहीं वकील साहब, क्या पागल हूँ? मैं पहिले घर में देकर फिर पीने जाऊँगा।”

हीरालाल चला गया। वकील साहब फिर पलंग पर लेटे, उन्हें नींद न आई। उन्होंने अपने और हीरालाल के जीवन की तुलना की। चतुर सुशील, स्त्री पाकर वह कितना सुखी है? उसका गृहस्थ जीवन कितना आकर्षक है, वह है मामूली मुंशी। स्त्री साधारण पढ़ी-लिखी ग्रामीण बालिका है फिर भी गृहस्थी को स्वर्ग बना रखा है। एक मैं हूँ शहर के बड़े वकीलों में, पाँच-सात सौ मासिक तो कमा ही लेता हूँ। बंगला है, मोटर है, सुंदर बगीचा है, स्त्री संस्कृत और अंग्रेजी में ग्रेजुएट । लोग तो यही समझते होंगे कि मैं कितना सुखी हूँ, मित्र लोग आकर मेरी किस्मत की सराहना कर जाते हैं। किंतु मेरी किस्मत कैसी है? मेरे सिवाय और कौन जान सकता है? बिना सुशील पत्नी के सब सुख होते हुए भी मनुष्य सुखी नहीं रह सकता। सच्चे गृहस्थी के सुख के सामने सारे सांसारिक सुख हेय हैं। वह गृहस्थ सुख मेरी किस्मत में है ही नहीं। काश! मैं भी किसी मामूली पढ़ी-लिखी स्त्री से ही विवाह करता और वह सुशील होती तो जीवन कितना सुखी होता । यदि सुशीला न भी होती तो कम-से-कम बात-बात में उसका तर्कशास्त्र तो न चलता। हर बात में वह अपनी विद्वत्ता की छाप तो न जमाने लगती। किंतु यहाँ तो बात ही और है। हीरा अपने सामने मुझे कुछ समझती ही नहीं, दूसरों के सामने उसे कुछ कहते मैं डरता हूँ, न जाने कैसा उच्छ्रंखल उत्तर दे दे? फिर मुझे उनके सामने लज्जित होना पड़े। इसी प्रकार जितना ही मैं उससे दबता हूँ वह मुझे दबाती जाती है। मैं स्‍त्री को समान अधिकार देने का विरोधी नहीं हूँ किंतु वे इतना समझती कहाँ हैं, वे अधिकार पाते ही उसका दुरुपयोग करने लगती हैं। स्त्रियों के लिए कोमलता, लज्जाशीलता और नम्रता बहुत आवश्यक हैं। पर ये बातें हीरा में कहाँ हैं? किंतु इसमें हीरा का दोष? दोष तो उसकी शिक्षा का है। फिर मैं शिक्षा को भी दोष कैसे दूँ? उसी की छोटी बहिन मीरा भी तो एम०ए० में पढ़ रही है, इतनी सुशील, लज्जाशील है कि सीधी तरह आँख उठाकर बात नहीं कर सकती ।…कुछ नहीं सब मेरी किस्मत का दोष है। मेरी किस्मत में गृहस्थ सुख नहीं था फिर मुझे सुशीला पत्नी कैसे मिलती? उन्होंने कमला और हीरा की तुलना की । कमला उन्हें साक्षात्‌ लक्ष्मी-सी और हीरा अहंकार, अभिमान की प्रतिमा-सी जान पड़ी। वह पहिले ही दिन, पहिली दृष्टि में कमला के रूप पर मुग्ध हो गए थे। आज वह उसके गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। किंतु इतना वह जानते थे कि जीवन में अनेक बार ऐसे अवसर आते हैं, जब इंद्रियाँ मनुष्य को अपना दास बना लेती हैं। जानता हुआ भी मनुष्य अनजान बन जाता है, समझदार भी नासमझ हो जाता है। इसलिए वह कमला के रूप और गुणों पर मुग्ध होते हुए भी उससे दूर-दूर रहना चाहते थे। वे उस पवित्र फूल को जिसका सौरभ उन्हें बहुत प्रिय था छूकर अपवित्र न करना चाहते थे। इसीलिए वह पास भी आने से डरते थे। संभव है पास पहुँचकर वे छू लेने के लोभ को संवरण न कर सकें, तो फिर उसका परिणाम क्‍या होगा। उसके भयंकर दुष्परिणाम का काला चित्र वकील साहब की आँखों के सामने खिंच गया। वे घबराकर उठे। पास ही मेज पर रखा हुआ हीरा का चित्र उठाकर देखने लगे। किंतु उस चित्र में, कई बार देखने पर भी उन्हें कमला ही दिखी। वे घबराकर इधर-उधर करवरटें बदलते रहे। अंत में यह निश्चय करके कि मैं सबेरे हीरालाल के यहाँ भोजन के लिए अस्वीकृति भेज दूँगा, न जाने कब उन्हें नींद आ गई!

सबेरे जब वकील साहब सोकर उठे तो दिन चढ़ आया था। हीरालाल अपने कई मुवक्किलों के साथ वकील साहब की इंतजारी में बैठा था। वकील साहब उठे। कहाँ तो सोने से पहिले उन्होंने यह निश्चय किया था कि हीरालाल के घर का भोजन अस्वीकार कर देंगे, चाय पीते-पीते महराज से बोले कि मैं आज यहाँ खाना न खाऊँगा, मेरे लिए न बनाना। और खाना बनाना ही किसके लिए था, महराज को बिना माँगे ही छुट्टी मिल गई।

इधर भोजन के समय जब हीरालाल वकील साहब से पूछने आया, उन्होंने कहा , “चलो, वहीं चलके खा लेता हूँ, तुम भी घर रहोगे। बार-बार दौड़ने से बचोगे।”

हीरालाल और चाहता ही क्या था? वकील साहब को लेकर अपने घर पहुँचा। वकील साहब घर की सफाई देखकर दंग रह गए। छाटे-छोटे दो कमरे कमला ने ढंग से सजा रखे थे। इतनी सफाई थी कि वह उनकी चतुराई से चकित हो गए। उन्हें स्वप्न में भी यह आशा न थी कि उनके नौकरों के रहने की कोठरी नंदन- कानन बन रही हैं। जो घर कमला-सी चतुर गृहिणी के आलोक से आलोकित हो रहा हो, उसकी तुलना नंदन-कानन भी कया करेगा? वकील साहब दूसरी कोठरी में बैठे थे। बीच के दरवाजे पर एक फटी हुई साड़ी का ही सिला हुआ हलके रंग का पर्दा पड़ा हुआ धा। परदे के पीछे से वकील साहब को बार-बार कमला के पैरों की पाजेब की मधुर ध्वनि सुन पड़ती थी, जिससे रह-रह के उनका मन चंचल हो जाता था। जिन पैरों के पाजेब की मधुर ध्वनि वकील साहब के हृदय को दोलायमान किए डालती थी, उन पैरों को एक बार चूम लेने के लिए उनका मन आतुर हो उठा। हीरालाल ने आसन बिछा के पानी रखा। कमला थाली परोस के लाईं। आज उसने बहुत मामूली हलके रंग की साड़ी पहिन रखी थी। नीले रंग में उसका रूप और भी निखर पड़ता था। खाना बहुत सादा था-दाल, चावल, रोटी और दो तरह की मामूली तरकारी थी। किंतु सादा भोजन होने पर भी बहुत स्वादिष्ट और रुचिकर था। मिर्च-मसाला बहुत कम था, फिर भी जाने क्या था कि वकील साहब रोज से कहीं ज्यादा खा गए। खाते-खाते बोले, “हीरालाल मुझे खाना इसी प्रकार का अच्छा लगता है, किंतु महराज तो जरूरत से ज्यादा मिर्च-मसाला भर देता है। परिणाम यह होता है कि मैं कभी पेट भर भोजन नहीं कर पाता। तुम अपनी स्त्री से कहो कि वह महाराज को भी खाना बनाना सिखा दे।”

कमला ने धीरे-से कुछ कहा। हीरालाल हँसता हुआ बोला, “वकील साहब वह कहती है कि आप यहीं क्‍यों न खा लिया करें।”

वकील साहब हँसकर बोले, “सो यहाँ किस्मत में नहीं है। सबको थोड़े ही ऐसा खाना नसीब होता है।”

कहते-कहते साहब चले गए। कचहरी की देरी हो रही थी। हीरालाल भी जल्दी-जल्दी भोजन करके भागा । आज वह भी वकील साहब की कार में ही बैठकर कचहरी गया। प्रशंसा झूठी हो चाहे सच्ची, किंतु है ऐसी चीज, जिसे सुनकर प्रसन्‍न हो जाना मनुष्य का स्वभाव है। अपनी प्रशंसा के इतने बंधते पुल सुनकर कमला पुलकित न हुई हो ऐसी बात नहीं। अब वह चीजें दूने उत्साह के साथ बनाती, और नित्य ही कोई-न-कोई नई वस्तु बनाकर वकील साहब के लिए भेजती। उसके हृदय में और कोई भाव न थे, किंतु प्रशंसा पाने की लालसा जरूर थी। वकील साहब इसका दूसरा ही अर्थ लगाते। वे बार-बार सोचते कि जिस प्रकार मेरे हृदय में उसके लिए प्रेम का सूत्रपात हुआ, उसी प्रकार कमला के हृदय में भी तो नहीं है? वे सदा इसी चिंता में व्यस्त रहते। किंतु प्रेम प्रकट करने का उन्हें कभी साहस न होता, इसके अतिरिक्त वे विश्वास की जगह अविश्वास को स्थान देकर पतित न होना चाहते थे। वे अपनी इंद्रियों का दमन करके अपनी सच्चरित्रता पर धब्बा न लगने देना चाहते थे। किंतु होनी किसके टाले टली है।

इस बार जब वे हीरालाल की तनखा देने लगे तो दस रुपए के स्थान पर पंद्रह रुपए दिए और कहा, “हीरालाल मेरी आमदनी बढ़ गई है, इसलिए तुम्हारी तनख्वाह भी बढ़ा दी है। इस महीने से तुम्हें पंद्रह रुपए मिला करेंगे।”

हीरालाल को मुंहमांगी मुराद मिली खुशी-खुशी घर आया। पत्नी के हाथ पर रुपए रखता हुआ बोला, “कमला तुम सचमुच लक्ष्मी हो। जिस दिन से तुम आई हो मुझे लाभ-ही-लाभ हुआ है। वकील साहब मुझसे कभी सीधे बात तक न किया करते थे, अब दोस्तों का-सा बर्ताव रखते हैं। कहां तो सदा निकाल देने की धमकी दिया करते थे, कहां इस महीने से पंद्रह रुपए तनखा कर दी। अब तुम कहो, तुम लक्ष्मी हो या नहीं? तनखा बढ़ने की खुशी में मैं उन्हें कल की दावत दे आता हूं। जरा इस बार गहरा माल बने। पांच रुपए ऊपर वाले खर्च कर दो, परमात्मा बहुत देगा।”

वकील साहब दूसरे दिन हीरालाल के यहां खाने आए। आज कमला ने कई तरह की भोजन सामग्री तैयार की थी। हीरालाल थाली परसवा के वकील साहब के सामने रख ही रहा था कि बाहर से कुछ मुअक्किलों ने आवाज दी। हीरालाल कमला से कहकर कि तुम वकील साहब को खिला दो मैं जरा मुअक्किलों को संभाल लूं, वर्ना बहक जाएंगे, बाहर चला गया। सामने ही दूसरे वकील का घर था। उसे डर था कि कहीं मुअक्किल दूसरे वकील के घर न चले जाएं। हीरालाल मुअक्किल से बातचीत कर रहा था। कमला वकील साहब को खाना खिला रही थी। बिल्कुल एकांत, और सामने वही वस्तु जिसके वे भक्त थे। वकील साहब कुछ हतप्रभ और चंचल से हो गए। वे बोले, “खाना इतना अच्छा बना है कि जी चाहता है बनाने वाले का हाथ चूम लूं।”

कमला कुछ न वोली । उसे यह एकांत अच्छा न लग रहा था। उसे वकील साहब के चेहरे की लाली और आंखों की उन्मत्तता साफ दिख रही थी। हाथ धुलाने के बाद कमला टावेल देने लगी, वकील साहब टावेल लेकर कमला की ओर झुक गए।

कमला – “क्या करते हैं आप?” कहकर पीछे सरकी ।

पीछे दीवार होने के कारण ज्यादा न हट सकी । वकील साहब ने जरा ज्यादा झुककर कमला के होठों पर अपने होठ जड़ दिए। न चाहती हुई भी कमला इसका विरोध न कर सकी। कुछ क्षण कमला के अधरामृत का पान कर बिना कुछ कहे ही वकील साहब बाहर चले आए। वकील साहब के बाहर आने के बाद हीरालाल भी खाना खाने गया। आज फिर वकील साहब के साथ हीरालाल को कचहरी जाना पड़ा । हीरालाल के कचहरी जाने पर कमला वकील साहब के कृत्य पर बार-बार विचार करती रही। उसे रह-रह कर उनके साथ साथ अपने पतन का दुःख हो रहा था। किंतु उसने तो कभी सोचा भी न था कि यह मामला इस हद तक पहुंच सकता है।

शाम हुई, आज वकील साहब क्लब न जा सके, उनका चित्त उदास था। आज हीरालाल को कोई आमदनी भी न हुई थी। वह भी पीने के लिए व्याकुल-सा था। वह फिर वकील साहब के पास आया। वकील साहब को समझने में देर न लगी, एक रुपया निकालकर उसके हाथ में रख दिया। हीरालाल कलारी की तरफ भागा! वकील साहब धीरे-धीरे हीरालाल के घर की ओर गए? जूतों की आवाज सुनकर हीरालाल के धोखे में कमला ने उठकर दरवाजा खोल दिया। सामने वकील साहब को खड़ा देखकर वह बहुत घबराई। अब न दरवाजा बंद करते बनता था न खोलते। वह कुछ क्षण तक दरवाजा पकड़े खड़ी रहीं फिर बोली, “क्या चाहिए आपको?”

वकील साहब रुँधे हुए कंठ से कंपित स्वर में बोले, “तुमसे माफी माँगने आया हूँ। कमला जरा भीतर बैठ जाने दो, फिर कहता हूँ।”

कमला दरवाजे से सरक गई। वकील साहब आकर भीतर कुर्सी पर बैठ गए। कहा, “मुझे अपने कृत्य पर बड़ा दुःख है। कमला तुम मुझसे नाराज तो नहीं हो?”

कमला कातर स्वर में बोली, “मैं नाराज होऊँ या खुश, अब पूछकर क्‍या होगा? यह तो आपको पहिले ही पूछना चाहिए था, फिर भी मैं आपसे पूछती हूँ, आखिर हठ से क्‍या लाभ है? मेरी और आपकी दोनों की जिंदगी बरबाद हो जाएगी। वैसे आपको तो विशेष क्षति न होगी किंतु मैं कहीं की न रहूँगी।”

वकील साहब ने भर्राए स्वर में कहा, “कमला मैं तो पागल हो रहा हूँ, मेरी दवा तुम्हें छोड़कर कोई नहीं कर सकता। वैसे आज जो कुछ भूल हो गई, उसे तुम क्षमा करो। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध मैं तुम्हें कभी हाथ न लगाऊँगा। रही तुम्हारे जीवन बरबाद होने की बात, सो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैं हीरालाल को कभी किसी हालत में अलग न करूँगा और तुम्हारा जीवन मेरे जीते जी कभी बरबाद नहीं हो सकता।”

कमला ने दीन भाव से पूछा, “फिर भी यह कहाँ तक उचित है कि जो आदमी आपका विश्वास करे, उसी के साथ अविश्वास करें। कभी इन्हें (हीरालाल को) जरा भी शक हुआ, तो मेरे और आपके विषय में क्या सोचेंगे?”

वकील साहब बोले, “कमला शक होने ही कैसे पाएगा?”

कहते हुए उठकर पास खड़ी हुई कमला का उन्होंने गाढ़ा आलिंगन कर दिया। और उसी शाम उनका पतन हो गया। इस बात से कमला को जो कुछ दुःख था, वह तो था ही, वकील साहब भी अपने कृत्य से संतुष्ट न थे। न जाने कितने दिन और कितनी रातें उन्होंने बेचैनी से बिताईं, किंतु कार्यक्रम उनका ज्यों-का-त्यों चलता रहा। रोज शाम को हीरालाल जब कलारी जाता, उसी समय वकील साहब अपनी मधुशाला में पहुँचते। यह क्रम महीनों चलता रहा, किंतु हीरालाल कुछ भी न जान सका। धीरे-धीरे कमला को गर्भ के लक्षण प्रकट हुए । विवाह को नौ साल हो चुके थे। इतने दिन बाद ही सही, हीरालाल ने उम्मीद छोड़-सी दी थी, किंतु जब उसे मालूम हुआ कि कमला गर्भवती है, तो उसे बेहद खुशी हुई। उसने मन-ही-मन सोचा – वकील साहब के यहाँ लड़का हुआ, तो इधर भी ईश्वर ने भेज दिया। इसमें क्या रहस्य है-बेचारा हीरालाल न जानता था।

एक दिन हीरालाल भोजन के बाद रुपया लेकर कलारी की तरफ चला। रास्ते में उसका एक लेनदार मिल गया। उसे हीरालाल से करीब दस रुपए लेने थे। हीरालाल को देखते ही उसने दस तो सीधी-सीधी सुनाई और रुपए छीन लिए। अब कलारी जाके हीरालाल करता तो क्या करता? लाचार घर की तरफ लौट पड़ा। घर आकर अपने घर में उसने वकील साहब को बैठा पाया। अपने घर में वकील साहब को देखकर हीरालाल को, और हीरालाल को अचानक उस समय पहुँचा देखकर वकील साहब को आश्चर्य हुआ। किंतु वकील साहब चतुर थे बोले, “क्‍यों हीरालाल, हमेशा तो मुझे भोजन के लिए पूछा करते थे, आज जब मुझे घर में ढंग का खाना न मिला तो पहले ही से खा-पीकर बैठ गए।”

हीरालाल बोला, “अरे तो और बन जाएगा वकील साहब ।”

उसने पत्नी को वकील साहब के लिए कुछ बनाने का इशारा किया। वकील साहब रोकते हुए बोले, “नहीं-नहीं अब क्यों तकलीफ देते हो? मैं जानता हूँ तुम लोगों ने खाया-पिया न होता, तो मैं भी कुछ खा लेता।” फिर कुछ हँसकर बोले, “और तुम्हारा क्या हाल है? मालूम होता है आज चढ़ाई नहीं!”

हीरालाल के हृदय में कुछ आशा का संचार हुआ। इस समय मदिरा से अधिक आकर्षक कोई दूसरी चीज दुनिया में उसकी दृष्टि में न थी। बोला- “चढ़ाता कैसे वकील साहब, एक साला लेनदार मिल गया, रुपया ही छीन लिया, फिर मैं कलारी तक नहीं गया, जाके भी क्या करता, वहाँ कहीं दूसरों को पीते देखकर और जी खराब होता। आपके पास हों सरकार तो जिला लो नहीं तो बिना खुराक के मर जाऊँगा।”

जेब में सें पाँच रुपए का नोट निकालते हुए वकील साहब बोले, ” मेरे पास छुट्टा रुपया नहीं है और तुम्हें रुपया देते हुए डर लगता है। नशे के झोंक में न जाने कितने का पी जाओ।”

हीरालाल बोला, “नहीं सरकार ऐसा भी कहीं हुआ है। मैं तो उतना ही पीता हूँ, मेरी तो खुराक ही उतनी है, बस एक रुपया आठ आना की।जेड हीरालाल नोट लेके जाते-जाते कमला से बोला, “वकील साहब को कुछ बना के खिला जरूर देना।”

वकील साहब बोले, “पहले अपनी फिकर कर लो, फिर हमारी करना।”

हीरालाल हंसता हुआ चला गया। हीरालाल जब आंख से ओझल हुआ, तो कमला का आलिंगन करते हुए वकील साहब बोले, “तुम इस शराबी की दास हो कमला? यदि बदलने का कानून होता, तो मैं हीरा को देके तुम्हें ले लेता। हीरा, हीरालाल के साथ भले खुश न रहती, पर तुम्हारे सरीखा सुखी तो दुनिया में कहीं ढूंढ़ने से भी न मिलता, न कमला?”

कमला ने कुछ उत्तर न दिया, विदाई की अंतिम छाप कमला के होंठों पर लगाकर वकील साहब अपने घर आए। कमला के गर्भ का पांचवा महीना चल रहा था।

हीरालाल खूब पी के लौटा। लौटकर साढ़े तीन रुपए कमला के सामने फेंक दिए, फिर वह खाट पर बेहोश गिर पड़ा। आज उसने दूनी चढ़ा ली थी। धीरे-धीरे हीरालाल को अपनी स्त्री और वकील साहब के चरित्र के विषय में कुछ-कुछ संदेह होने लगा। किंतु कुछ भी कहने की हिम्मत न पड़ती। जब तक वह अपनी आंख से कुछ न देख ले कैसे कहे? लेकिन इस विचारमात्र से ही उसका हृदय बड़ा विचलित हुआ। वह अब ज्यादा पीने लगा, किंतु इस पर भी उसे शांति न मिलती। वह बड़ा व्यथित और घबराया-सा रहता। एक दिन वह कमला से बोला, “कमला जाने क्यों मुझे तुम्हारा वकील साहब के साथ इतना मिलना-जुलना पसंद नहीं आता।”

कमला ने कहा, “मैं तो उनके घर मिलने जाती नहीं, तुम उन्हें मना कर दो, मैं उनसे कभी न मिलूंगी।”

हीरालाल निरुत्तर हो गया। वकील साहब को रोकने का उसमें साहस न था। उसने सोचा – मकान ही बदल लूं तो अच्छा रहेगा। वह मकान की तलाश में चला। रुपए लेकर कलारी की तरफ जाने के इरादे से निकला। किंतु कुछ ही दूर जाने पर उसे कुछ मुअक्किल मिल गए, वह उन्हें लेकर लौट पड़ा। बंगले पर आने पर मालूम हुआ वकील साहब क्लब गए हैं। मुअक्किलों से बातचीत करके पांच रुपए फीस की पेशगी लेकर हीरालाल उन्हें सबेरे आने की ताकीद कर अपने घर की तरफ चला। वह रबरसोल जूते पहना था, इसलिए जूतों की आवाज न हुई। बाहर बरामदे पर पहुंचकर उसने देखा कि सामने का दरवाजा बंद है। अंदर से वकील साहब और कमला के हंसने की आवाज आ रही थी। वह चुपचाप कुछ क्षण तक खड़ा रहा, उसने सुना कमला कह रही थी- “लड़की हो या लड़का, है तो तुम्हारा ही, उसकी पूरी जिम्मेदारी तुम्हीं पर रहेगी। मैं यह न देख सकूंगी कि तुम्हारा बच्चा मोटर पर बैठकर स्कूल जाए और दूसरा पैर घसीटता हुआ जाए।”

वकील साहब बोले, “पगली हुई हो, तुम्हें भी मैं यहां न रहने दूंगा। मैं तुमको लेके भाग जाऊंगा। वकालत, मकान, बगीचा, सब हीरा और हीरालाल के लिए छोड़ जाऊंगा। मेरे पास बस तुम रहो, मैं दुनिया की सारी संपत्ति को ठुकरा दूंगा। मोटर मैं अपने बच्चे के लिए साथ रखूंगा, कहीं भी रहूंगा, कमा खाऊंगा। हो न तैयार इस बात के लिए?”

कमला हंस पड़ी। हीरालाल अधिक न सुन सका। संताप से वह पागल-सा हो रहा था। उसने जोर से एक ठोकर दरवाजे पर लगा दी। दरवाजा अंदर बंद था। वह वहां क्षण भर भी न ठहर सका। तेजी के साथ अहाते से बाहर निकल गया। अंधकार में किधर अदृश्य हो गया, कोई न जान सका।

इस घटना को हुए कई मास बीत गए, अब कमला और वकील साहब के संबंध की चर्चा घर-घर में थी। संदेह तो लोग पहले से ही करते थे, किंतु हीरालाल के इस प्रकार अचानक लापता हो जाने से संदेह करने में कोई संदेह का कारण न रह गया था। एक सखी ने कुछ गोलमाल करके हीरादेवी को भी लिखा। यह भी लिखा कि वह फौरन चली आए। इसके एक ही दिन पहले हीरादेवी को पति का पत्र मिला था, जिसमें लिखा था कि यहां कई तरह की मौसमी बीमारियां फैली हैं, ऐसे समय में तुम बच्चे को लेकर यहां मत आना। मैं स्वयं तुम्हें लेने आऊंगा। अब हीरादेवी पति के असली मतलब को समझीं। उनके सिर से पैर तक आग लग गईं। उसी दिन रात की ट्रेन से वह रवाना हो गईं। उनके पहुंचने से पंद्रह दिन पहले बंगले में ही एक कमरे में कमला को कन्या हुई थी। हीरादेवी के इस प्रकार अचानक पहुंचने की वकील साहब को संभावना न थी। वह किंकर्तव्यविमूढ़ से हो गए। उनकी समझ ही में न आया कि क्या करें? पहुंचने के कुछ ही घंटे बाद हीरादेवी ने देखते-देखते कमला को बच्ची समेत बंगले से बाहर निकाल दिया। बंगले से निकलते समय कमला वकील साहब के दफ्तर की तरफ मुड़कर बोली, “मुझे उन कोठरी में से एक में रहने दो, मैं इतना नन्‍हा-सा बच्चा लेकर कहां जाऊं? फिर मुझसे चला भी तो नहीं जाता।”

वह अपनी बात पूरी भी न कर पाई थी कि अचानक हीरादेवी आ गई। डांट के बोलीं, “सीधी निकल जाओ। मेरी इच्छा के विरुद्ध तुम इस अहाते में पैर भी नहीं रख सकतीं।”

वकील साहब बुत की नाईं बैठे रहे। उनसे कुछ भी करते न बना । उन्हीं की आंख के सामने, जिसे उन्होंने इतना आश्वासन दे रखा था, वही कमला गिरती-पड़ती किसी प्रकार बंगले से बाहर चली गई। किसी को उस पर दया न आई। किसी ने उसे शरण न दी। अपने पाप के फल को हृदय से लगाए संताप के आंसू बहाती हुई कमला निरुद्देश्य भाव से चली जा रही थी।

**समाप्त**

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