चैप्टर 9 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 9 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 9 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 9 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 9 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 9 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

 

रानी देवप्रिया का सिर राजकुमार के पैरों पर था और आंखों से आंसू बह रहे थे। उनकी ओर ताकते हुए विचित्र भय हो रहा था। उसे कुछ-कुछ संदेह हो रहा था कि मैं सो तो नहीं रही हूँ। कोई मनुष्य माया के दुर्भद्य अंधकार को चीर सकता है? जीवन और मृत्यु के मध्यवर्ती अपार विस्मृत सागर को पार कर सकता है? जिसमें यह सामर्थ्य हो, वह मनुष्य नहीं, प्रेत योनि का जीव है। विचार आते ही रानी का सारा शरीर कांप उठा, पर इस भय के साथ ही उसके मन में उत्कंठा हो रही थी कि उन्हीं चरणों में लिपटी हुई इसी क्षण प्राण त्याग दूं। राजकुमार उसके पति हैं, इसमें तो संदेह न था, संदेह केवल यह था कि मेरे साथ यह कोई प्रेतलीला तो नहीं कर रहे हैं? वह रह-रहकर छिपी हुई निगाहों से उनके मुख की ओर ताकती थी, मानो निश्चय कर रही हो कि पति ही हैं या मुझे भ्रम हो रहा है।

सहसा राजकुमार ने उसे उठाकर बैठा दिया और उसके मनोभावों को शांत करते हुए बोले-हां प्रिये! मैं तुम्हारा वही चिरसंगी हूँ, जो अपनी प्रेमाभिलाषाओं को लिए हुए कुछ दिनों को तुमसे जुदा हो गया था। मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है कि कोई यात्रा करके लौटा आ रहा हूँ। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, और जिसके भय से संसार कांपता है, वह केवल एक यात्रा है। उस यात्रा में भी मुझे तुम्हारी याद आती रहती थी। विकल होकर आकाश में इधर-उधर दौड़ा करता था। प्रायः सभी प्राणियों की यही दशा थी। कोई अपने संचित धन का अपव्यय देख-देखकर कुढ़ता था, कोई अपने बाल-बच्चों को ठोकरें खाते देखकर रोता था। वे दृश्य इस मृर्त्यलोक के दृश्यों से कहीं करुणाजनक, कहीं दुःखमय थे। कितने ही ऐसे जीव दिखाई दिए, जिनके सामने यहां सम्मान से मस्तक झुकता था, वहां उनका नग्न स्वरूप देखकर उनसे घृणा होती थी। यह कर्मलोक है, वहां भोगलोक; और कर्म का दंड कर्म से कहीं भयंकर होता है। मैं भी उन्हीं अभागों में था। देखता था कि मेरे प्रेम सिंचित उद्यान को भांति-भांति के पशु कुचल रहे हैं, मेरे प्रणय के पवित्र सागर में हिंसक जल-जंतु दौड़ रहे हैं, और देख-देखकर क्रोध से विहल हो जाता था। अगर मुझमें वज्र गिराने की सामर्थ्य होती, तो गिराकर उन पशुओं का अंत कर देता। मुझे यही जलन थी। कितने दिनों मेरी यह अवस्था रही, इसका कुछ निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि वहां समय का बोध कराने वाली मात्राएं न थीं; पर मुझे तो ऐसा जान पड़ता था कि इस दशा में पड़े हुए मुझे कई युग बीत गए। रोज नई-नई सूरतें आतीं और पुरानी सूरतें लुप्त होती रहती थीं। सहसा एक दिन मैं लुप्त हो गया। कैसे लुप्त हुआ, यह याद नहीं; पर होश आया, तो मैंने अपने को बालक के रूप में पाया। मैंने राजा हर्षपुर के घर में जन्म लिया था।

इस नए घर में मेरा लालन-पालन होने लगा। ज्यों-ज्यों बढ़ता था स्मृति पर पर्दा-सा पड़ता जाता था। पिछली बातें भूलता जाता था, यहां तक कि जब बोलने की सामर्थ्य हुई, तो माया अपना काम पूरा कर चुकी थी। बहुत दिनों तक अध्यापकों से पढ़ता रहा। मुझे विज्ञान में विशेष रुचि थी। भारतवर्ष में विज्ञान की कोई अच्छी प्रयोगशाला न होने के कारण मुझे यूरोप जाना पड़ा। वहां मैं कई वैज्ञानिक परीक्षाएं करता रहा। जितना ही रहस्यों का ज्ञान बढ़ता था, उतनी ही ज्ञानपिपासा भी बढ़ती थी; किंतु इन परीक्षाओं का फल मुझे लक्ष्य से दूर लिए जाता था। मैंने सोचा था, विज्ञान द्वारा जीव का तत्त्व निकाल लूंगा; पर सात वर्षों तक अनवरत परिश्रम करने पर भी मनोरथ न पूरा हुआ।

एक दिन मैं बर्लिन की प्रधान प्रयोगशाला में बैठा हुआ यही सोच रहा था कि एक तिब्बती भिक्षु आ निकला। मुझे चिंतित देखकर वह एक क्षण मेरी ओर ताकता रहा फिर बोला-बालू से मोती नहीं निकलते, भौतिक ज्ञान से आत्मा का ज्ञान नहीं प्राप्त होता।

मैंने चकित होकर पूछा-आपको मेरे मन की बात कैसे मालूम हुई?

भिक्षु ने हंसकर कहा-आपके मन की इच्छा तो आपके मुख पर लिखी हुई है। जड़ से चेतन का ज्ञान नहीं होता। यह क्रिया ही उल्टी है। उन महात्माओं के पास जाओ, जिन्होंने आत्माज्ञान प्राप्त किया है। वही तुम्हें वह मार्ग दिखाएंगे।

मैंने पूछा-ऐसे महात्माओं के दर्शन कहाँ होंगे? मेरा तो अनुमान है कि वह विद्या ही लोप हो गई और उसके जानने का जो दावा करते हैं, वे बने हुए महात्मा हैं।

भिक्षु-यथार्थ कहते हो; लेकिन अब भी खोजने से ऐसे महात्मा मिल जाएंगे। तिब्बत की तपोभूमि में आज भी ऐसी महान् आत्माएं हैं, जो माया का रहस्य खोल सकती हैं। हां, जिज्ञासा की सच्ची लगन चाहिए।

मेरे मन में बात बैठ गई। तिब्बत की चर्चा बहुत दिनों से सुनता आता था। भिक्षु से वहां की कितनी ही बातें पूछता रहा। अंत में उसी के साथ तिब्बत चलने की ठहरी। मेरे मित्रों को यह बात मालूम हुई तो वे भी मेरे साथ चलने पर तैयार हो गए। हमारी एक समिति बनाई गई, जिसमें दो अंग्रेज, दो फ्रेंच और दो जर्मन थे। अपने साथ नाना प्रकार के यंत्र लेकर हम लोग अपने मिशन पर चले। मार्ग में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, वहां कैसे पहुंचे, विहारों में क्या-क्या दृश्य देखे, इसकी चर्चा करने लगूं तो कई दिन लग जाएंगे। कई बार तो हम लोग मरते-मरते बचे, लेकिन वहां चित्त को जो शांति मिली, उसके लिए हम मर भी जाते, तो दुःख न होता। अंग्रेजों को तो सफलता न हुई, क्योंकि वे तिब्बत की सैनिक स्थिति का निरीक्षण करने आए थे और भिक्षाओं ने उनकी नीयत भांप ली थी। लेकिन शेष चारों मित्रों ने तो पाली और संस्कृत के ऐसे-ऐसे ग्रंथ खोज निकाले कि उन्हें यहां से ले जाना कठिन हो गया। जर्मन तो ऐसे प्रसन्न थे, मानो उन्हें कोई प्रदेश हाथ आ गया हो।

शरद-ऋतु थी; जलाशय हिम से ढक गए थे। चारों ओर बर्फ दिखाई देती थी। मेरे मित्र लोग तो पहले ही चले गए थे। अकेला मैं ही रह गया था। एक दिन संध्या समय मैं इधर-उधर विचरता हुआ एक शिला पर जाकर खड़ा हो गया। सामने का दृश्य अत्यंत मनोरम था, मानो स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है। उसका बखान करना उसका अपमान करना है। मनुष्य की वाणी में न इतनी शक्ति है, न शब्दों में इतना चित्र्य ! इतना ही कह देना काफी है कि वह दृश्य अलौकिक था, स्वर्गापम था। विशाल दृश्यों के सामने हम मंत्र-मुग्ध-से हो जाते हैं, अवाक् होकर ताकते हैं, कुछ कह नहीं सकते। मौन आश्चर्य की दशा में खड़ा ताक ही रहा था कि सहसा मैंने एक वृद्ध पुरुष को सामने की गुफा से निकलकर पर्वत-शिखर की ओर जाते देखा। जिन शिलाओं पर कल्पना के भी पांव डगमगा जाएं, उन पर वह इतनी सुगमता से चले जाते थे कि विस्मय होता था। बड़े-बड़े दरों को इस भांति फांद जाते थे, मानो छोटी-छोटी नालियां हैं। मनुष्य की यह शक्ति कि वह, उस हिम से ढके हुए दुर्गम श्रृंग पर इतनी चपलता से चला जाए! और मनुष्य भी वह, जिसके सिर के बाल सन की भांति सफेद हो गए थे!

मुझे ख्याल आया कि इतना पुरुषार्थ प्राप्त करना किसी सिद्ध ही का काम है। मेरे मन में उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हुई, पर मेरे लिए ऊपर चढ़ना असाध्य था। वह न जाने फिर कब तक उतरें, कब तक वहां खड़ा रहना पड़े। उधर अंधेरा बढ़ता जाता था। आखिर मैंने निश्चय किया कि आज चलूं, कल से रोज दिन भर यहीं बैठा रहूँगा; कभी न कभी तो दर्शन होंगे ही। मेरा मन कह रहा था कि इन्हीं से तुझे आत्मज्ञान प्राप्त होगा। दूसरे दिन मैं प्रात:काल वहां आकर बैठ गया और सारे दिन शिखर की ओर टकटकी लगाए देखता रहा; पर चिड़िया का पूत भी न दिखाई दिया।

एक महीने तक यही मेरा नित्य का नियम रहा! रात भर विहार में पड़ा रहता, दिनभर शिला पर बैठा रहता। पर महात्माजी न जाने कहाँ गायब हो गए थे। उनकी झलक तक न दिखाई देती थी। मैंने कई बार ऊपर चढ़ने का प्रयत्न किया, पर सौ गज से आगे न जा सका। कील-कांटे ठोंकते, शिलाओं पर रास्ता बनाते कई महीनों में शिखर पर पहुँचना संभव था; पर यह अकेले आदमी का काम न था, अन्य भिक्षुओं से पूछता तो हंसकर कहते-उनके दर्शन हमें दुर्लभ हैं, तुम्हें क्या होंगे? बरसों में कभी एक बार दिखाई दे जाते हैं। कहाँ रहते हैं, कोई नहीं जानता; किंतु अधीर न होना। वह यदि तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हो गए, तो तुम्हारी मनोकामना पूरी हो जाएगी। यह भी सुनने में आया कि कई भिक्षु उनके दर्शनों की चेष्टा में प्राणों से हाथ धो बैठे हैं। उनमें इतना विद्युत्तेज है कि साधारण मनुष्य उनके सम्मुख खड़ा ही नहीं हो सकता। उनकी नेत्रज्योति बिजली की तरह हृदयस्थल में लगती है। जिसने यह आघात सह लिया, उसकी तो कुशल है; जो नहीं सह सकता, वह वहीं खड़ा-खड़ा भस्म हो जाता है। कोई योगी ही उनसे साक्षात् कर सकता है।

यह बातें सुन-सुनकर मेरी भक्ति और भी दृढ़ होती चली जाती थी। मरूंया जिऊं, पर उनके दर्शन अवश्य करूंगा, यह धारणा मन में जम गई। योगी की क्रियाएं तो पहले ही करने लगा था, इसलिए मुझे विश्वास था कि मैं उनके तेज का सामना कर सकता हूँ। दिव्यज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न में मर जाना भी श्रेय की बात होगी। क्या था, क्या कहूँगा? कहाँ से मैं आया हूँ, कहाँ जाऊंगा? इन प्रश्नों का उत्तर किसी ने आज तक न दिया और न दे सकता है। वह तो अपने अनुभव की बात है। हम उसका अनुभव ही कर सकते हैं, किसी को बता नहीं सकते। इस महान उद्योग में मर जाना भी मनुष्य के लिए गौरव की बात है।

एक वर्ष गुजर गया और महात्माजी के दर्शन न हुए। न जाने कहाँ जाकर अंतर्धान हो गए। वहां से न किसी को पत्र लिख सकता था, न संसार की कुछ खबर मिलती थी। कभी-कभी जी ऐसा घबराता था कि चलकर अन्य सांसारिक प्राणियों की भांति जीवन का सुख भोगूं। इसमें रखा ही क्या है कि मैं क्या था और क्या हूँगा। पहले तो यही निश्चित नहीं कि मुझे यह ज्ञान प्राप्त भी होगा और हो भी गया, तो उससे मेरा या संसार का क्या उपकार होगा। बिना इन रहस्यों के जाने भी जीवन को उच्च और पवित्र बनाया जा सकता है। वहां की सुरम्यता अजीर्ण हो गई, वह कमनीय प्राकृतिक छटा आंखों में खटकने लगी। विवश होकर स्वर्ग में भी रहना पड़े तो वह नरक-तुल्य हो जाए।

अंत में एक दिन मैंने निश्चय किया कि अब जो होना हो सो हो; इस पर्वत-शृंग पर अवश्य चलूंगा। यह निश्चय करके मैंने चढ़ना शुरू किया, लेकिन दिन गुजर गया और मैं सौ गज से आगे न जा सका। मेरी चढ़ाई उन विज्ञान के खोजियों की-सी न थी, जो सभी साधनों से लैस होते हैं। मैं अकेला था; न कोई यंत्र, न मंत्र, न कोई रक्षक, न प्रदर्शक; भोजन का भी ठिकाना नहीं, प्राणों पर खेलना था। करता क्या ! ज्ञान के मार्ग में यंत्रों का जिक्र ही क्या! आत्मसमर्पण तो उसकी पहली क्रिया है। जानता था कि मर जाऊंगा; किंतु पड़े-पड़े मरने से उद्योग करते हुए मरना अच्छा था।

पहली रात मैंने एक चट्टान पर बैठकर काटी। बार-बार झपकियां आती थीं; पर चौंक-चौंक पड़ता था। जरा चूका और रसातल पहुंचा। इतनी कुशल थी कि गर्मी के दिन आ गए थे। हिम का गिरना बंद था; पर जहां इतना आराम था, वहां पिघली हुई हिम-शिलाओं के गिरने से क्षणमात्र में जीवन से हाथ धोने की शंका भी थी। वह भयंकर निशा, यह भयंकर जंतुओं की गरज और तड़प याद करता हूँ, तो आज भी रोमांच हो जाता है। बार-बार पूर्व दिशा की ओर ताकता था; पर निर्दयी सूर्य उदय होने का नाम न लेता था। खैर, किसी तरह रात कटी, सबेरे फिर चला। आज की चढ़ाई इतनी सीधी न थी, और पचास गज से आगे न जा सका। रास्ते में एक दर्रा पड़ गया, जिसे पार करना असंभव था। इधर-उधर बहुत निगाह दौड़ाई, पर ऐसा कोई उतार न दिखाई दिया, जहां से उतरकर दर्रे को पार कर सकता। इधर भी सीधी दीवार थी, उधर भी। संयोग से एक जगह दोनों ओर दो छोटे-छोटे वृक्ष दिखाई दिए। मेरी जेब में पतली रस्सी का एक टुकड़ा पड़ा हुआ था। अगर किसी तरह इस रस्सी को दोनों वृक्षों में बांध सकूँ तो समस्या हल हो जाए , लेकिन उस पार रस्सी को पेड़ में कौन बांधे? आखिर मैंने रस्सी के एक सिरे में पत्थर का एक भारी टुकडा खूब कसकर बांधा और उसको लंगर की भांति उस पारवाले वृक्ष पर फेंकने लगा कि किसी डाल में फंस जाए , तो पार हो जाऊं। बार-बार पूरा जोर लगाकर लंगर फेंकता था; पर लंगर वहां तक न पहुँचता था। सारा दिन इसी लंगरबाजी में कट गया, रात आ गई। शिलाओं पर सोना जान-जोखिम था। इसलिए वह रात मैंने वृक्ष ही पर काटने की ठानी। मैं उस पर चढ़ गया और दो डालों में रस्सी फंसा-फंसाकर एक छोटी-सी खाट बना ली। आधी रात गुजरी थी कि बड़े जोर से धमाका हुआ। उस अथाह खोह में कई मिनट तक उसकी आवाज गूंजती रही। सबेरे देखा तो बर्फ की एक बड़ी शिला ऊपर से पिघलकर गिर पड़ी थी और उस दर्रे पर उसका एक पुल-सा बन गया था। मैं खुशी के मारे फूला न समाया। जो मेरे किए कभी न हो सकता था, वह प्रकृति ने अपने आप ही कर दिया। यद्यपि उस पुल पर से ! को पार करना प्राणों से खेलना था-मृत्यु के मुख में पांव रखना था; पर दूसरा कोई उपाय न था। मैंने ईश्वर को स्मरण किया और संभल-संभलकर उस हिम राशि पर पांव रखता हुआ खाई को पार कर गया। इस असाध्य साधना में सफल होने से मेरे मन में यह धारणा होने लगी कि मर नहीं सकता। कोई अज्ञात शक्ति मेरी रक्षा कर रही है। किसी कठिन कार्य में सफल हो जाना आत्मविश्वास के लिए संजीवनी के समान है। मुझे पक्का विश्वास हो गया कि मेरा मनोरथ अवश्य पूरा होगा।

उस पार पहुँचते ही सीधी चट्टान मिली। दर्रे के किनारे और चट्टान में केवल एक बालिश्त, और कहीं-कहीं एक हाथ का अंतर था। उस पतले रास्ते पर चलना तलवार की धार पर पैर रखना था। चट्टान से चिमट-चिमटकर चलता हुआ, दो-तीन घंटों के बाद मैं एक ऐसे स्थान पर जा पहुंचा, जहां चट्टान की तेजी बहुत कम हो गई थी। मैं लेटकर ऊपर को रेंगने लगा। संभव था, मैं संध्या तक इस तरह रेंगता रहता, पर संयोग से एक समतल शिला मिल गई और उसे देखते ही मुझे जोर की थकान मालूम होने लगी। जानता था कि यहां सोकर फिर उठने की नौबत न आएगी, पर जरासे लेट जाने के लोभ को मैं किसी तरह संवरण न कर सका। नींद को दूर रखने के लिए एक गीत गाने लगा। लेकिन न जाने कब आंखें झपक गईं।

कह नहीं सकता कि कितनी देर तक सोया, जब नींद खुली और चाहा कि उठूँ, तो ऐसा मालूम हुआ कि ऊपर मानो बोझ रखा हुआ था। सब अंग जकड़े हुए थे। कितना ही जोर मारता था, पर अपनी जगह से हिल न सकता था, चेतना किसी डूबते हुए नक्षत्र की भांति डूबती जाती थी। समझ गया कि जीवन से इतने दिनों तक का साथ था। पूर्व स्मृतियां चेतना की अंतिम जागृति की भांति जागृत हो गईं। अपनी मूर्खता पर पछताने लगा। व्यर्थ प्राण खोए। इतना जानने ही से तो उद्धार न होगा कि मैं पूर्वजन्म में क्या था। यह ज्ञान न रखते हुए भी संसार में एक से एक ज्ञानी, एक से एक प्रणवीर, एक से एक धर्मात्मा हो गए। क्या उनका जीवन सार्थक हुआ? यही सोचते-सोचते न जाने कब मेरी चेतना का अपहरण हो गया। जब मेरी आंख खुली तो देखा कि एक छोटी सी कुटी में मृगचर्म पर कंबल ओढ़े पड़ा हुआ हूँ और एक पुरुष बैठा मेरे मुख की ओर वात्सल्यदृष्टि से देख रहा है। मैंने इन्हें पहचान लिया। यह वही महात्मा थे, जिनके दर्शनों के लिए मैं लालायित हो रहा था। मुझे आंखें खोलते देखकर वह सदय भाव से मुस्कराए और बोले-हिम-शय्या कितनी प्रिय वस्तु है ! पुष्प-शय्या पर तुम्हें कभी इतना सुख मिला था?

मैं उठ बैठा और महात्मा के चरणों पर सिर रखकर बोला-आपके दर्शनों से जीवन सफल हो गया। आपकी दया न होती, तो शायद वहीं मेरा अंत हो जाता।

महात्मा-अंत कभी किसी का नहीं होता। जीव अनंत है। हां, अज्ञानवश हम ऐसा समझ लेते हैं।

मैं-मुझे आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी। आपमें अमानुषीय शक्ति है।

महात्मा-इसीलिए ऐसा समझते हो कि तुमने मुझे शिलाओं पर चढ़ते देखा है? यह तो अमानुषीय शक्ति नहीं है। यह तो साधारण मनुष्य भी अभ्यास से कर सकता है।

मैं-आपने योग द्वारा ही यह बल प्राप्त किया होगा!

महात्मा-नहीं, मैं योगी नहीं; प्रयोगी हूँ। आपने डारविन का नाम सुना होगा। पूर्व जन्म में मेरा ही नाम डारविन था।

मैंने विस्मित होकर कहा-आप ही डारविन थे?

महात्मा-हां, उन दिनों मैं प्राणिशास्त्र का प्रेमी था। अब प्राणशास्त्र का खोजी हूँ।

सहसा मुझे अपनी देह में एक अद्भुत शक्ति का संचालन होता हुआ मालूम हुआ। नाड़ी की गति तीव्र हो गई, आंखों से ज्योति की रेखाएं-सी निकलने लगीं। वाणी में ऐसा विकास हुआ, मानो कोई कली खिल गई हो। मैं फुर्ती से उठ बैठा और महात्माजी के चरणों पर झुकने लगा; कितु उन्होंने मुझे रोककर कहा-तुम मुझे शिलाओं पर चलते देख विस्मित हो गए, पर वह समय आ रहा है, जब आने वाली जाति जल, स्थल और आकाश में समान रीति से चल सकेगी। यह मेरा विश्वास है। पृथ्वी का क्षेत्र उन्हें छोटा मालूम होगा। वह पृथ्वी से अन्य पिंडों में उतनी सुगमता से आ-जा सकेंगे, जैसे एक देश से दूसरे देश में।

मैं-आपको अपने पूर्व जन्म का ज्ञान योग द्वारा ही हुआ होगा?

महात्मा-नहीं, मैं पहले ही कह चुका कि मैं योगी नहीं, प्रयोगी हूँ। तुमने तो विज्ञान पढ़ा है, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि संपूर्ण ब्रह्मांड विद्युत का अपार सागर है। जब हम विज्ञान द्वारा मन के गुप्त रहस्य जान सकते हैं, तो क्या अपने पूर्व संस्कार न जान सकेंगे? केवल स्मृति को जगा देने ही से पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।

मैं-मुझे भी वह ज्ञान प्राप्त हो सकता है?

महात्मा-मुझे हो सकता है, तो आपको क्यों न हो सकेगा ! अभी तो आप थके हुए हैं। कुछ भोजन करके स्वस्थ हो जाइए, तो मैं आपको अपनी प्रयोगशाला की सैर कराऊं।

मैं क्या आपकी प्रयोगशाला भी यहीं है?

महात्मा-हां, इसी कमरे से मिली हुई है। आप क्या भोजन करना चाहते हैं?

मैं-उसके लिए आप कोई चिंता न करें। आपका जूठन मैं भी खा लूंगा।

महात्मा-(हंसकर) अभी नहीं खा सकते। अभी तुम्हारी पाचन-शक्ति इतनी बलवान नहीं है। तुम जिन पदार्थों को खाद्य समझते हो, उन्हें मैंने बरसों से नहीं खाया। मेरे लिए उदर को स्थूल वस्तुओं से भरना वैसा ही अवैज्ञानिक है, जैसे इन वायुयान के दिनों में बैलगाड़ी पर चलना। भोजन का उद्देश्य केवल संचालन शक्ति को उत्पन्न करना है। जब वह शक्ति हमें भोजन करने की अपेक्षा कहीं आसानी से मिल सकती है तो उदर को क्यों अनावश्यक वस्तुओं से भरें? वास्तव में आने वाली जाति उदरविहीन होगी।

यह कहकर उन्होंने मुझे थोड़े से फल खिलाए, जिनका स्वाद आज तक याद करता हूँ। भोजन करते ही मेरी आंखें खुल-सी गईं। ऐसे फल न जाने किस बाग में पैदा होते होंगे। यहां की विद्युत्मय वायु ने पहले ही आश्चर्यजनक स्फूर्ति उत्पन्न कर दी थी। यह भोजन करके तो मुझे ऐसा मालूम होने लगा कि मैं आकाश में उड़ सकता हूँ। वह चढ़ाई, जिसे मैं असाध्य समझ रहा था, अब तुच्छ मालूम होती थी।

अब महात्माजी मुझे अपनी प्रयोगशाला की सैर कराने चले। यह एक विशाल गुफा थी, जिसके विस्तार का अनुमान करना कठिन था। उसकी चौड़ाई पांच सौ हाथ से कम न रही होगी। लंबाई उसकी चौगुनी थी। ऊंची इतनी कि हमारे ऊंचे-ऊंचे मीनार भी उसके पेट में समा सकते थे। बौद्ध मूर्तिकारों की अद्भुत चित्रकला यहां भी विद्यमान थी। यह पुराने समय का कोई विहार था। महात्माजी ने उसे प्रयोगशाला बना लिया था।

प्रयोगशाला में कदम रखते ही मैं एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच गया। जेनेवा नगर आंखों के सामने था और एक भवन में राष्ट्रों के मंत्री बैठे हुए किसी राजनीतिक विषय पर बहस कर रहे थे। उनकी आंखों के इशारे, ओठों का हिलना और हाथों का उठना साफ दिखाई देता था। उनके मुख से निकला हुआ एक-एक शब्द साफ-साफ कानों में आता था। एक क्षण के लिए मैं धोखे में आ गया कि जेनेवा ही में बैठा हूँ। जरा और आगे बढ़ा तो संगीत की ध्वनि कानों में आई। मैंने यूरोप में यह आवाज सुनी थी। पहचान गया, पैड्रोस्की की आवाज थी। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। जिन आविष्कारों का बड़े-बड़े विद्वानों को आभास मात्र था, वे सब यहां अपने समुन्नत, पूर्ण रूप में दिखाई दे रहे थे। इस निर्जन स्थान में, आबादी से कोसों दूर, इतनी ऊंचाई पर कैसे इन प्रयोगों में सफलता हुई, ईश्वर ही जान सकते हैं। महात्मा लोग तो योग की क्रियाओं ही में कुशल होते हैं। अध्यात्म उनका क्षेत्र है। विज्ञान पर उन्होंने कैसे आधिपत्य जमाया !

महात्माजी मेरी ओर देखकर मुस्कराए और बोले-विज्ञान अंत:करण को भी गुप्त नहीं छोड़ता। तुम्हें इन बातों से आश्चर्य हो रहा है, पर यथार्थ यह है कि विज्ञान ने योग को बहुत सरल कर दिया है। वह बहिर्जगत् से अब धीरे-धीरे अंतर्जगत् में प्रवेश कर रहा है। मनोयोग की जटिल क्रियाओं द्वारा जो सिद्धि बरसों में प्राप्त होती थी, वह अब क्षणों में हो जाती है। कदाचित् वह समय दूर नहीं कि हम विज्ञान द्वारा मोक्ष भी प्राप्त कर सकेंगे।

मैंने पूछा-क्या पूर्व समय का ज्ञान भी किसी प्रयोग द्वारा हो सकता है?

महात्मा-हो सकता है, लेकिन उससे किसी उपकार की आशा नहीं। विज्ञान अगर प्राणियों का उपकार न करे, तो उसका मिट जाना ही अच्छा। केवल जिज्ञासा को शांत करने, विलास में योग देने, या यथार्थ की सहायता करने के लिए योग करना उसका दुरुपयोग करना है। मैं चाहूँ तो अभी एक क्षण में यूरोप के बड़े-से-बड़े नगर को नष्ट-भ्रष्ट कर दूं, लेकिन विज्ञान प्राण-रक्षा के लिए है, वध करने के लिए नहीं।

मुझे निराशा तो हुई, पर आग्रह न कर सका। शाम तक प्रयोगशाला के यंत्रों को देखता रहा। किंतु उनमें अब मन न लगता था। यही धुन सवार थी कि क्योंकर यह दुस्तर कार्य सिद्ध करूं। आखिर उन्हें किसी तरह पसीजते न देखकर मैंने उसी, हिकमत से काम लिया, जो निरुपायों का आधार है। बोला-भगवन्, आपने वह सब कर दिखाया जिसका संसार के विज्ञानवेत्ता अभी केवल स्वप्न देख रहे हैं।

महात्माजी पर इन शब्दों का वही असर पड़ा, जो मैं चाहता था। यद्यपि मैंने यथार्थ ही कहा था, लेकिन कभी-कभी यथार्थ भी खुशामद का काम कर जाता है। प्रसन्न होकर बोले-मैं गर्व तो नहीं करता; पर ऐसी प्रयोगशाला संसार में दूसरी नहीं है।

मैं-यूरोपवालों को खबर मिल जाए , तो आपको आराम से बैठना मुश्किल हो जाए । महात्मा-मैंने कितनी ही नई-नई बातें खोज निकालीं, पर उनका गौरव आज दूसरों को प्राप्त है। लेकिन इसकी क्या चिंता ! मैं विज्ञान का उपासक हूँ, अपनी ख्याति और गौरव का नहीं।

मैं-आपने इस देश का मुख उज्ज्वल कर दिया।

महात्मा-मेरा यान आकाश में जितनी ऊंचाई तक पहुँच सकता है, उसकी यूरोपवाले कल्पना भी नहीं कर सकते। मुझे विश्वास है कि शीघ्र ही मेरी चन्द्रलोक की यात्रा सफल होगी। यूरोप के वैज्ञानिकों की तैयारियां देख-देखकर मुझे हंसी आती है। जब तक हमको वहां की प्राकृतिक स्थिति का ज्ञान न हो, हमारी यात्रा सफल नहीं हो सकती। सबसे पहले विचारधाराओं को वहां ले जाना होगा। विद्वान् लोग भी कभी-कभी बालकों की-सी कल्पनाएं करने लगते हैं।

मैं-वह दिन हमारे लिए सौभाग्य और गर्व का होगा।

महात्मा-प्राचीन काल में ऋषिगण योग-बल से त्रिकाल-दृष्टि प्राप्त किया करते थे। पर उसमें बहुधा भ्रम हो जाता था। उसकी सहायता का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न होता था। मैंने वैज्ञानिक परीक्षाओं से उस कार्य को सिद्ध किया है। प्रण तो मैंने यही किया था कि किसी को यह रहस्य न बताऊंगा, लेकिन तुम्हारी तपस्या देखकर दया आ रही है ! मेरे साथ आओ।

मैं महात्माजी के पीछे-पीछे एक ऐसी गुफा में पहुंचा, जहां केवल एक छोटी-सी चौकी रखी हुई थी। महात्माजी ने गंभीर मुख से कहा-तुम्हें यह बात गुप्त रखनी होगी।

मैंने कहा-जैसी आज्ञा।

महात्मा-तुम इसका वचन देते हो?

मैं-आप इसकी किचित् मात्र भी चिंता न करें।

महात्मा-अगर किसी यश और धन के इच्छुक को यह खबर मिल गई, तो वह संसार में एक महान् क्रांति उपस्थित कर देगा और कदाचित् मुझे प्राणों से हाथ धोना पड़े। मैं मर जाऊंगा, किंतु इस गुप्त ज्ञान का प्रचार न करूंगा। तुम इस चौकी पर लेट जाओ और आंखें बंद कर लो।

चौकी पर लेटते ही मेरी आंखें झपक गईं और पूर्व जन्म के दृश्य आंखों के सामने आ गए। हां प्रिये, मेरा अतीत जीवित हो गया। यही भवन था; यही माता-पिता थे, जिनकी तसवीरें दीवानखाने में लगी हुई हैं। मैं लड़कों के साथ बाग में गेंद खेल रहा था। फिर दूसरा दृश्य सामने आया। मैं गुरु की सेवा में बैठा हुआ पढ़ रहा था। यह वही गुरुजी थे, जिनकी तसवीर तुम्हारे कमरे में है, एक तिल का भी अंतर नहीं है। इसके बाद युवावस्था का दृश्य आया। मैं तुम्हारे साथ एक नौका पर बैठा हुआ नदी में जल-क्रीड़ा कर रहा था। याद है वह दृश्य, जब हवा वेग से चलने लगी थी और तुम डर कर मेरे हृदय से चिपट गई थीं।

देवप्रिया-खूब याद है, प्राणेश! खूब याद है।

राजकुमार-वह दृश्य याद है, जब मैं लता-कुंज में घास पर बैठा हुआ तुम्हें पुष्पाभषणों से अलंकृत कर रहा था?

देवप्रिया-हां प्राणनाथ ! खूब याद है। यही तो स्थान है।

राजकुमार-पांचवां दृश्य वह था, जब मैं मृत्यु-शय्या पर पड़ा हुआ था। माता-पिता सिरहाने खड़े थे और तुम मेरे पैरों पर सिर रखे रो रही थीं! याद है?

देवप्रिया-हाय प्राणनाथ ! वह दिन भूल सकती हूँ?

राजकुमार-एक क्षण में मेरी आंखें खुल गईं। पर जो कुछ देखा था, वह सब आंखों में फिर

रहा था, मानो बचपन की बातें हों। मैंने महात्मा से पूछा-मेरे माता-पिता जीवित हैं? उन्होंने एक क्षण आंखें बंद करके सोचने के बाद कहा-उनका देहावसान हो गया है। तुम्हारे शोक में दोनों घुल-घुलकर मर गए।

मैं-और मेरी स्त्री?

महात्मा-वह अभी जीवित है।

मैं-किस नगर में है?

महात्मा-काशी के समीप जगदीशपुर में। किंतु तुम्हारा वहां जाना उचित नहीं, यह ईश्वरी इच्छा के विरुद्ध होगा और संस्कारों के क्रम को पलटना अनिष्ट का मूल है।

मैंने उस समय तो कुछ न कहा, पर उसी क्षण मैंने तुमसे मिलने का दृढ़ संकल्प कर लिया। मुझे अब वहां एक-एक क्षण एक-एक युग हो गया। दो दिन तो मैं किसी तरह रहा, तीसरे दिन मैंने महात्माजी से विदा होकर प्रस्थान कर दिया। महात्माजी बड़े प्रेम से मुझसे गले मिले और चलते-चलते ऐसी क्रिया बतलाई, जिसके द्वारा हम अपनी आयु और बल को इच्छानुसार बढ़ा सकते हैं। तब मुझे गले से लगाकर एक यान पर बैठा दिया। यान मुझे हरिद्वार पहुंचाकर आप-ही-आप लौट गया। यह उनके यानों की विशेषता है। हरिद्वार से मैं सीधा हर्षपुर पहुंचा और एक सप्ताह तक माता-पिता की सेवा में रहकर यहां आ पहुंचा। तुसमे मिलने के पहले मैं कई बार इधर निकला। यहां की हर एक वस्तु मेरी जानी-पहचानी मालूम होती थी। दो-चार पुराने दोस्त भी दिखलाई दिए; पर उनसे मैं बोला नहीं। एक दिन जगदीशपुर की सैर भी कर आया। ऐसा मालूम होता था कि मेरी बाल्यावस्था वहीं गुजरी हो। तुमसे मिलने के पहले कई दिन गहरी चिंता में पड़ा रहा। एक विचित्र शंका होती थी। अकस्मात् तुमसे पार्क में मुलाकात हो गई। कह नहीं सकता, तुम्हें देखकर मेरे चित्त की क्या दशा हुई। ऐसा जी चाहता था, दौड़कर हृदय से लगा लूं। महात्मा के अंतिम शब्द भूल गए और मैं वहां तुमसे मिल गया।

देवप्रिया ने रोते हुए कहा-प्राणनाथ, आपके दर्शन पाते ही मेरा हृदय गद्गद हो गया। ऐसा मालूम हुआ, मानो आपसे मेरा पुराना परिचय है, मानो मैंने आपको कहीं देखा है। आपने एक दृष्टि में मेरे मन के उन भावों को जागृत कर दिया, जिन्हें मेरी विलासिता ने कुचल-कुचलकर शिथिल कर दिया था स्वामी ! मैं आपके चरणों को स्पर्श करने योग्य नहीं हूँ। लेकिन जब तक जीऊंगी, तब तक आपकी स्मृति को हृदय में संचित रखूगी।

राजकुमार-प्रिये, तुम्हें मालूम है, विवाह का संबंध देह से नहीं, आत्मा से है। क्या आत्मा अनंत और अमर नहीं?

देवप्रिया ने इसका कोई उत्तर न दिया। प्रश्नसूचक नेत्रों से राजकुमार की ओर ताकने लगी।

राजकुमार-तो अब तुम्हें मेरे साथ चलने में कोई आपत्ति नहीं है?

देवप्रिया ने रुंधे हुए कंठ से कहा-प्राणनाथ, आप मुझसे यह प्रश्न क्यों करते हैं? आप मेरा उद्धार कर रहे हैं, आपको छोड़कर और किसकी शरण जाऊंगी? अब तो मुझे आप मार-मारकर भी भगाएं, तो आपका दामन न छोडूंगी। आह स्वामी! यह शुभ अवसर जीते-जी मिलेगा, इसकी तो स्वप्न में भी आशा न थी। मेरा सौभाग्य सूर्य इतने दिनों के बाद फिर उदय होगा, यह तो कदाचित् मेरे देवताओं को भी न मालूम होगा। न जाने किसके पुण्य-प्रताप से मुझे यह दिन देखना नसीब हुआ है। कौन स्त्री इतनी सौभाग्यवती हुई है? आपको पाकर मैं सब कुछ पा गई। अब मुझे किसी बात की अभिलाषा नहीं रही। आपकी चेरी हूँ-वही चेरी, जो एक बार आपके ऊपर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुकी है।

राजकुमार ने रानी को कंठ से लगाकर कहा-यह हमारा पुनर्संयोग है!

देवप्रिया-नहीं प्राणनाथ, मैं इसे प्रेम-मिलन समझती हूँ।

यह कहते-कहते रानी चुप हो गई। उसे याद आ गया कि मुझ जैसी वृद्धा ऐसे देवरूप पुरुष के योग्य नहीं है। अभी दया के वशीभूत होकर यह मेरा उद्धार कर देंगे, पर दया कब तक प्रेम का पार्ट खेलेगी? संभव है, इनकी दया-दृष्टि मुझ पर सदैव बनी रहे, लेकिन मैं रनिवास की युवतियों को कौन मुंह दिखाऊंगी, जनता के सामने कैसे निकलूंगी? उस दशा में तो दया मेरी रक्षा न कर सकेगी। यह अवस्था तो असह्य हो जाएगी।

राजकुमार ने उसके मनोभावों को ताडकर कहा-प्रिये, तुम्हारे मन में शंकाओं का उठना स्वाभाविक है, लेकिन उन्हें निकाल डालो। मैं विलास का दास होता, तो तुम्हारे पास आता ही नहीं ! मेरे चित्त की वृत्ति वासना की ओर नहीं है। मैं रूप-सौंदर्य का मूल्य जानता हूँ और उनका मुझ पर कोई आकर्षण नहीं हो सकता। मेरे लिए तो तुम इस रूप में भी उतनी ही प्रिय हो। हां, तुम्हारे संतोष के लिए मुझे वह क्रियाएं करनी पड़ेंगी, जो महात्माजी ने चलते-चलते बताई थीं। जिसके द्वारा मैंने मायान्धकार पर विजय पाई, उसके द्वारा काल की गति को भी पलट सकूँगा। मुझे पूरा विश्वास है कि मुरझाया हुआ फूल एक बार फिर हरा हो जाएगा वही छवि, वही सौरभ, वही कोमलता फिर इसकी बलाएं लेंगी। लेकिन तुम्हें भी मेरे लिए बड़े-बड़े त्याग करने पड़ेंगे। संभव है, तुम्हें राजभवन के बदले किसी वन में वृक्षों के नीचे रहना पड़े, रत्न-जटित आभूषणों के बदले वन्य पुष्पों पर ही संतोष करना पड़े। क्या तुम उन कष्टों को सह सकोगी?

देवप्रिया-आपको पाकर अब मुझे किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं रही। विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है। जिसे सच्चा सुख मयस्सर हो, वह विलास की तृष्णा क्यों करे?

रानी मुंह से तो ये बातें कह रही थीं, किंतु इस विचार से उनका चित्त प्रफुल्लित हो रहा था कि मेरा यौवन-पुष्प फिर खिलेगा और सौंदर्य दीपक फिर जलेगा।

राजकुमार-तो अब मैं जा रहा हूँ। कल संध्या समय फिर आऊंगा। इसी बीच में तुम यात्रा की तैयारी कर लेना।

देवप्रिया ने राजकुमार का हाथ पकड़कर कहा-मैं आपके साथ चलूंगी। मुझे न जाने कैसी शंकाएं हो रही हैं। मैं अब एक क्षण के लिए भी आपको न छोडूंगी।

राजकुमार-यों चलने से लोगों के मन में भांति-भांति की शंकाएं होंगी। मेरे पुनर्जन्म का किसी को विश्वास न आएगा; लोग समझेंगे कि ऐब को छिपाने के लिए यह कथा गढ़ ली गई है, केवल कुत्सित प्रेम को छिपाने के लिए यह कौशल किया गया है। इसलिए तुम किसी तीर्थयात्रा….

रानी ने बात काटकर कहा-मुझे अब लोकनिंदा का भय नहीं है। मैं यह कहने को तैयार हूँ कि अपने प्राणपति के साथ जा रही हूँ।

राजकुमार ने मुस्कराकर कहा-अगर मैं तुमसे दगा करूं, तो?

रानी ने भयातुर होकर कहा-प्राणनाथ, ऐसी बातें न करो। मैं अपने को तुम्हारे चरणों पर अर्पण कर चुकी, लेकिन कुसंस्कारों से मुक्त नहीं हूँ। यदि कोई आदमी कभी आकर मुझसे कहे कि इन्द्रजाल का खेल कर रहे हैं, तो मैं नहीं कह सकती कि मेरी क्या दशा होगी। अलौकिक बातों को समझने के लिए अलौकिक बुद्धि चाहिए और मैं इससे वंचित हूँ। मैं निष्कपट भाव से अपने मन की दुर्बलताएं प्रकट कर रही हूँ। मुझे क्षमा कीजिएगा। अभी बहुत दिन गुजरेंगे, जब मैं इस स्वप्न को यथार्थ समझूगी। इस स्वप्न को भंग न कीजिए। इस वक्त यहीं आराम कीजिए, रात बहुत बीत गई है। मैं तब तक कुंवर विशालसिंह को सूचना दे दूं कि वह आकर अपना राज्य संभालें। कल मैं प्रात:काल आपके साथ चलने को तैयार हो जाऊंगी।

यह कहकर रानी ने राजकुमार के लिए भोजन लाने की आज्ञा दी। जब वह भोजन करने लगे, तो आप ही खड़ी होकर उन्हें पंखा झलने लगी! ऐसा स्वर्गीय आनंद उसे प्राप्त न हुआ था। उसके मर्मस्थल में प्रेम और उल्लास की तरंगें उठ रही थीं; जी चाहता था कि इसी क्षण इनके चरणों पर गिरकर प्राण त्याग दूं।

कुंवर साहब लेटने गए, तो रानी ने विशालसिंह के नाम पत्र लिखा :

‘कुंवर विशालसिंहजी,

इतने दिनों तक मायाजाल में फंसे रहने के बाद मेरा चित्त संसार से विरक्त हो गया है। मैं तीर्थयात्रा करने जा रही हूँ और शायद फिर न लौटूंगी। किसी तीर्थस्थान में ही अपने जीवन के शेष दिन काटूंगी। आपको उचित है कि आकर अपने राज्य का भार संभालें। मुझे खेद है कि मेरे कारण आपको बड़े-बड़े कष्ट भोगने पड़े। आपने मेरे साथ जो अनीति की, उसे भी मैं क्षमा करती हूँ। मायान्ध होकर हम सभी ऐसा करते हैं। मेरी आपसे इतनी ही प्रार्थना है कि मेरी लौंडियों और सेवकों पर दया कीजिएगा। मैं अपने साथ कोई चीज नहीं ले जा रही हूँ। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह आपको सद्बुद्धि दे और आपकी कीर्ति देश-देशांतरों में फैलाए ! मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरे लिए इससे बढ़कर आनंद की और कोई बात न होगी।

आपकी-देवप्रिया’

यह पत्र लिखकर रानी ने मेज पर रखा ही था कि उन्हें खयाल आया, मैं अपना राज्य क्यों छोडूं? मैं हर्षपुर से भी तो इसकी देखभाल कर सकती हूँ? साल में महीने-दो महीने के लिए यहां आना कौन मुश्किल है? चलकर प्राणनाथ से पूछू, उन्हें इसमें कोई आपत्ति तो न होगी ! वह राजकुमार के कमरे के द्वार तक गईं, पर अंदर कदम न रख सकीं। खयाल आया, समझेंगे अभी तक इसकी तृष्णा बनी हुई है। उल्टे पांव लौट आई।

रात के दो बज गए थे। देवप्रिया यात्रा की तैयारियां कर रही थी। उसके मन में प्रश्न हो रहा था, कौन-कौन-सी चीजें साथ ले जाऊं? पहले वह अपने वस्त्रागार में गई। शीशे की अलमारियों में एक-से-एक अपूर्व वस्त्र चुने हुए रखे थे। इस समूह में से उसने खोजकर अपनी सोहाग की साड़ी निकाल ली, जिसे पहने आज पच्चीस वर्ष हो गए। आज उसकी शोभा और सभी साड़ियों से बढ़ी हुई थी। उसके सामने सभी कपड़े फीके जंचते थे।

फिर वह अपने आभूषणों की कोठरी में गई। इन आभूषणों पर वह जान देती थी। ये उसे अपने राज्य से भी प्रिय थे। लेकिन इस समय इनको छूते हुए उसे ऐसा भय हो रहा था, मानो चोरी कर रही है। उसने बहुत साहस करके रत्नों का वह संदूकचा निकाला, जिस पर इन पच्चीस बरसों में उसने लाखों रुपए खर्च किए थे और उसे अंचल में छिपाए हुए बाहर निकली। इस लोभ को वह संवरण न कर सकी।

वह अपने कमरे में आकर बैठी ही थी कि गुजराती आकर खड़ी हो गई। देवप्रिया ने पूछा-सोई नहीं?

गुजराती-सरकार नहीं सोईं, तो मैं कैसे सोती?

“मैं तो कल तीर्थ यात्रा करने जा रही हूँ?”

“मुझे भी साथ ले चलिएगा ?”

“नहीं, मैं अकेली जाऊंगी ?”

“सरकार लौटेंगी कब तक?”

“कह नहीं सकती। बहुत दिन लगेंगे। बता, तुझे क्या उपहार दूं?”

“मैं तो एक बार मांग चुकी। लूंगी तो वही लूंगी।”

“मैं तुझे नौलखा हार दूंगी।”

“उसकी मुझे इच्छा नहीं।”

“जड़ाऊ कंगन लेगी?”

“जी नहीं!”

“वह रत्न लेगी, जो बड़ी-बड़ी रानियों को भी मयस्सर नहीं?”

“जी नहीं, वह आप ही को शोभा देगा।”

“पागल है क्या! एक रत्न के दाम एक लाख से कम न होंगे!”

“वह आप ही को मुबारक हो!”

रानी ने रत्नों का संदूकचा खोलकर गुजराती के सामने रख दिया और बोली-इनमें से जो चाहे, निकाल ले।

गुजराती ने संदूकचा बंद करके कहा-मुझे इनमें से कोई न चाहिए।

रानी ने एक क्षण सोचने के बाद कहा-अच्छा, जा वही मूर्ति ले ले।

“आप खुशी से दे रही हैं न?”

“हां, खुशी से!”

“भगवान आपका भला करे!”

यह कहकर गुजराती खुश-खुश वहां से चली गई। थोड़ी ही देर के बाद रानी भी रत्नों का संदूकचा लिए हुई उठी और तोशाखाने में जाकर उसे उस स्थान पर रख दिया, जहां से निकाला था। उनका मन एक क्षण के लिए चंचल हो गया, लेकिन उसे धिक्कारती हुई वह जल्दी से अपने कमरे में चली आईं।

सहसा कोयल की कूक सुनाई दी। रानी ने चौंककर द्वार का पर्दा हटा दिया। उसकी स्निग्ध. मधुर, संगीतमय आभा किवाड़ों के शीशों द्वारा कमरे में प्रवेश कर रही थी, मानो किसी नवयौवना के हृदय में प्रेम का उदय हो रहा हो। उसी नवयौवना की भांति देवप्रिया उस अरुण छटा को देखकर सशंक हो उठी।

उसी समय राजकुमार द्वार पर आकर खड़े हो गए।

रानी ने कहा-मैं तैयार हूँ।

राजकुमार-और मेरा जी चाहता है कि यहीं तुम्हारी उपासना में अपना जीवन व्यतीत करूं। मुझे अपने उद्देश्य में जितनी सफलता हुई, उतनी मुझे आशा न थी। इस देश के सिवा ऐसी देवियां और कहाँ, जो इस भांति अपने को आदर्श पर बलिदान कर दें?

आधे घंटे के बाद राजकुमार भी संध्योपासना करके निकले। मोटर तैयार थी। दोनों आदमी उस पर आ बैठे। जब मोटर चली, तब रानी ने उस भवन को करुण नेत्रों से देखा था और एक ठंडी सांस ली। उसके हृदय की वही दशा हो रही थी, जो किसी नववधू की पति के घर जाते समय होती है। शोक और हर्ष, आशा और दुराशा, ममत्व और विराग का एक विचित्र समावेश हो गया था। घर के नौकर-चाकर, सिपाही-प्यादे सभी सजल नेत्र खड़े थे और मोटर चली जा रही थी।

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