चैप्टर 4 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 4 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online
Chapter 4 Neelkanth Gulshan Nanda Novel
जैसे ही पूना एक्सप्रेस ने कल्याण का स्टेशन छोड़ा, वैसे ही बेला ने चुपके से डिब्बे में प्रवेश किया। आनंद द्वार की ओर पीठ पीछे किए कोई पत्रिका देख रहा था। बेला ने किवाड़ बंदकर चिटखनी लगा दी।
आहट पाते ही आनंद ने पत्रिका को छोड़ अपनी गर्दन मोड़ी। बेला ने झट से अपना मुँह मोड़ लिया और अपना सामान ठीक करने लगी। बेला सामने लगे दर्पण से आनंद की छाया को देख रही थी, जो आश्चर्य से अपने सह-यात्री को देखने में संलग्न था।
बेला भी उलझन में थी, आनंद के समक्ष हो तो कैसे? नयन चार होते ही क्या होगा? इस समय अकेली कल्याण में क्या कर रही थी? आनंद की प्रतीक्षा-और यह सोचते ही वह सकुचा गई।
एकाएक उसे एक शरारत सूझी। उसने नीचे की सीट से अपना भारी-भरकम सूटकेस उठाया और उसे ऊपर की सीट पर रखने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगी।
‘छोड़िए, मैं रख देता हूँ।’ सीट से उठते हुए आनंद ने कहा।
‘जी।’ यह कहकर जैसे ही बेला ने पलटकर देखा तो आनंद भौंचक्का सा देखता रह गया-बेला और यहाँ पर। कुछ इसी दशा के पश्चात् वह बोला-‘बेला तुम यहाँ कैसे?’
‘बेला?’ धीमे स्वर में उसने कहा और फिर गंभीर होकर बोली-‘बेला! वह कौन है?’
‘बेला तुम! पर बंबई छोड़ अकेली यहाँ?’
‘आप कदाचित भूल रहे हैं।’
‘भूल कैसे?’ आनंद ने सिटपिटाकर दो पग पीछे हटते हुए कहा।
‘अथवा मुझे अकेले देखकर।’
‘नहीं तो, किंतु आप?’
‘मेरा नाम बेला नहीं, इन्द्रा है और मैं कल्याण से पूना जा रही हूँ।’
‘ओह!’ आनंद विस्मित-सा अपनी सीट पर जा बैठा। उसकी उत्सुक दृष्टि बार-बार बेला पर उठ जातीं। इतनी बड़ी भूल असंभव है, ‘बेला-इन्द्रा यह क्या रहस्य है।’ जब भी दोनों की दृष्टि मिल जाती, आनंद सिहर उठता।
‘किंतु आप मुझे यूं बार-बार क्यों देख रहे हैं?’ आनंद को अधीर देख बेला झुंझलाकर बोली।
‘नहीं तो-कुछ समस्या ही ऐसी आन पड़ी है। सच बात तो यह है कि… कहते-कहते आनंद रुक गया और खिड़की से बाहर देखने लगा, जहाँ गहन अंधकार को छोड़ कुछ न था।
‘कहिए न चुप क्यों हो गए?’ बेला ने कहा।
‘मिस इन्द्रा! आपकी आकृति बिलकुल बेला जैसी है। यदि आप उसे देखें तो समझेंगी कि स्वयं अपनी छाया ही दर्पण में देख रही हैं।’
‘सच!’ बेला अपनी सीट से उठी और आनंद के समीप बैठते हुए बोली-‘क्या यह ठीक है कि मेरी आकृति आपकी बेला से मिलती है।’
‘जी!’ आनंद ने सिमटते हुए उत्तर दिया-‘मुझे अभी तक विश्वास नहीं हो रहा कि आप वास्तव में इन्द्रा ही हैं।’
‘और मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा कि आप यह सब सत्य कह रहे हैं अथवा मुझे अकेला देखकर बहका रहे हैं।’
बेला का उत्तर सुन आनंद जरा घबरा-सा गया और फिर संभलते हुए बोला-
‘देखिए! आपको ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम इस यात्रा में अकेले जरूर हैं, किंतु भय आपसे अधिक मुझको है।’
‘वह कैसे?’ बेला ने दृष्टि उठाते हुए पूछा।
‘इसलिए कि आप अपनी सीट छोड़ मेरे निकट आने का प्रयत्न कर रही हैं-मैं नहीं।’
‘ओह-मैं समझी।’ वह सीट से उठने का एक व्यर्थ प्रयत्न करते हुए बोली।
‘मेरा आशय यह न था।’
वह मुस्कराकर फिर वहीं बैठ गई। बेला बार-बार दृष्टि उठा आनंद के चिंतित मुख को देख रही थी, जो एक विचित्र उलझन में पड़ा था। कुछ समय चुप रहने के पश्चात् जब कोई न बोला तो बेला ने हाथ बढ़ाकर शीशा उठा दिया।
पानी के छींटों की बौछार बेला के मुँह पर पड़ी। आनंद हटकर दूर बैठ गया और बेला से बोला-
‘देखिए मिस साहिबा! पानी भीतर आ रहा है।’
‘आप सामने की सीट पर बैठ सकते हैं।’
‘और आप?’
‘मुझे पानी के छींटे बहुत प्रिय हैं।’ बेला अपने मुख को खिड़की के और समीप ले जाते हुए बोली। पानी के छींटे उसके कपोलों पर जलकण बन मोतियों के समान चमकने लगे। इस अनोखे खेल में वह आनंद अनुभव कर रही थी। बौछार पड़ते ही वह हँसने लगती। आनंद को उसका यह बालपन अच्छा न लग रहा था। उसने एक-दो बार उसे कुछ कहना भी चाहा, किंतु शब्द उसके मुँह में ही रुक गए।
‘एक बात पूछ सकती हूँ।’ कुछ समय पश्चात् बेला ने मौन को तोड़ते हुए पूछा।
‘अवश्य।’ आनंद ने अपनी सिहरन को छिपाते हुए उत्तर दिया।
‘तो आपने कैसे जाना कि मैं कुँवारी हूँ।’
‘तो क्या मेरा यह समझना भूल थी।’
‘संभव है।’
‘यदि आप इसे अशिष्टता न समझें तो मैं भी कुछ पूछ सकता हूँ।’
‘अवश्य।’ बेला ने उसी मुद्रा में उत्तर दिया।
‘आपके पतिदेव का शुभ नाम।’ आनंद ने दबे स्वर में पूछा।
‘कदाचित आप भूल गए हैं कि हिंदू स्त्रियाँ अपने पति का नाम नहीं लेतीं।’
‘ओह, तो आप भी इन रूढ़ बातों को मानती हैं।’
‘जी! किंतु थोड़े परिवर्तन के साथ।’
‘वह कैसे?’
‘विवाह के पश्चात् तो नाम ले लेते हैं, किंतु उसके पहले नहीं।’
‘तो अभी केवल सगाई हुई है?’ आनंद ने हँसते हुए कहा।
‘कुछ यूं ही समझ लीजिए।’
‘किंतु पता-ठिकाना तो कोई होगा ना!’
‘बंबई में किसी कार कंपनी के मैनेजर हैं।’
‘कार कंपनी के।’ आनंद ने आश्चर्य से बेला की ओर देखकर दोहराया, जो एक चपल मुस्कान से उसे देख रही थी।
‘हाँ-हाँ कार कंपनी के-जनरल कार कंपनी के।’
अपनी फर्म का नाम सुनते ही आनंद सारी बात समझ गया और चिल्लाया ‘बेला!’ फिर अपनी ही भूल पर लजा-सा गया। बेला उसकी सूरत और अपनी सफलता पर पागलों की भांति हँसने लगीं।
आनंद ने लपककर शीशा बंद कर दिया और बेला के समीप होकर बोला-‘परंतु तुम यहाँ कैसे?’
‘आपने वचन जो दिया था।’
‘वचन-मैंने!’ आश्चर्यचकित आनंद ने पूछा।
‘जी हाँ, खंडाला दिखाने का मैं स्वयं ही चली आई, इससे आपको बुरा तो नहीं लगा।’
‘ओह? परंतु इतनी शीघ्र तुम…’
‘शुभ कार्य में विलम्ब कैसा!’ बेला उसके निकट आते हुए बोली।
‘मैं समझा-परंतु घर पर!’
‘कहकर आई हूँ। पर आप इस कदर घबराए हुए क्यों हैं?’
‘नहीं तो। फिर भी आपकी बातों पर विश्वास नहीं आता। यह अकेले।’
‘हाँ, मिस्टर आनंद!’ बेला एक लंबी साँस लेते हुए बोली, ‘आप मेरी बातों पर विश्वास क्यों करेंगे। दीपक स्वयं पतंगे के पास चला आया।’
‘दीपक-पतंगा-यह…’ आनंद बेला का संकेत समझकर घबरा-सा गया।
‘एक कल्पना-कवि का एक व्यर्थ विचार-अच्छा छोड़िए इन बातों को। कहिए कल का क्या कार्यक्रम है?’
‘कैसा कार्यक्रम?’ आनंद उलझन में पड़ गया।
आनंद का उतरा हुआ मुख देखकर बेला मुस्कराई और चंचल नयनों से कुछ क्षण उसकी ओर देखती रही। फिर उसे अपनी पूना जाने की सब बात सुना दी।
आनंद को जब यह ज्ञात हुआ कि बेला शीघ्र पूना नहीं जाना चाहती, बल्कि इतवार का दिन उसके साथ खंडाला में व्यतीत करना चाहती है, तो वह बहुत घबराया। कहीं बेला के बचपने का दण्ड उसे न भुगतना पड़े। इस विचार ने उसे असमंजस में डाल दिया।
वर्षा की बौछार और गाड़ी की तीव्र गति कल्पना में वही दृश्य प्रस्तुत कर रही थी, जो आनंद के हृदय की तेज धड़कन और बेला की मचलती कामनाएँ, एक विचित्र उलझाव था दोनों में।
‘बेला रात को कहाँ ठहरेगी?’ यह प्रश्न बार-बार आनंद की चिंता को बढ़ाने के लिए उसके मस्तिष्क के पर्दों से टकरा रहा था। उसके माता-पिता पुराने विचारों के व्यक्ति थे। इतनी रात में उसके संग इस आधुनिक तितली को देखकर वे कुछ और न समझ बैठें। अभी तो उसे उन्हें संध्या के लिए मनाना है। वह बड़ी उलझन में था कि क्या करे। उसने दो-एक बार बेला को समझाते हुए कहा कि उसका पूना जाना ही उचित था, किंतु वह कहाँ मानने वाली थी। हठ और फिर यौवन का हठ, उसे तोड़ना सरल न था।
गाड़ी अपनी पूरी गति से दौड़े जा रही थी। आनंद व्यग्र और मौन खिड़की से बाहर घनघोर घटाओं को देख रहा था और बेला उसके मुख को, जिस पर चिंता की रेखाएँ स्पष्ट थीं। आनंद कभी-कभी छिपी दृष्टि से बेला को देख लेता तो वह उत्तर में हल्के से मुस्करा देती।
‘आप बाहर क्या देख रहे हैं?’ बेला निस्तब्धता भंग करते हुए बोली।
‘इन उमड़ती हुई घटाओं को।’
‘तो इधर भी देखिए।’
‘कहाँ?’ आनंद विस्मित-सा बोला।
‘हमारी ओर! हमारे मन में भी तो तूफान उमड़ रहे हैं।’
‘तूफान और तुम्हारे मन में? कैसा सुंदर विचार है।’ यह कहकर वह जोर-जोर से हँसने लगा, जैसे उसके इस विचार का उपहास कर रहा हो। बेला क्रोध को अपनी बेबस आँखों में छिपाने का प्रयत्न करने लगी, जो आनंद से इस समय हँसी का कारण पूछ रही थी।
उसके भावों को भांपते हुए आनंद बोला-
‘बेला! भंवर में फंसी नाव भी मन में तूफान रखती है, यह मैं आज ही समझ पाया।’
यह कहते ही वह अपनी सीट छोड़ उसके समीप आ गया और उसके बालों में स्नेह से हाथ फेरने लगा, जैसे किसी बालक को प्यार कर रहा हो। कुछ क्षण पश्चात् दबे और अस्पष्ट शब्दों में बोला-
‘मन में तूफान रखती हो या कामना-यह तो मैं नहीं जानता। हाँ, आँखों में वह बिजली अवश्य है, जो घटा में छिपी रहती है।’ और तभी गाड़ी एक सुरंग से गुजरने लगी। अंधेरा होते ही बेला की हल्की-सी चीख निकल गई और वह आनंद से लिपट गई। घुप्प अंधेरे में गाड़ी की गड़गड़ाहट और इंजन की सीटी के शोर में दोनों के हृदय की धड़कन स्पष्ट सुनाई दे रही थी। गाड़ी के सुरंग से बाहर निकलते ही अंधेरे का स्थान उजाले ने ले लिया। आनंद ने देखा, वह सहमी-सी अपने सिर को उसके सीने पर टिकाए और उसके हाथ बेला के कंधों को आश्रय दिए हुए हैं।
ज्यों ही आनंद ने हाथ हटाए, बेला ने उसकी उंगलियों को अपने हाथों में जकड़ लिया और धीमे से बोली-
‘इस उजाले से तो अंधेरा ही अच्छा था।’
‘कैसे?’
‘भूले से किसी को सहारा जो दे दिया।’
इसके साथ ही वह प्यार से आनंद का हाथ पकड़ उसकी उंगलियों को धीरे-धीरे दांतों से काटने लगी। आनंद मौन और चकित उसकी भावनाओं को देखे जा रहा था। उसने लड़कियों का यह साहस और हाव-भाव अंग्रेजी फिल्मों में तो देखा था, किंतु निजी जीवन में किसी युवती को यूं भावना में आपे से बाहर होते आज ही देखा था।
गाड़ी ने फिर एक सुरंग में प्रवेश किया-फिर अंधेरा छा गया और उसके साथ ही आनंद के हृदय की धड़कन तेज हो गई। न जाने अब की बार यह अंधेरा क्यों डरा रहा था।
ज्यों-ज्यों बेला उसके समीप हो रही थी, उसके शरीर में सिहरन-सी होने लगी। सुरंग अधिक लंबी थी-घोर अंधेरे में बेला का शरीर आनंद को यूं लगा जैसे दहकते हुए अंगारे। बेला ने फूले श्वास से दबे शब्दों में पुकारा-‘आनंद!’
‘हूँ।’ आनंद ने बंद होंठों से ही उत्तर दिया।
‘फिर अंधेरा छा गया।’ बेला ने कंपित स्वर में कहा।
‘तो क्या हुआ?’
‘कहीं मैं इस घोर अंधेरे में डूब गई तो?’
‘मेरा हाथ पकड़ लेना-तुम्हें आश्रय मिल जाएगा।’
‘क्या भरोसा?’
‘मेरा अथवा तुम्हारा! मुझे तो डर लग रहा है कि कहीं सहारा लेते-लेते मुझे भी न ले डूबो।’
‘हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे, यह तो आपने सुना ही होगा।’
‘सुना तो है, पर देखा नहीं अभी तक।’
‘तो यह भी देख लोगे।’ बेला ने चंचलता से उत्तर दिया। वह कुछ और कहने को थी कि उजाले की किरणों ने फिर से कमरे में प्रकाश कर दिया। गाड़ी की गति पहले से कुछ धीमी पड़ गई थी। कदाचित कोई स्टेशन निकट आ रहा था। आनंद ने अनुभव किया अंधेरे का सहारा ले बेला उसके अधिक समीप आ चुकी थी।
आनंद धीरे से उठकर परे जा बैठा। वह उसकी इस चेष्टा पर मुस्करा पड़ी और खिड़की खोल फिर से बरखा के छींटों का आनंद प्राप्त करने लगी। आनंद भी मौन बैठा उसे निहारने लगा। गाड़ी रुक गई। बेला ने बाहर झांककर देखा-डिब्बा प्लेटफॉर्म से बाहर था और अंधेरे में प्रयत्न करने पर भी वह न जान सकी कि वह कौन-सा स्टेशन है। उसने तीखी दृष्टि से आनंद को देखते हुए पूछा-
‘कितनी दूर है तुम्हारा खंडाला?’
‘खंडाला का नाम सुनते ही वह सिर से पाँव तक कांप उठा, मानो यह नाम लेकर किसी ने उसके मस्तिष्क पर हथौड़ा दे मारा हो। वह अपनी घबराहट को होंठों की मुस्कान में गुम करते हुए बोला-‘कदाचित अगला स्टेशन है।’ इंजन ने सीटी दी।
‘कदाचित, क्या आप विश्वास से नहीं कह सकते’, बेला ने खिड़की से बाहर प्लेटफॉर्म को देखते हुए पूछा, जो अब पीछे छूट गया था।
गाड़ी सिगनल के पास पहुँचकर अपनी पुरानी गति पकड़ चुकी थी। ‘जब अपने आप पर विश्वास उठ जाए, तो जानते हैं क्या करना चाहिए?’ बेला ने कुछ क्षण पश्चात् पूछा।
‘क्या?’ आनंद होंठ सिकोड़ थोड़ा समय चुप रहकर बोला।
‘किसी का आश्रय लिया जाता है कि ठोकर न लग जाए।’
‘किंतु इस वन वे में किसका आश्रय लूँ?’
‘मेरा!’ बेला ने दृढ़ता से कहा। आनंद उत्तर में केवल मुस्करा दिया, जैसे उसकी दृष्टि बेला से यह प्रश्न कर रही हो, आश्रय-और वह भी तुम्हारा। एक पुरुष एक स्त्री का आश्रय ले, क्या व्यर्थ विचार है।
डिब्बे में फिर अटूट चुप्पी छा गई, जैसे दोनों के शब्दों का प्रवाह रुक-सा गया हो। दोनों की दृष्टि आपस में टकराकर एक-दूसरे के मन में हलचल सी उत्पन्न कर रही थी। बरखा की तूफानी रात, गरजन का शोर और उसमें दो प्रेममय हृदयों की धड़कन का खो जाना।
विचित्र वातावरण था, दोनों के मुख किसी चिंता को स्पष्ट करते-करते रंग बदल रहे थे।
बेला की आँखों में बिजली का-सा प्रभाव था। उसने एक चंचल मुस्कान से आनंद की ओर देखा और अपना मुख खिड़की से बाहर निकाल वर्षा की तेज छींटों के नीचे रख दिया।
आनंद अपनी सीट से उठकर उसकी ओर बढ़ा और खींचकर उसे बाहुपाश में ले लिया। दोनों के होंठ मिले और शरीर में एक ज्वाला-सी भड़क उठी। यह सब इतना शीघ्र हुआ कि दोनों में से कोई न सोच सका कि यह क्या हो रहा है।
बेला ने संकोच से आँखें झुका लीं और अपना मुख आनंद के सीने में छिपाने का प्रयत्न करने लगी।
गाड़ी ने फिर एक सुरंग में प्रवेश किया। अंधेरा होते ही बेला आनंद से लिपट गई। आनंद ने उंगलियों से उसके भीगे हुए बालों को निचोड़ते हुए कहा-‘डर लग रहा है क्या?’
‘हाँ!’ उसके होंठ कांप रहे थे।
‘मुझसे?’
‘नहीं तो, इस अंधेरे से।’
‘ओह! यह अंतिम है।’
‘क्या?’
‘हमारे मार्ग की अंधेरी सुरंग-खंडाला आने को है।’
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कांच की चूड़ियां गुलशन नंदा का उपन्यास