चैप्टर 6 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 6 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 6 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 6 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

Chapter 6 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

Chapter 6 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

अभी सूर्य की किरणों ने सोना न बरसाया था, किंतु चहचहाते हुए पक्षियों ने अपना संदेश सुनाना आरंभ कर दिया था। माँ ने उठते ही बेला को उठाना चाहा, पर वह यौवन की निद्रा में यों बेसुध थी, मानो वर्षों से सो रही हो। माँ ने जब पूना जाने वाली गाड़ी का वर्णन किया तो वह अर्धनग्न अवस्था में बोली-‘माँ जी, नींद बहुत आई है, मुझसे उठा न जाएगा।

‘तो गाड़ी छूट जाएगी।’ माँ ने समीप होकर कान में कहा।

‘तो क्या हुआ, शाम की गाड़ी पकड़ लूँगी।’

बेला के इस उत्तर पर उसे हंसी आ गई। उसी समय आनंद ने उसकी हंसी सुनकर भीतर प्रवेश किया और कहने लगा-‘माँ, ये आधुनिक तितलियाँ यों न जागेंगी, इन्हें बेड-टी चाहिए।’ आनंद का स्वर सुनते ही बेला निद्रा में चौकन्नी हो गई। माँ बाहर चली गई तो आनंद बोला-

‘मेम साहब, उठिए-कहीं पूना…’

‘पूना-पूना, जाना मुझे है और चिंतित आप लोग हैं।’ आँख खोलकर कड़े स्वर में वह बोली। उसके कड़ेपन में भी एक माधुर्य था, जिसने आनंद को मौन कर दिया और वह मूर्ति बना उसके वक्ष के उभार को देखने लगा, जो अंगड़ाई लेते समय सौंदर्य का केन्द्र-सा बन गया था।

काले रंग के अंग्रेजी ढंग के ब्लाउज और गरारे पर काली चुनरी जिसमें मुकेश के टुकड़े यों लग रहे थे मानो अंधेरी रात में आकाश पर तारे। उसका गोरा और गोल मुख चन्द्र की भांति दृश्य की शोभा बढ़ा रहा था।

सादापन आनंद को बहुत प्रिय लग रहा था, किंतु न जाने आज बेला को देख क्यों उसके विचार डगमगाने लगे- उसे अपने फीके जीवन में एक अज्ञात मिठास अनुभव होने लगी, जो बार-बार उनके मन को गुदगुदा रही थी। वह नशे में इतना बेसुध था कि यह भी न देख सका कि बेला उसे कब से घूरे जा रही है और उसे मूर्ति बने देख अपनी सफलता पर गर्व कर रही है।

यह देख वह कांप-सा गया और मुख दूसरी ओर मोड़कर बोला-

‘इसमें प्रसन्न होने की क्या बात है? तुम्हें पूना तो जाना ही है।’

‘वह तो मैं भी जानती हूँ, परंतु नदी पर आकर प्यासी लौट जाने को जी नहीं चाहता।’

‘क्या?’ वह इस पर फिर कुछ घबरा-सा गया।

‘जी चाहता है खंडाला के पर्वतों में घूमूं-फिरूं, न जाने ऐसा अवसर फिर कब मिले?’

‘पर तुम्हें तो सहेली के विवाह पर जाना है।’

‘कल-आज की छुट्टी और फिर ऐसा अवसर कभी हाथ न आएगा।’

जलपान करते समय भी बेला ने सवेरे की गाड़ी पर न जाने का कारण यह बताया कि वह खंडाला के आस-पास के स्थानों को देखना चाहती है। उसे अकेला देख आनंद के पिताजी बोले-

‘बेटी! मेरी या आनंद की माँ की बूढ़ी हड्डियों में तो अब इतना साहस है नहीं कि तुम्हारा साथ दें-यदि चाहो तो आनंद को संग ले जाओ।’

बेला को और क्या चाहिए था। वह झट बोली-‘कहते तो आप ठीक हैं, परंतु क्या यह भी मानेंगे?’

‘क्यों नहीं-और घर में बैठा-बैठा क्या करेगा?’ आनंद के पिता आनंद की ओर देखते हुए बोले।

यह सोचकर कि इसी बहाने इतवार का दिन अच्छा बीत जाएगा, आनंद ने भी सहमति दे दी और दोनों तैयार होने लगे।

आनंद ने माँ को खाने-पीने का सामान तैयार करने को कह दिया और उन स्थानों का स्मरण करने लगा, जो वह बेला को दिखाना चाहता था। उसे संध्या का ध्यान आया, जो उसे कई बार कह चुकी थी कि विवाह के पश्चात् सुंदर पर्वतों के प्राकृतिक जीवन में शहर के बनावटी जीवन को भूल जाएँगे। इसका विचार आते ही वह क्षण भर के लिए एक अनजान डर से कांप गया।

आज भी आकाश बादलों से घिरा हुआ था। काले-काले बादलों के नन्हें-नन्हें टुकड़े पहाड़ियों में उड़ते हुए बड़े भले लग रहे थे। जहाँ भी वे जाते, धुंध छाई मिलती। बेला व आनंद इन्हीं बादलों में खोये अनजान मंजिल की ओर बढ़े जा रहे थे। बेला आज सफेद धुंध में नीली पैंट और ब्लाउज में अति सुंदर दिखाई दे रही थी। कभी-कभार जान बूझकर वह किसी पत्थर से टकराकर गिरने लगती तो तुरंत आनंद बढ़कर उसे बांहों में संभाल लेता और दोनों एक-दूसरे का स्पर्श करते ही मुस्करा उठते।

इसी खेल में आनंद के होंठों की मुस्कान उसके हृदय की धड़कन बन जाती और व्याकुलता से बंद पक्षी की भांति वह उड़ने के लिए फड़फड़ाने लगता-वह सोचने लगता कि कितना अंतर है दोनों में-एक जल कण थी और दूसरी ज्वाला। यदि संध्या से पहले उसकी भेंट बेला से हो गई होती तो-तो…

‘महाशय! किस विचार में खोये हैं?’ बेला के इन शब्दों ने उसे चौंका दिया। वह उस पुल की ओर बढ़ा, जिसके जंगले का सहारा लेकर बेला खड़ी थी।

‘बेला!’ आनंद ने उसके समीप आकर धीमे स्वर में कहा।

‘कहिए।’ वह जेब का रेशमी रूमाल निकाल सर पर बाँधते हुए बोली।

‘कहीं तुम्हारे घरवालों को पता चल गया तो कितनी बड़ी भूल का शिकार हो जाएँगे।’

‘तो क्या हुआ?’ उसने असावधानी से उत्तर दिया, ‘उसे सुलझाना भी तो हमारा ही काम है।’

‘ठीक कहती हो, किंतु सुलझाते-सुलझाते प्रायः पूरा जीवन नष्ट हो जाता है।’

‘इसीलिए तो किसी ने कहा है कि जीवन बहुत छोटा है, इसे जैसे भी बन पड़े अच्छा व्यतीत करो।’

‘अच्छा तुम ही कहो क्या करना चाहिए?’

‘बीता समय भूल जाओ और भविष्य में क्या होगा यह बात सोचो।’

‘तो फिर?’

‘यह सोचो अब क्या है?’ वह बात बदलते बोली, ‘यह देखो नदी का जल यों लग रहा है मानो किसी ने चांदी बिखेर दी हो। मलगजी रंग के बादल अपने पहलू में जल-कण छिपाए किसी के चुम्बन को व्याकुल हैं और एक आप हैं कि…’

‘क्या?’ वह विस्मय से उसकी ओर देखते हुए बोला।

‘यह शिथिलता-यह मौन-जैसे पहलू में कोई दिल न हो।’ वह आँखों में उन्माद-सा लाकर बोली। आनंद ने यों अनुभव किया जैसे कोई अज्ञात शक्ति उसे अपनी ओर खींच रही है।

वह उसकी बात सुनकर अवाक्-सा उसकी मदभरी आँखों की ओर देखता रहा। हां, फिर अचानक उसने बेला का हाथ पकड़ उसे अपने समीप खींचकर झटका-सा दिया और वह मछली की भांति तड़पती हुई उसकी बांहों में आ गई। दूसरे ही क्षण वह अपने शरीर को सिकोड़कर उसकी बांहों से छटपटाकर निकल गई और बोली-

‘ऐसी भी क्या बेचैनी?’

‘पत्थर-हृदय को मोम जो बनाना है।’ आनंद उसकी ओर फिर बढ़ते हुए बोला।

बेला अंगूठा दिखा उसे चिढ़ाती हुई भाग निकली। आनंद भी उसका पीछा करने लगा- विचित्र दृश्य था-सुहावने बादलों की छाया में वह नदी के किनारे-किनारे भागी जा रही थी और आनंद उसके पीछे एक कंधे पर कैमरा और दूसरे पर टिफिन का डिब्बा लटकाए। कुछ समय बाद वह रुक गया और अपनी चाल को धीमा कर दिया।

बेला ने जब देखा कि उसका साथी हार मान गया है, तो वह वापस लौट आई और हँसते हुए बोली-

‘स्त्रियों की प्रतियोगिता में दौड़ भी न सके?’

आनंद चुप रहा और गंभीर-सा मुँह बना उसकी ओर बढ़ता गया। पास आकर बेला ने वही बात दोहराई। आनंद ने उत्तर तो नहीं दिया, बल्कि निकट आते ही झपटकर उसे आलिंगन में ले लिया, मानो कोई पक्षी अपने आखेट की प्रतीक्षा में हो। बेला इस पर तिलमिला उठी और मचलते हुए बोली-

‘यह धोखा है, पकड़ना था तो अपने बल से दौड़कर पकड़ा होता।’

‘पुरुष स्त्रियों को बल से नहीं बुद्धि से पकड़ते हैं।’

आनंद ने उसे छोड़ दिया और दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े। हँसी का स्वर तैरते बादलों से टकराकर अपने पीछे एक मधुर गूँज-सी छोड़ गया।

दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर पुल पार करके सामने की झील की ओर चल पड़े। टिफिन का डिब्बा उन्होंने नहर के चौकीदार के पास रख दिया।

तीनों ओर से पर्वतों में घिरा नीला गहरा स्वच्छ जल, जो सीमेंट के ऊँचे बांध से रोका हुआ था, बड़ा सुंदर प्रतीत हो रहा था।

बेला के कहने पर आनंद ने वार्डन से मोटर-बोट ली और दोनों उस पर बैठ झील में उतर गए।

दोनों चुपचाप लहरों को देखते जा रहे थे। ज्यों-ज्यों नाव गहराई में बढ़ती, आनंद को लगता जैसे वह स्वयं गहराई में उतरता जा रहा है, जहाँ से उसका उभरना असंभव हो जाएगा। बेला चन्द ही क्षणों में उसके जीवन पर इतनी छा गई थी कि वह सधे हुए पक्षी की भांति उसके संकेत पर नाच रहा था। यदि यह रहस्य खुल गया तो संध्या क्या सोचेगी- संध्या का ध्यान आते ही उसे चक्कर-सा आ गया. . . उसे लगा जैसे झील की हर तरंग में संध्या की छाया उसे कुछ समझा रही हो। आनंद ने नाव की गति तेज कर दी।

गति तेज हो जाने से पानी के छींटे उड़-उड़कर नाव में आने लगे। बेला ने आनंद के कंधे का सहारा ले लिया और उसके हवा में उड़ते बालों को संवारने लगी। हर क्षण उसका आनंद के समीप होते जाना-उसका स्पर्श-आनंद के हृदय की धड़कन तेज हो रही थी।

दूसरे किनारे पर पहुँचकर आनंद ने नाव को तट पर लगा दिया और बेला को उतरने के लिए हाथ का सहारा दिया। जब आनंद नाव को ठीक जमा रहा था, बेला ने भागकर सामने के पत्थर पर कैमरा सैट करके रख दिया और स्वयं उसकी कमर में हाथ डालकर तस्वीर खींचने लगी। आनंद को इसका ज्ञान तब हुआ, जब तस्वीर खिंच जाने पर वह कैमरा उठाने को भागी। आनंद ने कैमरा उससे छीन लिया और उसे नाव के मध्य खड़ा करके उसकी तस्वीर उतारने लगा। बेला ने ऊँचे स्वर में पूछा-‘तस्वीर किस ढंग में हो?’

बेला ने हाथ उठाकर अपने वक्ष को और उभारा।

‘ऊँ हूँ यों नहीं-’ आनंद बोला-‘नेचुरल पोज में-यों तनिक झुककर’ आनंद ने दोनों हाथ उसकी कमर में डालकर उसे घुमाना चाहा। बेला ने उठी हुई दोनों बांहें उसके गले में डाल दीं और बोली-‘कहो तो यों-’

आनंद ने मुस्कराकर उसके दोनों हाथ पुनः ऊपर उठा दिए। उसकी आँखों के उन्माद और वक्ष के तीखे उभार को देख आनंद शीघ्र ही परे हट उसकी तस्वीर लेने लगा।

दोनों बढ़ते-बढ़ते पहाड़ियों के ऊपर चढ़ गए और बादलों की ओट में खो गए। आनंद ने बेला की कमर में अपना हाथ डाल दिया। दोनों की आँखें एक-दूसरे से कुछ कहना चाहती थीं, परंतु कह नहीं सकती थीं।

‘यों लगता है जैसे धरती छोड़ आकाश में उड़े जा रहे हों।’ बेला ने आनंद के पास आते हुए कहा।

‘आकाश में उड़ तो जाएँगे, यदि लौट न सके तो…’ आनंद ने पूछा।

‘तो क्या? वहीं रह जाएँगे-सुना है स्वर्ग भी वहीं है।’

‘जहाँ हम हैं वहाँ भी तो स्वर्ग है।’

धुंध के बादल कुछ ऊपर उठे तो दृश्य साफ हो गया। दोनों एक खुले स्थान पर पहुँच गए। जहाँ से नीचे देखने पर लगता था जैसे बादल नीचे धरती पर हों और स्वयं आकाश पर।

दूर एक भयानक शोर सुनाई दे रहा था। बेला ने पूछा-‘यह क्या है?’

‘झरना-लोनावाला की पहाड़ियों में सबसे बड़ा झरना।’

‘लोनावाला!’

‘हाँ लोनावाला-अब हम खंडाला से दूर लोनावाला की सीमा में हैं। जहाँ हम खड़े हैं, इसे टाइगर प्वाइंट कहते हैं।’

‘तो क्या यहाँ टाइगर-शेर भी होते हैं?’ बेला भय से आनंद से लिपट गई।

‘हाँ बेला, शेर-बब्बर शेर-किंतु हमें वह कुछ नहीं कर सकते।’

‘वह कैसे?’

‘आओ तुम्हें दिखाऊँ।’

Prev | Next | All Chapters 

वापसी गुलशन नंदा का उपन्यास

कांच की चूड़ियां गुलशन नंदा का उपन्यास

प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास

बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास 

Leave a Comment