चैप्टर 3 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 3 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 3 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 3 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Gulshan Nanda Ka Upanyas 

Chapter 3 Neelkanth Gulshan Nanda Novel

Chapter 3 Neelkanth Gulshan Nanda Novel

‘साहिब! आपसे कोई मिलने आया है।’ चपरासी ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा।

‘कौन है?’ आनंद ने हाथ बढ़ाया।

‘कार्ड नहीं दिया, कोई महिला हैं।’

‘कोई गाड़ी के विषय में, या…’

‘केवल आपसे मिलना चाहती हैं।’

‘अच्छा भीतर भेज दो।’

चपरासी के बाहर जाते ही बेला भीतर आ गई।

‘बेला तुम!’ आनंद अवाक्-सा उसे देखता ही रह गया। आज प्रथम बार वह उसके कार्यालय में आई थी और वह भी अकेली ही।

‘क्या बैठ सकती हूँ?’ बेला ने कुर्सी खींचते हुए पूछा।

‘क्यों नहीं। क्या अकेली आई हो?’

‘जी घर में अकेले बैठे मन न लगा तो सोचा आप ही से मिल आऊँ।’

‘तब मुझे तुम्हें धन्यवाद कहना चाहिए।’

‘भला क्यों?’

‘इतने बड़े संसार में मन बहलाने को मुझ पर जो दृष्टि पड़ी।’

दोनों एक साथ हँसने लगे। दोनों की आँखों में एक विचित्र झलक थी, जिसके प्रतिबिंब में वह दृश्य छिपा था जब एक रात उन्होंने निकट से एक-दूसरे के हृदय की धड़कन सुनी थी। एक आकर्षण था, जो दोनों को एक-दूसरे के समीप ला रहा था।

बातों-ही-बातों में बेला ने शो-रूम देखने की इच्छा प्रकट की। आनंद कुर्सी छोड़ते हुए बोला-

‘सेल्समैन होने के नाते हर गाड़ी की विशेषता पर भाषण तो देना ही होगा, किंतु परिश्रम व्यर्थ जाएगा।’

‘वह क्यों?’

‘गाड़ी तो लेनी नहीं तुम्हें?’

‘यदि ले लूँ तो!’ कुछ क्षण तक मौन रहने के पश्चात् बेला ने कहा।

‘कब?’

‘अपने विवाह के पश्चात्।’

‘ओह!’ आनंद होंठ सिकोड़ते हुए बोला-‘तो क्या तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारे ससुराल वाले धनी होंगे?’

‘इसमें संदेह ही क्या है? माता-पिता ब्याह देखभाल कर ही तो करेंगे। यूं ही किसी पथिक के साथ पल्लू थोड़ा ही बांध देंगे। अब तो समय बदल गया है।’

‘बेला! समय तो चाहे बदल जाए, किंतु भाग्य नहीं बदल सकता।’

‘तो आप भी इन बातों में विश्वास करते हैं?’

‘करना ही पड़ता है। अच्छा छोड़ो भी, क्या विषय छेड़ दिया, आओ तुम्हें गाड़ियां दिखाऊँ।’

आनंद बेला को बारी-बारी शोरूम की सब गाड़ियाँ दिखाने लगा। बेला किसी गाड़ी का हॉर्न बजाकर, किसी के स्टेयरिंग पर बैठकर, किसी की सीट पर उछलती-मुस्कराती अपने मन का उल्लास प्रकट कर रही थी।

मर्सडीज की एक गाड़ी में बैठकर बेला ने आनंद का हाथ खींचते हुए कहा-‘मुझे तो यह गाड़ी अति प्रिय है।’

‘तो खरीद लो।’ आनंद ने खिड़की के निकट मुँह ले जाते हुए कहा।

‘यदि लेने वाले के पास इस समय पैसे न हों तो?’

‘तो अपनी कोई बहुमूल्य वस्तु गिरवी रख दें।’

‘परंतु उसका मूल्य पाने वाला जौहरी कहाँ मिलेगा?’

‘हम भी सुनें, वह रत्न है कौन-सा?’

‘मेरा हृदय।’

बेला की यह बात सुनकर आनंद खिलखिलाकर हँसने लगा। थोड़े समय के लिए वह भूल गया कि वह वहाँ का मैनेजर है। फिर उसने धीमे स्वर में बेला से कहा-

‘जो अपना हृदय एक गाड़ी के लिए गिरवी रखने को तैयार हो जाता हो, उसकी निजी वास्तविकता क्या है?’

बेला ने उत्सुकतापूर्वक ऊपर देखा।

‘एक छकड़ा, जो समय की गति में चलते-चलते बेकार हो चुका है।’

बेला यह उत्तर पाकर जल-भुन गई। वह व्यंग्य उसके मन को छलनी कर गया, पर क्रोध को पी गई। आनंद उसके मुख पर उद्विग्नता के चिह्न देखकर मुस्करा पड़ा और उसे खींचते हुए अपने केबिन में ले गया।

थोड़े समय पश्चात् दोनों ऑफिस में बैठे चाय पी रहे थे। बेला की दृष्टि में अब वह पहले की चंचलता और नटखटता न थी। अब वह गंभीर मुद्रा में थी। अपने सौंदर्य और हाव-भाव से वह चाहे उसके शरीर में एक फुरहरी-सी भर देती, किंतु बातों में उसे पराजित न कर पाई।

जब इन्हीं बातों में बेला ने कार चलाना सीखने की अभिलाषा प्रकट की तो आनंद ने खंडाला से लौटकर सिखाने का वचन दिया।

‘खंडाला! वहाँ क्या है?’

‘माता-पिता नगर के जीवन से दूर पर्वतों की घाटी में।’

‘क्या करते हैं उजाड़ में वे?’

‘खंडाला के छोटे से स्टेशन पर स्टेशन मास्टर हैं।’

‘सुना है सैर-सपाटे के लिए सुंदर स्टेशन है।’

‘बहुत सुंदर बेला, कहने को तो बंबई और खंडाला में केवल अस्सी मील का अंतर है, परंतु वहाँ जाकर यूँ अनुभव होता है मानो कोई बंबई से सैकड़ों मील दूर आ गया हो।’

‘काश! मैं भी यह देख सकती।’

‘इतनी निराशा क्यों-वचन दिया, तुम्हें भी एक बार ले चलूँगा।’

‘कब?’

‘कुछ समय प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। कहते हैं प्रतीक्षा में बड़ा आनंद है।’

बेला आनंद के इस संकेत को न समझ पाई। उसने कुछ और ही समझा। किंतु आनंद का मन दूर कहीं खंडाला की घाटियों में विचर रहा था, जहाँ वह और संध्या प्रेम की आँख-मिचौली खेल रहे होंगे और बेला थकी उदास-सी मुँह लटकाए उनकी टोह में पीछे-पीछे आ रही होगी, साली जो ठहरी। साली का विचार आते ही वह मुस्कराने लगा। फिर एकाएक चौंक उठा। उसके विचारों की लड़ी टूट गई-बेला उसे पिन चुभो रही थी।

जब बेला जाने लगी तो आनंद ने खंडाला के विषय में संध्या को कहने की मनाही कर दी।

‘वह किसलिए?’

‘तुम नहीं समझोगी-प्रतीक्षा में बड़ा आनंद है।’

‘क्या?’

‘इसे रहस्य ही रहने दो।’

‘जाना कब है आपको?’

‘कल सायंकाल पूना एक्सप्रेस से।’

‘और लौटेंगे कब?’

‘सोमवार।’

बेला के घर पहुँचने पर संध्या ने विलम्ब का कारण पूछा तो उसने किसी सहेली के घर जाने का बहाना बनाकर टाल दिया। उसके मन की छिपी गुदगुदी और उसकी आंख स्पष्ट कर रही थी कि वह झूठ कह रही है। संध्या ने उससे अधिक प्रश्न पूछना उचित न समझा।

बेला सीधी अपने कमरे में चली गई। उसे विश्वास था कि आनंद इस भेंट के विषय में संध्या से कुछ न कहेगा, वरना वह उससे खंडाला जाने के विषय में दीदी को बताने से कभी मना नहीं करता।

शाम की अंतिम डाक में एक पत्र बेला का भी था, जिसे पढ़ते ही प्रसन्नता से वह उछल पड़ी। उसकी सहेली क्रांति का ब्याह था और उसे पूना जाना होगा दो दिन पश्चात्, पर खंडाला, वह भी तो पूना के मार्ग में ही है-पूना एक्सप्रेस-क्या ही अच्छा हो कि वह भी कल सायंकाल की गाड़ी पकड़ ले-आनंद का संग रहेगा।

वह भागी-भागी पापा के पास गई और उनके गले में बांहें डाल प्यार जताने लगी। रायसाहब बेटी का आशय समझ गए-अवश्य किसी बात की अनुमति चाहिए। ‘सिनेमा’- ‘ऊँ हूँ’-‘कोई साड़ी लेनी है?’-‘ऊँ हूँ’-‘तो फिर क्या?’

‘पापा, मुझे पूना जाना है और कल शाम को’ यह कहते ही क्रांति का पत्र उसने उनके सम्मुख रख दिया। गुलाबी रंग के लिफाफे से उन्होंने कार्ड निकाला और पढ़ने लगे। यह क्रांति के पिता का निमंत्रण-पत्र था, जिसमें सबको आने की प्रार्थना की गई थी। उनका जाना तो संभव न था, किंतु बेला का जाना उन्हें अनुचित न जान पड़ा। वह बेला से बोले-

‘ब्याह तो सोमवार का है-इतवार को प्रातःकाल चली जाना।’

‘नहीं पापा, कल सायंकाल की गाड़ी ठीक रहेगा, एक-दो दिन पहले तो ही जाना चाहिए।’

‘परंतु सायंकाल में जाना उचित नहीं-गाड़ी पूना रात गए पहुँचाती है।’

‘तो क्या हुआ?’

‘रात को अकेले वहाँ जाना ठीक नहीं-प्रातःकाल की गाड़ी से चली जाओ, दोपहर तक पहुँच जाओगी।’

बेला ने लाख बहाने बनाए। कभी तैयारी का, कभी बाजार से कुछ लाने का इत्यादि, पर पापा के सामने एक न चली और विवश होकर उसे प्रातःकाल की गाड़ी से ही जाना स्वीकार करना पड़ा। उसका मस्तिष्क इसी उलझन में था कि आनंद के संग जाने का कोई साधन बन जाए।

रात को जब बेला अपने कमरे में बैठी जाने के लिए वस्त्र संभाल रही थी तो धीरे से संध्या भीतर आई और एक पत्रिका ले अपने पलंग पर जा बैठी। कुछ क्षण की निस्तब्धता के पश्चात् बेला ने पुकारा-

‘दीदी!’

‘हूँ!’

‘मुझसे रूठी हुई हो क्या?’

‘नहीं तो।’

‘फिर इतनी चुप क्यों हो?’

‘उदास हो रही हूँ।’ संध्या बनते हुए बोली।

‘आनंद बाबू नहीं आए, इसलिए?’

‘पगली! तुम्हारे मुँह में हर समय उन्हीं का नाम रहता है, मेरी उदासी का कारण वह नहीं, तुम हो।’

‘मैं-क्यों?’

‘जा रही हो, मुझे अकेला छोड़ के।’

‘अपना-अपना भाग्य दीदी, मैं तुमसे कई बार कह चुकी हूँ कि यह चुप्पी, यह बड़प्पन, यह लजीली दृष्टि, क्या रखा है इन सबमें, अपने जीवन को बचाने के लिए स्वयं साहस करना चाहिए, नहीं तो, नहीं तो…’

‘नहीं तो, क्या?’

‘अब तक तो तुम्हारा विवाह हो चुका होता।’

‘तो ब्याह ही जीवन में एक ऐसी वस्तु है, जो किसी को प्रसन्न रख सकती है।’

‘क्यों नहीं-ब्याह का दूसरा नाम है स्वतंत्रता।’

‘अथवा पुरुषों की दासता।’

‘यह केवल तुम जैसी संकोचशील देवियों के लिए। हम स्वतंत्र तितलियों के लिए नहीं।’

‘बेला! क्या होस्टल में भी तुम सदैव ही नटखट थीं?’

‘यह तो कुछ भी नहीं दीदी, वहाँ तो होस्टल की हीरोइन थी।’

‘तभी जाने क्यों तुमसे भय लगता है।’

‘भय! क्यों?’

‘ब्याह में जा रही हो। वहाँ भी यही चंचलता रही तो कोई तुम पर मर न मिटे।’

‘परंतु उसके मर-मिटने से पहले ही मैं उसे सूचित कर दूँगी।’

‘क्या?’

‘अभी मेरा पासपोर्ट नहीं बना है, मेरी बड़ी बहन अभी अविवाहित है।’

बेला की इस बात पर वह हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई और बोली-

‘तुम्हारे इन्हीं हाव-भाव से तो मुझे डर लगता है।’

‘और मैं भी तुमसे डरती हूँ।’

‘क्यों?’

‘कहीं जीवन-पथ पर ऐसे ही बैठी सोचती रहीं तो मैं कहीं आगे न निकल जाऊँ।’

‘घबराओ नहीं, दौड़ने वाले प्रायः गिरा करते हैं।’

‘और मंद चाल वाले?’

‘आगे निकल जाते हैं।’

‘तुम ठीक कहती हो दीदी! मैं चाहे दौडूँ, चाहे कूदूँ, प्रथम ब्याह तुम्हारा ही होगा।’ दोनों की हँसी से कमरा गूँज उठा। संध्या विस्मित थी कि बेला पर यह ब्याह का भूत क्यों सवार है। कदाचित इसलिए कि उसकी सखी का ब्याह है।

दूसरे दिन प्रातःकाल विवश होकर बेला को पूना मेल पकड़नी पड़ी। मालकिन और संध्या उसे छोड़ने स्टेशन पर गईं। निशा भी संध्या के संग थी।

जब गाड़ी ने प्लेटफॉर्म छोड़ा, मम्मी और दीदी ने रूमाल हिलाकर बेला को विदा किया, मगर उसकी आँखों में आनंद का चित्र घूम रहा था, जो आज ही शाम को इसी प्लेटफॉर्म पर किसी को चलती हुई गाड़ी में से देखने को व्याकुल होगा। परंतु वह बेचारा यह न जान पाएगा कि उसकी आँख जिसकी खोज में है, वह उससे पहले ही यात्रा आरंभ कर चुकी है।

ज्यों-ज्यों गाड़ी की गति तीव्र होती गई, त्यों-त्यों बेला का मानसिक असमंजस भी बढ़ता गया। उसके मस्तिष्क में यह विचार रह-रहकर आता-क्या ही अच्छा होता यदि वे दोनों एक साथ ही यात्रा करते! आनंद ने उसके जीवन स्रोत में एक हलचल उत्पन्न कर दी थी।

जैसे ही गाड़ी स्टेशन पर पहुँची, बेला को एक युक्ति सूझी। उसने कुली को पुकारा और सामान गाड़ी से नीचे उतार लिया।

गाड़ी चली गई और उसे अपनी भावना डूबती दिखने लगी। यदि मन किसी से मिलने को व्याकुल हो तो यह विवशता कैसी? यह विचार आने पर उसने कुली को सामान उठाने का संकेत किया और वेटिंग रूम की ओर बढ़ी।

‘देखिए! पूना एक्सप्रेस कब मिलेगी?’ उसने प्लेटफॉर्म पर घूमते एक टी.टी. से पूछा।

‘शाम को पाँच बजे। टी.टी. ने आश्चर्य से उस आधुनिक तितली को उत्तर दिया, जो अभी ही पूना जाने वाली गाड़ी से उतरी थी।

‘प्रतीक्षा में भी आनंद है।’ आनंद के मुँह से निकला हुआ यह वाक्य ही बेला को प्रतीक्षा की घड़ियाँ बिताने में सहायता दे रहा था। रह-रहकर उसकी दृष्टि प्लेटफॉर्म पर लगी घड़ी की सुइयों को देख रही थी, जो कदाचित आज उसकी व्याकुलता को समझ मंद गति से चल रही थीं।

न जाने कितनी बार उसने स्टेशन वालों से पूना एक्सप्रेस का समय पूछा। परंतु इतने बड़े स्टेशन पर उसे कोई भी ऐसा न मिला, जो उसे पाँच से कम कह दे।

एक प्रश्न पर तो वह स्वयं लज्जित हुई। न जाने किस विचार में खोई एक बूढ़े सिग्नलमैन से पूछ बैठी-‘क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि गाड़ी पाँच बजे से पहले आ गई हो।’

बूढ़े ने नाक सिकोड़ते हुए उत्तर दिया-

‘देवी जी, यह सरकार की गाड़ी है, किसी मनचले युवक का छकड़ा नहीं जो झट आपकी सेवा में उपस्थित हो जाए।’

‘छकड़ा!’ उसने बूढ़े की बात का बुरा न माना। प्रश्न तो उसका अपना ही बेढंगा था और फिर इस शब्द ने उसे स्मृति दिला दी। आनंद ने भी तो उसके हृदय का मूल्य एक छकड़ा रखा था। क्या कभी ऐसा भी हो सकता है कि आनंद अपना मन थामे उसके पाँव में हो और उसका मूल्य पूछे-मर्सडीज अथवा छकड़ा।

घड़ी ने तीन बजाए और बेला ने संतोष की एक लंबी साँस खींची। उसकी प्रतीक्षा के केवल दो घंटे ही शेष थे। अब उसे भूख सता रही थी। वेटिंग-रूम से निकल वह टी स्टॉल पर गई और चाय पीने लगी। इसके पश्चात् पत्रिकाएँ देखीं और फिर प्लेटफॉर्म पर इधर-उधर घूमी। समय तो आखिर बिताना ही था।

पांच बज गए और बेला का हृदय उल्लास से उछलने लगा। वह सामान कुली के पास छोड़ पूछताछ खिड़की की ओर बढ़ी। उसकी आशाएँ एक ही उत्तर पर बुलबुल के समान मिट गईं। गाड़ी दो घंटे लेट थी। बंबई और कल्याण के बीच एकाएक अधिक वर्षा हो जाने से पटरियों में पानी भर गया था, अतः गाड़ी को अपनी गति बहुत कम करनी पड़ी।

वर्षा को भी आज ही आना था। बेला झुंझला उठी और क्रोध भरी दृष्टि से आकाश पर बिखरे हुए बादल के उन टुकड़ों को देखने लगी, जो एक-दूसरे से गले मिल रहे थे। उनके मिलने में शांति नहीं, बल्कि हलचल छिपी हुई थी। फैलते हुए अंधियारे में बिजली छिपी बैठी थी, जो किसी समय भी कौंध सकती थी। यही दशा इस समय बेला की थी। हृदय में जलन-यहाँ भी एक बिजली छिपी हुई थी। सावन की उठती घटा की भांति उसकी अभिलाषाएँ भी आज पूरे यौवन पर थीं। किंतु कितना अंतर था दोनों की उमड़ती मादकता में। बादल तो बरस कर अपना बोझ हल्का कर लेंगे, पर यह बाढ़ कहाँ जाकर रुकेगी जिसमें जल-कण के स्थान पर ज्वाला छिपी हुई है।

पूना एक्सप्रेस जब कल्याण पहुँची तो पूरे सात बजे थे। गाड़ी ठीक दो घंटे लेट थी। कुली को सामान के निकट रहने का आदेश दे वह स्वयं गाड़ी के डिब्बों को देखने लगी। उसके व्याकुल मुख पर मंद मुस्कान की रेखा खिंच गई। आनंद एक दूसरे दर्जे के डिब्बे की खिड़की से बाहर झांक रहा था। बेला एक स्तम्भ की ओट में हो गई और उसने कुली को सामान उस डिब्बे में रखने को कहा।

जब कुली सामान रखकर वापस लौटा तो बेला ने उसकी हथेली पर एक रुपया रखकर पूछा, ‘कितने यात्री हैं डिब्बे में?’

‘एक बाबू साहिब और वह भी अकेले।’

‘हूँ।’

‘महिलाओं के डिब्बे में सामान लगा दें क्या?’

‘नहीं रहने दो’, बेला ने डिब्बे की खिड़की की ओर देखते हुए कहा, जो अब बंद हो चुकी थी और वह धीरे-धीरे पग बढ़ाती डिब्बे की ओर बढ़ी।

Prev | Next | All Chapters 

वापसी गुलशन नंदा का उपन्यास

कांच की चूड़ियां गुलशन नंदा का उपन्यास

प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास

बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास 

Leave a Comment