चैप्टर 8 रूठी रानी मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

Chapter 8 Ruthi Rani Novel By Munshi Premchand

Chapter 8 Ruthi Rani Novel By Munshi Premchand

Prev | Next | All Chapters

राजपूतों की बहादुरी

शेरशाह ने जब सुना कि हुमायूं साफ बचकर निकल गया तो उसे शक हुई कि राव जी की जरूर उससे सांठ-गांठ है। बिगड़ गया और फौरन मारवाड़ पर चढ़ दौडा़। राव जी अजमेर जाने को तो पहले से ही तैयार थे, अब मेड़ते का रास्ता छोड़कर जेतारन के रास्ते से चले। जोधपुर के फौजदार ने राव जी के हुक्म से कोसाना में जाकर रानी उमा देई के जुलूस का इंतजाम मेड़ते के हाकिम से ले लिया। मेड़ते के हाकिम और आसा जी दोनों ने रुखसत होते वक्त रानी की सरकार से खिलअत पाई। हाकिम मेड़ते को आया, आसा जी जैसलमेर सिधारे। राव जी ने नादिरशाही हुक्म दे दिया था कि तुम आज से हमारे राज में न रहना।

जब राव जी अजमेर पहुँचे, तो शेरशाह ने सुना कि उनके पास अस्सी हजार सवार हैं। सुनते ही सन्नाटे में आ गया। हियाव छूट गया। आगे कदम न उठे मगर बैरम जी मेड़ते ने कहा– ‘‘आप चलें तो सही, मैं राव जी को दम से दम में भगाए देता हूँ। हिन्दुओं की अनबन और फूट ने हमेशा मुल्क वीरान किए हैं और गैरों से हमेशा हारें दिलाई हैं। यह बैरम जी मेड़ते का सरदार और उस बहादुर जयमल का बाप था, जिसने चित्तौड़ के घेरे में अकबर को नाकों चने चबवाए थे और जिसके नाम पर आज तक सारा राजस्थान गर्व करता है। राव जी ने उसे मेड़ते से निकाल दिया। इसी का बदला लेने के लिए वह शेरशाह से जा मिला था।

शेरशाह को बैरम के कहने का यकीन न हुआ, वह फूंक-फूंककर कदम धरता आगे को चला मगर अब अजमेर के बहुत करीब पहुँच गया, तो उसने उनसे कहा कि अब आप अपनी होशियारी दिखाइए। बैरम ने कहा– बहुत खूब ! चुनांचे उसने राव मालदेवजी के सरदारों के नाम फारसी में इस मजमून के फरमान लिखे– ‘‘हम आप साहबों के लगातार तकाजों से मजबूर होकर यहाँ तक आ पहुँचे हैं। अब आप लोग अपने वचन के अनुसार राव जी को गिरफ्तार करके हमारे पास ले आएं। खर्च के लिए फीरोजियाँ भेजी जाती हैं। (फीरोजियाँ फीरोजशाही सिक्कों को कहते थे जो इस जमाने में चलता था।)

इसके बाद बहुत-सी ढालें मंगाकर ये फरमान उनकी गद्दियों में रखकर सी दिए और जिस ढाल में सरदार के नाम का फरमान था, वह उसी सरदार के पास बेचने के लिए भेजा और बेचने वालों को कह दिया कि वह जिस दाम में लें, दे आना, नफे-नुकसान का ख्याल न करना। फिर कई फीरोजियाँ शेरशाही खजाने से लेकर कुछ तो अपने पास रख लीं और बाकी अपने आदमियों के हाथ राव जी से उर्दू बाजार में सजवाकर सस्ते दामों में बिकवा डालीं। इस तरह राव जी के सरदारों ने लड़ाई की जरूरत से ढालें सस्ती महंगी खरीद लीं।

यह कार्रवाई करके रात को बैरम जी राव मालदेव की खिदमत में हाजिर हुआ और अर्ज की कि आपने मेड़त मुझसे छीन लिया और बीकानेर के राव जैसती को मार डाला। लिहाजा अगर हम शेरशाह से मिल जाएं तो यह हमारे लिए बिल्कुल ठीक बात होगी, पर आपके सरदार उससे क्यों मिलने जायें? गालिबन उन्होंन खूब रिश्वत ली है।

राव जी– ‘‘अजी, मुझे तो इसकी खबर नहीं। इसका कोई सबूत भी है?’’

बैरम जी– ‘‘सबूत क्यों नहीं? अपने सरदारों की ढालें तो देखिए। उनकी गद्दियों में बादशाह के फरमान हैं। इसके अलावा लाखों फिरोजियाँ बादशाह से ली गई हैं। क्या बाजार में न बिकी होंगी?’’

बैरम जी यह फुलझड़ी छोड़कर चलता बना, पर राव जी फेर में पड़ गए। आदमी भेजकर फिरोजियों का पता चलाया तो वह सब रईसों के पास निकलीं। उनसे पूछा तो जवाब मिला कि अपने ही आदमी बेच गए हैं। दूसरे दिन जब वह सरदार मुजरे को आए तो राव जी ने उनके पास नई-नई ढालें देखकर कहा, यह कहां से आयीं? जवाब मिला कि व्यापारियों से खरीदी गई हैं।

राव जी ने देखने के बहाने से सब ढाले रख लीं। दरबार बर्खास्त हो जाने के बाद उन्हें चिरवाकर देखा, तो वही फरमान मिले जिनका जिक्र बैरम जी ने किया था। मुंशी बुलवाकर पढ़वाया, तो मजमून भी वही निकला। अब पक्का यकीन हो गया कि सरदार लोग उन्हें जरूर दगा देंगे। इसमें शक नहीं कि बैरम की चाल काम कर गयी, मगर उसका कारण यह नहीं था। चाल खुद अच्छी थी बल्कि इसलिए कि राव जी को अपने सरदारों पर पहले से कुछ संदेह था। अगर ऐसा न होता तो वह कुल सरदारों की ढालों में ही यह फरमान छिपाते, क्या उन्हें और कोई जगह न मिलती थी ! और फिर सबके नई-नई ढालें खरीदते। यह बारीकियाँ राव जी की अक्ल में न आयीं। कुमार राम से तो पहले ही नाराज हो रहे थे, अब सरदारों पर से भी ऐतबार जाता रहा। उसी दम हुक्म दिया कि फौज यहाँ से कूच करे।

इस हुक्म ने तमाम फौज में खलबली मचा दी। पुरजोश राजपूत अपने-अपने अरमान निकालने की तैयारियां कर रहे थे। कोई तलवार साफ कर रहा था, कोई तीर-कमान का अभ्यास कर रहा था, कोई वर्दी सम्भाल रहा था। सारी फौज में दूसरे दिन लड़ने की खुशी फैली हुई थी कि यकायक राव जी का यह हुक्म निकला।

सरदारों को फौरन खटका हुआ कि राव जी हमसे नाराज हो गए, वरना जीती-जिताई लड़ाई छोड़कर यों कूच का हुक्म हरगिज न देते। सबके सब जमा होकर राव जी की खिदमत में हाजिर हुए और अर्ज की कि आप हमारी तरफ से दिल में किसी किस्म की बदगुमानी न रखिए। हम मरते दम तक आपका साथ न छोड़ेंगे। हम लड़कर अपनी जान देंगे मगर मैदान में मुँह न मोड़ेंगे, हम शेरशाह सूरी से हरगिज नहीं मिले। जरूर आपको किसी ने धोखे में डाल दिया है। पर राव जी को यकीन न आया और फौज कूच करने की तैयारी करने लगी।

शेरशाह ने दुश्मन को यों मैदान में भागते देखकर बैरम जी और दूसरे साजिशी सरदारों के हिम्मत दिलाने से राव जी का पीछा किया। जब राव जी बाबरा जिला जैतारन के पास सुम्बल नदीं में उतरे, तो उनके सूरमा सरदार जेता और कोंपा ने अर्ज की– ‘‘यहाँ तक जो जमीन हम पीछे छोड़ आए हैं, वह आपकी जीती हुई थी और हमारे कब्जे में थोड़े ही दिनों से थी। मगर अब यहां से आगे हमारे पुरखों की जायदाद है। हम ऐसे कपूत नहीं हैं कि अपने बाप-दादा के मुल्क को यों सहज में छोड़कर चले जायें। आप जाते हैं, खुशी से जाइए, हम तो शेरशाह से यहीं जमकर लड़ेंगे। वह भी तो देखे कि राजपूत जमीन के लिए कैसी बेदर्दी से लड़कर जान देते हैं।’’

राव जी के कहा– ‘‘यहां लड़ना फिजूल है। अब चले हैं तो जोधपुर ही पहुंच कर लड़ेंगे।’’ मगर जेता और कोंपा ने न माना। वे अपने दस हजार जान पर खेलने वाले बहादुर राठौरों को लेकर पलटे और बादशाही फौज पर पिल पड़े और ऐसा जी तोड़कर लड़े कि बादशाह समझा, अब हारा, अब हारा। मगर दस हजार राजपूत पचास हजार आदमियों के मुकाबिले में क्या कर सकते थे। हाँ, उन्होंने उस राजपूती दिलेरी का नमूना दिखा दिया जो फतेहपुर सीकरी. हल्दीघाटी, चित्तौंड़गढ़ के मैदानों में बार-बार जाहिर हो चुकी है और अगरचे सब के सब खेत रहे। मगर अपनी बहादुरी का सिक्का बादशाह के दिल पर जमा गए। शेरशाह ने खुदा को दोहरा शुक्रिया अदा किया और सरदारों से कहा– ‘‘बड़ी खैरियत हुई वरना मुट्ठी-भर बाजरे के लिए हिन्दोस्तान की सल्तनत हाथ से गई थी।’’

दूसरे दिन हार की खबर पाकर राव जी ने सेवाने की तरफ बांग मोड़ी जोधपुर को लिखा कि किले की खूब तैयारी करो और रानियों को हमारे पास भेज दो। रूठी रानी को भी यही पैगाम दे दो। किलेदार ने हुक्म पाते ही सब रानियों को सेवाने भेज दिया। जोधपुर से पश्चिम में तीस कोस की दूरी पर यह जगह है। और खुद किला दुरुस्त करके लड़ने-मरने के लिए तैयार हो बैठा। जो राठौर सरदार राव जी की बदगुमानी से दुःखी होकर अलग हो गए थे, और कुछ वे जो जेता और कोंपा के साथियों में से बच रहे थे, वे सब मिलकर रूठी रानी की खिदमत में हाजिर हो गए। इस तरह रानी के पास जान पर खेलने वालों की एक खासी जमात तैयार हो गयी। रानी ने बावजूद किलेदार के लगातार तकाजों के कोसाने से कूच न किया।

शेरशाह खुद तो न आया, मगर उसने अपने सरदार खवास खां को पांच हजार सिपाहियों के साथ जोधपुर फतेह करने के लिए भेजा। उसने आकर किला घेर लिया। किलेदार उससे कई दिन तक लड़ा, मगर अब किले का सब पानी खर्च हो चुका तो उसने दरवाजा खोल दिया और एक घमासान लड़ाई लड़कर मर गया। किले पर खवास खां का कब्जा हो गया। इस तरह राव जी की बदगुमानी और बुजदिली ने दुश्मनों के हाथ में जबरदस्ती फतेह का झंडा दे दिया।

जेता और कोंपा के मारे जाने के बाद भी राव जी के पास सत्तर हजार सिपाही थे। अगर बजाए सेवाने के जोधपुर आते और सारी ताकत से मुकाबला करते तो यकीन था कि बादशाह की हार होती किन्तु यह नौबत आ गई कि पांच हजार आदमियों ने जोधपुर घेरा डालकर जीत लिया। राजपूतों ने जहां असीम वीरता दिखाई है वहां बहुत बार रणनीति के अपने अज्ञान का सबूत भी दिया है।

खवास खां ने किले पर अपना कब्जा जमाकर फौज का एक हिस्सा बीकानेर को रवाना कर दिया वह राव जैसती के लड़के कल्यानमल को गद्दी पर बिठा दे। इसी तरह बैरम जी के साथ भी थोड़ी-सी फौज मेड़ता फतेह करने के लिए भेजी।

इतने में खवास खां को खबर मिली के राठौर कोसाने में जमा हो रहे हैं। वह फौरन वहाँ पहुँचा और रूठी रानी को कहलाया कि या तो हमसे लड़ो या जगह खाली कर दो। रानी ने जवाब दिया कि मैं लड़ने को तैयार हूँ, तेरा जब भी जी चाहे आ जा। मैं औरत हूँ, तो क्या मगर राजपूत की बेटी हूँ।

खवास खां ने अपने सरदारों से सलाह ली कि अब क्या करना चाहिए।

उन्होंने कहा– ‘अभी थोड़े से राजपूतों ने बादशाह से लड़कर आफत मचा दी थी।

उसके साथ राजा भी न था। अगर वह होता तो नहीं मालूम क्या गजब हो जाता। अब फिर उन्हीं से खामखाह झगड़ा मोल लेने की क्या जरूरत है? यह ठीक है कि राजा यहां नहीं है, मगर रानी तो है। उसके सरदार अपनी रानी की इज्जत बचाने के लिए जी तोड़कर लड़ेंगे, और रानी खुद भी दबने वाली नहीं नजर आती।’’ खवास खां ने कहा– ‘‘यह तो ठीक है मगर यहां से बिना लड़े जाऊंगा तो लोग कहेंगे कि मर्द होकर औरत के सामने से भाग गया।’’ सरदारों ने जवाब दिया कि औरत से न लड़ने में इतनी जिल्लत नहीं जितनी उससे हार जाने में आखिरकार यह फैसला हुआ कि इस मामले में बादशाह की राय की गुजारिश की जाए।

बादशाह उस वक्त अजमेर में था और राणा उदयसिंह पर चढ़ाई करने की फिक्र में था। खवास खां की अर्जी पहुँचते ही उसने जवाब दिया कि अब इन भिडों के छत्ते को न छेड़ो। जो मुल्क कब्जे में आ गया है उसी को गनीमत समझो। हां, अगर वह खुद लड़ने आए तो मैदान से न हटो। हां, उसके पास कहला भेजा कि जहां मेरा लश्कर पड़ा है, हुक्म हो तो वहां एक गांव बसाकर चला जाऊं ताकि आपके मुल्क पर मेरा भी कुछ निशान रह जाए।

रानी ने फरमाया– ‘‘नाम नेकी से रहता है, गांव बसाने से नहीं। इस वक्त तू जोधपुर का हाकिम है, अगर तू रियाया के साथ बर्ताव करेगा, उसे आराम-चैन में रखेगा, तो आप तेरी यादगार बना देंगे।’’

खवास खां ने गुजारिश की– ‘‘खुदा आपकी जबान मुबारक करें। मैं जो अपने हाथ से कर जाऊं वही अच्छा है, फिर नहीं मालूम, यहाँ मेरा रहना हो या न हो।’’

रानी ने अपने सरदारों से मशविरा किया। उन्होंने कहा– ‘‘क्या नुकसान है अपने देश में एक और गांव बढ़ जाएगा।’’ चुनांचे रानी ने खवास खां की दरख्वास्त मंजूर कर ली और वह नेक मर्द खवासपुर संवत् १६०० में वहाँ से चल दिया।

Prev | Next | All Chapters

Read Munshi Premchand Novels In Hindi :

प्रेमा  मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

प्रतिज्ञा मुंशीप्रेमचंद का उपन्यास

गबन मुंशीप्रेमचंद का उपन्यास

Leave a Comment