Chapter 7 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda
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प्रताप के बंगले में प्रवेश करते ही बंसी रुक गया। तारामती अपने कमरे में बैठी रामायण पढ़ रही थी। यह मधुर वाणी और रामायण का पठन, वह कुछ समय तक वहीं खड़ा भक्ति रस में खोया रहा। जब भी वह ध्वनि को सुनता, उसे एक सुख का अनुभव होता…ऐसा लगता जैसे मन का बोझ उतर गया हो।
धीरे से दबे पांव वह उनके कमरे में आया और देहरी के पास ही खड़ा हो गया। तारामती रामायण पढ़ते-पढ़ते रुक गई और गर्दन उठाकर द्वार की ओर देखने लगी। बंसी को पहचान कर उसने अपना आंचल संवारा। उसके अधरों पर दैवी मुस्कान की एक रेखा फूट पड़ी।
“आओ बंसी!”
कमरे में अंधेरा हो गया। बंसी ने आगे बढ़कर बत्ती जला दी और फिर हाथ जोड़कर मालकिन का अभिवादन किया।
“पाठ में इतना खो गई थी कि पता ही नहीं चला कब शाम हो गई।” तारामती पुस्तक बंद करते हुए बोली।
“जिनके मन में प्रकाश हो, उसे बाहर के अंधेरे की क्या चिंता।” कहते हुए उसने दफ्तर की तालियाँ मालकिन के सामने बढ़ा दी।
“बंसी! तुम्हारे मालिक नहीं आए क्या?” तारामति ने पुस्तक बंद करते हुए पूछा।
“नहीं कह रहे थे शहर किसी अफसर को मिलने जाना है। लौटने में शायद देर हो जाये।”
“ओह…आओ बैठो।”
“बस मालकिन! अब तो आज्ञा दीजिए। घर पहुँचने की जल्दी है। कई दिनों से बच्चों से नहीं मिल पाया हूँ। सवेरे मुँह अंधेरे ही चला जाता हूँ और जब लौटता हूँ, तो बच्चे सो चुके होते हैं।”
“तब मैं तुम्हें नहीं रोकती। बच्चों को कभी हमारे घर भी तो लाओ।”
“अवश्य लाऊंगा मालकिन।”
बंसी जाने लगा, तो तारामती ने उसे फिर रोकते हुए कहा, “हाँ बंसी! इनकी और इच्छा थी…”
“क्या मालकिन?”
“वही कि गंगा बेटी को अपनी देखभाल के लिए यहीं रख लूं।”
“किंतु मालकिन!”
बंसी ने कुछ कहना चाहा, पर तारामती बीच में ही उसका आशय समझती हुई बोली, “नौकरानी समझकर नहीं बंसी, बेटी जानकर…जानते हो एक टांग न होने से मुझे कितना कष्ट होता है। मेरा दिन भर का साथ हो जाएगा और तुम्हारे दो पैसों की सहायता हो जायेगी।”
“नहीं मालकिन! ऐसा संभव नहीं…मेरा मतलब है…” वह कहते-कहते रुक गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि तारामती की प्रार्थना क्यों कर अस्वीकार करें। वास्तविकता यह थी कि जबसे प्रताप ने मंगलू द्वारा उसकी बेटी का हाथ मांगा था, वह उसकी छाया से भी डरने लगा था। अपनी बेटी को किसी मूल्य पर भी वह इस घर की नौकरानी बनाने को सहमत न था। कुछ कोई देर असमंजस में रहकर वह नम्रता से बोला।
“मालकिन आप का कृपापात्र होना बहुत बड़ी बात है। चार पैसे घर आते किसी बुरे लगते हैं। पर कुछ ऐसी विवशता है कि…क्षमा चाहता हूँ मालकिन। यह बात है कि गंगा के ब्याह की बात हो चुकी है। कुलीन खानदान का लड़का है। इज्जत का ख़याल है। यदि वे जान गए कि गंगा नौकरी करती है तो जाने…”
“बस बस…मैं समझ गई। ऐसी स्थिति में उसका कहीं नौकरी करना उचित नहीं।” तारामती ने बंसी की बात बीच में काटकर उसके विचार से सहमति प्रकट की।
बंसी जब गाँव की ओर लौटा, तो अंधेरा हो चुका था। नीचे घाटी में टिमटिमाते हुए चिराग ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो आकाश में अपनी तारों भरी ओढ़नी धरती पर बिछा दी हो। बंसी के मन में आशा के तारे चमक उठे थे। रूपा की ,आ ने मोहन और गंगा के नाते की आस दिला कर उसके अंधेरे जीवन को प्रकाशवान कर दिया था। उसे ऐसा लग रहा था, जैसे अचानक किसी ने उसके लड़खड़ाते हुए जीवन को सहारा दे दिया हो। वह सोचने लगा, कितना भारी बोझ उस पर से उतर जायेगा, जिस दिन गंगा मेहंदी लगा कर पालकी में बैठेगी।
अचानक चलते-चलते उसके पांव रुक गये। इस समय गोदाम में उजाला देखकर वह उलझन में पड़ गया। क्या वह शीघ्रता में बत्ती बुझाना भूल गया था? इस समय यहाँ कौन हो सकता है, जब वह स्वयं किवाड़ बंद करके तालियाँ मालकिन को दे आया है। मन का संशय दूर करने के लिए वह गोदाम की ओर गया।
गोदाम के अहाते में प्रवेश करते ही वह ठिठक गया और कटे पत्थरों की ओट में छिपकर देखने लगा। स्टोर का किवाड़ खुला और झट से एक स्त्री बाहर निकलकर अपनी साड़ी को शरीर पर ठीक करने लगी। फिर उसने अपनी बिखरी चोली को वक्ष पर जमाया और पीठ पीछे हाथ ले जाकर खुली डोरी को बांधने लगी। कमरे से आते धीमे उजाले में बंसी ने पहचाना। यह कम्मो थी, सुगठित शरीर की युवा मजदूरन। उसके भरे काले शरीर पर परिश्रम के पवित्र मोती नहीं, बल्कि पाप की विष भरी बूंदे थीं। उसका मन चाहा कि उसका गला दबा दें। किंतु कुछ सोचकर वह सांस बांधे वहीं रुक गया।
इसी समय कमरे में एक पुरुष बाहर आया और कम्मो के हाथ में उसने दो नोट थमा दिये। बंसी सन्न से चकित रह गया। यह उसका मालिक प्रताप था, जो कहने को शहर गया हुआ था, पर वास्तव में वह अपनी वासना पूरी करके पाप का मूल्य चुका रहा था, कागज के नोटों में। शराब के नशे में लड़खड़ाता हुआ वह एक शैतान लग रहा था। बंसी के मस्तिष्क में तूफान सा उठा रहा था।
“बस केवल दो!” कम्मो ने हँसते हुए प्रताप को संबोधित किया। बंसी को यूं अनुभव हुआ, जैसे यह नारी के कंठ से निकली हँसी न थी, बल्कि किसी नागिन की फुंकार थी।
“दो नहीं, दस-दस के दो नोट…पूरे बीस है।” प्रताप ने उसके गाल पर चुटकी काटते हुए कहा।
“यहाँ भी हेराफेरी मालिक…सीमेंट में तो रेत मिलाते ही हो, पर अब…” यूं प्रतीत हो रहा था कम्मो ने भी पी रखी है।
“बस बकबक न कर…यह ले, यह दस और ले।” प्रताप ने दस रुपये का एक और नोट उसके हाथ में थमा दिया।
कम्मो ने प्रताप का हाथ पकड़कर उसकी उंगलियों को हल्के से दांतों में दबा दिया। प्रताप ने तड़पकर उसे झटके से अलग कर दिया। कम्मो खिलखिलाकर हँसने लगी। प्रताप ने उसके कमर में चुटकी ली और उसे वहाँ से शीघ्र चले जाने का संकेत किया।
कम्मो ने तीनों नोट चोली में रख लिये और दोबारा आने का वचन देकर चल पड़ी थी। बंसी उससे छिपने के लिए पीछे हटा और अंधेरे में हो गया। सीमेंट की बोरियों के ऊपर एक खाली ड्रम रखा था। अंधेरे में बंसी की ठोकर लगी और बिना तनिक विलंब के वह ड्रम नीचे लुढ़क पड़ा। वातावरण में एक शोर उठा। कम्मो चीख मारते हुए डर कर वापस भाग गई और उसने प्रताप को पकड़ लिया।
“कौन?” प्रताप उस व्यक्ति की छाया को देख कर ऊँचे स्वर में चिल्लाया। वह अपने लड़खड़ाते पांव को अभी जमा भी नहीं पाया था कि बंसी उस धुंधले उजाले में उसके सामने आ खड़ा हुआ।
दोनों ने जब बंसी को देखा, तो उनके पांव तले की धरती की खिसक गई। कम्मो प्रताप से छिटककर अलग हो गई और सिर झुकाये एक ओर अंधेरे में विलीन हो गई। किंतु प्रताप उसे सामने देख कर क्रोध से भर उठा और लड़खड़ाती आवाज में चिल्लाया, “तुम यहाँ क्या कर रहे हो?”
“स्टोर की बत्ती जलती देखकर चला आया।”
“यह क्यों नहीं कहते कि बहाने से मालिक का पीछा कर रहे थे।”
“नहीं मालिक!”
“तो जाओ मेरा मुँह क्या देख रहे हो?”
“जा रहा हूँ सरकार!” बंसी ने अपने क्रोध को निर्धनता की दुर्बलता में दफना दिया और जाने को मुड़ा। उसने अभी पग बढ़ाया ही था कि प्रताप की पुकार सुनकर वह रुक गया। वह धीरे से उसके समीप आया और धीमे से बोला, “बंसी यह बात बाहर न निकलने पाये।”
“मालिक, भरोसा रखे। आपकी बदनामी मेरी बदनामी है। आँखों ने अवश्य देखा है पर विश्वास रखिये यह बात होठों पर कभी न आयेगी।” बंसी ने अपनी दुर्बल और कांपती आवाज में उसे भरोसा दिया। फिर वह अपने अशक्त टांगों को घसीटते हुए अहाते से बाहर चला गया। अंधेरे वातावरण में कम्मो का वासनापूर्ण पाप अभी तक महक रहा था।
बंसी जब घर पहुँचा, तो अंधेरा घना हो चुका था। गंगा के कमरे में दिया जल रहा था। वह धीरे-धीरे वहीं चला आया और चौखट पर रुककर गंगा को निहारने लगा, जो बच्चों को सुलाते हुए स्वयं भी सो चुकी थी। दिये के प्रकाश में वह पवित्रता की मूर्ति प्रतीत हो रही थी। मंजू और शरत दायें-बायें उससे चिपके हुए थे और गंगा दोनों को स्नेह से गले लगा माँ का रूप बनी थी। कुछ देर के लिए बंसी की आँखोंसे कम्मो की घृणामयी सूरत दूर हो गई।
आज से पहले उसने ध्यानपूर्वक अपनी जवान बेटी को कभी न देखा था। वह हूबहू अपनी माता का रूप थी। उसे देखकर बंसी के मन में अपनी स्वर्गवासी पत्नी की याद ताजा हो उठी। उसकी आँखों में पूरा अतीत घूम गया। उसके ब्याह से लेकर पत्नी की मृत्यु, दु:ख और सुख की धूप छांव और अब? अब तो उसके सामने अंधकार था। बच्चे बड़े होते जा रहे थे। गृहस्थी का बोझ बढ़ता जा रहा था। कौन था, जिससे वह सुख-दुख बांट सके। बंसी की आँखों में आँसू छलक आये और वह चुपचाप अपने कमरे में चला गया।
अचानक गंगा की आँख खुल गई। बापू की बांट जोहते-जोहते वह सो गई थी। उसने साथ के कमरे में जाकर देखा, वहाँ अंधेरा था। किंतु बापू के बिस्तर से बुड़बुड़ाने की आवाज आ रही थी। गंगा झट उठी और कोने में रखी लालटेन उठाकर बापू को देखने भीतर चली आई। बंसी पसीने में लथपथ जाने क्या कहे जा रहा था। गंगा ने लालटेन उठाकर उसे देखा और घबराकर पुकार उठी, “बापू!”
बंसी ने आँखें खोल दी और विचित्र दृष्टि से पहले दीवारों की ओर देखा और फिर गंगा को देखने लगा। फिर एकाएक उसने दोनों बाहें फैलाकर स्नेह से उसे अपने निकट आने का संकेत किया। गंगा सहमी हुई बापू के पास आकर खड़ी हो गई। बंसी ने उसे छाती से लगा लिया और दुलार से उसके सिर पर हाथ फेरने लगा।
“कब आए बापू?” गंगा ने बापू की चारपाई पर बैठते हुए पूछा।
“देर हुई!”
“मैं कहाँ थी?”
“सो रही थी तू। मैंने जगाना ठीक न समझा।”
“न जाने कब आँख लग गई। मैं तो कब से तुम्हारी राह देख रही थी। खाना परोस दूं?”
“नहीं, आज भूख नहीं बेटी?”
“क्यों बापू?”
“न जाने क्यों…जी ठीक नहीं कुछ।”
“ताप तो नहीं? नींद में बोल रहे थे और फिर यह पसीना?”
गंगा ने चुनरी के छोर से बापू के माथे से पसीना पोंछा और कलाई थामकर नाड़ी देखने लगी।
“नहीं ताप नहीं। एक सपना देख रहा था।”
“कैसा सपना?”
“एक बड़ा भयानक सपना।” बंसी कहते-कहते गंभीर हो गया।
“सपने में किसी की मृत्यु देखी क्या?”
“हाँ बेटी!”
“तब तो अच्छा सपना हुआ। कहते है सपने में जिसके अर्थी देखो, उसकी आयु बढ़ती है। कौन था वह?”
“कम्मो!”
“कम्मो!” गंगा ने आश्चर्य से दोहराया।
“हाँ, कम्मो एक गरीब मजदूरन, जिसे चांदी के कुछ टुकड़ों के लिए एक अमीर राक्षस ने खरीद लिया।” बंसी ने सामने दीवार की ओर ताकते हुए कहा।
“तो उसने अवश्य प्राण दे दिए होंगे।”
“काश ऐसा होता!”
“तो क्या?” गंगा ने पूछना चाहा।
“कुछ नहीं! अब तुम जाकर सो जाओ।” बंसी ने झुंझलाकर कहा। एकाएक उसे विचार आया कि वह बेटी से अनुचित बात कह बैठा है।
गंगा ने बापू को दोबारा खाने का आग्रह किया। पर बंसी ने फिर इंकार कर दिया। उसे चिंतित देखकर गंगा ने और कुछ कहना उचित न समझा और उठकर अपने कमरे में जाने लगी।
“तुमने खाना खा लिया क्या?” बंसी ने उसे रोकते हुए पूछा।
“उंहूं!”
“क्यों…जाकर खा ले।”
“भूख नहीं बापू।”
“क्यों तेरी भूख को क्या हुआ?” बंसी ने झुंझलाकर क्रोधित स्वर में पूछा और प्रश्नसूचक दृष्टि बेटी के मुख पर गड़ा दी।
गंगा के मुँह पर ऐसा भाव था, मानो कह रही हो – बापू जब तुमने दो कौर भी नहीं खाया, तो मैं भला क्यों कर खा सकती हूँ। बंसी मुस्कुरा पड़ा और स्नेह से उसे थपथपाते पर बोला, “जा खाना परोस ला। जितनी भूख है, दोनों मिलकर खा लेंगे।”
गंगा के उदास मुख पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। वह झट उठी और बापू के लिए खाना लेने रसोई घर में चली आई।
भोजन करते हुए बंसी ने पूछा, “कोई आया तो नहीं था घर में।”
“हाँ! चौबे जी आए थे बापू।”
“चौबे? क्या कहता था?” बंसी का मुख सहसा मलिन हो उठा।
“अपने रुपये मांगता था।”
“रुपये? उसे और काम ही क्या है…कल मिलूंगा उससे।” बंसी ने घबराहट पर अधिकार पाने का प्रयत्न करते हुए कहा।
“हाँ बापू! समय निकालकर उससे एक बार अवश्य मिल लो। उसका रोज-रोज यों आंगन में धरना देकर बैठ जाना अच्छा नहीं लगता।”
बंसी ने ‘हाँ’ में गर्दन हिलाई और चुपचाप खाना खाता रहा। वह सोच रहा था कि कल चौबे को कैसे टालेगा।
गुलशन नंदा के हिंदी उपन्यास
काली घटा गुलशन नंदा का उपन्यास