चैप्टर 5 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 5 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online
Chapter 5 Neelkanth Gulshan Nanda Novel
गाड़ी सुरंग से बाहर निकली तो खिड़की से हवा के तेज झोंकों ने दोनों को सचेत कर दिया। दोनों झट से अलग हो गए। बेला के गंभीर और चिंतित मुख पर मुस्कान की हल्की-सी एक रेखा दौड़ गई और वह भागते हुए ‘टॉयलेट’ का द्वार खोल भीतर चली गई, अपनी लज्जामयी दृष्टि को छिपाने के लिए, जो अब आनंद के सम्मुख उठने से झिझकती थी।
आनंद ने अपना सामान संभालना आरंभ कर दिया। बार-बार उसकी दृष्टि टॉयेलेट के बंद द्वार तक जाकर लौट आती। बेला की उपस्थिति को अनुभव करके ही वह किसी भय से कांप जाता। उसके मन में उठता हुआ तूफान अब बैठ रहा था, शिथिल पड़ रहा था।
एकाएक ही उसके मस्तिष्क पर संध्या की एक धुंधली-सी छाया स्पष्ट हुई, जो उससे पूछ रही थी-‘खंडाला से कब लौटेंगे।’ आनंद का रोआं-रोआं कांप गया। उसके माथे पर श्वेत बिंदु फूट निकले और वह अपने आपको कोसने लगा। चंद ही क्षणों में वह क्या मूर्खता कर बैठा। उसे उस ज्वाला के समीप न जाना चाहिए था, जो उसे जलाकर राख कर दे।
बेला एक ज्वाला ही तो है, किंतु उसकी जलन में कितना सुख मिलता है। संध्या से अति सुंदर-उसके यौवन में उन्माद देखने की हर चेष्टा, उसका हर हाव-भाव प्रभावित लगता है। उसे देख मृत हृदय भी सजीव हो उठता है, फिर मैं तो स्वयं तरुण हूँ, मैं पागल नहीं हुआ, पहल उसी की थी। यदि किसी उन्माद के अधीन मैंने खींचकर उसे अपनी बांहों में भर लिया तो कैसा दोष? मेरे स्थान पर कोई भी होता तो विपथ हो जाता, मैं तो फिर भी सुध में हूँ।
‘आप सचेत नहीं कदाचित्’, बेला के इन शब्दों ने आनंद को चौंका दिया। उसने मुड़कर बेला को देखा, जो उसके सम्मुख खड़ी उसे देख रही थी। आनंद को चिंता में खोया देख वह बोली-‘मैंने कहा खंडाला आ गया।’
‘क्या?’ आनंद ने अवाक् दृष्टि से पहले उसे देखा और फिर लपक कर खिड़की से बाहर। गाड़ी रुक चुकी थी और सामने बोर्ड पर बड़े अक्षरों में लिखा ‘खंडाला’ पढ़ते ही आनंद की आँखें खुल गईं, मानो किसी ने उसे स्वप्न से जगा दिया हो।
आनंद को यह देखकर संतोष हुआ कि उसका डिब्बा प्लेटफॉर्म से बाहर आ ठहरा था और बरखा के कारण स्टेशन उजाड़ था। स्टेशन तो सदा यूं ही रहता था, परंतु आनंद ने कभी यह उजड़ापन अनुभव नहीं किया था। क्योंकि बचपन इन्हीं पहाड़ियों में खेल-कूदकर बीता था। वह शीघ्रता से सामान उतारने लगा।
सामने से गुजरते दीनू चौकीदार को आनंद ने पुकारा, जो आनंद को देखते ही प्रसन्नता से उछल पड़ा और बोला-‘छोटे बाबू! तुम कब आए?’
‘अभी!’ उसने मुस्कराते हुए उस गाड़ी की ओर देखा, जो धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म छोड़ रही थी। जब उसने दीनू को आश्चर्य से बेला को देखते देखा तो अपनी घबराहट छिपाते हुए बोला-‘पिताजी कहाँ हैं?’
‘स्टेशन पर ही। ड्यूटी पर हैं।’
आनंद कुछ सोचकर डर गया। तो पिताजी आज ड्यूटी पर हैं-उसे बेला के संग यूं देखकर क्या सोचेंगे और बेला से भी वह क्या कहे। वह तो न जाने अपनी हठ पर क्यों अड़ी हुई है। वह दीनू को थोड़ी दूर ले गया और अपनी विवशता की पूरी कथा उसे सुना दी। दीनू आनंद के पिताजी के स्वभाव से परिचित था, जीवन के कई वर्ष उसने उन्हीं के साथ व्यतीत किए थे।
बेला दोनों को आपस में चोरी-छिपे बातें करते देख मन-ही-मन मुस्करा रही थी। आनंद बात समाप्त करके बेला के पास आया और बोला, ‘एक बात मानोगी?’
‘कौन-सी?’
‘डरता हूँ कहीं बुरा न मान जाओ।’
‘अच्छा मान भी गई तो आपका क्या और दूसरे के मन की दशा देखकर तो मैं बुरा भी न मानूँगी।’
‘मनुष्य को होना भी ऐसा ही चाहिए। मेरा विचार है…’ कहते-कहते आनंद रुक गया।
‘कहिए! रुक क्यों गए? आपके मन की बात मैं समझ गई।’
‘क्या?’ आनंद ने आश्चर्य से पूछा।
‘कि मेरा इस समय यूं आपके घर जाना उचित नहीं।’
‘हाँ बेला, इसीलिए।’
‘आपने सोचा कि आज रात मैं वेटिंग रूम में ही व्यतीत कर लूँ।’ बात काटते हुए वह बोली।
‘तुम ठीक समझ गईं।’
‘तो चलिए, मैं तैयार हूँ।’
‘परंतु अभी नहीं, पिताजी ड्यूटी पर हैं और वेटिंग-रूम खुलवाने से पहले चाबी उन्हीं से लेनी होगी।’
‘तो फिर मैं यहीं बैठी रहूँ?’
‘नहीं तो, उस सामने वाले डिब्बे में बैठ जाओ। वह रात भर यहीं रहेगा। किसी सरकारी अफसर का है, जो इस क्षेत्र का दौरा कर रहा है।’
‘और आप?’
‘मैं पिताजी के जाते ही तुम्हारे पास आ जाऊँगा और चौकीदार से वेटिंग-रूम खुलवाकर तुम्हारे आराम का पूरा प्रबंध करवा दूँगा। अच्छा, डरने की कोई बात नहीं। चौकीदार तुम्हारा ध्यान रखेगा।’
इस तरह आनंद ने बेला को टालने पर सहमत कर लिया। वह भी प्रसन्न थी कि इतनी रात गए एक अनजाने घर में व्यर्थ प्रश्नों की बौछार से बच गई और फिर एकांत में आनंद भी तो उससे मिलने आएगा। यह सोच उसके मन में गुदगुदी होने लगी।
बेला का सामान दीनू ने डिब्बे में लगा दिया। आनंद के संकेत पर वह डिब्बे की ओर बढ़ी और चौकीदार के हाथ का सहारा लेकर ऊपर चढ़ गई।
ज्यों ही आनंद अपना सूटकेस उठा प्लेटफॉर्म की ओर मुड़ा, बेला ने बड़ी सुकुमारता से कहा-‘मुझे भूख लगी है।’
‘अभी प्रबंध किए देता हूँ। दीनू तुम मेरे साथ आओ।’ यह कहकर आनंद आगे चला गया। थोड़ी दूर जाकर उसने घूमकर देखा। बेला डिब्बे के द्वार से लगी उसे देखे जा रही थी। कदाचित् उसकी दृष्टि उस मार्ग की जांच कर रही थी, जिस पर आनंद जा रहा था।
आनंद को अचानक देख उसके पिताजी अतिप्रसन्न हुए और उसे गले से लगा लिया। उनकी ड्यूटी लगभग एक घंटे में समाप्त होने वाली थी और उन्होंने आनंद को अपने साथ ही रुकने को कहा। किंतु उसके मुख पर व्याकुलता के चिह्न देख वह समझे कि माँ से मिलने के लिए बेचैन होगा। दो क्षण चुप रहने के पश्चात् बोले-‘अच्छा, चलो मैं आ जाऊँगा।’ डूबते को जैसे आशा की किरण मिल गई। वह तेजी से दीनू के संग हो लिया।
घर निकट ही था। ऊपर वाले कमरे की खिड़की से छन-छन कर आती रोशनी यह बता रही थी कि माँ अभी सोई नहीं। वह लपककर भीतर आया और चुपके से माँ की आँखें अपनी हथेलियों से बंद कर दीं। माँ बोली-‘कौन? मेरा लाल! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही थी।’
‘तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि मैं आ रहा हूँ।’ दोनों हाथ माँ के कंधों पर रखते हुए बोला।
‘मेरा मन मुझसे कह रहा था। विश्वास न हो तो देख लो तुम्हारे लिए खाना भी रखा है।’
‘ओह खाना! हाँ माँ, मैं भूल ही गया था। शीघ्र ही किसी बरतन में खाना लगा दो। दीनू!’ आनंद ने खिड़की में से झांककर नीचे खड़े दीनू को आवाज देते हुए कहा।
‘परंतु किसके लिए? तुम्हारे बाबा तो खा गए।’
‘उनके लिए नहीं, एक सहयोगी के लिए, जो वेटिंग-रूम में है। मेरा एक मित्र है।’
‘तो उसे घर तक ही ले आते।’
‘बहुत कहा, पर वह नहीं माना।’
बाहर बादल की गरजन फिर सुनाई दी और माँ रसोईघर की ओर भागी। कहीं बरखा फिर आरंभ न हो जाए और शीघ्रता से खाना परोसने लगी।
खाना लेकर आनंद नीचे दीनू के पास गया, किंतु उसके हाथों में वह खाना देते रुक गया और फिर कुछ सोचकर बोला-
‘दीनू लाओ यह बरसाती मुझे उतार दो।’
‘आपको? किसलिए?’
‘खाना लेकर मैं स्वयं जाऊँगा। बाबा इस बरसाती में तो दूर से मुझे चौकीदार ही समझेंगे।’
‘जी, कहीं बाबूजी ने दीनू समझकर पुकार लिया तो।’
‘तो क्या, मुझे तो बाहर ही से जाना है। तुम चिंता न करो।’
दीनू ने झट से अपना बरसाती कोट उतार आनंद को दे दिया। आनंद ने बरसाती को इस ढंग से ओढ़ लिया कि कोई शंका न करे और बाहर से घूमकर प्लेटफॉर्म पर आया। काली घटाएँ स्टेशन पर एक धुंध का पर्दा लिए हुए थीं, जिसकी ओट लिए अपने आपको छिपाए आनंद डिब्बे की ओर बढ़ता जा रहा था।
बेला मार्ग पर दृष्टि बिछाए, पहले से ही द्वार में लगी प्रतीक्षा में खड़ी थी। आनंद ने मन-ही-मन उसे बनाने की सोची। उसने भी तो गाड़ी में उसे बनाया था। आनंद ने अपने मुँह को गर्म मफलर से ढंक लिया, जिससे आँखों के अतिरिक्त सब कुछ छिप गया।
उसके डिब्बे के निकट पहुँचने पर बेला नीचे उतरी और उसके हाथों से खाना लेकर ऊपर चढ़ गई। आनंद भी उसके पीछे-पीछे ऊपर आ गया। बेला ने टिफिन खोल खाना सीट पर लगा लिया और उसकी ओर असावधानी से देखते हुए बोली-‘अब तुम जाओ, मैं खा लूँगी।’
‘माँ जी ने कहा है बर्तन साथ वापस लाना।’ आनंद ने भारी स्वर में उत्तर दिया।
‘अच्छा, लो यह गिलास-नल से पानी ले आओ।
आनंद आज्ञा पालन के लिए उठा और गिलास लेकर नीचे उतर गया। बेला उसे ध्यानपूर्वक नीचे जाते देखती रही, फिर मुस्करा पड़ी। जो रहस्य आनंद उससे छिपाना चाहता था, वह उसके नये सफेद जूते और रेशमी जुराबें न छुपा सकीं।
आनंद जब पानी लेकर लौटा तो बेला फिर गंभीर हो गई, जैसे वह अभी तक उसे चौकीदार ही समझ रही हो। खाना खाते हुए वह कई बार कनखियों से झांककर आनंद को देख लेती, जो मफलर में से टकटकी लगाए उसे देखे जा रहा था। बीच में बेला ने उसे संबोधित करते हुए पूछा-‘क्या भूख लगी है?’
‘नहीं तो!’
‘तो फिर मुझे यूं क्यों देखे जा रहे हो?’
आनंद निरुत्तर हो गया। बेला ग्रास को मुँह में रखती हुई बोली-
‘मफलर से ढंका सिर और मुँह, उसमें दो मोटी-मोटी आँखें, जानते हो कैसे लग रहे हो?’
‘कैसा?’
‘जैसे उल्लू!’ बेला मुस्कराते हुए आनंद से बोली, जो अभी तक छिपी दृष्टि से बेला को देखे जा रहा था।
खाना खाने के पश्चात् बेला ने टिफिन बंद किया और सामने की सीट पर आ बैठी। आनंद ने टिफिन उठा लिया। वह उलझन में था कि कैसे बेला को चक्कर में लाते-लाते वह उसमें स्वयं फंस गया।
‘इतनी शीघ्रता क्यों चौकीदार?’ बेला ने अपने होंठ सिकोड़ते हुए आनंद से कहा। बेला का संकेत पाते ही वह फिर बैठ गया। बेला असावधानी से उसके निकट आ बैठी और अंगड़ाई लेते हुए बोली-
‘तुम्हारा साहब कब आएगा चौकीदार?’
‘वह अब नहीं आएँगे।’
‘क्यों?’ बेला ने गंभीर होकर पूछा।
‘जी, कदाचित आप बड़े बाबू को नहीं जानतीं। वह बड़े कठोर स्वभाव के हैं।’
‘ओह! तब तो उनसे अवश्य भेंट करनी चाहिए।’
‘वह क्यों?’
‘इसलिए कि कठोर स्वभाव के व्यक्ति मुझे बड़े अच्छे लगते हैं।’
‘परंतु यह कठोरता तो उनके घरवालों या अपने अधीन व्यक्तियों के लिए है, आपको वह क्या कहेंगे?’
‘मैं भी तो उन्हीं में से हूँ। जानते हो मैं कौन हूँ चौकीदार।’
‘नहीं मेम साहिब!’
‘उनकी मंगेतर।’ बेला ने कुछ संकोच से कहा-‘और वह घरवालों से मेरी भेंट करवाने लाए हैं।’
‘छोटे बाबू ने अभी तक मुझे बताया नहीं।’
‘तुम्हें क्या बताते-अभी तो वह स्वयं इससे अनभिज्ञ हैं।’
इस पर वे दोनों हँस पड़े। आनंद इसलिए कि चौकीदार के भेस में बेला के मन की बात सुन सका और बेला इसलिए कि इसी पर्दे में वह अपने मन की बात कह गई।
सहसा किसी के पाँव की चाप सुनाई दी और दोनों चौंक उठे। आनंद ने खिड़की का शीशा उठा बाहर झांककर देखा और फिर झट से बंद कर घबराहट में बोला-‘अब क्या होगा?’
‘क्यों क्या हुआ?’
‘स्टेशन मास्टर साहिब इसी ओर आ रहे हैं।’
‘क्या हुआ, उनसे भी भेंट हो जाएगी। देखो, तुम घबराना मत, ठीक-ठाक कह देना आनंद बाबू के अतिथि हैं। घर ले जाने को आया हूँ।’
‘बाप रे बाप! वह यहीं बरस पड़ेंगे।’
‘तो ठीक रहेगा। मैं भी उनका कठोर स्वभाव देख लूँ।’
‘किसी के प्राण जाएँ और आपका तमाशा।’
‘और इन उजाड़ पर्वतों में मन भी बहलाऊँ तो किससे?’
आहट पास होते ही आनंद दूसरी ओर के द्वार से बाहर जाने लगा, बेला ने झट मफलर पकड़ते हुए कहा-‘कहाँ चले चौकीदार, टिफिन तो लेते जाओ।’
मुख पर लिपटा हुआ मफलर खुलकर बेला के हाथों में आ गया और वह खिलखिलाकर हँसने लगी। आनंद ने द्वार का सहारा लेकर लज्जा से आँखें बंद कर लीं। बेला ने मफलर उसकी ओर फेंकते हुए कहा-‘चले थे, हमें बनाने।’
‘बनाने नहीं बनने!’ आनंद ने धीमे स्वर में कहा और मफलर लपेटकर नीचे उतर गया। बेला दूसरी ओर के द्वार में आ खड़ी हुई। घोर अंधेरे में डर से भागते हुए आनंद को देखने लगी। उसके मन को न जाने कौन गुदगुदाए जा रहा था।
‘चौकीदार!’ इस भारी स्वर ने आनंद को वहीं स्थिर बना दिया। बेला ने मुड़कर दूसरी ओर देखा। स्टेशन मास्टर साहिब गाड़ी के साथ-साथ चले आ रहे थे। उनके हाथ में रेलवे की लालटेन थी। समीप आकर उजाले में बेला को ध्यानपूर्वक देख उन्होंने पूछा-‘आप कौन?’
‘एक यात्री।’
‘यात्री! किंतु इस समय उजाड़ में क्यों बैठी हो?’
‘पूना की गाड़ी मिस कर दी।’
‘वेटिंग रूम खुलवा लिया होता।’ आनंद के पिता ने नम्रता से कहा।
‘यूं ही चंद घंटों के लिए कष्ट देना उचित न समझा।’
‘कदाचित् आपको ज्ञात नहीं अगली गाड़ी सवेरे नौ बजे मिलेगी।’
‘हे भगवान! तो इतनी भयानक रात कैसे कटेगी?’
‘इसलिए तो कहा है कि…’
‘आप ठीक कहते हैं, किंतु प्लेटफॉर्म पर यूँ अकेले…, क्या आप मुझे किसी पास के होटल में भिजवा सकते हैं?’
‘होटल दो मील से कम दूरी पर कोई नहीं है और फिर इतनी रात गए कैसे जाओगी?’
बेला ने मुख पर घबराहट के चिह्न उत्पन्न करते हुए स्टेशन मास्टर और आनंद दोनों को देखा। आनंद चौकीदार के भेष में भय से धरती में गड़ा जा रहा था। बेला के मुख पर चिंता को देख स्टेशन मास्टर साहब बोले-
‘यदि हानि न समझो तो मेरे घर ही चलो। आराम से रात कट जाएगी।’
‘जी!’ जैसे उनकी बात उसके मन भा गई हो।
‘मुझे जाने में तो थोड़ी देर है, चौकीदार तुम्हें ले जाएगा।’
‘तो वहाँ…’
‘घबराओ मत-मेरी पत्नी तुम्हारा स्वागत करेगी।’
बेला ने वहाँ जाने की बात सुन मुस्कराते हुए आनंद की ओर देखा, जो स्टेशन मास्टर का संकेत पा सामान उठा रहा था। क्या दृश्य था और क्या विवशता-हर कोई अपने स्थान पर ही ठीक था।
स्टेशन मास्टर के कहने के अनुसार आनंद सामान उठा तेज कदम बढ़ाता अपने घर की ओर चला जा रहा था और बेला चुपके से मुस्कराती साथ-साथ। दोनों चुपचाप थे, मौन को तोड़ते हुए बेला ने कहा-‘लाओ कुछ मुझे दे दो।’
‘धन्यवाद!’
‘आप मुझसे बिगड़ गए? भला इसमें मेरा क्या दोष है-आज्ञा तो आपके पिता की है।’
‘जी!’ वह फूले साँस में भारी स्वर में इतना ही कह पाया। सामान के बोझ में उसका शरीर दबा जा रहा था परंतु वह विवश था।
घर के बाहर बरामदे में पहुँचते ही आनंद ने धड़ाम से कंधे पर से सामान फर्श पर पटक दिया। तेज आवाज सुनकर सीढ़ियों में बैठा दीनू चौंककर बोला-‘छोटे सरकार आप।’
‘चलिए, महिला सरकार!’ आनंद ने बनावटी ढंग से कहा।
‘पहले आप! आगे आतिथ्य करने वाला और पीछे अतिथि।’ बेला ने उत्तर दिया। आनंद आगे बढ़ा और बेला इठलाती हुई पीछे हो ली।
दीनू ने जैसे ही सामान बरामदे में टिकाया, रसोईघर से आनंद की माताजी ने पुकारा-’ ‘तो क्या दीनू अतिथि घर पर आ गए?’
‘हाँ माँ जी!’ झट से आनंद ने उत्तर दिया और रसोईघर की चौखट तक पहुँचकर बोला-‘परंतु वह अतिथि मैंने नहीं, बाबा ने भेजा है।’
‘तो अपने बाबा से मिल आए?’ वह चूल्हेे में लकड़ी डालते हुए बोली।
‘नहीं माँ, वह दीनू के साथ आई है।’
जैसे ही माँ ने आँखेें उठाकर ऊपर देखा, बेला आनंद की पीठ पीछे से निकलकर सामने आ गई और हाथ जोड़कर झट से बोली-
‘नमस्ते माँ जी!’
‘नमस्ते बेटी! आओ, क्या तुम इसके साथ आई हो?’
‘नहीं माँ जी, स्टेशन मास्टर साहब ने भेजा है। आज रात आपकी अतिथि हूँ।’
‘सिर आँखों पर-आओ, भीतर आ जाओ। आनंद, दीनू से कह दो सामान भीतर ले आए।’
माँ रसोई घर से बाहर आ गई और बेला के सिर पर हाथ फेरती हुई प्यार से उसे अंदर ले गई।
थोड़े समय पश्चात् आनंद के बाबा भी आ गए। जब वह बेला की भेंट अपने पुत्र और पत्नी से कराने लगे तो यह सोचकर रुक गए कि अभी तक तो स्वयं उसका नाम नहीं जान पाए। बेला ने स्वयं अपना नाम लिया तो सब हँसने लगे। बेला ने अपना अभिनय अच्छी प्रकार निभाया और किसी पर स्पष्ट न होने दिया कि वह आनंद को पहले से ही जानती है।
बेला को विवशतः सबके संग दूसरी बार खाना खाना पड़ा। थोड़े ही समय में वह यूं घुल-मिल गई, जैसे उसी का अपना घर हो। बेला के सोने का प्रबंध माँ जी ने कमरे में करवा दिया। आनंद को अपने बाबा के कमरे में सोना पड़ा। दोनों कनखियों से एक-दूसरे को देख लेते, पर कुछ कह नहीं पाते। आनंद भी बाबा के सामने बिलकुल मौन हो बैठा था।
रात अधिक बीत चुकी थी। सब अपने-अपने बिस्तर पर आराम करने को जा लेटे थे, परंतु बेला की आँखों में नींद न थी। वह बार-बार गर्दन टेढ़ी कर खुली खिड़की के बाहर देखती। पर वहाँ सरसराती हुई हवा के अतिरिक्त कुछ न था। एकाएक उसका मन इस विचार से गुदगुदा उठा-
‘संभव है, आनंद भी अपने कमरे में लेटा उसी के विषय में कुछ सोच रहा हो।’
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