चैप्टर 7 प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 7 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel

चैप्टर 7 प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 7 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel, Gulshan Nanda Ka Upanyas 

Chapter 7 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel

Chapter 7 Pyasa Sawan Gulshan Nanda Novel

राकेश ने सहसा वायलिन के तारों पर से कमान उठा ली। धुन समाप्त हो गई। अर्चना स्वपन में खोई सी जागी, तो उसने देखा फ्राई पैन में मछलियां जल कर काली हो चुकी थी और वातावरण में जली मछलियों का धुआं तथा दुर्गंध भर गई थी।

“सब जल गया राकेश।” वह चिल्लाई।

” क्या.. मेरा प्यार या तुम्हारा हृदय?”

” दोनों… पेट की आग ना बुझी, तो हृदय और प्यार दोनों ही बुझ जायेंगे।”

” अच्छा है, यूं ही सही…अजनबी भूख में तो साथी कहलाएंगे।”

राकेश वायलिन को केस में बंद कर दिया, ऐसे जैसे मां अपने बच्चे को फ्रॉक पहनाती है। अर्चना बैठी उसके गंभीर मुख का अध्ययन करने लगी। वह एक बच्चे के समान हो गया था। अर्चना बातचीत का विषय बदलती हुई बोली, ” मुझे मालूम ना था कि तुम इतना अच्छा वाले बजाते हो।”

“पर उस साज का क्या, जो किसी के मन के तार ना छेड़े।”

“यह तुमने कैसे सोचा?”

“सुनने वाला जब संगीत से अधिक महत्व जली हुई मछलियों को दें और दुर्गंध में खो जाए।”

अर्चना उसकी बात सुनकर निरुत्तर सी हो गई। फिर एकाएक हंस पड़ी।

” इसमें हंसने की क्या बात है?”

” यह सोच कर कि पुरुष कितने छोटे हृदय के होते हैं।” 

“और नारियां?” वह सामने पड़े पत्थर पर बैठ गया।

” बड़े हृदय की, बस थोड़ा भेजा कमजोर होता है बेवारियों का। जानते हो तुम्हारे संगीत पर क्या प्रभाव हुआ?”

वह भोलेपन से उसकी ओर देखने लगा। अर्चना उसके पास आई और उसके चेहरे को दोनों हाथों में लेकर अपने सीने से लगाते हुए बोली, ” सुन लो इस हृदय की धड़कनें क्या कह रही हैं। कोई उत्तर मिलता है इनमें?”

अर्चना कुछ देर उसके बालों से खेलती रही और फिर धीरे से बोली, “तुम्हारे संगीत में मेरे अंतर की गहराइयों में बसे प्रेम को अनावृत करके रख दिया, देखो राकेश सीने धड़का सुनने लगा।”

राकेश के समस्त शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई। आज से पहले उसे किसी लड़की का समीप्य प्राप्त न हुआ था। उसके तरुण शरीर की आंच से दूर होने का प्रयत्न करते हुए उसे लगा जैसे वह भी निरंतर मछलियों की भांति पैन में भुना जा रहा हो और अर्चना पास खड़ी उस महक को मस्तिष्क में बसा रही हो।”

तभी उसने अर्चना की आंखों में तैरते हुए लाल डोरे देखे। उसमें मस्त शरबती पानी उतर आया था। उसके होठों से रस टपकने लगा था और मुंह की लालिमा सूर्य की आभा में परिवर्तित होती जा रही थी।

अचानक दूर पहाड़ों में बड़े जोर की हरकत हुई। दोनों कांप कर एक दूसरे से अलग हो गए। मुड़कर उन्होंने पर्वतों की ऊंची चोटियों को देखा, जिन्हे काली घटाएं अपने आंचल में छिपाने का प्रयत्न कर रही थीं। थोड़ी ही देर में हवा के तेवर बदल गए और देखते ही देखते शांत वातावरण प्रचंड हरचल में परिवर्तित हो गया। वे शीघ्र ही खेमों का सामान समेटने लगे। कभी कभी एक दूसरे को कनखियों से देखकर वे इस प्रकार मुस्कुराते, जैसे उनका अजनबी पन बिल्कुल समाप्त हो गया हो।

वे दोनों जब वापस स्नोलैंड होटल पहुंचे, तो उनका उल्लास अपनी चरम सीमा पर था। होटल के कंपाउंड में कार रोककर राकेश ने अर्चना का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे अपनी ओर खींचना चाहा, किंतु अर्चना फुर्ती से कार का द्वार खोलकर बाहर निकल गई। उसने रिसेप्शन रूम की खिड़की से मालकिन को काउंटर के पीछे खड़े देख लिया था। वह अर्चना के स्थान पर ड्यूटी दे रही थी। अर्चना तेजी से पग उठाती रिसेप्शन रूम में पहुंची, तो लाज से उसका चेहरा लाल पड़ गया। वह लज्जित थी कि उसने अपना वचन न निभाया था और वह देरी से पहुंची थी। कमला जी गंभीर मुख को देखकर वह भयभीत हो उठी। सहमी सहमी काउंटर के पास पहुंचकर उसने खेदपूर्वक कहा –

“मुझे देर हो गई आंटी क्षमा करना।”

 मालकिन की ओर से कोई उत्तर न पाकर वह अपनी घबराहट दूर करने के लिए काउंटर के पीछे जाकर शाम की आई डाक देखने लगी। कमला जी अभी तक उसे कड़ी दृष्टि से देख रही थी। इतने में राकेश भी काउंटर के पास पहुंच गया और मुस्कुराते हुए कमला जी से बोला, ” गुड इवनिंग मैडम!”

 कमला जी ने उसे तीखी दृष्टि से देखा और काउंटर के पीछे बने एक खाने से तार उठाकर काउंटर पर रख दिया। राकेश जल्दी से तार खोलकर पढ़ने लगा। फिर मुस्कुरा कर बोला, “मैं बीए में फर्स्ट डिवीजन में पास हो गया हूं।”

“कांग्रेचुलेशन!” कमला जी ने कहा, किंतु उनके तेवर में ढिलाई नहीं आई।

राकेश ने अनुभव किया कि कमला जी उसकी हरकत पर अप्रसन्न थीं। वह फिर से तार पढ़ने लगा। इस शुभ समाचार पर भी वह उदास सा दिखाई दे रहा था। कमला जी ने भी उसके चेहरे पर उदासी की झलक पढ़ ली थी। उन्हें आश्चर्य हुआ कि राकेश अपने पास होने के समाचार पर उदास क्यों हो गया है। उन्होंने बात की थाह तक पहुंचने के अभिप्राय से कहा, ” तुम्हें तो अपने पास होने की खुशी में एक बड़ी पार्टी देनी चाहिए और तुम उदास हो गए हो।”

“ओह! बात यह है कि घर वालों ने तुरंत वापस चले आने को लिखा है।”

“वे लोग तुम्हारी प्रसन्नता में सम्मिलित होना चाहते हैं… शायद इसलिए बुलाया होगा।”

“इस स्वर्ग को छोड़कर जाने को अभी मन नहीं।”

राकेश की इस बात पर ना जाने क्यों अर्चना का हृदय धक से रह गया। एक लिफाफा खोलते हुए उसके हाथ कांपने लगे। कमला जी और राकेश दोनों की दृष्टि एक साथ अर्चना के कांपते हुए हाथ पर पड़ी। अपने कंपन को दूर करने के लिए अर्चना ने लिफाफा काउंटर पर रख दिया और हाथ से उसे दबाने लगी, किंतु मन की व्याकुलता चेहरे पर झलक आई।

“एक न एक दिन तुम्हें जाना ही होगा।” कमला जी गंभीर होकर बोली, ” फिर मन को बांधते क्यों ऐसे स्थान से?”

“कश्मीर की सुंदर घाटी ने मेरा मन मोह लिया है। यह मेरे पांव पकड़ कर बैठ गई है। इस समय से छोड़कर जाना यूं ही है, जैसे कोई सैनिक अपनी प्रेमिका को रोता हुआ छोड़कर युद्ध क्षेत्र में चला जाए।”

कमलाजी ने एक सम्मोहक मुस्कान के साथ छिपी दृष्टि से अर्चना को देखा और बोली, ” इस समय तो कोई युद्ध भी नहीं हो रहा है और फिर आप सैनिक भी नहीं हैं।”

“आप कैसे कह सकती हैं कि युद्ध नहीं हो रहा और फिर…काश मैं आपको हृदय चीर कर दिखा सकता। फिर तो देखती कि वहां उलझनों, चिंताओं और हिचकिचाहट के बीच कितना भयानक युद्ध हो रहा है और मैं कितनी वीरता से जी तोड़कर इस संघर्ष में जुटा हुआ हूं।”

“किसके विरुद्ध?”

“इस घाटी की गोद को छोड़कर जाने के विरुद्ध।”

“इस गोद ने शायद आपको बड़ी दृढ़ता से बांध लिया है।” कमलाजी ने एक सुंदर व्यंग्य कसा।

“आपको फिर धोखा हो रहा है।” राकेश ने अर्चना पर उचटती दृष्टि डालकर कहा, “ये भी हो सकता है कि मैं ही उससे लिपट गया हूं और मैंने ही उसको बाहों में जकड़ लिया हो।”

यह कहकर राकेश अपने कमरे की ओर बढ़ गया। कमला जी गैलरी के अंतिम मोड़ तक इस सजीले नवयुवक को देखती रही। कुछ देर के लिए तो वे उसकी कवित्वमयी बातों में बह गई, यह भूलकर कि इस युवक ने उसके होटल के कर्मचारिणी की तरुण उमंगों को उत्तेजित करने का साहस किया था।

कमला जी सहसा गंभीर हो उठी और अर्चना के चेहरे को देखने लगी, जो चुपचाप सिर झुकाए अपने काम में व्यस्त थी। घबराहट के मारे इस शीत भी उसके माथे पर नन्ही पसीने की बूंदे चमक रही थीं। कमला जी ने आखिर उसे संबोधित किया, ” आज दिन भर तुम कहां रही?”

” पहलगाम?”

“अकेली?”

“नहीं, राकेश के साथ।”

“शायद तुम्हें याद नहीं रहा कि हम अपने होटल में आने वालों का स्वागत अवश्य की मुस्कुराहटों के साथ करते हैं, किंतु उनके जीवन में मुस्कुराहट भरना हमारा काम नहीं।”

“मैं जानती हूं।” अर्चना ने सिर झुकाए हुए ही उत्तर दिया।

” फिर ऐसा क्यों हुआ?”

“यह मेरी भूल थी और इसके लिए मुझे खेद है। मैं लज्जित हूं।”

“प्रायः साधारण सी भूल जीवन भर के लिए अभिशाप बन जाती है।”

“मैं ऐसा अवसर नहीं आने दूंगी।” अर्चना फाइलों के पन्ने पलटने लगी।

 कमला जी के मुख पर अभी तक धुआं सा बिखरा हुआ था, जैसे इस घटना ने उन्हें किसी आने वाले तूफान की सूचना दे दी हो।

राकेश के पिता रघुनाथ लंबी आराम कुर्सी पर पैर फैला कर बैठे हुए थे। उनके सामने छोटी मेज कर उनकी बहू उमा चाय का सामान रख रही थी।

“बहू! राकेश का कोई पत्र आया? कब आएगा वह?”

“आ जाएगा बाबूजी। अभी दिन ही कितने हुए हैं उसे गए हुए।” उमा यह कहकर चाय बनाने लगी।

रघुनाथ जी की आयु साठ से कम न थी। उनके सिर के बाल सफेद हो चुके थे। आंखों के नीचे और होठों के पास गहरी झुर्रियां दिखाई देती थी। किसी समय वह सुंदर और आकर्षक पुरुष रहे होंगे, इस समय बीमार लग रहे थे। उजले कपड़ों में भी उनकी कमजोरी छिप न रही थी। उनका सारा शरीर कुम्हलाया हुआ था और उनकी आंखों में दुख की परछाइयां झलक रही थी।

उमा पैंतीस छत्तीस वर्ष की स्वस्थ, साधारण कद की स्त्री थी। गोल मुखाकृति, गोरा रंग, नाक जरा मोटी, भरे भरे गुलाबी गाल, पतले होंठ, ठोड़ी और गालों में गड्ढे गड्ढे और बादाम जैसी आंखों में यौवन की चमक। कमर न पतली न मोटी, कूल्हे जरा फैले हुए। उसने बड़े गले का ब्लाउज पहन रखा था। ससुर के लिए चाय बनाते हुए वह साड़ी के पल्लू को कंधों पर लपेटने का प्रयत्न कर रही थी।

“मेरा विचार है उसे तुम तार दिलवा दो, वह जल्दी चला आए।” रघुनाथ जी ने बहू को संबोधित किया।

” पढ़ाई लिखाई से अभी तो निपटा है। कुछ दिन और रहने दीजिए।”

“नहीं बहू, आराम नौजवानों को आलसी बना देता है और फिर उस पर तो अब पूरे कारोबार की जिम्मेदारियां होंगी। तुम तो जानती ही हो।”

“जी अच्छा आज ही तार दिलवा देती हूं।” उमा ने चाय का प्याला बढ़ाते हुए कहा।

” तुरंत आने को लिखना।”

” किंतु उसका कोई कारण भी तो होना चाहिए।”

” मेरी बीमारी..नहीं नहीं…कारोबार भी नहीं…बस एक आवश्यक काम।”

उमा बाबूजी की हड़बड़ाहट देख कर मुस्कुरा उठी। बीमारी ने उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया था। इसलिए उनसे अधिक विवाद करना उचित नहीं था।

“उमेश अभी तैयार नहीं हुआ क्या?” चाय का प्याला पीते हुए बाबूजी ने पूछा।

“ऑफिस का कुछ हिसाब किताब कर रहे हैं।”

“अब उमेश अकेला नहीं रहेगा। राकेश उसका हाथ बंटाएगा। मुझे आशा है कि दोनों भाई मिलकर व्यापार को सफल बना सकेंगे।”

“जी बाबूजी! आप ठीक कहते हैं। राकेश समझदार लड़का है। जमाने की ऊंच नीच को भी समझता है। थोड़ा सा मन लगाकर काम करेगा, तो भाई का सहारा बन जाएगा।”

रघुनाथ जी स्नेह पूर्ण दृष्टि से बहू को देखा। इतने में उमेश भी भीतर आ गया और पिता के पांव छू कर बोला, ” कैसी तबीयत है आपकी बाबू जी?”

” कल से अच्छी है। रात को नींद भी आ गई थी।”

” डॉक्टर ने कहा था कि यह दवाई लाभदायक सिद्ध होगी।”

“इसका कारण दवाई नहीं है।” उमा ने चाय का प्याला पति को देते हुए कहा, ” कारण तो है राकेश के फर्स्ट डिवीजन में पास होने का समाचार।”

“बहू ठीक कहती है उमेश। राकेश की असाधारण सफलता ने मेरी डूबती सांसों को सहारा दे दिया है। सोचता हूं पढ़ा-लिखा लड़का व्यापार में कितना सहायक सिद्ध हो सकता है।

Prev | Next | All Chapters 

काली घटा गुलशन नंदा का उपन्यास 

वापसी गुलशन नंदा का उपन्यास 

कांच की चूड़ियां गुलशन नंदा का उपन्यास 

बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास 

Leave a Comment