चैप्टर 8 प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 8 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel

चैप्टर 8 प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास Chapter 8 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel, Gulshan Nanda Ka Upanyas 

 Chapter 8 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel

Chapter 8 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel

उमेश को बाबूजी का यह दृष्टिकोण अच्छा नहीं लगा। वह अपने छोटे बेटे को बड़े से अधिक महत्व केवल इसलिए दे रहे थे कि वह पढ़ा लिखा था। अप्रसन्न भाव से मन ही मन कुढ़ते हुए वह बोला, ” व्यापार में शिक्षा से अधिक अनुभव काम आता है बाबूजी!”

“अनुभव कोई मां के पेट से लेकर नहीं आता।” बाप से छोटे बेटे की बेइज्जती सहन न हो सकी, ” अनुभव तो काम करने से आता है। राकेश भी यदि महीना भर काम कर लगा, तो दावे से कह सकता हूं कि वह सारे ऊंच-नीच समझ जाएगा। तुम्हारी भांति एक बात का अनुभव प्राप्त करने के लिए वर्षों नहीं लगाएगा।”

उमेश खिसियाना सा होकर रह गया और सामने की ओर देखने लगा। सहसा उसकी दृष्टि सामने फाटक पर पड़ी। वहां से सेठ मंगलचंद अभी-अभी भीतर आकर उनकी ओर बढ़ रहा था। सेठ मंगलचंद को देखते ही उमेश उठ कर खड़ा हो गया। रघुनाथ जी सीधे होकर बैठ गए और उमा के चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई। वह सोच रहे थे कि इतनी सवेरे ही इसके आने का उद्देश्य क्या हो सकता है।”

सेठ मंगलचंद रघुनाथ जी के व्यापार में भागीदार था। पूंजी में अधिकांश भाग उसी का था। भारी-भरकम शरीर, आगे को निकली हुई तोंद, नाटा कद और गोल मटोल चेहरा, जो धोखे और चतुराई में पलकर कठोर हो गया था और उसकी काया भी। उसने टसर का कुर्ता और सफेद मन की धोती पहन रखी थी। मोटी भद्दी गर्दन में सोने की जंजीर, सिर पर काली टोपी और पांव में चमकते हुए पंप शूज, उंगलियों में मोटे नगीने की अंगूठियां। चाल ढाल, वेशभूषा से ही वह सफल व्यापारी प्रतीत होता था।

सेठ मंगलचंद ने आते ही रघुनाथ जी को गले लगा लिया और राकेश की सफलता पर हार्दिक बधाई दी। यह जानकर कि इस समय उनके आने का उद्देश्य केवल बधाई ही देना था, रघुनाथ जी और उमेश के चेहरे की रंगत लौट आई। उमा ने मिठाई की प्लेट आगे की, किंतु डायबिटीज का रोगी होने के कारण उसने सविनय इंकार कर दिया।

“यह कैसे हो सकता है, आप बधाई दें और मुंह भी मीठा ना करें।” रघुनाथ जी ने स्वयं प्लेट थाम कर उसकी ओर बढ़ाते हुए अनुरोध किया। मंगलचंद ने एक बर्फी का टुकड़ा उठाकर मुंह में डाल लिया और चाय का घूंट भरते हुए बोला, “राकेश ने बड़ी शानदार सफलता प्राप्त की। भगवान उसकी सहायता करें। बड़ा होनहार लड़का है।”

सेठ मंगलचंद के मुख से राकेश की प्रशंसा सुनकर रघुनाथ जी के पीले मुख पर क्षण भर के लिए लालिमा दौड़ गई…गर्व से उनका सिर ऊंचा हो गया। छाती फुलाकर बोले, “सेठ जी! यह भी मनुष्य का सौभाग्य होता है कि उसकी संतान सुयोग्य और बुद्धिमान हो। मुझे अपने दोनों बेटों पर गर्व है। सच तो यह है कि मैं इन्हीं दोनों के कारण जीवित हूं। वरना आप तो जानते है कि यह भयानक लोग मुझे कभी का ले बैठता।”

“आपने ठीक कहा। अच्छी संतान आदमी की सबसे बड़ी पूंजी होती है।”

उमा और चाय लाने के लिए भीतर चली गई। उमेश सेठ मंगलचंद से दृष्टि मिलाता हुआ उसके समीप आ गया। सेठ ने उसे ध्यानपूर्वक देखा और मुड़कर रघुनाथ जी से बोला, “राकेश के विषय में अब आपने क्या सोचा है?”

” व्यापार में अपने भाई की सहायता करेगा। मैं पूरे काम की देखभाल उसी को सौंपना चाहता हूं।”

“पर मैं इस बात में आपसे सहमत नहीं हूं।”

“क्यों?”

“वह बहुत ही प्रतिभाशाली लड़का है। मेरे विचार से उसकी भलाई इसी में है कि उसे उच्च शिक्षा क्यों न दी जाए। उसे तो विदेश में जाकर किसी विषय में डॉक्टरेट करनी चाहिए।”

“कहते तो आप ठीक है मंगल चंद जी। लेकिन दाई से पेट का छुपाना। आप तो जानते हैं कि इस बीमारी ने मुझे कहीं का न रखा। आप जैसे मित्रों का सहयोग न होता, तो न जाने मेरी क्या दशा होती।” कहते-कहते रघुनाथ जी की आंखें भीग आई।

सेठ मंगल चंद ने उनकी आंखों में तैरते आंसू देख लिए थे। सहानुभूति पूर्ण दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए वह उनसे बोला, ” आप चिंता ना करें रघुनाथ जी! राकेश को इंजीनियरिंग के लिए अमेरिका या जर्मनी भिजवा दें। चार-पांच वर्ष बाद जब वह इंजीनियर बनकर लौटेगा, तो आपके व्यवसाय को चार चांद लगा देगा। तब आपको दूसरे के आश्रय की आवश्यकता नहीं होगी।”

“किंतु यह सुबह के सपने तो बहुत मूल्यवान है मित्र और यह बूढ़ी हड्डियां अब इनका मूल्य नहीं चुका सकती।”

“खर्चे की आप न सोचें। उस पर जो भी खर्च होगा, मैं करूंगा। राकेश की भलाई के लिए कुछ भी करने में मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।”

“नहीं मंगलचंद जी! मैं पहले ही आपके उपकारों तले दबा हुआ हूं।”

“तो एक बात कहूं।” सेठ मंगलचंद ने क्षण भर के लिए अर्थपूर्ण दृष्टि से उमेश को देखा और बोला, ” यदि आप चाहें, तो इस प्रकार को चुका सकते हैं।”

“कैसे?” रघुनाथ जी कुछ चौंके।

“मुझ पर उपकार करके..”

” मैं समझा नहीं मंगलचंद।”

” मेरी बेटी रीता को अपनी बहू बना कर रघुनाथजी। दोनों का यह संबंध हमारी मित्रता को सदा के लिए जीवित रख सकता है।”

रघुनाथ जी मंगलचंद के इस प्रस्ताव पर आश्चर्यचकित रह गए। उन्हें लगा कि वास्तव में मंगलचंद की योजना उनकी मित्रता को एक नया और अनोखा रूप दे देगी। वह तत्काल कोई उत्तर न दे पाए और सोच में पड़ गए, किंतु उमेश झट बोला, ” यह तो हमारा सौभाग्य होगा सेठ जी! बाबू जी को इससे अधिक प्रसन्नता और क्या होगी?”

 इतने में उमा भीतर से और चाय लेकर आई। उसने सेठ मंगलचंद का यह प्रस्ताव सुन लिया था और कुछ दुविधा में पड़ गई थी। रघुनाथ जी के चेहरे से भी प्रतीत होता था, जैसे वह गंभीर सोचो के चक्कर में पड़ गए हैं। उमा ने मिठाई की प्लेट फिर मंगल चंद के आगे सरका दी और उनके लिए चाय बनाने लगी।

रघुनाथ जी को मौन देखकर मंगलचंद ने कहा, ” मेरा तो यह केवल सुझाव मात्र था रघुनाथ जी। इसकी ऊंच-नीच परखना आपका काम है। वैसे यह हम दोनों की भलाई के लिए है।” मंगल चंद ने चाय का प्याला होठों से लगा लिया।

 रघुनाथ जी झिझकते हुए बोले, “आपका सुझाव तो बहुत अच्छा है, किंतु आजकल लड़कों को तो आप जानते हैं। वे इन मामलों में अपनी मनमानी करते हैं। मां-बाप के चुनाव से सहमत भी हो सकते हैं, असहमत भी। इस विषय में मुझे राकेश से पूछना होगा। उसका विचार कुछ और ही है।”

“इसलिए तो मैं उसे चाहता हूं। मुझे वे नौजवान अच्छे लगते हैं, जिनका अपना अस्तित्व अलग होता है। ऐसे युवक सफल रहते हैं और जो दूसरे के कंधे पर सिर झुका लेते हैं, हर पग पर असफलता का मुंह देखते हैं। मैंने अपना सुझाव आपको दे दिया, आप सोच विचार के बाद उत्तर दे सकते हैं।”

शेष चाय को एक ही घूंट के गले से उतारकर सेठ मंगलचंद उठ खड़ा हुआ। उमेश उसे फाटक तक छोड़ने चला गया।

उमा चाय के बर्तन समेटने लगी। वहीं तिरछी दृष्टि से बाबूजी के चेहरे के भावों का उतार-चढ़ाव देख रही थी। रघुनाथ जी ने उसे संबोधित करते हुए कहा, ” तुम्हारा क्या विचार है बहू?”

” किस विषय में?”

” मंगलचंद के प्रस्ताव के विषय में। वह हमारा समधी बनना चाहता है।”

“यह तो हमारा सौभाग्य है बाबूजी। किंतु रीता जैसी लड़की को राकेश पसंद करेगा या नहीं, यह कहना कठिन है।”

इतने मैं उमेश सेठ मंगलचंद को विदा कर के लौट आया। उसने पत्नी के अंतिम शब्द सुन लिए और बोला, “इसमें सौभाग्य ही समझिए बाबू जी कि सेठ मंगलचंद ने मुंह चढ़कर हमारा लड़का मांगा है। शायद इस संबंध दे ही हमारी बरसों की कठिनाइयां दूर हो जाए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा सर्वस्व मंगलचंद के पास गिरवी है। हमारा इंकार किसी भी समय उसके विचारों और सहानुभूति को बदल सकता है।”

“क्या आप अपने भाई का सौदा करना चाहते हैं?”

” नहीं, उसके और इस घराने के भविष्य को संवारने का अवसर हाथ से नहीं खोना चाहता और फिर रीता में ऐसी कौन सी कमी है कि राकेश इंकार कर देगा।”

“धन ही तो सबसे बड़ा गुण नहीं, जिससे कि उसे देखते ही पसंद किया जा सके।”

“धन ही तो सबसे बड़ा गुण है और फिर यह आवश्यक भी नहीं कि बच्चों के जीवन का फैसला उन्हीं के हाथों में छोड़ दिया जाए। राकेश का भला बुरा हमें सोचना चाहिए।”

रघुनाथ जी वाद विवाद सुनते रहे, फिर बहू का पक्ष लेते हुए बोले, ” राकेश की सहमति के बिना तो कोई निर्णय नहीं किया जा सकता।”

उमा ने एक मुस्कान पति की ओर फेंकी और चाय के बर्तन उठाकर भीतर चली गई। उमेश ने झुंझलाकर कहा, ” पर बाबूजी! आप लोग अंधेरे में दौड़ रहे हैं और यह नहीं सोचते कि दीवार से टकराकर सिर फट सकता है। मेरी समझ में तो इस विषय में राकेश के इंकार की हमें परवाह ही नहीं करनी चाहिए। इस संबंध के लिए किसी प्रकार भी हमें उसे विवश कर देना चाहिए। इसी में हमारे परिवार की भलाई है। हम बर्बादी और बदनामी से बच सकते हैं।”

“एक बर्बादी से बचने के लिए हमें दूसरी बर्बादी का सामना करना पड़ेगा। राकेश हमसे बिछड़ जाएगा।” रघुनाथ जी ने धीरे से कहा।

“आप यह क्यों भूल रहे हैं कि नख से मांस कभी अलग नहीं हो सकता। हमसे अलग होकर भी राकेश हमारा ही रहेगा। वह अवश्य ही परिवार की भलाई को ध्यान में रखेगा।,x उमेश ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा।

“किंतु अपने जीवन में घुन लगाकर। उमेश तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि सेठ मंगलचंद प्रथम कोटि का स्वार्थी है। इस संबंध का सहारा लेकर कहीं वह सदा सदा के लिए हमसे हमारे बेटे को न छीन ले।”

“यह आपका भ्रम है बाबूजी ! कोई भी अपनी बेटी देकर शत्रुता मोल नहीं लेता। मुझे विश्वास है कि इस संबंध के बाद वह हमारी उन्नति को अपनी उन्नति समझेगा और फिर आपको राकेश पर भी कुछ विश्वास होना चाहिए।”

रघुनाथजी ने कोई उत्तर न दिया। उमेश के इस उतावलेपन पर उन्हें कुछ संदेह होने लगा। वह क्यों उनके दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न नहीं कर रहा था। वह चुपचाप समाचार पत्र उठाकर पढ़ने लगे। उमेश झुंझलाया सा कमरे से बाहर निकल गया। 

रघुनाथ जी ने समाचार पत्र नीचे रखकर उसे जाते हुए देखा। उनके चेहरे की झुर्रियां और गहरी हो गई और फिर उनकी पलकों से दो आंसू टपककर उनकी झुर्रियों में खो गए।

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