Chapter 8 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda
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काम का भोंपू हुए आधे घंटे से अधिक बीत चुका था, किंतु कोई भी मजदूर अपने काम पर न लगा था। वह एक ही रट लगाए जा रहे थे कि जब तक शामू और सुखिया को वापस काम पर नहीं बुलाया जाता, वे काम को हाथ नहीं लगायेंगे। उन्हें उनका अधिकार दिला कर ही रहेंगे, चाहे इसमें उन्हें कानून से ही टक्कर क्यों न लेनी पड़े। बंसी ने लाख समझाने का प्रयत्न किया, किंतु उनके मस्तिष्क में यह बात न समा पा रही थी।
जब प्रताप साइट पर पहुँचा, तो मजदूरों का व्यवहार देखकर क्रोध से आग बबूला हो उठा। कड़कते हुए उन्हें काम करने का आदेश दिया। मंगलू ने मालिक का आदेश दोहराया, किंतु मजदूर अपनी मांग पर अड़े हुए थे।
“इन भूखों को कानून का पाठ किसने पढ़ाया?” दफ्तर में प्रवेश करते ही क्रोधित स्वर में उसने बंसी को संबोधित किया।
“मैंने कुछ नहीं कहा सरकार। सवेरे आया, तो यह सब हथियार गिराये बैठे थे। बहुत समझाया, किंतु कोई नहीं माना।” बंसी ने हाथ जोड़कर नम्रता से उत्तर दिया।
“तो अवश्य किसी ने भड़काया होगा।”
“हो सकता है हुजूर!”
“तो सब को नोटिस दे दो।”
“एक विनती करूं मालिक!” क्षणभर रुककर वह बोला।
“कहो…!”
“कानून हमको ऐसा करने की अनुमति नहीं देता। दूसरे, इस समय इन से बैर मोल लिया, तो काम समय पर समाप्त न होगा।”
“कानून कानून…क्या कानून इन्हीं के लिए रह गया है।” मुट्ठियों को क्रोध से भींचते हुए प्रताप बोला, “क्या हमारी कोई आवाज ही नहीं?”
“है सरकार, किंतु एक सीमा तक!”
“तुम यह कहना चाहते हो कि इन की मांग ठीक है?” प्रताप ने कहा।
“जी!” बंसी के मुँह पर एक विचित्र दृढ़ता थी।
“ओह!”
“मेरी मानिये, तो सुखिया और शामू को काम पर वापस ले लीजिए, यही बुद्धिमानी है।”
“नहीं नहीं…नहीं ऐसा नहीं!” वह सटपटाकर चिल्लाया।
“सोच लीजिए मालिक! मैंने उनके मुँह से सुना है।” बंसी कहते-कहते रुक गया।
“क्या सुना है?” प्रताप ने चौंकते हुए पूछा।
“यह लोग कह रहे थे कि आपने कलवा को इसलिए काम पर रख लिया है कि वह कम्मो का भाई था।” बंसी ने बिना झिझक कहा।
“बंसी..!” प्रताप चिल्लाया। बंसी के मुँह से कम्मो का नाम सुनकर वह एकाएक कांप उठा। उसे यूं लगा मानो किसी ने उसकी खोपड़ी पर हथोड़ा दे मारा हो। उसने भयभीत दृष्टि से बंसी की ओर क्यों देखा। आज उसी के नौकर ने उसकी निर्बलता पर वार किया था। मानसिक दुविधा में वह कमरे में चक्कर लगाने लगा। फिर कुछ सोच कर बोला, “शामू और सुखिया को वापस काम पर ले लो।”
यह कहकर वह झट कमरे से बाहर निकल गया।
“क्या हुआ मालिक?” मंगलू ने पिछवाड़े से भागकर जीप के पास आते हुए पूछा।
“मंगलू, तुम्हें यहाँ रहना चाहिए। ऐसा लगता है, जैसे किसी ने इन लोगों को भड़का दिया है।”
मंगलू ने पैनी दृष्टि से मालिक की ओर देखा और बोला, “कहीं इन कानून की धमकी में अपने बंसी का हाथ तो नहीं।”
“पर वह ऐसा क्यों करने लगा?”
“उसकी गरीबी पर तरस खाकर हमने उसकी बेटी जो मांग ली थी और फिर रात कम्मो और आप..!”
प्रताप ने उसे बात पूरी करने का अवसर न दिया और झट गाड़ी स्टार्ट कर दी। उसके मन में मंगलू की बात बैठ गई थी। मजदूरों की हड़ताल में उसे बंसी की ही चाल दिखाई देने लगी। वह सोचने लगा, वास्तव में उसने उससे बदला लेना चाहा है।
रात को दफ्तर की तालियाँ पहुँचाने के लिए बंसी जब प्रताप के बंगले पहुँचा, तो प्रताप ने से रोकते हुए पूछा, “बंसी, क्या यह सच है कि तुम चौबे का काम देखते हो?”
“हाँ मालिक! सप्ताह में एक दो बार…उसका ऋण चुकाना है…सोचता हूँ इसी प्रकार पूरा हो जाये, तो बोझ कुछ उतर जाये।”
“हूं…तभी तो सोचता हूँ कि आए दिन यह हिसाब किताब अपने घर पर को रहने लगी?”
“कैसी गड़बड़ सरकार?”
“यह कृतघ्नता है। पगार मुझसे लेते हो और आप दूसरों का करते हो।”
“किंतु का काम तो रात को करता हूँ। यहाँ से छुट्टी के बाद।” बंसी ने नम्रता से कहा।
“समय कोई भी हो, पर ध्यान तो बंट जाता है। यहाँ काम ठीक नहीं हो पा रहा। यह तो ठीक बात नहीं।”
“आप कहें, तो मैं उसे इंकार कर दूं।” बंसी ने हाथ जोड़े।
“नहीं…उसका मन क्यों तोड़ते हो…और ऋण भी तो चुकाना है तुम्हें। अच्छा तो यही है कि तुम इस नौकरी से त्यागपत्र दे दो। अब तुमसे मेरा काम नहीं हो पाता।” प्रताप ने कठोर दृष्टि से बंसी को देखा।
“मालिक!”
“हाँ बंसी! बुढ़ापे से तुम सठिया गए हो। तुम्हारी बुद्धि अब काम नहीं करती। दो-एक भूलें हो, तो मैं सहन भी कर लूं। पर यह रोज रोज की भूलें…नहीं नहीं… मुझे यह विश्वास नहीं था कि तुम अपने मालिक की आँखों में धूल झोंकोगे।”
“लगता है मालिक दुश्मनों ने आपके कान भरे हैं मेरे विरुद्ध…!”
“तुम अब यहाँ काम नहीं करोगे।”
“इतनी छोटी भूल का इतना कठोर दंड मालिक।” बंसी ने वेदना भरी दृष्टि से मालिक को देखा।
“यह छोटी-छोटी भूले ही मिलकर बारूद बन जाती हैं…बुद्धिमान वही है, जो आने वाली कठिनाइयों का पहले ही अनुमान लगा ले और उन कंकड़ों को हटा डाले, जो उसके मार्ग को दुर्गम बना रहे हैं।”
“दया कीजिए सरकार! मेरे छोटे-छोटे बच्चे दाने पानी से लाचार हो जायेंगे।” बंसी गिड़गिड़ाकर प्रताप के पांव पर गिर पड़ा। वह विनती करते हुए फिर बोला, “ऐसा अन्याय न कीजिए हुजूर…यदि कोई भूल हुई है मुझसे, तो क्षमा कर दीजिए। आगे ऐसा न होगा। अपने बच्चों की सौगंध खाकर कहता हूँ।”
“मुझे तुम पर तनिक भी विश्वास नहीं रहा।” प्रताप अभी बात पर अड़ा रहा।
बंसी कुछ देर तक सोचता रहा और फिर एकाएक बोला, “मालिक! मैंने वर्षों तक आपका नमक खाया है। मुझे अब विवश न करें कि अपने पेट के लिए कोई उद्दंडता कर बैठूं।”
“क्या मेरी हत्या करोगे?”
“नहीं मालिक! मैं ऐसा महान अपराध नहीं करूंगा। मुझे अपना अधिकार चाहिए।”
“अधिकार? कैसा अधिकार?”
“न्याय मेरी ओर है। आप मुझे नहीं निकाल सकते इसलिए कि मैं आपका सबसे पुराना सेवक हूँ।”
“बंसी…!” न्याय का शब्द सुनकर वह कड़का, “अब तुम भी मुझे न्याय की धमकी देने लगे हो।”
“क्या करूं हुजूर? यह पेट में विवश किए देता है।”
“चलो हम इस बात को मान लेते हैं। तुम्हारी इस धमकी पर सिर झुका देते हैं।” प्रताप सहसा नम्र होते हुए बोला, “हम अब तुम से डरने लगे हैं बंसी!”
“ऐसा न कहिए सरकार!”
“सत्य से कहाँ तक मुँह छुपाया जा सकता है। आज हम तुम्हारी इस धमकी को न माने, तो कल तुम हमें बदनाम भी कर सकते हो। हमारा एक पाप जो तुम्हें मालूम है उस रात वाला।”
“मुझे इतना नीच न समझिये मालिक!”
“तुम्हें तो नहीं…पर तुम्हारे पेट का क्या भरोसा? जाने कब मुँह खुलवा दें। अब तुम जा सकते हो। कल से तनिक ध्यान से काम करना।”
बंसी की समझ में न आया। अपना उदास मुँह झुकाये वह बाहर आ गया। पेट के लिए उसे आज ऐसे व्यक्ति की दास्तां स्वीकार करनी पड़ रही थी, जो प्रत्येक बात पर उसका अपमान करता है, उससे घृणा करता है। उसका अपना वश चलता, तो ऐसी कमाई पर वह थूकता भी नहीं, किंतु उसे तो आजीविका चाहिए…छोटे-छोटे बच्चों के लिए…जवान बेटी के लिये। यह नौकरी अपमानजनक सही, परंतु इसे ठुकरा देने का उसमें बल न था। निर्धनता मानव को कितना निर्बल बना देती है।
बंसी के चले जाने के बाद प्रताप बड़ी देर तक सोच में खोया रहा था और साथ वाले कमरे से मंगलू को बुलाकर बोला, “यह आदमी हमारे बड़ा खतरनाक सिद्ध हो सकता।”
“घबराइए नहीं हुजूर, मैं उड़ने वाले पंखों को काटना जानता हूँ।”
प्रताप ने विश्वास पूर्ण दृष्टि से मंगलू की ओर देखा। इस दृष्टि में एक रहस्य भरा संकेत था, जिसे मंगलू ने समझा और झट से बाहर चला गयाएम बंगले में एक गहन निस्तब्धता थी, जिसे तारामती का मधुर स्वर भंग कर देता था। वह कभी कभार गुनगुना उठती।
“जिसको राखे साइयां, मार सके ना कोई…”
हवा के बंद होने से घाटी में कुछ घुटन सी थी। बंसी सिर झुकाये गाँव की ओर चला जा रहा था। प्रताप के इस व्यवहार ने उसका हृदय छलनी कर दिया था। चिंताओं का एक जाल सा उसके मस्तिष्क को घेरे हुए था। सांझ घनी होने के कारण आसपास की काली घटायें एक भयानक अजगर का रूप धारण किए थे। बंसी अपने विचारों में खोया वातावरण से अनजान चला जा रहा था। वह इस बात से अनभिज्ञ था कि इन्हीं चट्टानों की ओट में उसका जीवन बैरी मंगलू भी छिपता छिपता चला आ रहा था। अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिए चांदी के टुकड़ों के बदले वह बंसी के प्राण लेने को तैयार हो गया था।
दूर बारूद से भारी-भरकम चट्टानें चटक रही थीं। लुढ़कते हुए पत्थरों से घाटी गूंज रही थी। शताब्दियों पुरानी चट्टानें, जो आंधी और तूफान में भी अटल रही, साधारण से बारुद के पलीतों से चकनाचूर हो रही थीं। बंसी सोचने लगा था क्या कोई ऐसी चिंगारी नहीं, जो युगों पुरानी निर्धनता का विनाश कर सकें…कोई ऐसा साधन जिससे गरीब अपने घाव दिखा सके, अपनी व्यथा बता सके। न जाने अपने अंदर उनकी अपमानपूर्वक दशा देखकर भगवान का हृदय भी क्यों नहीं पसीजता! जब उनकी बहू बेटियों का सतीत्व चंद्र सिक्कों में बिक जाता है, तो क्यों नहीं गंगा और सरस्वती जैसी देवियां लाज से अपना मुँह छुपा लेती…इन्हीं विचारों में डूबा वह पगडंडी पर बढ़ा चला जा रहा था।
मंगलू ने बंसी को सिर झुकाये संकीर्ण पगडंडी पर चलते देखा। वह इसी अवसर की ताक में था। बारूद के धुएं और टूटते पत्थरों की धूल से आकाश घना हो रहा था। मंगलू ने सावधानी से दायें-बायें देखा और झट उस चट्टान को बारूद की आग दिखा दी, जिसे आधी रात के बाद फटना था। पलीते को सुलगाकर वह तेजी से पलट कर भाग निकला।
बंसी अभी घाटी से बाहर न हो पाया था कि जोर का धमाका हुआ और उसके ऊपर झुका हुआ पहाड़ फटा। प्राण बचाने के लिए बंसी अपने निर्बल शरीर को लिए तेजी से भागा, किंतु लुढ़कते में पत्थरों ने उसे बच निकलने का अवसर न दिया और एक पत्थर ने उसे अपनी चपेट में ले लिया। घाटी में एक भयानक चीख उभरी और दब गई।
रात का पहला पहर था। गंगा चूल्हे के पास बैठी भात पका रही थी। उसके होठों पर हल्की मधुर मुस्कुराहट थी और नयनों में विशेष आभा। उसकी दृष्टि चूल्हे के दहकते हुए कोयलों पर जमी थी। कोयले धीरे-धीरे जल रहे थे, उनमें गर्मी और प्रकाश था। एक गर्मी गर्मी गंगा की धमनियों में भी थी, एक प्रकाश उसके हृदय में भी था – प्यार की गर्मी, प्रेम का प्रकाश। कितनी मधुर थी यह जलन… मोहन की स्मृति के भाव सागर में डूब गई। उसका मन गदगद हो उठा।
अचानक एक धमाके के साथ आंगन का किवाड़ खुला और गाँव के एक लड़के ने अकस्मात चट्टान फट जाने से हुई दुर्घटना की सूचना दी। गंगा का ह्रदय धक से रह गया। वह क्षण भर तक उस लड़के को देखती रही और फिर जोर से ‘बापू बापू’ कहती हुई चूल्हे के पास से उठी और भागती हुई बाहर निकल गई। उसके बाहर जाते ही चूल्हे पर रखी हंडिया में उबाल आया, भात उबल कर नीचे गिर गया और जलती हुई लकड़ी में से उठाते हुए शोले जो कुछ क्षण पूर्व गंगा के मन को गुदगुदा रहे थे, एक झटके में बुझ गए और शेष रह गया धुआं।
दुर्घटना वाले स्थान पर मजदूरों का एक जमघट लग गया। उन्होंने पत्थर हटाकर बंसी को बाहर निकाला और एक ओर घास पर मिटा दिया। वह लहू से लथपथ बेसुध पड़ा था और मजदूर आपस में बातें कर रहे थे। गंगा के यहाँ पहुँचने तक एंबुलेंस भी आ पहुँची थी। बापू की यह दशा देखकर उसकी थरथराई हुई चीख वातावरण में गूंजकर रह गई और दोनों बाहें फैलाये ‘बापू बापू’ पुकारती उसकी ओर बढ़ी, किंतु लोगों ने उसे वही थाम लिया और घायल बंसी को उठाकर मोटर में डाल दिया। गंगा मजदूरों के घेरे में फड़फड़ाती पत्थरों को देखती रह गई, जिन पर उसके बापू का ताजा लहू लगा था। इस दुर्घटना के पीछे जिसका हाथ था, वह अपनी कोठी में बैठा मन की कंपकपाहट दबाने के लिए कंठ में शराब उड़ेले जा रहा था। शराब उसके भय को छिपा रही थी, पर उसके मस्तिष्क से यह विचार दूर न हो रहा था कि मंगलू ने चंद टुकड़ों के लिए गरीब बंसी का खून कर दिया।
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