Chapter 21 Manorama Novel By Munshi Premchand
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जगदीशपुर के ठाकुर द्वारे पर नित सादगी महात्मा आते रहते थे। शंखधर उनके पास जा बैठता और उनकी बातें बड़ी ध्यान से सुनता। उसके पास चक्रधर की तस्वीर थी, उससे मन ही मन साधुओं की तस्वीर का मिलान करता। परंतु उस सूरत का साधु उसे न दिखाई देता। किसी की भी बातचीत से चक्रधर की टोह न मिलती।
एक दिन मनोरमा के साथ शंखधर भी लौंगी के पास गया। लौंगी बड़ी देर तक अपनी तीर्थ यात्रा की चर्चा करती रही। शंखधर उसकी बात गौर से सुनने के बाद बोला – ‘क्यों दाई, तुम्हें तो साधु सन्यासी बहुत मिले होंगे।’
लौंगी ने कहा – ‘हाँ बेटा! मिले क्यों नहीं? एक साधु तो ऐसा मिला था कि हूबहू तुम्हारे बाबूजी से सूरत मिलती थी। बदले हुए भेष में ठीक से पहचान न सकी, लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था, मानो वहीं हैं।’
शंखधर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा – ‘जटा बड़ी-बड़ी थी।’
लौंगी – ‘नहीं जटा-सटा तो नहीं थी, न ही वस्त्र गेरूये रंग के थे। हाँ, कमंडल अवश्य लिए हुए थे। जितने दिन मैं जगन्नाथ पुरी में रही, वह एक बार रोज़ मेरे पास आकर पूछ जाते – क्यों माताजी! आपको किसी बात का कष्ट तो नहीं है? और यात्रियों से भी वह यही बात पूछते थे।’
शंखधर बोला – ‘दाई! तुमने यहाँ तार क्यों न दिया। हम लोग फौरन पहुँच जाते।’
लौंगी – ‘अरे तो कोई बात भी तो हो बेटा। न जाने कौन था, कौन नहीं था। बिना जाने-बूझे कैसे तार दे देती।’
शंखधर – ‘मैं यदि उन्हें एक बार देख पाऊं, तो फिर कभी साथ ही न छोड़े। क्यों दाई, आजकल वे सन्यासीजी कहाँ होंगे?’
मनोरमा – ‘अब दाई यह क्या जाने? अब सन्यासी कहीं एक जगह रहते हैं, जो वह बता दें।’
शंखधर – ‘अच्छा दाई, तुम्हारे खयाल में सन्यासीजी की उम्र क्या रही होगी?’
लौंगी – ‘मैं समझती हूँ कि उनकी उम्र चालीस वर्ष की रही होगी।’
शंखधर ने कुछ हिसाब करके कहा – ‘रानी अम्मा! यही तो बाबूजी की भी उम्र होगी।’
मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा – ‘हाँ हाँ! वही सन्यासी तुम्हारे बाबूजी हैं। बस, अब माना। अभी उम्र चालीस की कैसे हो जायेगी?’
शंखधर समझ गया कि मनोरमा को यह जिक्र बुरा लगता है। इस विषय मैं फिर मुख से एक शब्द न निकाला। लेकिन वहाँ रहना अब उसके लिए असंभव था। पुरी का हाल तो उसने भूगोल में पढ़ा था। लेकिन अब उस अल्पज्ञान से उसे संतोष न हो सकता था। वह जानना चाहता था कि पुरी कौन रेल जाती है। घर के पुस्तकालय में शायद कोई ऐसा ग्रंथ मिल जाए, यह सोचकर वह बाहर आया। शोफर से बोला – ‘मुझे घर पहुँचा दो।’
घर आकर पुस्तकालय में जा ही रहा था कि गुरुसेवक सिंह मिल गये।
शंखधर उन्हें देखते ही बोला – ‘गुरुजी! ज़रा कृपा करके मुझे पुस्तकालय से कोई ऐसी पुस्तक निकाल दीजिए, जिसमें तीर्थ स्थानों का पूरा-पूरा हाल लिखा हो।’
गुरुसेवक ने कहा – ‘ऐसी तो कोई किताब पुस्तकालय में नहीं है।’
शंखधर – ‘अच्छा तो मेरे लिए ऐसी कोई किताब मंगवा दीजिये।’
यह कह कर वह लौटा ही था कि कुछ सोचकर बाहर चला गया और एक मोटर तैयार करके शहर चला। अभी उसका तेरहवां ही साल था, लेकिन चरित्र में इतनी दृढ़ता थी कि जो बात मन में ठान लेता, उसे पूरा करके ही छोड़ता। शहर जाकर उसने अंग्रेजी पुस्तकों की कई दुकानों में तीर्थ यात्रा संबंधी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बंडल लेकर घर आया।
राजा साहब भोजन करने बैठे, तो शंखधर वहाँ न था। अहिल्या ने जाकर देखा तो वह अपने कमरे में बैठा कोई किताब देख रहा था।
अहिल्या ने कहा – ‘चलकर खाना खा लो। दादाजी बुला रहे हैं।’
शंखधर – ‘अम्मा जी! आज मुझे बिल्कुल भूख नहीं है।’
अहिल्या ने उसके सामने से खुली हुई किताब उठा ली और दो चार पंक्तियाँ पढ़कर बोली – ‘इसमें तो तीर्थों का हाल लिखा हुआ है – जगन्नाथ, बद्रीनाथ, काशी और रामेश्वर। यश किताब कहाँ से लाये?’
शंखधर – ‘आज ही तो बाजार से लाया हूँ। दाई कहती थी कि बाबूजी की सूरत का एक सन्यासी उन्हें जगन्नाथ में मिला था।’
अहिल्या ने शंखधर को दया सजल नेत्रों से देखा; पर उसके मुख से कोई बात न निकली। आह! मेरे लाल तुममें इतनी पितृ भक्ति क्यों है? तू पिता के वियोग में क्यों इतना पागल हो गया है? तुझे तो पिता की सूरत भी याद नहीं। तुझे तो इतना भी याद नहीं कि कब पिता की गोद में बैठा था, कब उनकी प्यार की बातें सुनी थी। फिर भी तुझे उन पर इतना प्रेम है? और वह इतने निर्दयी हैं। आँसुओं के वेग को दबाते हुए वह बोली – ‘बेटा तुम्हारा उठने का जी न चाहता हो, तो यहीं लाऊं।’
शंखधर – ‘अच्छा खा लूंगा माँ। किसी से खाना भिजवा दो, तुम क्यों लाओगी।’
अहिल्या एक क्षण में छोटी सी थाली में भोजन लेकर आयी और शंखधर के सामने रखकर बैठ गई।
शंखधर को इस समय खाने की रुचि न थी, यह बात नहीं थी। उसे अब तक निश्चिंत रूप से अपने पिता के विषय में कुछ मालूम न था। वह जानता था कि वह किसी दूसरी जगह आराम से होंगे। आज उसे यह मालूम हुआ कि वह सन्यासी हो गए हैं। अब वह राजसी भोजन कैसे करता? इसलिए उसने अहिल्या से कहा था कि भोजन किसी के हाथों भेज देना, तुम न आना। अब वह थाल देखकर वह बड़े धर्म संकट में पड़ा। अगर नहीं खाता, तो अहिल्या दुखी होती; अगर खाता, तो कौर मुँह में न जाता। उसे खयाल आया कि मैं यहाँ चांदी के थाल में मोहन भोग लगाने बैठा हूँ और बाबूजी पर न जाने उस समय क्या गुजर रही होगी। बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने कुछ खाया होगा या नहीं। वह थाली पर बैठा, लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूट कर रोने लगा। अहिल्या उसके मन का भाव ताड़ गई और स्वयं रोने लगी। कौन किसे समझाता?
आज से अहिल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शंखधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाये। उसने सब को मना कर दिया कि शंखधर के सामने पिता की चर्चा न करें। कहीं शंखधर पिता के गृह त्याग का कारण न जान ले। कहीं वह यह ना जान जाए कि बाबूजी को राज पाठ से घृणा है। नहीं तो फिर इसे कौन रोकेगा।
उसे अब हरदम यही पछतावा होता रहता कि मैं शंखधर को लेकर स्वामी के साथ क्यों न चली गई। राज के लोभ में वह पति को पहले ही खो बैठी थी, कहीं पुत्र को भी तो न खो बैठेगी।
शंखधर का नाम स्कूल में लिख दिया गया है। स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधा लौंगी के पास जाता है और उसे तीर्थ यात्रा की बातें पूछता है। यात्री लोग ठहरते हैं, कहाँ खाते हैं; जहाँ रेलें नहीं हैं, वह लोग कैसे जाते हैं, चोर तो नहीं मिलते? लौंगी उसके मनोभाव को ताड़ती है। लेकिन इच्छा न होते हुए भी उसे सारी बातें बतानी पड़ती है। वह झुंझलाती है, घुड़क बैठती है, लेकिन जब वह किशोर आग्रह करके उसकी खोज में बैठ जाता है, तो उसे दया आ जाती है।
छुट्टियों के दिन शंखधर पितृ गृह के दर्शन करने अवश्य जाता है। वह घर उसके लिए तीर्थ है। निर्मला की आँखों से देखने से तृप्त ही नहीं होती। दादा और दादी दोनों उसके बालोत्साह से भरी बातें सुनकर मुग्ध हो जाते हैं। उनके हृदय पुलकित हो उठते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि चक्रधर स्वयं बाल्य रूप धरकर उनका मन हरने आ गया है।
एक दिन निर्मला ने कहा – ‘बेटा तुम यहीं आकर क्यों नहीं रहते? तुम चले जाते हो, तो घर काटने को दौड़ता है।’
शंखधर ने कुछ सोचकर गंभीर भाव से कहा – ‘अम्मा जी तो आती ही नहीं। वह क्यों कभी यहाँ नहीं आती दादी जी।’
निर्मला – ‘क्या जाने बेटा, मैं उसके मन की बात क्या जानू? तुम कभी कहते नहीं। आज कहना देखो क्या कहती है?’
शंखधर – ‘नहीं दादीजी! वह रोने लगेंगी। जब थोड़े दिन में मैं गद्दी पर बैठूंगा, तो यही मेरा राजभवन होगा। तभी अम्मा जी आयेंगी।’
जब वह चलने लगा, तो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गई।
सहसा शंखधर ड्योढ़ी पर खड़ा हो गया और बोला – ‘दादी जी आपसे कुछ मांगना चाहता हूँ।’
निर्मला ने विस्मित होकर सजल नेत्रों से उसे देखा और गदगद होकर बोली – ‘क्या मांगते हो बेटा?’
शंखधर – ‘मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मनोकामना पूरी हो।’
निर्मला ने पोते को कंठ से लगाकर कहा – ‘भैया, मेरा तो रोंया-रोंया तुझे आशीर्वाद देता है। ईश्वर तुम्हारी मनोकामनायें पूरी करें।’
शंखधर घर पहुँचा, तो अहिल्या ने पूछा – ‘आज इतनी देर कहाँ लगाई बेटा? मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूँ।’
शंखधर – ‘अभी तो बहुत देर नहीं हुई अम्मसी। ज़रा दादी जी के पास चला गया था। उन्होंने तुम्हें आज एक संदेश भेजा है।’
अहिल्या – ‘क्या खबर है, सुनूं। कहीं तुम्हारे बाबूजी की कोई खबर तो नहीं मिली है।’
शंखधर – ‘नहीं बाबूजी की खबर नहीं मिली है। तुम कभी कभी वहाँ क्यों नहीं चली जाती।’
अहिल्या ने ऊपरी मन से हाँ तो कह दिया, लेकिन भाव से साफ़ मालूम होता था कि वह वहाँ जाना उचित नहीं समझती। शायद वह कह सकती, तो कहती – वहाँ से तो एक बार निकाल दी गई थी, अब कौन मुँह लेकर जाऊं? क्या अब मैं कोई दूसरी हो गई हूँ।
अहिल्या तश्तरी में मिठाईयाँ और मेवे लेकर आई और एक लौंडी से पानी लाने को कहकर बेटे से बोली – ‘वहाँ तो कुछ जलपान न किया होगा। खा लो। आज तुम इतने उदास क्यों हो?’
शंखधर ने तश्तरी की ओर बिना देखे ही कहा – ‘क्यों अम्मा जी! बाबूजी को हम लोगों की याद भी कभी आती होगी।’
अहिल्या ने सजल नेत्र होकर कहा – ‘क्या जाने बेटा, याद आती, तो काहे कोसो दूर बैठे रहते।’
शंखधर – ‘क्या वे बड़े निष्ठुर हैं अम्मा?’
अहिल्या रो रही थी। कुछ न बोल सकी। उसका कंठ स्वर अश्रुप्रवाह में समा जा रहा था।
शखधर ने फिर कहा – ‘मुझे तो मालूम होता है अम्मा जी कि वे बहुत निर्दयी हैं। इसी से उन्हें हम लोगों का दुख नहीं जान पड़ता। मेरा तो कभी-कभी ऐसा चित्त होता है कि देखूं तो प्रणाम तक न करूं। कह दूं, आप मेरे होते कौन हैं? आप ही ने हम लोगों को त्याग दिया है।’
अब अहिल्या चुप न रह सकी। कांपते हुए स्वर में बोली – ‘बेटा, उन्होंने हमें त्याग नहीं दिया है। वहाँ उनकी जो दशा हो रही होगी, उसे मैं ही जानती हूँ। हम लोगों की याद एक क्षण को भी उनके चित्त से न उतरती होगी। खाने पीने का ध्यान भी न रहता होगा। यह सब मेरा ही दोष है बेटा। उनका कोई दोष नहीं।’
शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा – ‘अच्छा अम्मा जी, मुझे देखें, तो वह पहचान जायेंगे कि नहीं?’
अहिल्या – ‘तुम्हें, मैं तो जानती हूँ कि न पहचान सकेंगे। तब तक जरा सा बच्चा था। आज उनको गए दसवां साल है। भगवान करे, जहाँ रहें, कुशल से रहें। बदा होगा, तो कभी भेंट हो ही जायेगी।’
शंखधर अपनी ही धुन में मस्त था। उसने यह बातें सुनी ही नहीं। बोला – ‘लेकिन अम्मा जी! मैं तो उन्हें देखकर फौरन पहचान जाऊं। वह चाहे किसी वेश में हो, मैं पहचान लूंगा।’
अहिल्या – ‘नहीं बेटा, तुम भी उन्हें न पहचान सकोगे। तुमने उनकी तस्वीरें ही तो देखीं हैं। ये तस्वीरें बारह साल पहले की है। फिर उन्होंने केश भी बढ़ा लिये होंगे।’
शंखधर ने कुछ जवाब न दिया। बगीचे में जाकर दीवारों को देखता रहा, फिर अपने कमरें में आया और चुपचाप बैठकर कुछ सोचने लगा। वह यहाँ से भाग निकलने को विकल हो रहा था।
एकाएक उसे खयाल आया कि ऐसा न हो कि लोग मेरी तलाश में निकले, थाने में हुलिया लिखायें, खुद भी परेशान हों और मुझे भी परेशान करें। इसलिए उन्हें बता देना चाहिए कि मैं कहाँ और किस काम के लिए जा रहा हूँ। अगर किसी ने मुझे जबरदस्ती लाना चाहा, तो अच्छा न होगा। हमारी खुशी है, जब चाहेंगे आयेंगे; हमारा राज्य तो कोई नहीं उठा ले जायेगा। उसने एक कागज पर पत्र लिखा और अपने बिस्तर पर रख दिया।
आधी रात बीत चुकी थी। शंखधर एक कुत्ता पहने कमरे से निकला। बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे।
वह पिछवाड़े की तरफ बाग में गया और एक अमरूद के पेड़ पर चढ़कर बाहर की ओर कूद गया। अब उसके सिर पर तरीका मंडित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती में उल्लास और आशा से धड़कता हृदय। वह बड़ी तेजी से कदम बढ़ाता हुआ चला। कुछ नहीं मालूम कि किधर जा रहा है, तकदीर कहाँ लिए जाती है।
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