चैप्टर 8 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 8 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 8 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 8 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Chapter 8 Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas

Chapter 8 Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas 

Chapter 8 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

‘दीदी, मम्मी कहाँ हैं?’

‘रसोईघर में और हाँ बेला, क्या हुआ तुम्हारे कॉलेज का?’

‘दाखिला मिलने की आशा तो है, जन्म का सर्टिफिकेट मांगा है।’

‘वह तो मिल ही जाएगा, चलो जरा मेज-कुर्सियाँ लगा लें।’

‘अभी आई दीदी-’ यह कहते हुए वह भीतर भाग गई।

संध्या को उसकी इस शीघ्रता पर हँसी आ गई।

आज संध्या का जन्मदिन था। आज वह पूरे बीस वर्ष की हो जाएगी। हर वर्ष की भांति रायसाहब उसका जन्मदिन अब भी मना रहे थे, किंतु यह जन्मदिन पहले से भिन्न था, इसलिए कि इस अवसर पर संध्या की सहेलियों के अतिरिक्त रायसाहब के कुछ मिलने वाले भी बुलाए गए थे। इनमें आनंद भी था।

आनंद का ध्यान आते ही उसके होंठों पर हँसी खिल आई और वह गुनगुनाने लगी। रेनु और नौकर-चाकर भी उसकी प्रसन्नता में सम्मिलित थे और कमरों की सजावट में लगे थे।

बेला भी आज बहुत प्रसन्न थी। उसे बंबई में ही दाखिला मिल जाएगा और वह आनंद के निकट ही रह सकेगी। जब वह यह सोचती कि उसकी दीदी यह देखकर क्या कहेगी तो वह कुछ चिंतित-सी हो जाती, फिर आनंद का मन जीतने के उल्लास में वह पागल-सी हो जाती।

अपना सर्टिफिकेट ढूंढने के लिए उसने डैडी की अलमारी खोल बीच वाली दराज की ताली लगाई और उनके रखे हुए पत्रों को टटोलने लगी। अचानक उसकी दृष्टि एक बंधे हुए छोटे से पुलिंदे पर जा पड़ी। जिस पर संध्या का नाम लिखा था। उल्लासपूर्वक उसने उसे खोलकर पढ़ना आरंभ कर दिया-क्या यह सच है-उसे अपनी आँखों पर विश्वास न आया और उसने उन्हें दोबारा पढ़ना आरंभ कर दिया।

संध्या उसकी सगी बहन न थी, बल्कि जन्म से पूर्व उसके पापा ने उसे गोद लिया था। ये सरकारी प्रमाणपत्र थे-तो क्या दीदी किसी और की लड़की हैं-इस बात का विचार आते ही आश्चर्य में डूबी बेला के दांत क्रोध में कटकटाने लगे। उसने पत्रों को वैसे ही लपेट दिया और अपना सर्टिफिकेट ढूँढने लगी।

सर्टिफिकेट लेकर उसने अलमारी को वैसे ही बंद कर दिया और संध्या के विषय में विचार करती हुई बाहर आ गई। बालकनी की सीढ़ियों पर खड़े होकर उसने ध्यानपूर्वक संध्या को देखा, जो नौकरों को साथ लिए गोल कमरे में मेज बिछवा रही थी। कितनी भिन्नता है दोनों के रूप में। कोई भी तो उन्हें सगी बहनें नहीं कह सकता-कितना अंतर है दोनों के विचारों और स्वभाव में-दोनों अलग-अलग वातावरण में पली हैं-फिर दोनों का चुनाव क्यों एक-दोनों आनंद से प्रेम करती हैं-कुछ ऐसे ही उलझे हुए विचार उसके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगे, उसकी आँखों में डाह और द्वेष स्पष्ट था।

पांच बजते ही अतिथियों ने आना आरंभ कर दिया। पहले आने वालों में संध्या की सहेली निशा के साथ दो और सखियां थीं। उसके पश्चात् संध्या के चाचा अपने बाल-बच्चों सहित आए। फिर आनंद और धीरे-धीरे दूसरे आमंत्रित लोग भी आने लगे।

एक घंटे में गोल कमरा अतिथियों से भर गया। दो-दो, चार-चार व्यक्ति अपना-अपना झुंड बनाकर आपस में बातों में संलग्न थे। संध्या संकोच से आनंद के अधिक निकट न बैठ सकी और निशा व दूसरी सहेलियों के साथ बातें करने लगी। उसकी इस अनुपस्थिति और संकोच का लाभ उठाते हुए बेला आनंद के निकट आ बैठी और बातें करने लगी। आनंद उसकी इस निकटता से डर रहा था। अपने ही ध्यान में वह उसकी बातों का उत्तर दिए जाता और चोर दृष्टि से हर थोड़े समय पश्चात् संध्या को देख लेता, जो स्वयं कनखियों से उसे देखे जा रही थी। बेला का यों खुलकर उससे हंस-हंसकर बातें करना संध्या को अच्छा न लग रहा था।

वह कई दिनों से बेला की हरकतों को ध्यानपूर्वक देख रही थी। उसके हर हाव-भाव में यौवन की उमंग थी। आधुनिक ढंग की तितली कहीं अपने सौंदर्य की किसी अदा से उसके दो-चार तिनकों पर बिजली गिराकर राख न कर दे। इसका ध्यान आते ही वह कांप-सी जाती और फिर अपने विचार पर स्वयं से ही कहने लगती, ‘कितनी पागल हूँ मैं, मेरा आनंद कभी ऐसा नहीं हो सकता।’

रायसाहब ने केक काटने के लिए संध्या को बड़ी मेज के पास बुलाया और सब लोग उस मेज के इर्द-गिर्द खड़े हो गए। ज्योंही संध्या ने केक पर सजी मोमबत्तियों को फूंक मारकर बुझाया, सारा कमरा तालियों से गूंज उठा। केक का पहला टुकड़ा उसने पापा को, दूसरा मम्मी को दिया। बारी-बारी सबने अपनी प्लेटें उठाईं और एक-एक टुकड़ा लेकर खाने लगे। आनंद ने भी बधाई देते हुए अपना प्लेट संध्या से ले लिया।

बेला ने बढ़कर छुरी संध्या के हाथ से ली और बोली-

‘लाओ दीदी मैं बाँट दूँ, तुम थक जाओगी।’ यह कहते हुए उसने एक टुकड़ा संध्या को दिया और एक टुकड़ा अपनी प्लेट में रख लिया। एक और टुकड़ा काटते हुए वह आनंद को संबोधित करती हुई बोली-

‘अगर कहें तो एक आपकी प्लेट में भी रख दूँ।’

‘ओह!’ वह चौंकते हुए बोला-‘परंतु मैं तो अपना हिस्सा ले चुका हूँ।’

‘नहीं, दीदी का मन बहुत छोटा है-उसने आपको छोटा टुकड़ा दिया है-यह अन्याय मुझसे देखा नहीं जाता।’

‘तो न्याय कीजिए-लाइए।’ आनंद ने प्लेट बढ़ाते हुए कहा।

बेला ने मुस्कराकर संध्या की ओर देखा, जो क्रोध में भरी उसकी हर क्रिया को देख रही थी और केक का एक टुकड़ा काटकर उसकी प्लेट में रख दिया। आनंद उसे लेते हुए बोला-

‘बेला! संध्या ने सच मुझसे बड़ा अन्याय किया था, परंतु इतना बड़ा टुकड़ा देकर तो तुमने सब अतिथियों से अन्याय किया है। मेरे विचार में संध्या का न्याय तुमसे ठीक था। उसने सबसे एक समान बर्ताव किया था।’

आनंद की यह बात सुन संध्या की सब सहेलियाँ खिलखिलाकर हंसने लगीं और संध्या के गंभीर मुख पर मुस्कान की एक रेखा दौड़ गई। बेला सबको यों अपने पर हंसता देख जल-भुन सी गई और अपनी प्लेट उठा बाहर वाली खिड़की के पास जा खड़ी हुई।

खाने-पीने के पश्चात्, गाने-बजाने का कार्यक्रम आरंभ हुआ। रेनु ने नाच दिखाया, निशा ने एक गीत सुनाया और जब बेला को सब खींचकर सभा में लाए तो वह चिहुंक उठी। उसका स्वर सबसे निराला था।

गाना समाप्त हुआ तो सबने बेला को घेर लिया। इसी भीड़ में मेज पर रखा चाय का प्याला उलट गया और छींटे आनंद के सूट पर जा गिरे। वह झट से उठा और गुसलखाने की ओर बढ़ा। संध्या ने देखा कि बेला भी कुछ समय पश्चात् उसी ओर चल दी। उसने देखा-अनदेखा कर दिया और निशा से बातें करने लगी।

आनंद ने नल खोला ही था कि गुसलखाने का द्वार खुला और बेला भीतर आ धमकी। आनंद ने चौंककर पीछे देखा और बोला-‘तुम!’

‘जी-ये धब्बे यों न जाएँगे।’

‘क्यों?’

‘चाय के धब्बे पानी से नहीं, नींबू से जाते हैं-नहीं तो यह शार्कस्किन का सूट नष्ट हो जाएगा।’

‘तो नींबू कहाँ से आएगा?’

‘आइए, मैं दिखाऊँ।’

बेला यह कहते हुए आनंद को अपने साथ भीतर खुलने वाले द्वार की ओर ले गई और उसे पापा के कमरे में बिठा दिया और स्वयं भागकर रसोईघर से नींबू उठा लाई और उसे काटते हुए बोली-‘आप तकिए का सहारा ले लें।’

‘वह क्यों?’

‘पैंट तब ही साफ होगी, हाँ इसी प्रकार, अब जरा टाँग फैला लीजिए।’

‘परंतु यह जूता।’ आनंद टाँग फैलाते हुए बोला।

‘बिस्तर पर रख लीजिए।’ यह कहकर बेला ने नींबू से पैंट के धब्बों को मिटाना आरंभ कर दिया। पैंट के बाद वह उसका कॉलर साफ करने लगी। ऐसा करते हुए वह उसके अधिक निकट होती गई। बाहर के स्थान की अपेक्षा वह स्थान शांत था, किंतु आनंद को यह शांति अच्छी न लग रही थी। वह उसी सभा में लौट जाना चाहता था। अकेले में बेला से उसे डर-सा लग रहा था।

‘आपने अपनी सूरत चिड़िया के इक्के की-सी क्यों बना रखी है?’ बेला ने उसे छेड़ते हुए कहा।

‘यह तुम्हें क्या सूझ रही है? शीघ्र करो। कोई आ गया तो…’

‘तो क्या हमें खा जाएगा? न जाने आप मुझसे यों दूर क्यों हटते हैं?’

‘दूर-क्या?’

‘देखूं तो आपका दिल भय से धड़क रहा है, मुझे यहाँ तक सुनाई दे रहा है।’

‘क्या?’

‘आपके हृदय की धड़कन।’

बेला ने झट से अपना कान आनंद के सीने पर रख दिया और यों प्रकट करने लगी मानो कुछ सुन रही हो। उसका यह ढंग देख आनंद घबरा गया।

ठीक उसी समय पर्दा उठा और संध्या भीतर आई। दोनों चौंककर उछल पड़े, जैसे किसी ने नींद में उन पर अंगारे फेंक दिए हों। बेला झट से बिखरे हुए नींबू के छिलके संभालने लगी।

‘आओ संध्या।’ आनंद ने फूले हुए साँस पर अधिकार करते हुए कहा।

‘लोग आपको देख रहे हैं। और आप…’

‘कपड़ों पर लगे दाग साफ करवा रहा था। बेला ने कहा कि दाग तुरंत न गया तो कपड़ा नष्ट हो जाएगा।’

संध्या ने कड़ी दृष्टि से बेला को देखा, जो उसका सामना न कर सकी और झट से बाहर चली गई।

उसके चले जाने पर क्षण भर के लिए कमरे में चुप्पी रही। दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। संध्या मौन को तोड़ते हुए बोली-

‘आनंद साहब! नींबू से कपड़ों पर लगे धब्बे तो चले जाते हैं, परंतु दिल पर लगे दाग कभी नहीं जाते।’ संध्या यह कहकर वापस लौट गई और आनंद देर तक खड़ा इन शब्दों की गूंज सुनता रहा।

जब वह गोल कमरे में आया तो सब अपना-अपना उपहार संध्या को दे रहे थे। वह भी उसके पास पहुँचा और जेब से एक सुंदर डिब्बा निकालकर उसके सामने रख दिया। इससे पहले कि वह उसे उठाती, निशा ने बढ़कर उसे सबके सामने रख दिया। सब उस उपहार को देखने लगे। वह गले का एक सुंदर हार था। जिसके लॉकेट पर एक पक्षी खुदा था और नीचे लिखा था ‘नीलकंठ’। निशा ने हार उसी समय संध्या के गले में डाल दिया। संध्या ने मुस्कराकर उसे स्वीकार करते हुए आनंद को धन्यवाद दिया।

वह इस प्यार भरे उपहार को पाकर बड़ी प्रसन्न थी, परंतु इस प्रसन्नता में भी एक चिंता की रेखा स्पष्ट थी, जो बेला और आनंद को इकट्ठे देखकर उभर आई थी। वह उस टीस को भूलने का प्रयास करने लगी, किंतु वह बिखरे हुए उल्लास के फूलों में कांटा-सा बनकर खटकने लगी।

एक-एक करके सब अतिथि चले गए। घर की चहल-पहल खामोशी में परिवर्तित हो चुकी थी। सबसे अंत में जाने वाले आनंद और निशा थे। चाय-पार्टी के कारण रात का खाना किसी ने न खाया, इसलिए नौकरों को थकावट दूर करने के लिए अवकाश दे दिया गया।

काम-काज निपटाकर संध्या भी आराम करने वाले कमरे में चली गई। बेला अपने रात के वस्त्र पहन रही थी। संध्या को देख बीच-ही-बीच जलती हुई अपने काम में लगी रही। संध्या समझ रही थी कि वह अपनी आज की मूर्खता के कारण चुप थी, पर वह क्या जाने कि दूसरी ओर प्रेम का डाह ‘अंगड़ाइयाँ’ ले रहा है।

डाह अब केवल प्रेम का ही न था, बल्कि अपने अधिकारों का डाह भी। वह इस रहस्य को जान चुकी थी कि संध्या उसकी सगी बहन नहीं है और यह बात उसके माता-पिता ने छिपा रखी है। वह यह जानकर दीदी से और भी असावधानी बरतने लगी।

‘बेला-’ संध्या ने नम्रता से पुकारा।

‘हूँ-’ उसने दबे स्वर में उत्तर दिया।

‘क्या मुझसे रूठ गईं?’ साड़ी उतारते हुए संध्या ने पूछा।

‘तुम्हें तो न जाने क्या हो गया है-हर बात उल्टी समझ रही हो।’

‘बड़ी जो ठहरी, जहां तुम्हें मार्ग से हटते देखूँ-सावधान करना अपना कर्त्तव्य समझती हूँ।’

‘दूसरे को समझाना तो ठीक आता है, कभी अपने मार्ग को भी देखा है?’ बेला क्रोध में झुंझलाते हुए बोली।

‘देखा है, हर पग सोच-समझकर उठाती हूँ और फिर कभी मार्ग से हटने लगूँ तो माता-पिता समझा देते हैं।’

‘देखो दीदी, मैं अब कोई बच्ची नहीं हूँ, जो तुम पुलिस वालों के समान मेरा पीछा करती रहती हो, तुम सोच-समझ से काम लेती हो, मैं भी कोई अंधी और मूर्ख नहीं हूँ।’

‘जवानी अंधी होती है। इसे संभालने के लिए किसी का सहारा लेना आवश्यक है।’

‘ऐसे भाषण मैंने बहुत सुने हैं। सहारा वे लेती हैं जो डगमगा रही हों, मैं अपनी सुध में हूँ।’

‘तुम मेरी बातों को दूसरी ओर लिए जा रही हो। कहीं तुम्हें ठीक मार्ग पर लाने के लिए मुझे पापा से न कहना पड़े।’

‘पापा-पापा हर समय पापा-क्या कह दोगी-यही कि आनंद बाबू से बहुत घुल-मिल गई है।’

‘हाँ, जो बात मैं न कहना चाहती थी वह तुमने स्वयं कह दी। मैं तुम्हें साफ-साफ कह दूँ कि तुम्हारा उनसे अधिक मेलजोल बहुत अच्छा नहीं लगता।’

‘क्यों?’

‘इसका उत्तर देना मैं उचित नहीं समझती।’

‘इसका उत्तर मैं देती हूँ-इसलिए कि तुम उनसे प्रेम करती हो।’

‘बेला!’ संध्या तेज स्वर में बोली।

‘सटपटा क्यों उठीं दीदी? तुम्हारे पहलू में हृदय है तो क्या मेरे में हृदय नहीं।’

बेला के इस गंभीर उत्तर ने संध्या को आश्चर्य में डाल दिया और वह फटी-फटी दृष्टि से उसकी ओर देखने लगी। बेला फिर बोली-

‘तुम्हें उनसे प्रेम है-तो सुनो वह मुझसे प्रेम करते हैं।’

‘बेला!’ संध्या ने आवेश में चिल्लाते हुए बेला के गाल पर थप्पड़ मार दिया।

‘तुम्हारा यह साहस।’ वह क्रोध में बड़बड़ाई-‘जिसके टुकड़ों पर पलती हो, उसी को आँखें दिखाती हो?’

‘बेला-’ संध्या कांपते हुए बोली-‘यह तुम क्या कह रही हो?’

‘ठीक कह रही हूँ-अपनी स्थिति को देखकर हाथ उठाया होता।’

‘तो क्या मैं…’

‘हाँ-हाँ तुम हमारी बहन नहीं-जाने किस भिखारी की…’

‘बेला, बस आगे न कहो-मैं कुछ सुनना नहीं चाहती।’ वह साड़ी को दोबारा लपेटते हुए बाहर की ओर भागी।

जैसे ही वह नीचे भागी, बेला के हाथ-पाँव बर्फ हो गए। क्रोध में आज उसके मुँह से यह क्या निकल गया-पापा तो सुनते ही उसे मार डालेंगे-वह डर से कांपने लगी और धीरे-धीरे सीढ़ियों से उतरने लगी। नीचे संध्या रायसाहब का दरवाजा खटखटा रही थी। दरवाजा खुलते ही रायसाहब ने संध्या को चिंतित देख पूछा-

‘क्यों बेटा, क्या बात है?’

‘पापा, मैं तुम्हारी बेटी नहीं?’

‘पगली कहीं की, यह भी भला कोई पूछने की बात है।’ उन्होंने उसके कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा। मालकिन भी यह अनोखा प्रश्न सुन पास आ गईं।

‘नहीं पापा, आप यह झूठ कह रहे हैं। आप मुझसे छिपा रहे हैं।’

‘किस पगले ने यह तुमसे कहा?’

‘बेला ने। पापा मुझसे साफ-साफ कहिए वरना मैं चैन से न बैठ सकूंगी।’ उसकी आँखों में झलकते आंसू देखकर वह सटपटा उठे। यह रहस्य बेला किस प्रकार जान पाई! जैसे ही उसकी आँखें मालकिन से मिलीं तो वह बोल उठीं-

‘हाँ, यह उसी की शरारत है।’

‘कैसे?’

‘सर्टीफिकेट ढूँढने को चाबी जो ले गई थी।’

यह सुनते ही रायसाहब मालकिन पर बरस पड़े। आज तक ऐसी भूल उनसे कभी न हुई थी। दोनों में क्रोध को देख संध्या जान गई थी कि दाल में अवश्य कुछ काला है। अब उसने फिर यह जानने की प्रार्थना की तो वह ऊँचे स्वर में चिल्लाए-‘क्या कहा उसने?’

‘कि तुम हमारे टुकड़ों पर पलती हो।’

‘उसकी यह मजाल-बेला!’ वह क्रोध में चिल्लाए। बेला जो पर्दे के पीछे खड़ी उनकी बातें सुन रही थी, डरते-डरते भीतर आई। रायसाहब उसे बुरा-भला कहने लगे।

बेला ने चालाकी से काम लिया और दीदी से लिपटकर क्षमा मांगने लगी और फिर रोते हुए अपने कमरे में चली गई।

संध्या ने अपनी हठ न छोड़ी तो विशेषतः रायसाहब को प्रकट करना पड़ा कि वह उनकी लड़की नहीं है। उन्होंने अधिक समय तक संतान न होने के कारण उसे गोद ले लिया था, परंतु बाद में बेला और रेनु का जन्म हो गया, फिर भी उन्होंने उसे अपने बच्चों से भी अधिक प्यार से रखा। उसे वह हर वस्तु दी, जो माता-पिता अपनी संतान को दे सकते हैं।

‘परंतु मेरे माता-पिता कौन हैं?’ वह फिर पूछ बैठी।

‘यह जानकर तुम्हें क्या लेना है?’

‘मन की सांत्वना-आप कह डालिए।’

‘तुम्हारे पिता का देहान्त हो चुका है।’

‘और मेरी माता।’

‘मुझे कुछ ज्ञात नहीं। हमारे दफ्तर के हैड क्लर्क रलियाराम उन्हें जानते थे।’

‘तो क्या वह भी…’

‘सुना है, अभी जीवित हैं। परंतु तुम क्या करोगी यह सब जानकर-जन्म तुम्हें अवश्य उन्होंने दिया है, पर तुम बेटी हमारी हो-समझदार हो, सयानी हो, ऐसी बातों को मन में लेकर क्या करोगी। इस घर में क्या अभाव है, कौन-सी आवश्यकता है हमारी बेटी की, जो पूरी नहीं हुई?’

वह चुपचाप माँ के बिस्तर पर लेट गई। उसने रायसाहब या मालकिन से इस विषय में और कुछ न पूछा-वह पूछती भी क्या? भेद था, जो वर्षों पश्चात् प्रकट हुआ-वह अपने आपको सबसे पृथक समझने लगी।

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