चैप्टर 9 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 9 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

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Chapter 9 Neelkanth Gulshan Nanda Novel 

Chapter 9 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

संध्या की हठ और उसकी गंभीरता ने रलियाराम को विवश कर दिया कि वह उसे सब कह दे। उसने उसे बताया कि उसकी माँ गरीबों की बस्ती में किसी सराय में रहती है और यात्रियों को चाय इत्यादि पिलाकर बसर करती है। उसने यह भी बताया कि वह भले आदमियों का स्थान नहीं, वहाँ हर समय गुंडे मंडराते रहते हैं। उचित दिन जाकर वह स्वयं उसकी माँ को ले आएगा, किंतु संध्या के न मानने पर उसे सराय का पता-ठिकाना बताना ही पड़ा।

उसी दिन दोपहर को संध्या निशा के संग उसकी गाड़ी में बैठ बताए हुए मार्ग पर चल दी।

सराय रहमत उल्लाह का तंग द्वार देखकर संध्या का दिल डर से कांप-सा गया। जीवन में पहली बार उसने ऐसे स्थान में पाँव रखे थे।

सराय एक अच्छा-खासा चंडूखाना था। बहुत-सी मिली-जुली आवाजों से एक विचित्र-सा शोर उत्पन्न हो रहा था। बंद वातावरण में सिगरेट का धुआँ घुटन-सी पैदा कर रहा था। संध्या को खांसी आ गई।

ड्राइवर ने भीतर जाकर पूछताछ की और लौट आया। लोग संध्या को घूर-घूरकर देख रहे थे।

‘कुछ पता चला?’ संध्या ने उससे पूछा।

‘हाँ। आइए-मेरे साथ।’

वह ड्राइवर के पीछे-पीछे चल पड़ी, जो थोड़ा चलकर एक स्तंभ के पास ठहरा। मार्ग में इधर-उधर लोग इस प्रकार बैठे हुए थे, मानो अफीम खाए हों। संध्या उनसे बचकर चलती हुई उसी स्तंभ के पास आई, जहाँ ड्राइवर खड़ा था। सामने बरामदे में एक अधेड़ आयु की स्त्री मिट्टी के प्याले में गर्म कहवा उंड़ेल रही थी। संध्या कुछ क्षण तो विस्मित उसे देखती रही, फिर ड्राइवर से पूछने लगी-

‘तो क्या यही हैं खाना बीबी?’

‘जी-वास्तविक नाम तो कोई नहीं जानता, सब इसे खाना बीबी ही कहते हैं।’

संध्या स्तंभ के पीछे खड़ी होकर उसे देखने लगी। खाना बीबी ने एक प्याला उठाकर सामने लेटे आदमी को दिया, जो प्याला पकड़ते हुए बोला-

‘खाना बीबी कितनी अच्छी हो तुम-तुम्हारी आंखें इस अस्वस्थता में भी जादू का प्रभाव रखती हैं-जवानी में जाने…’

वह बात पूरी भी न कर पाया था कि खाना बीबी ने उसके गाल पर थप्पड़ दे मारा। चाय का प्याला उसके हाथों से परे जा गिरा और पूरा वातावरण कहकहों से गूंज उठा। लोगों को पागलों की भांति हँसते देख संध्या बाहर की ओर भागी और हांफती हुई गाड़ी चलाने को कह दिया, वह निशा की गोद में सिर रखकर रोने लगी।

वह अपनी माँ की यह दशा देखकर अपने मन से अधिकार खो बैठी। क्या वह उसी की जाई है? यह विचार आते ही उसकी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा। वह भयानक हंसी अब तक उसके कानों को छेद रही थी।

उस रात लज्जा से संध्या अपने घर नहीं गई और निशा के ही घर रही।

यदि आनंद को पता चल गया कि वह वास्तव में रायसाहब की बेटी नहीं तो वह उसके विषय में क्या सोचेगा? कहीं यह बात उसके प्रेम मार्ग में दीवार बनकर खड़ी न हो जाए?

वह मस्तिष्क की इन्हीं उलझनों में खोई बैठी थी कि किसी ने द्वार खटखटाया। आने वाले की पुकार सुनकर संध्या सहसा कांप गई। वह आनंद की आवाज थी।

‘यह क्या पागलपन है?’

‘घर चलो। सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’

‘आप चलिए-मैं कल सवेरे आ जाऊँगी।’

‘पागल न बनो-बेला की बातों का बुरा मानना तुम्हें शोभा नहीं देता, वह तुम्हारी छोटी बहन ही तो है।’

‘छोटी है इसलिए तो यह बर्ताव है, बड़ी होती तो शायद मुझे घर से निकाल देती।’

‘उसकी क्या मजाल, जो पापा के होते हुए तुम्हें कुछ कह सके।’

‘उसकी मजाल आपने शायद नहीं देखी। वह तो मुझसे यह भी कहती है कि आप उससे प्रेम करते हैं।’

‘संध्या-’ वह क्रोध में चिल्लाया-‘यह सब झूठ है, मेरी आँखों में तुम्हारे सिवा कोई नहीं। मैं कल ही रायसाहब से कहकर बात पक्की करवाता हूँ।’

संध्या की आँखों में पल भर के लिए फिर उजाला आ गया। किसी धुंधली आशा पर मन-ही-मन मुस्कराई भी, परंतु उसके मुख पर भावना प्रकट नहीं हुई।

‘तो कब आओगी?’ आनंद के इस प्रश्न ने उसे फिर होश में ला दिया। दो-एक क्षण चुप रहने पर वह बोली-

‘कल सवेरेे-आशा है आप भी वहाँ होंगे।’

‘हाँ-’ आनंद ने अपने सीने में उसका चेहरा छिपा लिया और रूमाल से उसके आँसू पोंछते हुए बोला-‘अब रोओगी तो नहीं?’

‘नहीं।’

आनंद चला गया और वह खड़ी कितनी देर उस मार्ग को देखती रही, जहाँ वह अंधेरे में गुम हो गया था। उसके मन की धधकती जलन वह कुछ शीतल कर गया था।

बेला ने जब सुना कि संध्या लौटकर नहीं आई तो उसके मन में डर-सा उत्पन्न होने लगा। कहीं संध्या की हठ उसे आनंद की दृष्टि में गिरा न दे और वह उसे प्रेम के स्थान पर द्वेष न करने लग जाए।

रायसाहब से बातचीत करने के पश्चात् जब आनंद बाहर निकला तो उसने देखा कि कोई व्यक्ति अंधेरे में उसकी कार के पास खड़ा भीग रहा है। वह बेला थी, जो देखते ही उससे लिपट गई।

‘बेला! क्या यह सच है कि संध्या तुम्हारी बहन नहीं?’ आनंद कार का द्वार खोलते हुए बोला। बेला संकेत पाकर भीतर आ गई।

‘जी, यह बहुत दिनों तक भेद ही रहा, पर अंत में खुल गया।’ बेला ने आनंद का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा। वह समझती थी कि शायद इससे अच्छा अवसर उसे जीवन में और न मिल सके। झूठ, चतुराई या किसी भी ढंग से आनंद के मन पर अधिकार पाना ही चाहिए। उसका विश्वास था कि प्रेम और युद्ध में हर बात उचित है। विचारमग्न आनंद के मुख को ध्यानपूर्वक निहारते हुए वह बोली-

‘रात पापा-मम्मी कह रहे थे कि यह भेद कुछ दिन और छिपा रहता तो अच्छा था।’

‘किसलिए?’ झट चौंककर आनंद ने पूछा।

‘यदि विवाह से पहले आपको पता चल गया कि वह किस खानदान की है, तो शायद आप उसे स्वीकार ही न करें।’

‘परंतु उनके मन में ऐसा विचार क्यों आया? विवाह तो मुझे संध्या से करना है, उसके खानदान से नहीं।’ आनंद चिढ़कर बोला।

‘शायद आप नहीं जानते कि उसकी माँ एक आवारा औरत है, जो अब तक गंदी गलियों की खाक छानती रहती है और उसके पिता का भी कुछ पता नहीं।’

‘बेला! ऐसा न कहो-रायसाहब तो कहते हैं कि उसकी माता किसी ऊँचे घराने की विधवा है, जिसे दुर्भाग्य ने नीचे गिरा दिया है। वह गरीब अवश्य है, परंतु स्वयं काम करके अपना पेट पालती है।’

‘हो सकता है यह ठीक हो, पर मैं जो जानती हूँ वह मैंने आपको बता दिया।’ वह उसकी नेकटाई से खेलती हुई बोली।

‘समझ में नहीं आता क्या करूँ?’

‘अपना निश्चय बदल डालिए।’

‘कैसे?’

‘अपना दिल उसे सौंपिए, जो उसे ठुकराए नहीं।’

‘मैं समझा नहीं।’

‘मुझसे विवाह कीजिए। मैं अपने प्राण आप पर न्यौछावर कर सकती हूँ।’

‘बेला!, ऐसा नहीं हो सकता।’

‘अब समझी, आप कायर भी हैं। कहिए वह मुझसे किस बात में बढ़कर है-विद्या में, सुंदरता में, खानदान में या प्रेम करने में-इससे अधिक आपको मेरे प्रेम का और क्या विश्वास चाहिए कि एक हल्के से संकेत पर खंडाला में मैंने अपना सब कुछ आपको दे दिया।’

यह कहते हुए उसने अपना सिर आनंद के सीने पर रख दिया और रोने लगी। खंडाला के शब्द ने आनंद के मस्तिष्क में हलचल-सी उत्पन्न कर दी। वह उलझन में पड़ गया-संध्या और बेला-बेला और संध्या और दोनों में वह स्वयं-क्या करे क्या न करे? इन्हीं विचारों में गुमसुम कितने ही समय तक वह मूर्तिवत बैठा रहा। बेला कुछ सोचकर गाड़ी का द्वार खोलकर बाहर जाने लगी तो आनंद ने उसकी बांह पकड़ते हुए पूछा-‘जा रही हो?’

‘जी!’

‘कहाँ?’

‘अपने दुर्भाग्य पर रोने-आप जाइए। मैं भविष्य में कभी आप दोनों के मार्ग में न आऊँगी।’ उसने गंभीर स्वर में आँसू पोंछते हुए कहा।

‘पागल मत बनो-शायद मैं अपना निश्चय ही बदल दूँ।’

‘सच!’ वह प्रसन्नता से बोली।

‘हाँ बेला, परंतु ठीक प्रकार सोच-विचार कर वचन दो कि तब तक अपने मन की बात किसी से न कहोगी।’

‘वचन देती हूँ। बेला ने अपना हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा-‘एक वचन आपको भी मुझे देना होगा।’

‘क्या?’

‘यह कोई जान न पाए कि ये सब बातें मैंने आपसे कही हैं।’

‘घबराओ नहीं, मैं किसी से कुछ न कहूँगा।’

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