चैप्टर 4 रंगभूमि मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

Chapter 4 Rangbhoomi Novel By Munshi Premchand

Chapter 4 Rangbhoomi Novel By Munshi Premchand

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चंचल प्रकृति बालकों के लिए अंधे विनोद की वस्तु हुआ करते हैं। सूरदास को उनकी निर्दय बाल-क्रीड़ाओं से इतना कष्ट होता था कि वह मुँह-अंधेरे घर से निकल पड़ता और चिराग जलने के बाद लौटता। जिस दिन उसे जाने में देर होती, उस दिन विपत्ति में पड़ जाता था। सड़क पर, राहगीरों के सामने, उसे कोई शंका न होती थी; किंतु बस्ती की गलियों में पग-पग पर किसी दुर्घटना की शंका बनी रहती थी। कोई उसकी लाठी छीनकर भागता; कोई कहता-सूरदास, सामने गङ्ढा है, बाईं तरफ हो जाओ। सूरदास बाएं घूमता, तो गङ्ढे में गिर पड़ता। मगर बजरंगी का लड़का घीसू इतना दुष्ट था कि सूरदास को छेड़ने के लिए घड़ी-भर रात रहते ही उठ पड़ता। उसकी लाठी छीनकर भागने में उसे बड़ा आनंद मिलता था।

एक दिन सूर्योदय के पहले सूरदास घर से चले, तो घीसू एक तंग गली में छिपा हुआ खड़ा था। सूरदास को वहाँ पहुँचते ही कुछ शंका हुई। वह खड़ा होकर आहट लेने लगा। घीसू अब हँसी न रोक सका। झपटकर सूरे का डंडा पकड़ लिया। सूरदास डंडे को मजबूत पकड़े हुए था। घीसू ने पूरी शक्ति से खींचा। हाथ फिसल गया, अपने ही जोर में गिर पड़ा, सिर में चोट लगी, खून निकल आया। उसने खून देखा, तो चीखता-चिल्लाता घर पहुँचा। बजरंगी ने पूछा, क्यों रोता है रे? क्या हुआ? घीसू ने उसे कुछ जवाब न दिया। लड़के खूब जानते हैं कि किस न्यायशाला में उनकी जीत होगी। आकर माँ से बोला-सूरदास ने मुझे ढकेल दिया। माँ ने सिर की चोट देखी, तो आँखों में खून उतर आया। लड़के का हाथ पकड़े हुए आकर बजरंगी के सामने खड़ी हो गई और बोली – ‘अब इस अंधे की शामत आ गई है। लड़के को ऐसा ढकेला कि लहूलुहान हो गया। उसकी इतनी हिम्मत! रुपये का घमंड उतार दूंगी।‘

बजरंगी ने शांत भाव से कहा – ‘इसी ने कुछ छेड़ा होगा। वह बेचारा तो इससे आप अपनी जान छिपाता फिरता है।‘

जमुनी – ‘इसी ने छेड़ा था, तो भी क्या इतनी बेदर्दी से ढकेलना चाहिए था कि सिर फूट जाए! अंधों को सभी लड़के छेड़ते हैं; पर वे सबसे लठियाँव नहीं करते फिरते।‘

इतने में सूरदास भी आकर खड़ा हो गया। मुख पर ग्लानि छाई हुई थी। जमुनी लपककर उसके सामने आई और बिजली की तरह कड़ककर बोली – ‘क्यों सूरे, साँझ होते ही रोज लुटिया लेकर दूध के लिए सिर पर सवार हो जाते हो और अभी घिसुआ ने जरा लाठी पकड़ ली, तो उसे इतनी जोर से धक्का दिया कि सिर फूट गया। जिस पत्ताल में खाते हो, उसी में छेद करते हो। क्यों, रुपये का घमंड हो गया है क्या?’

सूरदास – ‘भगवान जानते हैं, जो मैंने घीसू को पहचाना हो। समझा, कोई लौंडा होगा, लाठी को मजबूत पकड़े रहा। घीसू का हाथ फिसल गया, गिर पड़ा। मुझे मालूम होता कि घीसू है, तो लाठी उसे दे देता। इतने दिन हो गए, लेकिन कोई कह दे कि मैंने किसी लड़के को झूठमूठ मारा है। तुम्हारा ही दिया खाता हूँ, तुम्हारे ही लड़के को मारूंगा?’

जमुनी – ‘नहीं, अब तुम्हें घमंड हुआ है। भीख मांगते हो, फिर भी लाज नहीं आती, सबकी बराबरी करने को मरते हो। आज मैं लहू का घूंट पीकर रह गई; नहीं तो जिन हाथों से तुमने उसे ढकेला है, उसमें लूका लगा देती।‘

बजरंगी जमुनी को मना कर रहा था, और लोग भी समझा रहे थे, लेकिन वह किसी की न सुनती थी। सूरदास अपराधियों की भांति सिर झुकाए यह वाग्बाण सह रहा था। मुँह से एक शब्द भी न निकालता था।

भैरों ताड़ी उतारने जा रहा था, रुक गया, और सूरदास पर दो-चार छींटे उड़ा दिए, जमाना ही ऐसा है, सब रोजगारों से अच्छा भीख मांगना। अभी चार दिन पहले घर में भूंजी भांग न थी, अब चार पैसे के आदमी हो गए हैं। पैसे होते हैं, तभी घमंड होता है; नहीं क्या घमंड करेंगे हम और तुम, जिनकी एक रुपया कमाई है, तो दो खर्च है!

जगधर औरों से तो भीगी बिल्ली बना रहता था, सूरदास को धिक्कारने के लिए वह भी निकल पड़ा। सूरदास पछता रहा था कि मैंने लाठी क्यों न छोड़ दी, कौन कहे कि दूसरी लकड़ी न मिलती। जगधर और भैरों के कटु वाक्य को सुन-सुनकर वह और भी दु:खी हो रहा था। अपनी दीनता पर रोना आता था। सहसा मिठुआ भी आ पहुँचा। वह भी शरारत का पुतला था, घीसू से भी दो अंगुल बढ़ा हुआ। जगधर को देखते ही यह सरस पद गा-गाकर चिढ़ाने लगा –

‘लालू का लाल मुँह, जगधर का काला,

जगधर तो हो गया लालू का साला।‘

भैरों को भी उसने एक स्वरचित पद सुनाया :

‘भैरों, भैरों, ताड़ी बेच,
या बीबी की साड़ी बेच।‘

चिढ़ने वाले चिढ़ते क्यों हैं, इसकी मीमांसा तो मनोविज्ञान के पंडित ही कर सकते हैं। हमने साधारणतया लोगों को प्रेम और भक्ति के भाव ही से चिढ़ते देखा है। कोई राम या कृष्ण के नामों से इसलिए चिढ़ता है कि लोग उसे चिढ़ाने ही के बहाने से ईश्वर के नाम लें। कोई इसलिए चिढ़ता है कि बाल-वृंद उसे घेरे रहें। कोई बैंगन या मछली से इसलिए चिढ़ता है कि लोग इन अखाद्य वस्तुओं के प्रति घृणा करें। सारांश यह कि चिढ़ना एक दार्शनिक क्रिया है। इसका उद्देश्य केवल सत्-शिक्षा है। लेकिन भैरों और जगधर में यह भक्तिमयी उदारता कहाँ? वे बाल-विनोद का रस लेना क्या जानें? दोनों झल्ला उठे। जगधर मिठुआ को गाली देने लगा; लेकिन भैरों को गालियाँ देने से संतोष न हुआ। उसने लपककर उसे पकड़ लिया। दो-तीन तमाचे जोर-जोर से मारे और बड़ी निष्ठुरता से उसके कान पकड़कर खींचने लगा। मिठुआ बिलबिला उठा। सूरदास अब तक दीन भाव से सिर झुकाए खड़ा था। मिठुआ का रोना सुनते ही उसकी त्योरियाँ बदल गईं। चेहरा तमतमा उठा। सिर उठाकर फूटी हुई आँखों से ताकता हुआ बोला – ‘भैरों, भला चाहते हो, तो उसे छोड़ दो; नहीं तो ठीक न होगा। उसने तुम्हें कौन-सी ऐसी गोली मार दी थी कि उसकी जान लिए लेते हो। क्या समझते हो कि उसके सिर पर कोई है ही नहीं! जब तक मैं जीता हूँ, कोई उसे तिरछी निगाह से नहीं देख सकता। दिलावरी तो जब देखता कि किसी बड़े आदमी से हाथ मिलाते। इस बालक को पीट लिया, तो कौन-सी बड़ी बहादुरी दिखाई!’

भैरों – ‘मार की इतनी अखर है, तो इसे रोकते क्यों नहीं? हमको चिढ़ाएगा, तो हम पीटेंगे, एक बार नहीं, हजार बार; तुमको जो करना हो, कर लो।‘

जगधर – ‘लड़के को डांटना तो दूर, ऊपर से और सह देते हो। तुम्हारा दुलारा होगा, दूसरे क्यों…’

सूरदास – ‘चुप भी रहो, आए हो वहाँ से न्याय करने। लड़कों को तो यह बात ही होती है; पर कोई उन्हें मार नहीं डालता। तुम्हीं लोगों को अगर किसी दूसरे लड़के ने चिढ़ाया होता, तो मुँह तक न खोलते। देखता तो हूँ, जिधर से निकलते हो, लड़के तालियाँ बजाकर चिढ़ाते हैं; पर आँखें बंद किए अपनी राह चले जाते हो। जानते हो न कि जिन लड़कों के माँ-बाप हैं, उन्हें मारेंगे, तो वे आँखें निकाल लेंगे। केले के लिए ठीकरा भी तेज होता है।‘

भैरों – ‘दूसरे लड़कों की और उसकी बराबरी है? दरोगाजी की गालियाँ खाते हैं, तो क्या डोमड़ों की गालियाँ भी खायें? अभी तो दो ही तमाचे लगाए हैं, फिर चिढ़ाए, तो उठाकर पटक दूंगा, मरे या जिये।‘

सूरदास (मिट्ठू का हाथ पकड़कर) – ‘मिठुआ, चिढ़ा तो, देखूं यह क्या करते हैं। आज जो कुछ होना होगा, यहीं हो जायेगा।‘

लेकिन मिठुआ के गालों में अभी तक जलन हो रही थी, मुँह भी सूज गया था, सिसकियाँ बंद न होती थीं। भैरों का रौद्र रूप देखा, तो रहे-सहे होश भी उड़ गये। जब बहुत बढ़ावे देने पर भी उसका मुँह न खुला, तो सूरदास ने झुंझलाकर कहा – ‘अच्छा, मैं ही चिढ़ाता हूँ, देखूं मेरा क्या बना लेते हो!’

यह कहकर उसने लाठी मजबूत पकड़ ली, और बार-बार उसी पद की रट लगाने लगा मानो कोई बालक अपना सबक याद कर रहा हो-

‘भैरों, भैरों, ताड़ी बेच,
या बीबी की साड़ी बेच।‘

एक ही साँस में उसने कई बार यही रट लगाई। भैरों कहाँ तो क्रोध से उन्मत्ता हो रहा था, कहाँ सूरदास का यह बाल-हठ देखकर हँस पड़ा। और लोग भी हँसने लगे। अब सूरदास को ज्ञात हुआ कि मैं कितना दीन और बेकस हूँ। मेरे क्रोध का यह सम्मान है! मैं सबल होता, तो मेरा क्रोध देखकर ये लोग थर-थर कांपने लगते; नहीं तो खड़े-खड़े हँस रहे हैं, समझते हैं कि हमारा कर ही क्या सकता है। भगवान ने इतना अपंग न बना दिया होता, तो क्यों यह दुर्गत होती। यह सोचकर हठात् उसे रोना आ गया। बहुत जब्त करने पर भी आँसू न रुक सके।‘

बजरंगी ने भैरों और जगधर दोनों को धिक्कारा – ‘क्या अंधे से हेकड़ी जताते हो! सरम नहीं आती? एक तो लड़के का तमाचों से मुँह लाल कर दिया, उस पर और गरजते हो। वह भी तो लड़का ही है, गरीब का है, तो क्या? जितना लाड़-प्यार उसका होता है, उतना भले घरों के लड़कों का भी नहीं होता है। जैसे और सब लड़के चिढ़ाते हैं, वह भी चिढ़ाता है। इसमें इतना बिगड़ने की क्या बात है। (जमुनी की ओर देखकर) यह सब तेरे कारण हुआ। अपने लौंडे को डांटती नहीं, बेचारे अंधे पर गुस्सा उतारने चली है।‘

जमुनी सूरदास का रोना देखकर सहम गई थी! जानती थी, दीन की हाय कितनी मोटी होती है। लज्जित होकर बोली – ‘मैं क्या जानती थी कि जरा-सी बात का इतना बखेड़ा हो जाएगा। आ बेटा मिट्ठू, चल बछवा पकड़ ले, तो दूध दुहूं।‘

दुलारे लड़के तिनके की मार भी नहीं सह सकते। मिट्ठू दूध की पुचकार से भी शांत न हुआ, तो जमुनी ने आकर उसके आँसू पोंछे और गोद में उठाकर घर ले गई। उसे क्रोध जल्द आता था; पर जल्द ही पिघल भी जाती थी।

मिट्ठू तो उधर गया, भैरों और जगधर भी अपनी-अपनी राह चले, पर सूरदास सड़क की ओर न गया। अपनी झोंपड़ी में जाकर अपनी बेकसी पर रोने लगा। अपने अंधेपन पर आज उसे जितना दु:ख हो रहा था, उतना और कभी न हुआ था। सोचा, मेरी यह दुर्गत इसलिए न है कि अंधा हूँ, भीख मांगता हूँ। मसक्कत की कमाई खाता होता, तो मैं भी गरदन उठाकर न चलता? मेरा भी आदर-मान होता; क्यों चिऊंटी की भांति पैरों के नीचे मसला जाता! आज भगवान ने अपंग न बना दिया होता, तो क्या दोनों आदमी लड़के को मारकर हँसते हुए चले जाते, एक-एक की गरदन मरोड़ देता। बजरंगी से क्यों नहीं कोई बोलता! घिसुआ ने भैरों की ताड़ी का मटका फोड़ दिया था, कई रुपये का नुकसान हुआ; लेकिन भैरों ने चूं तक न की। जगधर को उसके मारे घर से निकलना मुश्किल है। अभी दस-ही-पाँच दिनों की बात है, उसका खोंचा उलट दिया था। जगधर ने चूं तक न की। जानते हैं न कि जरा भी गरम हुए कि बजरंगी ने गरदन पकड़ी। न जाने उस जनम में ऐसे कौन-से आपराध किए थे, जिसकी यह सजा मिल रही है। लेकिन भीख न मांगू, तो खाऊं क्या? और फिर ज़िन्दगी  पेट ही पालने के लिए थोड़े ही है। कुछ आगे के लिए भी तो करना है। नहीं इस जनम में तो अंधा हूँ ही, उस जनम में इससे भी बड़ी दुर्दशा होगी। पितरों का रिन सिर सवार है, गयाजी में उनका सराध न किया, तो वे भी क्या समझेंगे कि मेरे वंश में कोई है! मेरे साथ तो कुल का अंत ही है। मैं यह रिन न चुकाऊंगा, तो और कौन लड़का बैठा हुआ है, जो चुका देगा? कौन उद्दम करूं? किसी बड़े आदमी के घर पंखा खींच सकता हूँ, लेकिन यह काम भी तो साल भर में चार ही महीने रहता है, बाकी महीने क्या करूंगा? सुनता हूँ अंधे कुर्सी, मोढ़े, दरी, टाट बुन सकते हैं, पर यह काम किससे सीखूं? कुछ भी हो, अब भीख न मांगूंगा।

चारों ओर से निराश होकर सूरदास के मन में विचार आया कि इस जमीन को क्यों न बेच दूं। इसके सिवा अब मुझे और कोई सहारा नहीं है। कहाँ तक बाप-दादों के नाम को रोऊं! साहब उसे लेने को मुँह फैलाए हुए हैं। दाम भी अच्छा दे रहे हैं। उन्हीं को दे दूं। चार-पाँच हजार बहुत होते हैं। अपने घर सेठ की तरह बैठा हुआ चैन की बंसी बजाऊंगा। चार आदमी घेरे रहेंगे, मुहल्ले में अपना मान होने लगेगा। ये ही लोग, जो आज मुझ पर रोब जमा रहे हैं, मेरा मुँह जोहेंगे, मेरी खुशामद करेंगे। यही न होगा, मुहल्ले की गउएँ मारी-मारी फिरेंगी; फिरें, इसको मैं क्या करूं? जब तक निभ सका, निभाया। अब नहीं निभता, तो क्या करूं? जिनकी गायें चरती हैं, कौन मेरी बात पूछते हैं? आज कोई मेरी पीठ पर खड़ा हो जाता, तो भैरों मुझे रुलाकर यों मूँछों पर ताव देता हुआ न चला जाता। जब इतना भी नहीं है, तो मुझे क्या पड़ी है कि दूसरों के लिए मरूं? जी से जहान है; जब आबरू ही न रही, तो जीने पर धिक्कार है।

मन में यह विचार स्थिर करके सूरदास अपनी झोंपड़ी से निकला और लाठी टेकता हुआ गोदाम की तरफ चला। गोदाम के सामने पहुँचा, तो दयागिरि से भेंट हो गई। उन्होंने पूछा-इधर कहाँ चले सूरदास? तुम्हारी जगह तो पीछे छूट गई।

सूरदास – ‘जरा इन्हीं मियाँ साहब से कुछ बातचीत करनी है।‘

दयागिरि – ‘क्या इसी जमीन के बारे में?’

सूरदास – ‘हाँ, मेरा विचार है कि यह जमीन बेचकर कहीं तीर्थयात्रा करने चला जाऊं। इस मुहल्ले में अब निबाह नहीं है।‘

दयागिरि – ‘सुना, आज भैरों तुम्हें मारने की धमकी दे रहा था।‘

सूरदास – ‘मैं तरह न दे जाता, तो उसने मार ही दिया था। सारा मुहल्ला बैठा हँसता रहा, किसी की जबान न खुली कि अंधे-अपाहिज आदमी पर यह कुन्याव क्यों करते हो। तो जब मेरा कोई हितू नहीं है, तो मैं क्यों दूसरों के लिए मरूं?’

दयागिरि – ‘नहीं सूरे, मैं तुम्हें जमीन बेचने की सलाह न दूंगा। धर्म का फल इस जीवन में नहीं मिलता। हमें आँखें बंद करके नारायन पर भरोसा रखते हुए धर्म-मार्ग पर चलते रहना चाहिए। सच पूछो, तो आज भगवान् ने तुम्हारे धर्म की परीक्षा ली है। संकट ही में धीरज और धर्म की परीक्षा होती है। देखो, गुसाईंजी ने कहा है :

‘आपत्ति-काल परखिये चारी। धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी।’

जमीन पड़ी है, पड़ी रहने दो। गउएँ चरती हैं, यह कितना बड़ा पुण्य है। कौन जानता है, कभी कोई दानी, धर्मात्मा आदमी मिल जाए, और धर्मशाला, कुआँ, मंदिर बनवा दे, तो मरने पर भी तुम्हारा नाम अमर हो जाएगा। रही तीर्थ-यात्रा, उसके लिए रुपये की जरूरत नहीं। साधु-संत जन्म-भर यही किया करते हैं; पर घर से रुपयों की थैली बांधकर नहीं चलते। मैं भी शिवरात्रि के बाद बद्रीनारायण जानेवाला हूँ। हमारा-तुम्हारा साथ हो जाएगा। रास्ते में तुम्हारी एक कौड़ी न खर्च होगी, इसका मेरा जिम्मा है।‘

सूरदास – ‘नहीं बाबा, अब यह कुन्याव नहीं सहा जाता। भाग्य में धर्म करना नहीं लिखा हुआ है, तो कैसे धर्म करूंगा। जरा इन लोगों को भी तो मालूम हो जाए कि सूरे भी कुछ है।‘

दयागिरि – ‘सूरे, आँखें बंद होने पर भी कुछ नहीं सूझता। यह अहंकार है, इसे मिटाओ, नहीं तो यह जन्म भी नष्ट हो जाएगा। यही अहंकार सब पापों का मूल है-

‘मैं अरु मोर तोर तैं माया, जेहि बस कीन्हें जीव निकाया।’
न यहाँ तुम हो, न तुम्हारी भूमि; न तुम्हारा कोई मित्र है, न शत्रु है; जहाँ देखो भगवान्-ही-भगवान् हैं-
‘ज्ञान-मान जहँ एकौ नाहीं, देखत ब्रह्म रूप सब गाहीं।’
इन झगड़ों में मत पड़ो।‘

सूरदास – ‘बाबाजी, जब तक भगवान की दया न होगी, भक्ति और वैराग्य किसी पर मन न जमेगा। इस घड़ी मेरा हृदय रो रहा है, उसमें उपदेश और ज्ञान की बातें नहीं पहुँच सकतीं। गीली लकड़ी खराद पर नहीं चढ़ती।‘

दयागिरि – ‘पछताओगे और क्या।‘

यह कहकर दयागिरि अपनी राह चले गए। वह नित्य गंगा-स्नान को जाया करते थे।

उनके जाने के बाद सूरदास ने अपने मन में कहा-यह भी मुझी को ज्ञान का उपदेश करते हैं। दीनों पर उपदेश का भी दाँव चलता है, मोटों को कोई उपदेश नहीं करता। वहाँ तो जाकर ठकुरसुहाती करने लगते हैं। मुझे ज्ञान सिखाने चले हैं। दोनों जून भोजन मिल जाता है न! एक दिन न मिले, तो सारा ज्ञान निकल जाये।

वेग से चलती हुई गाड़ी रुकावटों को फांद जाती है। सूरदास समझाने से और भी जिद पकड़ गया। सीधो गोदाम के बरामदे में जाकर रुका। इस समय यहाँ बहुत-से चमार जमा थे। खालों की खरीद हो रही थी। चौधरी ने कहा – ‘आओ सूरदास, कैसे चले?’

सूरदास इतने आदमियों के सामने अपनी इच्छा न प्रकट कर सका। संकोच ने उसकी जबान बंद कर दी। बोला-कुछ नहीं, ऐसे ही चला आया।

ताहिर – ‘साहब इनसे पीछेवाली जमीन मांगते हैं, मुँह-मांगे दाम देने को तैयार हैं! पर यह किसी तरह राजी नहीं होते। उन्होंने खुद समझाया, मैंने कितनी मिन्नत की; लेकिन इनके दिल में कोई बात जमती ही नहीं।‘

लज्जा अत्यंत निर्लज्ज होती है। अंतिम काल में भी जब हम समझते हैं कि उसकी उलटी साँसें चल रही हैं, वह सहसा चैतन्य हो जाती है, और पहले से भी अधिक कर्तव्‍यशील हो जाती है। हम दुरावस्था में पड़कर किसी मित्र से सहायता की याचना करने को घर से निकलते हैं, लेकिन मित्र से आँखें चार होते ही लज्जा हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है और हम इधर-उधर की बातें करके लौट आते हैं। यहाँ तक कि हम एक शब्द भी ऐसा मुँह से नहीं निकलने देते, जिसका भाव हमारी अंतर्वेदना का द्योतक हो।

ताहिर अली की बातें सुनते ही सूरदास की लज्जा ठट्ठा मारती हुई बाहर निकल आई। बोला – ‘मियाँ साहब, वह जमीन तो बाप-दादों की निसानी है, भला मैं उसे बय या पट्टा कैसे कर सकता हूँ? मैंने उसे धरम काज के लिए संकल्प कर दिया है।‘

ताहिर – ‘धरम काज बिना रुपये के कैसे होगा? जब रुपये मिलेंगे, तभी तो तीरथ करोगे, साधु-संतों की सेवा करोगे; मंदिर-कुआँ बनवाओगे?’

चौधरी – ‘सूरे, इस बखत अच्छे दाम मिलेंगे। हमारी सलाह तो यही है कि दे दो, तुम्हारा कोई उपकार तो उससे होता नहीं।‘

सूरदास – ‘मुहल्ले-भर की गउएँ चरती हैं, क्या इससे पुन्न नहीं होता? गऊ की सेवा से बढ़कर और कौन पुन्न का काम है?’

ताहिर – ‘अपना पेट पालने के लिए तो भीख मांगते फिरते हो, चले हो दूसरों के साथ पुन्न करने। जिनकी गायें चरती हैं, वे तो तुम्हारी बात भी नहीं पूछते, एहसान मानना तो दूर रहा। इसी धरम के पीछे तुम्हारी यह दसा हो रही है, नहीं तो ठोकरें न खाते फिरते।‘

ताहिर अली खुद बड़े दीनदार आदमी थे, पर अन्य धर्मों की अवहेलना करने में उन्हें संकोच न होता था। वास्तव में वह इस्लाम के सिवा और किसी धर्म को धर्म ही नहीं समझते थे।

सूरदास ने उत्तोजित होकर कहा – ‘मियाँ साहब, धरम एहसान के लिए नहीं किया जाता। नेकी करके दरिया में डाल देना चाहिए।‘

ताहिर – ‘पछताओगे और क्या। साहब से जो कुछ कहोगे, वही करेंगे। तुम्हारे लिए घर बनवा देंगे, माहवार गुजारा देंगे; मिठुआ को किसी मदरसे में पढ़ने को भेज देंगे, उसे नौकर रखा देंगे, तुम्हारी आँखों की दवा करा देंगे, मुमकिन है, सूझने लगे। आदमी बन जाओगे, नहीं तो धक्के खाते रहोगे।‘

सूरदास पर और किसी प्रलोभन का असर तो न हुआ; हाँ, दृष्टि-लाभ की संभावना ने जरा नरम कर दिया। बोला-क्या जनम के अंधों की दवा भी हो सकती है?

ताहिर – ‘तुम जनम के अंधे हो क्या? तब तो मजबूरी है। लेकिन वह तुम्हारे आराम के इतने सामान जमा कर देंगे कि तुम्हें आँखों की जरूरत ही न रहेगी।‘

सूरदास – ‘साहब, बड़ी नामूसी होगी। लोग चारों ओर से धिक्कारने लगेंगे।‘

चौधरी – ‘तुम्हारी जायदाद है, बय करो, चाहे पट्टा लिखो, किसी दूसरे को दखल देने की क्या मजाल है!’

सूरदास – ‘बाप-दादों का नाम तो नहीं डुबाया जाता।‘

मूर्खों के पास युक्तियाँ नहीं होतीं, युक्तियों का उत्तर वे हठ से देते हैं। युक्ति कायल हो सकती है, नरम हो सकती है, भ्रांत हो सकती है; हठ को कौन कायल करेगा?

सूरदास की जिद से ताहिर अली को क्रोध आ गया। बोले – ‘तुम्हारी तकदीर में भीख मांगना लिखा है, तो कोई क्या कर सकता है। इन बड़े आदमियों से अभी पाला नहीं पड़ा है। अभी खुशामद कर रहे हैं, मुआवजा देने पर तैयार हैं; लेकिन तुम्हारा मिजाज नहीं मिलता, और वही जब कानूनी दांव-पेंच खेलकर जमीन पर कब्जा कर लेंगे, दो-चार सौ रुपये बरायनाम मुआवजा दे देंगे, तो सीधो हो जाओगे।‘ मुहल्लेवालों पर भूले बैठे हो। पर देख लेना, जो कोई पास भी फटके। साहब यह जमीन लेंगे जरूर, चाहे खुशी से दो, चाहे रोकर।
सूरदास ने गर्व से उत्तर दिया – ‘खाँ साहब, अगर जमीन जाएगी, तो इसके साथ मेरी जान भी जाएगी।‘

यह कहकर उसने लकड़ी संभाली और अपने अड्डे पर आ बैठा।

उधर दयागिरि ने जाकर नायकराम से यह समाचार कहा। बजरंगी भी बैठा था। यह खबर सुनते ही दोनों के होश उड़ गये। सूरदास के बल पर दोनों उछलते रहे, उस दिन ताहिर अली से कैसी बातें कीं, और आज सूरदास ने ही धोखा दिया। बजरंगी ने चिंतित होकर कहा-अब क्या करना होगा पंडाजी, बताओ?

नायकराम – ‘करना क्या होगा, जैसा किया है, वैसा भोगना होगा। जाकर अपनी घरवाली से पूछो। उसी ने आज आग लगाई थी। जानते तो हो कि सूरे मिठुआ पर जान देता है, फिर क्यों भैरों की मरम्मत नहीं की। मैं होता, तो भैरों को दो-चार खरी-खोटी सुनाए बिना न जाने देता, और नहीं तो दिखावे के लिए सही। उस बेचारे को भी मालूम हो जाता कि मेरी पीठ पर है कोई। आज उसे बड़ा रंज हुआ है, नहीं तो जमीन बेचने का कभी उसे धयान ही न आया था।‘

बजरंगी – ‘अरे, तो अब कोई उपाय निकालोगे या बैठकर पिछली बातों के नाम को रोयें!’

नायकराम -‘ उपाय यही है कि आज सूरे आए, तो चलकर उसके पैरों पर गिरो, उसे दिलासा दो, जैसे राजी हो, वैसे राजी करो, दादा-भैया करो, मान जाए तो अच्छा, नहीं तो साहब से लड़ने के लिए तैयार हो जाओ, उनका कब्जा न होने दो, जो कोई जमीन के पास आए, मारकर भगा दो। मैंने तो यही सोच रखा है। आज सूरे को अपने हाथ से बना के दूधिया पिलाऊंगा और मिठुआ को भर-पेट मिठाइयाँ खिलाऊंगा। जब न मानेगा, तो देखी जायेगी।‘

बजरंगी – ‘जरा मियाँ साहब के पास क्यों नहीं चले चलते? सूरदास ने उससे न जाने क्या-क्या बातें की हों। कहीं लिखा-पढ़ी कराने को कह आया हो, तो फिर चाहे कितनी ही आरजू-बिनती करोगे, कभी अपनी बात न पलटेगा।‘

नायकराम – ‘मैं उस मुंशी के द्वार पर न जाऊंगा। उसका मिजाज और भी आसमान पर चढ़ जायेगा।‘

बजरंगी – ‘नहीं पंडाजी, मेरी खातिर से जरा चले चलो।‘

नायकराम आखिर राजी हुए। दोनों आदमी ताहिर अली के पास पहुँचे। वहाँ इस वक्त सन्नाटा था। खरीद का काम हो चुका था। चमार चले गए थे। ताहिर अली अकेले बैठे हुए हिसाब-किताब लिख रहे थे। मीजान में कुछ फर्क पड़ता था। बार-बार जोड़ते थे! पर भूल पर निगाह न पहुँचती थी। सहसा नायकराम ने कहा – ‘कहिए मुंसीजी, आज सूरे से क्या बातचीत हुई?’

ताहिर – ‘अहा, आइए पंडाजी, मुआफ कीजिएगा, मैं जरा मीजान लगाने में मसरूफ था, इस मोढ़े पर बैठिए। सूरे से कोई बात तय न होगी। उसकी तो शामतें आई हैं। आज तो धमकी देकर गया है कि जमीन के साथ मेरी जान भी जाएगी। गरीब आदमी है, मुझे उस पर तरस आता है। आखिर यही होगा कि साहब किसी कानून की रूह से जमीन पर काबिज हो जायेंगे। कुछ मुआवजा मिला, तो मिला, नहीं तो उसकी भी उम्मीद नहीं।‘

नायकराम – ‘जब सूरे राजी नहीं है, तो साहब क्या खाके यह जमीन ले लेंगे! देख बजरंगी, हुई न वही बात, सूरे ऐसा कच्चा आदमी नहीं है।‘
ताहिर – ‘साहब को अभी आप जानते नहीं हैं।‘

नायकराम – ‘मैं साहब और साहब के बाप, दोनों को अच्छी तरह जानता हूँ। हाकिमों की खुशामद की बदौलत आज बड़े आदमी बने फिरते हैं।‘

ताहिर – ‘खुशामद ही का तो आजकल जमाना है। वह अब इस जमीन को लिए बगैर न मानेंगे।‘

नायकराम – ‘तो इधर भी यही तय है कि जमीन पर किसी पर कब्जा न होने देंगे, चाहे जान जाए। इसके लिए मर मिटेंगे। हमारे हजारों यात्री आते हैं। इसी खेत में सबको टिका देता हूँ। जमीन निकल गई, तो क्या यात्रियों को अपने सिर पर ठहराऊंगा? आप साहब से कह दीजिएगा, यहाँ उनकी दाल न गलेगी। यहाँ भी कुछ दम रखते हैं। बारहों मास खुले-खजाने जुआ खेलते हैं। एक दिन में हजारों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। थानेदार से लेकर सुपरीडंट तक जानते हैं, पर मजाल क्या कि कोई दौड़ लेकर आए। खून तक छिपा डाले हैं।‘
ताहिर – ‘तो आप ये सब बातें मुझसे क्यों कहते हैं, क्या मैं जानता नहीं हूँ? आपने सैयद रजा अली थानेदार का नाम तो सुना ही होगा, मैं उन्ही का लड़का हूँ। यहाँ कौन पंडा है, जिसे मैं नहीं जानता।‘

नायकराम – ‘लीजिए, घर ही बैद, तो मरिए क्यों? फिर तो आप अपने घर ही के आदमी हैं। दरोगाजी की तरह भला क्या कोई अफसर होगा। कहते थे, बेटा, जो चाहे करो, लेकिन मेरे पंजे में न आना। मेरे द्वार पर फड़ जाती थी, वह कुर्सी पर बैठे देखा करते थे। बिल्कुल  घरांव हो गया था। कोई बात बनी-बिगड़ी, जाके सारी कथा सुना देता था। पीठ पर हाथ फेरकर कहते-बस जाओ, अब हम देख लेंगे। ऐसे आदमी अब कहाँ? सतजुगी लोग थे। आप तो अपने भाई ही ठहरे, साहब को धाता क्यों नहीं बताते? आपको भगवान् ने विद्या-बुध्दि दी है, बीसों बहाने निकाल सकते हैं। बरसात में पानी जमता है, दीमक बहुत है, लोनी लगेगी, ऐसे ही और कितने बहाने हैं।‘

ताहिर – ‘पंडाजी, जब आपसे भाईचारा हो गया, तो क्या परदा है। साहब पल्ले सिरे का घाघ है। हाकिमों से उसका बड़ा मेल-जोल है। मुफ्त में जमीन ले लेगा। सूरे को तो चाहे सौ-दो-सौ मिल भी रहें, मेरा इनाम-इकराम गायब हो जाएगा। आप सूरे से मुआमला तय करा दीजिए, तो उसका भी फायदा हो, मेरा भी फायदा हो और आपका भी फायदा हो।‘

नायकराम – ‘आपको वहाँ से इनाम-इकराम मिलनेवाला हो, वह हमीं लोगों से ले लीजिए। इसी बहाने कुछ आपकी खिदमत करेंगे। मैं तो दरोगाजी को जैसा समझता था, वैसा ही आपको समझता हूँ।‘

ताहिर – ‘मुआजल्लाह, पंडाजी, ऐसी बात न कहिए। मैं मालिक की निगाह बचाकर एक कौड़ी लेना भी हराम समझता हूँ। वह अपनी खुशी से जो कुछ दे देंगे, हाथ फैलाकर ले लूंगा; पर उनसे छिपाकर नहीं। खुदा उस रास्ते से बचाए। वालिद ने इतना कमाया, पर मरते वक्त घर में एक कौड़ी कफन को भी न थी।‘

नायकराम – ‘अरे यार, मैं तुम्हें रुसवत थोड़े ही देने को कहता हूँ। जब हमारा-आपका भाईचारा हो गया, तो हमारा काम आपसे निकलेगा, आपका काम हमसे। यह कोई रुसवत नहीं।‘

ताहिर – ‘नहीं पंडाजी, खुदा मेरी नीयत को पाक रखे, मुझसे नमकहरामी न होगी। मैं जिस हाल में हूँ, उसी में खुश हूँ, जब उसके करम की निगाह होगी, तो मेरी भलाई की कोई सूरत निकल ही आयेगी।‘

नायकराम – ‘सुनते हो बजरंगी, दरोगाजी की बातें। चलो, चुपके से घर बैठो, जो कुछ आगे आएगी, देखी जाएगी। अब तो साहब ही से निबटना है।‘

बजरंगी के विचार में नायकराम ने उतनी मिन्नत-समाजत न की थी, जितनी करनी चाहिए थी। आए थे अपना काम निकालने के हेकड़ी दिखाने। दीनता से जो काम निकल जाता है, वह डींग मारने से नहीं निकलता। नायकराम ने तो लाठी कंधो पर रखी, और चले। बजरंगी ने कहा – ‘मैं जरा गोरुओं को देखने जाता हूँ, उधर से होता हुआ आऊंगा। यों बड़ा अक्खड़ आदमी था, नाक पर मक्खी न बैठने देता। सारा मुहल्ला उसके क्रोध से कांपता था, लेकिन कानूनी कारवाइयों से डरता था। पुलिस और अदालत के नाम ही से उसके प्राण सूख जाते थे। नायकराम को नित्य ही अदालत से काम रहता था, वह इस विषय में अभ्यस्त थे। बजरंगी को अपनी जिंदगी में कभी गवाही देने की भी नौबत न आई थी। नायकराम के चले आने के बाद ताहिर अली भी घर गए; पर बजरंगी वहीं आस-पास टहलता रहा कि वह बाहर निकलें, तो अपना दु:खड़ा सुनाऊं।‘

ताहिर अली के पिता पुलिस-विभाग के कांस्टेबिल से थानेदारी के पद तक पहुँचे थे। मरते समय कोई जायदाद तक न छोड़ी, यहाँ तक कि उनकी अंतिम क्रिया कर्ज से की गई; लेकिन ताहिर अली के सिर पर दो विधवाओं और उनकी संतान का भार छोड़ गए। उन्होंने तीन शादियाँ की थीं। पहली स्त्री से ताहिर अली थे, दूसरी से माहिर अली और जाहिर अली, और तीसरी से जाबिर अली। ताहिर अली धैर्यशील और विवेकी मनुष्य थे। पिता का देहांत होने पर साल-भर तक तो रोजगार की तलाश में मारे-मारे फिरे। कहीं मवेशीखाने की मुहर्रिरी मिल गई, कहीं किसी दवा बेचनेवाले के एजेंट हो गए, कहीं चुंगी-घर के मुंशी का पद मिल गया। इधर कुछ दिनों से मिस्टर जॉन सेवक के यहाँ स्थायी रूप से नौकर हो गए थे। उनके आचार-विचार अपने पिता से बिलकुल निराले थे। रोजा-नमाज के पाबंद और नीयत के साफ थे। हराम की कमाई से कोसों भागते थे। उनकी माँ तो मर चुकी थीं; पर दोनों विमाताएँ जीवित थीं। विवाह भी हो चुका था; स्त्री के अतिरिक्त एक लड़का था-साबिर अली, और एक लड़की-नसीमा। इतना बड़ा कुटुम्ब था और 30 रुपये मासिक आय! इस महंगी के समय में, जबकि इससे पंचगुनी आमदनी में सुचारु रूप से निर्वाह नहीं होता, उन्हें बहुत कष्ट झेलने पड़ते थे; पर नीयत खोटी न होती थी। ईश्वर-भीरुता उनके चरित्र का प्रधान गुण थी। घर में पहुँचे, तो माहिर अली पढ़ रहा था, जाहिर और जाबिर मिठाई के लिए रो रहे थे, और साबिर आँगन में उछल-उछलकर बाजरे की रोटियाँ खा रहा था। ताहिर अली तख्त पर बैठे गए और दोनों छोटे भाइयों को गोद में उठाकर चुप कराने लगे। उनकी बड़ी विमाता ने जिनका नाम जैनब था, द्वार पर खड़ी होकर नायकराम और बजरंगी की बातें सुनी थीं। बजरंगी दस ही पाँच कदम चला था कि माहिर अली ने पुकारा – ‘सुनो जी, ओ आदमी! जरा यहाँ आना, तुम्हें अम्मा बुला रही हैं।‘

बजरंगी लौट पड़ा, कुछ आस बंधी। आकर फिर बरामदे में खड़ा हो गया। जैनब टाट के परदे की आड़ में खड़ी थीं, पूछा – ‘क्या बात थी जी?’
बजरंगी – ‘वही जमीन की बातचीत थी। साहब इसे लेने को कहते हैं। हमारा गुजर-बसर इसी जमीन से होता है! मुंसीजी से कह रहा हूँ, किसी तरह इस झगड़े को मिटा दीजिए। नजर-नियाज देने को भी तैयार हूँ, मुआ मुंसीजी सुनते ही नहीं।‘

जैनब – ‘सुनेंगे क्यों नहीं, सुनेंगे न तो गरीबों की हाय किस पर पड़ेगी? तुम भी तो गंवार आदमी हो, उनसे क्या कहने गए? ऐसी बातें मरदों से कहने की थोड़ी ही होती हैं। हमसे कहते, हम तय करा देते।‘

जाबिर की माँ का नाम था रकिया। वह भी आकर खड़ी हो गईं। दोनों महिलायें साये की तरह साथ-साथ रहती थीं। दोनों के भाव एक, दिल एक, विचार एक, सौतिन का जलापा नाम को न था। बहनों का-सा प्रेम था। बोली – ‘और क्या, भला ऐसी बातें मरदों से की जाती हैं?’
बजरंगी – ‘माताजी, मैं गंवार आदमी, इसका हाल क्या जानूं। अब आप ही तय करा दीजिए। गरीब आदमी हूँ, बाल-बच्चे जियेंगे।‘

जैनब – ‘सच-सच कहना, यह मुआमला दब जाए, तो कहाँ तक दोगे?’

बजरंगी – ‘बेगम साहब, 50 रुपये तक देने को तैयार हूँ।‘

जैनब – ‘तुम भी गजब करते हो, 50 रुपये ही में इतना बड़ा काम निकालना चाहते हो?’

रकिया (धीरे से) – ‘बहन, कहीं बिदक न जाये।‘

बजरंगी – ‘क्या करूं, बेगम साहब, गरीब आदमी हूँ। लड़कों को दूध-दही जो कुछ हुकुम होगा, खिलाता रहूंगा; लेकिन नगद तो इससे ज्यादा मेरा किया न होगा।‘

रकिया – ‘अच्छा, तो रुपयों का इंतजाम करो। खुदा न चाहा, तो सब तय हो जायेगा।‘

जैनब (धीरे से) – ‘रकिया, तुम्हारी जल्दबाजी से मैं आजिज हूँ।‘

बजरंगी – ‘माँजी, यह काम हो गया, तो सारा मुहल्ला आपका जस गायेगा।‘

जैनब – ‘मगर तुम तो 50 रुपये से आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते। इतने तो साहब ही दे देंगे, फिर गुनाह बेलज्जत क्यों किया जाये।‘

बजरंगी – ‘माँजी, आपसे बाहर थोड़े ही हूँ। दस-पाँच रुपये और जुटा दूंगा।‘

बजरंगी – ‘बस, दो दिन की मोहलत मिल जाए। तब तक मुंसीजी से कह दीजिए, साहब से कहें-सुनें।‘

जैनब – ‘वाह महतो, तुम तो बड़े होशियार निकले। सेंत ही में काम निकालना चाहते हो। पहले रुपये लाओ, फिर तुम्हारा काम न हो, तो हमारा जिम्मा।‘

बजरंगी दूसरे दिन आने का वादा करके खुश-खुश चला गया, तो जैनब ने रकिया से कहा – ‘तुम बेसब्र हो जाती हो। अभी चमारों से दो पैसे खाल लेने पर तैयार हो गईं। मैं दो आने लेती, और वे खुशी से देते। यही अहीर पूरे सौ गिनकर जाता। बेसब्री से गरजमंद चौकन्ना हो जाता है। समझता है, शायद हमें बेवकूफ बना रही हैं जितनी ही देर लगाओ, जितनी बेरुखी से काम लो, उतना एतबार बढ़ता है।‘

रकिया – ‘क्या करूं बहन, मैं डरती हूँ कि कहीं बहुत सख्ती से निशाना खता न कर जाये।‘

जैनब – ‘वह अहीर रुपये जरूर लायेगा। ताहिर को आज ही से भरना शुरू कर दो। बस, अजाब का खौफ दिलाना चाहिए। उन्हें हत्थे चढ़ाने का यही ढंग है।‘

रकिया – ‘और कहीं साहब न माने, तो?’

जैनब – ‘तो कौन हमारे ऊपर नालिश करने जाता है।‘

ताहिर अली खाना खाकर लेटे थे कि जैनब ने जाकर कहा – ‘साहब दूसरों की जमीन क्यों लिए लेते हैं? बेचारे रोते फिरते हैं।‘

ताहिर – ‘मुफ्त थोड़े ही लेना चाहते हैं! उसका माकूल मुआवजा देने पर तैयार हैं।‘

जैनब – ‘यह तो गरीबों पर जुल्म है।‘

रकिया – ‘जुल्म ही नहीं है, अजाब है। भैया, तुम साहब से साफ-साफ कह दो, मुझे इस अजाब में न डालिए। खुदा ने मेरे आगे भी बाल-बच्चे दिए हैं, न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े; मैं यह अजाब सिर पर न लूंगा।‘

जैनब – ‘गंवार तो हैं ही, तुम्हारे ही सिर हो जायें। तुम्हें साफ कह देना चाहिए कि मैं मुहल्लेवालों से दुश्मनी मोल न लूंगा, जान-जोखिम की बात है।‘

रकिया – ‘जान-जोखिम तो है ही, ये गँवार किसी के नहीं होते।‘

ताहिर – ‘क्या आपने भी कुछ अफवाह सुनी है?’

रकिया – ‘हाँ, ये सब चमार आपस में बातें करते जा रहे थे कि साहब ने जमीन ली, तो खून की नदी बह जाएगी। मैंने तो जब से सुना है, होश उड़े जा रहे हैं।‘

जैनब – ‘होश उड़ने की बात ही है।‘

ताहिर – ‘मुझे सब नाहक बदनाम कर रहे हैं। मैं लेने में, न देने में। साहब ने उस अंधे से जमीन की निस्बत बातचीत करने का हुक्म दिया था। मैंने हुक्म की तामील की, जो मेरा फर्ज था; लेकिन ये अहमक यही समझ रहे हैं कि मैंने ही साहब को इस जमीन की खरीदारी पर आमादा किया है; हालांकि ख़ुदा जानता है, मैंने कभी उनसे इसका जिक्र ही नहीं किया।‘

जैनब – ‘मुझे बदनामी का खौफ तो नहीं है; हाँ, खुदा के कहर से डरती हूँ। बेकसों की आह क्यों सिर पर लो?’

ताहिर – ‘मेरे ऊपर क्यों अजाब पड़ने लगा?’

जैनब – ‘और किसके ऊपर पड़ेगा बेटा? यहाँ तो तुम्हीं हो, साहब तो नहीं बैठे हैं। वह तो भुस में आग लगाकर दूर से तमाशा देखेंगे, आई-गई तो तुम्हारे सिर जाएगी। इस पर कब्जा तुम्हें करना पड़ेगा। मुकदमे चलेंगे, तो पैरवी तुम्हें करनी पड़ेगी। ना भैया, मैं इस आग में नहीं कूदना चाहती।‘

रकिया – ‘मेरे मैके में एक कारिंदे ने किसी काश्तकार की जमीन निकाल ली थी। दूसरे ही दिन जवान बेटा उठ गया। किया उसने जमींदार ही के हुक्म से, मगर बला आई उस गरीब के सिर। दौलतवालों पर अजाब भी नहीं पड़ता। उसका वार भी गरीबों पर ही पड़ता है। हमारे बच्चे रोज ही नजर और आसेब की चपेट में आते रहते हैं; पर आज तक कभी नहीं सुना कि किसी अंगरेज के बच्चे को नज़र लगी हो। उन पर बलैयात का असर ही नहीं होता।‘

यह पते की बात थी। ताहिर अली को भी इसका तुजुर्बा था। उनके घर के सभी बच्चे गंडों और तावीजों से मढ़े हुए थे, उस पर भी आए दिन झाड़-फूँक और राई-नोन की जरूरत पड़ा ही करती थी।

धर्म का मुख्य स्तंभ भय है। अनिष्ट की शंका को दूर कीजिए, फिर तीर्थ-यात्रा, पूजा-पाठ, स्नान-धयान, रोज़ा-नमाज, किसी का निशान भी न रहेगा। मस्ज़िदें खाली नज़र आयेंगी, और मंदिर वीरान!

ताहिर अली को भय ने परास्त कर दिया। स्वामिभक्ति और कर्तव्‍य-पालन का भाव ईश्वरीय कोप का प्रतिकार न कर सका।

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