चैप्टर 5 कांच की चूड़ियाँ उपन्यास गुलशन नंदा | Chapter 5 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

Chapter 5 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

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जन्माष्टमी का दिन था। बंसी काम से सीधे ही घर लौट आया। दिन के उजाले में घर आना उसे बड़ा विचित्र लग रहा था। इससे पूर्व उसे किसी त्यौहार पर छुट्टी नहीं मिली थी। शरत और मंजू मारे प्रसन्नता से गली में ही उससे लिपट गये।

उसने आंगन में पांव रखे ही थे कि सामने मुंडेर पर रखे फल और मिठाई से भरी टोकरी देकर ठिठक गया। उसे आश्चर्य हो रहा था कि वह टोकरी कहाँ से आई! इतने में गंगा बाहर आई और बोली –

“ठेकेदार साहब आपको चश्मे के त्यौहार पर…”

“किंतु आज से पहले तो उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया।”

“शायद इस वर्ष उन्हें ठेके में अधिक लाभ हुआ हो।“ गंगा ने भोलेपन उत्तर दिया।

बंसी की समझ में कुछ न आया। उसने उचटती दृष्टि से उस टोकरी को एक बार देखा और गंगा को अपना कोट थमा कर किसी गहरी सोच में डूब गया। उसकी बुद्धि में यह बात न बैठ रही थी कि पत्थर हृदय प्रताप कैसे एकाएक मोम बन गया। उसका उसके घर आना…₹100 की पेशगी…वेतन बढ़ौती के वचन और त्यौहार पर छुट्टी, यह फल और मिठाई…संभव है कि इस कृपा में मालकिन का भी हाथ हो…जबसे गंगा उसे मिल आई है, तब से कई बार स्वयं उसे बच्चों को लाने के लिए कह चुकी है। बस सोच में पड़ा था कि एकाएक गंगा के स्वर ने उसे चौंका दिया। गंगा कह रही थी –

“हाँ बापू बड़ी मालकिन का संदेशा भी आया है।”

“क्या?”

“मुझे कल घर बुलवा भेजा है।”

“ओह!”

“चली जाऊं क्या बापू?”

“अब तो जाना ही होगा बेटी।” बंसी ने थके हुए स्वर में कहा और मुँह हाथ धोने बेटी से पानी मांगा।

बंसी जब साबुन बनकर अपने अंगों से महीनों का मैल उतार रहा था, तभी गंगा ने धीमे से पूछा –

“बापू!”

“हूं!”

“रूपा आई है और कहती है…!”

“क्या कहती है?”

“कहती है कि मंदिर चलूं।”

“तो चली जाना। आगे क्या मुझसे पूछ कर जाती हो।”

“पर काका आधी रात को लौटना होगा।” रूपा ने झट कहा। आधी रात सुनते ही बंसी चुप हो गया और फिर आँखों पर पानी के छींटे मारते हुए बोला  –

“नहीं तब गंगा नहीं जाएगी।”

बंसी का अधिकार पूर्ण आ देश सुनकर दोनों झेंप गई और एक दूसरे को टुकुर-टुकुर देखने लगी। जब बंसी हाथ मुँह पोंछ चुका, तो रूपा उसके निकट आकर बोली –

“हम क्या कर सकती हैं काका! कृष्ण जन्म ही आधी रात को होगा…”

“तो मंदिर की गहमागहमी देखकर लौट आओ।”

“पर…बाल गोपालों का क्या होगा? वे रूठ जायेंगे।”

“और यहाँ जो बाल गोपाल रोयेंगे तो? शरत और मंजू का खाना कौन बनायेगा? मुझे भी तो भूख लग रही है।”

“तो क्या आज आपका व्रत नहीं है?”

“नहीं रूपा! व्रत बड़े लोग रखते हैं, जिनके यहाँ ढेरों खाने को होता है। हम गरीबों को जब मिले खाना पड़ता है। जाने फिर कब मिले…”

“किंतु गंगा का तो सवेरे से ही उपवास है काका। जब तक भगवान का जन्म ना हुआ पानी तक छुयेगी।”

“अरे तो यह बात पहले ही कह दी होती। अच्छा जा…हमारा क्या, हम आज ठेकेदार की मिठाइयों से ही पेट भर लेंगे।”

बंसी की सहमति पर दोनों की आँखों में आशा के दीप जाग उठे और वे दोनों मिलजुल कर शीघ्र ही घर का काम निपटाने में जुट गई। जब दोनों को एकांत मिला, तो रूपा उसकी चुटकी लेते हुए बोली, “एक मजे की बात कहूं..”

“क्या?”

“इस बार तू राधा बनेगी।”

“मैं तो सदा ही बनती हूँ, इसमें नया क्या है!”

“नहीं बात यह है कि इस बार कृष्ण मैं न बनूंगी।”

“क्यों?”

“सुना है अब हमारी राधा किसी और की मुरली पर मोहित हो रही है।”

“किसकी?”

“मोहन भैया जी…”

“चल हट…शैतान कहीं की…” गंगा बिगड़ गई। रूपा उसके मुख के बदलते भाव देकर खिलखिला उठी।

पक्षियों के संगम की वह रात दूर न थी, जब गंगा की व्याकुल दृष्टि मंदिर की गहमागहमी में किसी की मोहनी सूरत को खोज रही थी। वह मंदिर के कोने कोने में भटकी, परंतु मोहन कहीं भी न मिला। लोगों की भीड़ इतनी थी कि सांस घुटा जा रहा था।

तभी मंदिर की सीढ़ियों पर दो कहार एक पालकी लिए रुके। पालकी में से तो तारामती उतरी। वह भी भगवान के दर्शनों के लिए मंदिर में आई थी। गंगा उसे देखते ही स्वागत के लिए आगे बढ़ी, किंतु मंगलू और प्रताप को सामने से आता देखकर झेंप गई और वही लोगों की भीड़ में छिप गई। जब भी लोग उसे घूर कर देखते, तो वह भयभीत हो जाती है। वे पंडाल में चले गये।

कार्यक्रम आरंभ होने में कुछ समय था। रूपा कृष्ण बनी मंदिर के भीतर अपनी राधा की प्रतीक्षा कर रही थी और गंगा राधा के वेष में अपने श्रृंगार को एक दुशाले में छिपाये बाहर भीड़ में खड़ी मोहन को खोज रही थी। मोहन था कि दिखाई नहीं पड़ रहा था। मोहन ने आज राधा कृष्ण नृत्य में बांसुरी बजानी थी और उसी बांसुरी की तान पर राधा बनी गंगा को नृत्य करना था।

ज्यों ज्यों समय बीतता जाता, उसे मोहन पर क्रोध आ रहा था। कहीं उसकी अनुपस्थिति उनके पूरे कार्यक्रम को चौपट न कर दे। आशा निराशा में परिवर्तित हो रही थी। भीड़ को चीरती हुई वह मंदिर की ओर बढ़ी। एकाएक उसका पैर किसी से टकराया और वह चौंक पड़ी। क्षमा मांगने के लिए उसने ध्यानपूर्वक उस व्यक्ति को देखा और फिर दृष्टि झुका ली। वह मोहन ही था, जो तेजी से भीड़ को काटता हुआ उसकी ओर बढ़ा आ रहा था। मोहन से भेंट होते ही गंगा का क्रोध समाप्त हो गया और दांतों को उंगली से काटती हुई वह वही खड़ी रह गई। मोहन ने उसका हाथ थामा और एक ओर ले जाकर धीरे से बोला –

“आज क्या नृत्य नहीं होगा?”

“होगा!” गंगा ने तनिक पलकें उठाते हुए उत्तर दिया।

“तो तुम यहाँ भीड़ में क्या कर रही हो?”

“कुछ नहीं!”

“झूठ..!” मोहन के शब्द पर गंगा ने मुस्कुरा कर उसकी ओर देखा।

दृष्टि में शब्दों का समर्थन था।

“कह दो ना…किसी की प्रतीक्षा कर रही थी…किसी की बांट जोह रही थी।” मोहन ने हाथ दबाते हुए कहा।

‘एक देरी से आए। दूसरे की परीक्षा ले रहे थे। अब चलिए, देर हो रही है।”

“मैं तो कबसे इस भीड़ में भटक रहा हूँ।”

“क्यों?” गंगा ने आँखें मिलाते हुए पूछा।

“तुम्हें पाने के लिए…” मोहन ने कहा।

गंगा ने अपना हाथ छुड़ाया और मंदिर की ओर भागी।

आज जिस निपुणता से वह बांसुरी की धुन पर नाची, उसे देखकर सब दर्शक वाह-वाह कर उठे। गंगा को स्वयं आश्चर्य था कि उसमें अचानक यह कुशलता कहाँ से आई। प्रताप और मंगलू की तो उसे राधा के सुंदर रूप में देखकर ऑंखें फट गई। उनकी वास्ता और तीव्र हो उठी। तारामती भी विभिर हुए बिना न रह सकी। इससे मोगाकर राधा कृष्ण नृत्य उसने पहले नहीं देखा था।

मुरली की तान और प्रेम रस की इस थिरक में वह कुछ समय के लिए तो अपनी शारीरिक पीड़ा को भी भूल बैठी।

दूसरे दिन तारामती के निमंत्रण पर वह उनके बंगले पर गई। तारामती ने उसके रात के नृत्य की प्रशंसा करते हुए पूछा –

“कृष्ण का अभिनय कौन कर रहा था?”

“मेरी सखी रूपा…!”

“बांसुरी खूब बजाती है।”

“मैं तो मोहन बजा रहा था।” रूपा झट से बोली, किंतु झेंप गई, मानो यह कहने में उसने भूल कर दी हो।

“कौन मोहन?” तारामती ने उत्सुकता से पूछा।

“मोहन मोहन!” गंगा बुदबुदाई।

“लाखो नाम है कन्हैया के…मोहन कहो…मनमोहन कहो।” तारामती ने उसे हिचकिचाते देख कर स्वयं उसकी बात पूरी कर दी।

“हाँ मालकिन! मुझे तो ऐसा लग रहा था कि स्वयं मुरली मनोहर धरती पर आकर तान छेड़ रहे हो…” गंगा ने तारामती की बात का सहारा लेते हुए उत्तर दिया।

“लगन की बात है। तभी तो तू राधा बनी इस मधुर तान पर इतना सुंदर नाचती रही।”

गंगा सोचने लगी। वास्तव में वह मोहन की बांसुरी की तान पर सुध बुध बिसार बैठी थी। यह नृत्य लगन ही का परिणाम था। उसका हृदय किसी विचार से रोमांचित हो उठा। तारामती ने पास रखी फलों की टोकरी से एक संतरा उठाकर छीलना चाहा। गंगा ने उसके हाथ से संतरा ले लिया और स्वयं छील कर उसे देने लगी।

इतने में प्रताप ने भीतर प्रवेश किया। गंगा को वहां देख वह चौंक पड़ा और अपने काले होठों पर जीभ फेरता उसके निकट आ खड़ा हुआ। गंगा ने कनखियों से उसे देखा और तुरंत छिलके उठाकर बाहर चली गई। प्रताप उसे घूरे ही जा रहा था। उसके जाने के पश्चात तारा के सामने आया और प्लेट से एक सेव उठाते हुए बोला, “हाँ तारा! तुम कह रही थी कि तुम्हारी देखभाल के लिए शहर से कोई नर्स या समझदार औरत बुला ली जाए..”

“हाँ…तो!’

“अपने काम के लिए ये बंसी की लड़की कैसी रहेगी?”

“लड़की तो भली है, किंतु बंसी कहाँ मानेगा।”

“बंसी ने आज तक कभी तुम्हारी बात टाली है, जो यह न मानेगा।”

“घर में चार पैसे आते क्या बुरे लगते हैं किसी को? इधर तुम्हारा मन बहला करेगा, उधर उसके घर में लाभ होगा।” प्रताप जब तारा से यह कह रहा था, उसने अनुभव किया कि बाहर किवाड़ की ओट से गंगा यह सब सुन रही है। गंगा ज्यों ज्यों प्रताप का सामना करने से घबराती, उतना ही वह और खिंचता चला जाता। फिर भी इस समय वह अपनी पत्नी और गंगा के मध्य दीवार न बनना चाहता था। इसलिए चुपके से बाहर चला गया।

इधर बंसी अपने काम में व्यस्त था, तो उसे अकेले देख मंगलू उसके निकट आ बैठा। अपनी चिलम सुलगाकर उसने एक कश खींचा और चिलम बंसी की ओर बढ़ा दी। बंसी काम छोड़कर चिलम पीने लगा और पीते पीते बोला –

“मंगलू एक बात तो बता…”

“हूं…”

“यह मालिक हम पर एकाएक दयालु कैसे हो गए?”

“अरे! वे तो सदा से दयालु हैं, केवल तुम ही उनकी दया को न देख सकें”

“नहीं मंगलू! इतना परिवर्तन तो मैंने पहले कभी नहीं देखा।”

“इस परिवर्तन की बात तो कुछ और है काका…जबसे मालकिन ने उनसे सौगंध ली है। भगवान की सौगंध, उनकी आयु दस बारह साल छोटी हो गई है।”

“कैसी सौगंध?”

“सरकार के ब्याह की…कल मेरे होते ही बोली। मेरे लिए अपना जीवन क्यों खराब करते हो, कोई अच्छा घर देख कर ब्याह क्यों नहीं कर लेते।”

मालिक के ब्याह की बात सुनकर बंसी को एक धक्का सा लगा, फिर वह अपने आप बड़बड़ाने लगा –

“पैसा है…आयु है…उस पर संतान की चाह भी। यदि मालकिन की इच्छा भी है, तो इसमें बुरा भी क्या है?” बंसी ने मंगलू को चिलम लौटा दी और फिर काम पर लग गया।

मंगलू उस बीच तंबाखू का कश खींचता रहा और कुछ समय पश्चात फिर बोला, “गंगा के लिए कोई लड़का देखा क्या?”

“नहीं तो…क्यों?”

“एक वर मेरी दृष्टि में भी है…यदि मान जाओ तो गंगा जीवन भर राज करेगी।”

“मंगलू तू ऐसा भी सोच सकता है क्या?”

“क्यों बंसी? जबान भले ही काली हो.. मन काला नहीं…!”

“कौन है वह?”

“कह दूं।”

“हाँ हाँ…इसमें भेदभाव कैसा?”

मंगलू ने चिलम का एक लंबा कश खींचा और फिर दाएं-बाएं देखते हुए बंसी जे समीप होते हुए दबे स्वर में बोला –

“अपने सरकार…कहो तो बात छेड़ू।”

“मंगलू…” एक चीख के साथ बंसी कांप कर रह गया। उसकी आँखों में लहू उतर आया। उसे यूं लगा मानो मंगलू ने उसके थप्पड़ दे मारा हो। मंगलू ने कुछ और कहना चाहा, किंतु बंसी ने हाथ के संकेत से उसे तुरंत बाहर निकल जाने को कह दिया। वह भले ही निर्धन हो, पर इतना निर्लज्ज, इतना गिरा हुआ नहीं कि बेटी का सौदा करे।

मंगलू तो बात कह कर चला गया था, बंसी के मस्तिष्क में तूफान सा उठ गया। उसकी आँखों के सम्मुख प्रताप का चेहरा फिर गया। क्या उसी ने मंगलू को उसका मन टोहने के लिए यह प्रस्ताव देकर यहाँ भेजा था। यह उसकी आये दिन की कृपा, एकाएक उसकी वेतन वृद्धि, उसके आराम की चिंता और उसके लिए फल और मिठाइयाँ…यह सब उपकार किसलिए? इसके पीछे उसके लिए तो कोई सहानुभूति नहीं छिपी थी। इस कृपा दृष्टि का केंद्र थी गंगण उसकी युवा बेटी। उसकी विवशता व निर्धनता का उपहास उड़ाया जा रहा है। मालिक के रूप में प्रताप एक शैतान हो था…एक राक्षस। उसके छोटे छोटे उपकार विष भरी सुइयाँ बनकर उसके हृदय में चुभने लगे, जिनका विष धीरे धीरे उसकी धमनियों में फैलता जा रहा था। क्रोध से बंसी के नथुने फड़कने लगे। उसने खाते को बंद कर दिया और क्रोध को शांत करने के लिए कमरे से बाहर निकल गया।

नीचे घाटी में काम तेजी से चल रहा था। गरीब मजदूर लहू पसीना एक करके मालिक की भलाई के लिए समय से लड़ रहे थे। उन्हें प्रत्येक दशा में यह बांध वर्षा से पहले पूरा करना था, नहीं तो ठेकेदार की लाखों रुपयों की हानि हो जायेगी। बंसी को लगा जैसे इन मजदूरों और इन काली चट्टानों में तनिक भी अंतर न था। निरंतर शताब्दियों की दुर्दशा ने उन्हें भी पत्थर बना दिया था। उनकी आशाएं आकांक्षायें नष्ट हो चुकी थीं। परिश्रम से उनकी हड्डियाँ लोहे के समान बन चुकी थीं; किंतु शरीर खोखले थे। आत्मा निरादर और विवशता से मर चुकी थी।

रात को जब बंसी घर लौटा, तो गंगा कमरे में बिखरी चीजों को समेट रही थी। उसके होंठों पर धीमी गुनगुनाहट नाच रही थी। बंसी क्षण भर के लिए द्वार पर रुक कर सोच में खो गया। एक ओर अल्हड़ जवानी गुनगुना रही थी और दूसरी ओर विवश बुढ़ापा रो रहा था। बेटी का यौवन उल्लास देखकर उसे प्रसन्नता न हुई। उसका ह्रदय एक अज्ञात भय से कांपने लगा। उसका ह्रदय एक अज्ञात भय से कांपने लगा। उसका मन चाहा कि वह झट बढ़ भर उसके होंठों पर हाथ रखकर उसकी गुनगुनाहट को बंद कर दे। उसकी मंद मुस्कान को रोक दे। आँखों की चमक को मिटा दे और उसके कोमल कपोलों पर छाई लालिमा को फीका कर दे…उसे कुरूप बना दे…किंतु उसे कुछ भी करने का साहस न हुआ और यह चुपचाप द्वार के पास रखी कुर्सी पर थका हारा सा बैठ गया।

एकाएक गंगा ने पटक कर बापू को देखा। अधरों की गुनगुनाहट सहसा थम गई।

“बापू..!” खुशी से वह बंसी की ओर बढ़ते हुए बोली।

बंसी ने बिना उत्तर दिए अपना कोट उतार कर बेटी के हाथ में दे दिया। चिंता ने उसे थका दिया था। मन की चिंता चेहरे पर उभर आई थी।

“बापू! जानते हो मैं कहाँ गई थी।” कोट रखने के बाद गंगा ने पूछा।

“ऊं हूं!”

“मालकिन के घर!”

मालकिन के शब्द पर बंसी ने चौंक कर गर्दन उठाई और कड़ी दृष्टि से गंगा की ओर देखने लगा।

“उन्होंने मुझे अपने यहाँ नौकरी कर लेने को कहा है…” गंगा ने डरते डरते कहा।

“तूने क्या उत्तर दिया?” बंदी ने कठोर स्वर में पूछा।

गंगा सहम गई और फिर धीरे से बोली, “मैंने कहा, बापू से पूछकर बताऊंगी “

“ठीक किया तूने…हमें नहीं चाहिए किसी की नौकरी…अभी तेरा बापू जीवित है।”

बापू किसी बात पर खिन्न है, यह तो गंगा ने अनुभव किया, किंतु इस खिन्नता का कारण उसकी समझ में न आया। शायद बापू बहुत थक गए हैं, काम जो इतना करना पड़ता है। उसे प्रसन्न करने के लिए गंगा ने झट वह साड़ी जो तारामति ने उसे दी थी, संदूक में से निकाल कर बापू के सामने बिछा दी और भोलेपन से बोली, “यह उन्होंने दी है मुझे…”

साड़ी को देखकर बंसी अपने दबे हुए क्रोध को और न रोक सका और आवेश में आते हुए बोला, “हमें नहीं चाहिए यह दान। हम की भिखारी हैं क्या?” यह कहते हुए उसने साड़ी गंगा के हाथ से छीन कर परे फेंक दी।

गंगा डर से सहम गई और चुप हो गई। फिर कुछ रुक कर नम्रता से बोली, “मैं तो ले ही नहीं रही थी। मालकिन ने बलपूर्वक मुझे दे दी। कहने लगी, तेरा वाली कौन होता है ना करने वाला.. यह मेरी आज्ञा है। मैं स्वयं भी उससे कह दूंगी..”

बेटी की आँखों में छलके हुए आँसू देखकर बंसी का हृदय पिघल आया। उसने उठकर स्नेह से गले लगाया और बोला –

“नहीं बेटी, नहीं…मेरे जीवन में तू किसी के यहाँ नौकरी करे…भीख मांगे…यह हरगिज़ न होगा। मैं दिन रात एक कर दूंगा, पर अपनी फूल जैसी बिटिया को काम न करने दूंगा।”

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