चैप्टर 6 कांच की चूड़ियाँ उपन्यास गुलशन नंदा | Chapter 6 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

Chapter 6 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

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मोहन शहर जा रहा था। उसे वहाँ किसी निजी चीनी मिल में नौकरी मिल गई थी। इस सूचना से सभी ख़ुश थे, किंतु कुंदा गंगा उदास थी। उसका मोहन दूर चला जायेगा। वह उसे देख भी न सकेगी। उसके बिना वह कैसे रहेगी? इससे उसका ह्रदय बिलख रहा था।

आज सवेरे से उसने काम को हाथ न लगाया थाम घर में हर चीज न बिखरी पड़ी थी। रूपा ने प्रवेश करते ही सरसरी दृष्टि से चारों ओर देखा। सखी के मन की दशा समझते हुए उसे तनिक भी देरी न लगी। इसका कारण भी वह जानती थी। फिर भी उसे छेड़ने के लिए बनते हुए बोली –

“जानती हो आज मैं बहुत खुश हूँ…”

“क्यों? क्या ससुराल वालों ने हां कर दी!” गंगा ने अभी उदासी को छिपाने का प्रयास करते हुए कहा।

“हाँ…पर तुम्हारे ससुराल वालों ने।” उसने चंचलता से मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।

“हट क्या बकती है!”

“यही कि तुम्हारी अभिलाषापूर्ण होना चाहती है। मोहन भैया ने काकी से सब कह दिया।”

“क्या कह दिया?” गंगा ने बनते हुए पूछा। उसके हृदय की धड़कन तेज हो गई थी।

“यही कि वह तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहते हैं।”

“चल हट, जो मुँह में आया बक दिया।” गंगा ने बनते हुए तुनककर मुँह मोड़ लिया और फर्श पर बिखरी हुई वस्तुओं को समेटने लगी। इस बनावटी रोष में भी उसके पुलकित हृदय की गुदगुदाहट उजागर हो उठी। शीघ्र ही उसने सब बिखरी हुई चीजें अपने स्थान पर टिका दी।

“अच्छा भई…तेरी इच्छा। हम नहीं बकते।” रूपा ने द्वार की ओर पलटते हुए कहा। फिर मुड़कर उसको देखते हुए बोली –

“अरी! इतना तो पूछ लिया होता कि काकी ने क्या उत्तर दिया।”

“क्या बोली वह?” दांतों में उंगली दबाते हुए गंगा ने पूछा। रूपा उसके पास आ खड़ी हुई और दोनों हथेलियों में उसके कपोलों को प्यार से लेते हुए बोली –

“मेरी बन्नो! काकी बोली, पहले शहर में जाकर चार पैसे जोड़ ले। फिर हमारी बिटिया से प्यार की बात करना।”

गंगा झटके से अलग हो गई। क्षण भर के लिए आँखों में सिमट आया उल्लास लोप हो गया। चेहरे पर उदासी छा गई और वह बापू के बिस्तर की सिलवटें दूर करने लगी। रूपा उसका हाथ थामकर रही बिस्तर पर बैठ गई और उसकी आँखों में झांकते हुए बोली, “मोहन भैया की नौकरी पक्की हो गई है, कल घर जा रहे हैं।”

“तो मैं क्या करूं?”

“तुम यह जानकर उदास हो न?”

“मैं क्यों उदास होने लगी? तुम्हारे भैया यहाँ रहें या शहर जाए। नौकरी करें या बेकार रहें, इससे मुझे क्या?” यह कहते-कहते उसकी ऑंखें छलछला आई और वह रूपा के गले से लग गई। रूपा ने उसे अलग किया और उसकी आँखों में छलकते हुए मोती देखकर बोली, “हाँ गंगा! यही कहने आई थी तुम्हें। मोहन भैया नदी किनारे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। जाने से पहले वह तुमसे मिलना चाहते हैं।”

गंगा रूपा को घर छोड़ नदी किनारे चली गई। इधर रूपा अवसर पाकर सीधी मोहन के पास पहुंची और उसके कानों में धीरे से बोली, “भैया नदी किनारे गंगा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। वह स्वयं तुमसे कुछ कहना चाहती है।”

मोहन पहले तो हिचकिचाया। किंतु जब रूपा ने उसके सामने गंगा की व्याकुलता का वर्णन किया था, तो वह उसी समय उठकर नदी की ओर हो लिया।

गंगा चुपचाप नदी किनारे बैठी मौन तरंगों का दृश्य देख रही थी। यहाँ आये उसे बहुत अधिक समय न हुआ था, पर यह कुछ क्षण भी उसे बहुत प्रतीत हो रहे थे। पानी की भरी मटकी पास रखी थी और वह रूपा को कोस रही थी, जिसने उसे अकारण ही यहाँ भेज दिया। उसकी दृष्टि दूर-दूर तक मार्ग को नापती, किंतु मोहन कहीं दिखाई नहीं देता था। उसे विचार आया कि उठकर चल दे, फिर वह कुछ सोचकर बैठ गई और उसने निश्चय किया कि पानी का रेला जब दस बार किनारे को छू लेगा, तो वह चल देगी।

एक… दो…तीन। लहरें दस बार किनारे को छू कर लौट गई। किनारे की रेत लहरों को चूम-चूम कर भी प्यासी रह गई थी। ठीक गंगा के समान, जो आशा की प्रत्येक किरण के बाद भी अधूरी रह जाती। वह क्रोध में आकर उठ खड़ी हुई और मटकी उठाकर जाने लगी।

अभी वह एक दो पग ही चली थी कि नदी में भारी पत्थर आ गीता। उसके धमाके से गंगा चौंककर वहीं स्थिर हो गई। उसने झट पलट कर देखा, तो दूर पर मोहन खड़ा मुस्कुरा रहा था। गंगा ने मुँह फेर लिया।

“हमसे रूठ गए क्या?” मोहन ने पास आते हुए पूछा।

“और क्या! किसी को बुलाना और स्वयं देर से आना, यह कहाँ की रीति है?”

“देर से!” वह बड़बड़ाया, “मैं तो तुम्हारा संदेश मिलते ही चला आया।”

“कैसा संदेश?” गंगा ने चकित होकर पूछा।

“तुमने मुझे नदी किनारे मिलने के लिए बुलाया था न!”

“मैंने?”

“हूं…रूपा ने मुझसे यही कहा था।”

“रूपा ने? और उसने तो मुझसे कहा था…!”

“क्या कहा था उसने?”

“यही कि तुम मुझसे मिलना चाहते हो और यहाँ मेरी प्रतीक्षा कर रहे हो।”

गंगा के घबराहट को देख कर वो खिलखिला कर हँसते बोला, “तब उसे हम दोनों को बनाया है।”

“मैंने भी उसे इस बात का मजा न चखाया, तो गंगा नाम नहीं।” यह कहकर वह चलने लगी।

“अरे…रे…कहाँ चली।” मोहन ने उसका हाथ थामकर उसे वहाँ बिठा लिया।

“इसमें बेचारी का क्या दोष! उसे तो भला ही किया, जो दो व्याकुल हृदयों को मिला दिया।” यह कहते हुए मोहन ने गंगा को अपनी ओर खींच लिया और उसकी आँखों की गहराई में झांकते हुए बोला, “गंगा कल मैं जा रहा हूँ।”

 “मैं जानती हूँ।” गंगा ने उसके वक्ष पर स्थित रखते हुए कहा।

“यह जानकर भी मुझसे दूर भाग जाना चाहती हो।”

“मैं नहीं, भाग तो आप रहे हैं।”

“मैं…सो कैसे गंगा?”

“यह बात न होती, तो आप मुझे यूं तड़पता छोड़कर शहर जाते।”

“नौकरी का सवाल है पगली! बिना इसके जीवन कैसे चलेगा?”

“आपने तो काम का सहारा ले लिया, मैं किसके सहारे जिऊंगी?”

“मेरी याद जो है।”

गंगा की पलकें नम हो गई और उसकी आँखों में आँसू ढलके और मोहन के कुर्ते पर लुढ़ककर रह गए। प्रेमाश्रुओं की दो बूंदों से मोहन के शरीर में बिजली सी दौड़ गई। उसने गंगा की कोमल उंगलियों को अपने दोनों हाथों में दबाया। उसकी दी हुई कांच की चूड़ियाँ गंगा की कलाइयों में छलक उठी। जैसे इन चूड़ियों ने एक स्वर में उनके प्यार बंधन पर उल्लास प्रकट किया हो।

“गंगा! मैंने एक निश्चय कर लिया है।”

“क्या?”

“तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाने का।”

“कहीं दुनिया…”

“इसका मुझे डर नहीं है…मेरा इस संसार में है ही कौन? ले देकर एक काकी है। वह कभी ना नहीं करेंगी।”

“क्या तुम्हें विश्वास है?”

“हाँ! इसलिए कि वह तुम्हें अपनी रूपा से कम प्यार नहीं करती और हाँ गंगा, आज मैं उनसे साफ-साफ कह दूंगा।”

“क्या?” गंगा ने उत्सुकतापूर्वक मोहन क्यों देखते हुए पूछा।

“तुम्हारे बाबू से बात पक्की कर ले!’

गंगा मोहन से अलग हो गई और रुक रुक कर इतना ही कह पाई, “इन कांच की चूड़ियों में बंधे प्यार की लाज रखना।”

उस रात जब बंसी घर लौटा, तो रूपा की माँ प्रसाद लिए आ पहुँची और बोली, “मोहन शहर जा रहा है। उसे चीनी की मिल में नौकरी मिल गई है।”

बंसी ने उसे बधाई दी और बोला, “मेरा दुर्भाग्य है कि दो घड़ी न उसके साथ बैठ सका, न ही उसे अपने घर बुला सका।”

“अरे इसमें क्या धरा है? मैं कब इस बात पर नाराज हूँ?”

“वास्तव में तुम जानो रूपा की माँ, काम से फुर्सत ही कहाँ मिलती है!” बंसी ने अपनी विवशता प्रकट की।

“काम काम…हर समय काम…कभी तो आराम कर लिया करो। आधा शरीर हो गया है।”

“जब आराम भाग्य में ही नहीं लिखा।”

“कभी दो-चार दिन की छुट्टी ले लो ना अपने उस लाट साहब से।”

“छुट्टी? दो-चार दिन की छुट्टी मांगी, तो समझ लो सदा की छुट्टी मिल जायेगी। पैसा देता है, तो काम लेगा ही। कई दिन से दीनापुर जाने की सोच रहा था, एक दिन की भी छुट्टी नहीं मिल सकी।”

“दीनापुर!” रूपा की माँ ने उत्सुकता से दोहराया।

“हाँ एक लड़का देखना था। अच्छा लगा, तो गंगा की लगन पक्की कर आऊंगा। यह बोझ सिर से उतर जाये तो…”

“कौन लड़का है?” रूपा की माँ ने बंसी की बात बीच में ही काटते हुए पूछा।

“अपने कालू महाराज का बेटा। आठ जमात पास है।”

“ना भाई ना! हम ऐसे शराबी जुवारी के घर अपनी चांद सी बिटिया न देंगे।

“बाप कुछ भी हो, बेटा तो सयाना है। सुना है, काशी में कोई कारोबार खोल रखा है और दान दहेज के बिल्कुल खिलाफ है।”

“हाँ हरिश्चंद्र का सपूत जो ठहरा। बाप कौड़ी-कौड़ी का ब्याज लेता है, बेटा क्या कम होगा। मुर्दे का कफन तो छोड़ता नहीं, दहेज छोड़ देगा।” रूपा की माँ तुनककर बोली।

“और वर कोई आकाश से तो उतरेगा नहीं?” बंसी ने कुछ झुंझलाकर कहा, फिर नम्र होते हुए बोला, “और करूं भी क्या? अधिक छानबीन करने लगूं खानदान की, तो दहेज के लिए पैसा कहाँ से लाऊं? बेटी के भाग्य में जो भी लिखा है, वह तो होगा ही। संयोग की बात है।”

“नहीं भैया! बुढ़ापे और गरीबी ने तुम्हारी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है। बेटी लक्ष्मी का रुप होती है। उसकी पूजा होती है, उसे ठुकराया नहीं जाता। कौन जाने यह देवी ही तुम्हारे घर का प्रकाश हो।” रूपा की माँ ने बंसी को समझाने का प्रयत्न किया।

“मेरी बुद्धि तो काम नहीं करती रूपा की माँ। मैं तो सोच-सोच कर पागल हो जाऊंगा…गंगा अब बच्ची नहीं कि पड़ी रहे, सयानी हो गई है। अब उसके हाथ पीले कर देना ही बुद्धिमानी है।”

“सयानी हो गई है तो क्या? मेरी रूपा भी तो बैठी है घर में।”

“पर निर्धनता तो आंगन में डेरा जमाये नहीं बैठी।”

“घबराओ नहीं! तुम्हारी गंगा के लिए मैंने लड़का देख रखा है। खानदान भी अच्छा है और कमाऊ भी है।”

“कौन?” बंसी ने उत्सुकतापूर्वक पूछा।

“मेरा मोहन!”

“मोहन!” बंसी का मुख उल्लास से खिल उठा, “क्या वह मान जायेगा।”

“मेरी बात वह कैसे टालेगा।”

बंसी की आँखों में क्षण भर के लिए चमक आ गई। पलकें भीग गई। हाथ में रखा प्रसाद उसने एक ही कौर में कंठ से उतार लिया। रसोई में बैठी गंगा काकी की बातें सुन रही थी। काकी के अंतिम वाक्य पर उसका हृदय पुलकित हो उठा और वह मधुर कल्पना लोक में खो गई। बंसी ने सोचा भी न था कि इतनी सुगमता से गंगा के लिए ऐसा अच्छा वर मिल जायेगा। उसके मन से एक बोझ उतर गया। एक ओर पेट का प्रश्न और दूसरी ओर जवान बेटी का विचार, प्रताप किसी भी समय उसकी विवशता से लाभ उठा सकता था। यह तो अच्छा हुआ, जो मंगलू द्वारा उसे उसके विचारों का पता चल गया। यदि वह स्वयं आकर ऐसा प्रस्ताव रखता, तो न जाने क्या होता है? उसने सोचा, अवसर मिलते ही वह उन पर यह प्रकट कर देगा कि उसने बेटी के लिए कमाऊ, सुंदर व खानदानी वर खोज लिया है।

अगली सुबह बंसी कुछ देर से काम पर पहुँचा। प्रताप पहले से ही वहाँ उपस्थित था। बंसी को देखते ही बिना मुँह से कुछ कहे उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देखा।

“कुछ देर हो गई मालिक।” बंसी ने स्थिति का भान करते हुए अपना अपराध स्वीकार किया। फिर कुछ रुककर बोला, “मोहन को शहर जाना था, उसे विदा करते हुए देर हो गई।”

“मोहन? यह कौन है?” प्रताप ने पूछा।

“जानकी का भतीजा…बड़ा अच्छा लड़का है। उसी से गंगा की बात पक्की की है सरकार। भगवान ने चाहा, तो जाते जाड़े में इस जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊंगा। उसके हाथ पीले कर दूंगा।”

गंगा के ब्याह की सूचना से प्रताप पर मानो बिजली आ गिरी हो। वह हक्का-बक्का बंसी क्यों यूं देखने लगा, जैसे उसने उसे किसी सगे संबंधी की मृत्यु की सूचना दी हो। कुछ देर तक वह चुपचाप उसे देखता रहा और बिना कोई शब्द कहे बाहर चला गया। बंसी अपने काम में जुट गया। न जाने क्यों उसे विश्वास हो गया कि गंगा की लगन की सूचना सुनकर अब मालिक उसके विषय में कोई सुविचार मन में न लायेगा।

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