चैप्टर 4 बड़ी दीदी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 4 Badi Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 4 Badi Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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मनोरमा माधवी की सहेली है। बहुत दिनों से उसने मनोरमा को कोई पत्र नहीं लिखा था। अपने पत्र का उत्तर न पाकर मनोरमा रूठ गई थी। आज दोपहर को कुछ समय निकालकर माधवी उसे पत्र लिखने बैठी थी।

तभी प्रमिला ने आकर पुकारा, ‘बड़ी दीदी।’

माधवी ने सिर उठाकर पूछा, ‘क्या है री?’

‘मास्टर साहब का चश्मा कहीं खो गया है, एक चश्मा दो।’

माधवी हँस पड़ी, बोली, ‘जाकर अपने मास्टर साहब को कह दे कि क्या मैंने चश्मों की कोई दुकान खोल रखी है?’

प्रमिला दौड़कर जाने लगी तो माधवी ने उसे पुकारा, ‘कहाँ जा रही है?’

‘उनसे कहने।’

‘इसके बजाय गुमाश्ता जी को बुला ला।’

प्रमिला जाकर गुमाश्ता जी को बुला लाई। माधवी ने उनसे कहा, ‘मास्टर साहब का चश्मा खो गया है। उन्हें एक अच्छा-सा चश्मा दिलवा दो।’

गुमाश्ता जी के चले जाने के बाद वह फिर मनोरमा को पत्र लिखने लगी, पत्र के अंत में उसने लिखा-

‘प्रमिला के लिए बाबूजी ने एक टीचर रखा है, उसे आदमी भी कह सकते हैं और छोटा बालक भी कह सकते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि इससे पहले वह घर से बाहर कभी नहीं रहा। संसार का कुछ भी नहीं जानता। अगर उसका ध्यान न रखा जाये, उसकी देख-रेख न की जाये, तो पलभर भी उसका काम नहीं चल सकता। मेरा लगभग आधा समय उसने छीन रखा है, तुम्हें पत्र कब लिखूं। अगर तुम जल्दी आईं, तो मैं इस अकर्मण्य आदमी को दिखा दूंगी। ऐसा निकम्मा और नकारा आदमी तुमने अपने जीवन में नहीं देखा होगा। खाना दिया जाता है तो खा लेता है, वरना चुपचाप उपवास करके रह जाता है। शायद दिन भर भी उसे इस बात का ध्यान नहीं आता कि उसने खाना खाया हैं या नहीं। एक दिन भी वह अपना काम आप नहीं चला सकता, इसलिए सोचती हूँ की ऐसे लोग घर से बाहर निकलते ही क्यों हैं? सुना है, उसके माता-पिता हैं। लेकिन मुझे तो ऐसा लगता है कि उसके माता-पिता इंसान नहीं पत्थर हैं। मैं तो शायद ऐसे आदमी को कभी आँख की ओट भी नहीं कर सकती।’

मनोरमा ने मजाक करते हुए उत्तर दिया- ‘तुम्हारे पत्र से अन्य समाचारों के साथ यह भी मालूम हुआ की तुमने अपने घर में एक बंदर पाल लिया है और तुम उसकी सीता देवी बन बैठी हो। फिर भी सावधान किये देती हूँ-तुम्हारी मनोरमा।’

पत्र पढ़कर माधवी उदास हो गई। उसने उत्तर में लिख दिया, ‘तुम मुँहजली हो, इसलिए वह नहीं जानती कि किसके साथ कैसा मज़ाक करना चाहिए।’

प्रमिला से माधवी ने पूछा, ‘तुम्हारे मास्टर का चश्मा कैसा रहा?’

प्रमिला ने कहा, ‘ठीक रहा।’

‘मास्टर साहब उस चश्मे को लगातार खूब मजे से पढ़ते हैं। इसी से मालूम हुआ।’

‘उन्होंने खुद कुछ नहीं कहा?’ माधवली ने पूछा।

‘नहीं, कुछ नहीं।’

‘कुछ भी नहीं कहा? अच्छा है या बुरा है?’

‘नहीं, कुछ नहीं कहा।’

माधवी का हर समय प्रफुल्लित होने वाला चहेरा पल भर के लिए उदास हो गया, लेकिन फिर तुरन्त ही हँसते हुए बोली, ‘अपने मास्टर साहब से कह देना कि अपना चश्मा फिर कहीं न खो दें।’

‘अच्छा कह दूंगी।’

‘धत् पगली, भला ऐसी बातें भी कहीं कही जाती हैं। शायद वह अपने मन में कुछ खयाल करने लगें।’

‘तो फिर कुछ भी न कहूं?’

‘हाँ, कुछ मत कहना।’

शिवचंद्र माधवी का भाई है। एक दिन माधवी ने उससे पूछा, ‘जानते हो, प्रमिला के मास्टर रात-दिन क्या पढ़ते रहते है?’
शिवचन्द्र बी.ए. पढ़ता था। प्रमिला के तुच्छ मास्टर जैसों को वह कुछ समझता ही नहीं था। उपेक्षा से बोला, ‘कुछ नाटक-उपन्यास पढ़ते रहते होंगे। और क्या पढ़ेंगे?’

लेकिन माधवी को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने प्रमिला के द्वारा सुरेन्द्र की एक पुस्तक चोरी से मंगवा ली और अपने भाई के हाथ में देकर बोली, ‘मुझे तो यह नाटक या उपन्यास नहीं दिखाई देता।’

शिवचंद्र ने सारी पुस्तक उलट-पुलट कर देखी लेकिन उसकी समझ में कुछ नहीं आया। बस इतना ही समझ पाया कि वह इस पुस्तक का एक भी अक्षर नहीं जानता और यह कोई गणित की पुस्तक है।

लेकिन बहन के सामने अपना सम्मान नष्ट करने की इच्छा नहीं हुई। उसने कहा, ‘यह गणित की पुस्तक है। स्कूल में छोटी क्लासों में पढ़ायी जाती है।’

दुःखी होकर माधवी ने पूछा, ‘क्या यह किसी ऊँची क्लास की पुस्तक नहीं है? क्या कॉलेज में पढ़ायी जाने वाली पुस्तक नहीं है?’

शिवचंद्र ने रुखे स्वर से उत्तर दिया, ‘नहीं, बिलकुल नहीं।’

लेकिन उस दिन से शिवचंद्र सुरेन्द्रनाथ के सामने कभी नहीं पड़ता। उसके मन में यह डर बैठ कया है कि कहीं एसा न हो कि वह कोई बात पूछ बैठे, ‘जिससे सारी बातें खुल जाये और फिर पिता की आज्ञा से उसे भी सवेरे प्रमिला के साथ मास्टर साहब के पास कॉपी, पेंसिल लेकर बैठना पड़े।’

कुछ दिन बाद माधवी ने पिता से कहा, ‘बाबूजी, मैं कुछ दिनो के लिए काशी जाऊंगी।’

ब्रज बाबू चिंतितत हो उठे, ‘क्यों बेटी, तुम काशी चली जाओगी तो इस गृहस्थी का क्या होगा?’

माधवी हँसकर बोली, ‘मैं लौट आऊंगी। हमेशा के लिए थोड़े ही जा रही हूँ।’

माधवी तो हँस पड़ी, लेकिन पिता की आँखें छलक उठी।

माधवी ने समझ लिया कि ऐसा कहना उचित नहीं हुआ। बात संभालने के लिए बोली, ‘सिर्फ कुछ दिन घूम आऊंगी।’

‘तो चली जाओ, लेकिन बेटी यह गृहस्थी तुम्हारे बिना नहीं चलेगी।’

‘मेरे बिना गृहस्थी नहीं चलेगी?’

‘चलेगी क्यों नहीं बेटी! जरूर चलेगी, लेकिन उसी तरह जिस तरह पतवार के टूट जाने पर नाव बहाव की ओर चलने लगती है।’

लेकिन काशी जाना बहुत ही आवश्यत था। वहाँ उसकी विधवा ननद अपने इकलौते बेटे के साथ रहेती है। उसे एक बार देखना जरूरी है।
काशी जाने के दिन उसने हर एक को बुलाकर गृहस्थी का भार सौंप दिया। किसी दासी को बुलाकर पिता, भाई, और प्रमिला की विशेष रुप से देखभाल करने की हिदायत दी, लेकिन मास्टर साहब के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा। ऐसा उसने भूलकर साहब के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा। एसा उसने भूलकर नहीं बल्कि जान बूझकर किया था। इस समय उस पर उसे गुस्सा भी आ रहा था। माधवी ने उसके लिए बहुत कुछ किया है, लेकिन इस समय उसने मुँह से एक शब्द भी कहकर कृतज्ञता प्रकट नहीं की, इसलिए माधवी विदेश जाकर इस निकम्मे, संसार से अनजान और उदासीन मास्टर को जतलाना चाहती है कि मैं भी कोई चीज हूँ। ज़रा-सा मज़ाक करने में हर्ज़ ही क्या है? यह देख लेके में हानि ही क्या है। उसके यहाँ न होने पर मास्टर के दिन किस तरह कटते हैं? इसलिए वह काशी जाते समय किसी से सुरेन्द्र के संबंध में कुछ भी नहीं कह गई।

सुरेन्द्रनाथ उस समय कोई प्राब्लम साल्व कर रहा था। प्रमिला ने कहा, ‘रात को बड़ी बहन काशी चली गई।’

प्रमिला की बात उसके कानों तक नहीं पहुँची। उसने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया।

लेकिन तीन दिन के बाद जब उसने देखा कि दस बजे भोजन के लिए कोई आग्रह नहीं करता। किसी-किसी दिन एक और दो बज जाते हैं। नहाने के बाद धोती पहनते समय पता चलता है कि धोती पहले की तरह साफ नहीं है। जलपान की प्लेट पहले की तरह सजाई हुई नहीं है। रात को गैस की चाबी बंद करने के लिए अब कोई नहीं आता। पढ़ने की झोंक में रात के दो और तीन-तीन बज जाते हैं, सुबह जल्दी नींद नहीं खुलती। उठने में देर हो जाती है। दिन भर नींद आँखों की पलके छोड़कर जाना ही नहीं चाहती और शरीर मानो बहुत ही शिथिल हो गया है। तब उसे पता चला कि इस गृहस्थी में कुछ परिवर्तन हो गया है। जब इंसान को गर्मी महसूस होती है, तब वह पंखे की तलाश करता है।

सुरेन्द्रनाथ ने पुस्तक पर से नजर हटा कर पूछा, ‘क्यों प्रमिला, क्या बड़ी बहन यहाँ नहीं है?’

उसने कहा, ‘वह काशी गई हैं।’

‘ओह, तभी तो।’

दो दिन के बाद उसने अचानक प्रमिला की ओर देखकर पूछा, ‘बड़ी बहन कब आयेंगी?’

सुरेन्द्रनाथ ने फिर पुस्तक की ओर ध्यान लगा दिया और भी पांच दिन बीत गए। सुरेन्द्रनाथ ने पैंसिल पुस्तक के ऊपर रखकर पूछा ‘प्रमिला, एक महिने में और कितने दिन बाकी हैं।’

‘बहुत दिन।’

पैंसिल उठाकर सुरेन्द्रनाथ ने चश्मा उतारा। उसके दोनों शीशे साफ किए और फिर खाली आँखों से पुस्तक की ओर देखने लगा।

दूसरे दिन उसने पूछा, ‘प्रमिला, तुम बड़ी बहन की चिठ्ठी नहीं लिखती?’

‘लिखती क्यों नहीं?’

‘जल्दी आने के लिए नहीं लिखा?’

‘नहीं।’

सुरेन्द्रनाथ ने गहरी सांस लेकर कहा, ‘तभी तो।’

प्रमिला बोली, ‘मास्टर साहब, अगर बड़ी बहन आ जाये, तो अच्छा होगा?’

‘हाँ, अच्छा होगा।’

‘आने के लिए लिख दूं?’

‘हाँ, लिख दो।’ सुरेन्द्रनाथ ने खुश होकर कहा।

‘आपके बारे में भी लिख दूं?’

‘लिख दो।’

उसे ‘उसे लिख दो’ कहने में किसी प्रकार की दुविधा महसूस नहीं हुई। क्योंकि वह कोई भी लोक व्यवहार नहीं जानता। उसकी समझ में यह बात बिल्कुल नहीं आई कि बड़ी बहन से आने के लिए अनुरोध करना उसके लिए उचित नहीं है, सुनने में भी अच्छा नहीं लगता, लेकिन जिसके न रहने से उसे बहुत कष्ट होता है और जिसके न होने से उसका काम नहीं चलता, उसे आने के डरा भी अनुचित प्रतीत नहीं हुआ।

इस संसार में जिन लोगों में कौतूहल कम होता है वह साधारण मानव समाज से कुछ बहार होते हैं। जिस दिल में साधारण लोग रहते है, उस दल के साथ उन लोगों का मेल नहीं बैठता। साधारण लोगों के विचारों से उनके विचार नहीं मिलते। सुरेन्द्रनाथ के स्वभाव में कौतुहल शामिल नहीं है। उसे जितना जानना आवश्यक होता है वह बस उतना ही जानने की चेष्टा करता है। इससे बाहर अपनी इच्छा से एक कदम भी नहीं रखना चाहता। इसके लिए उसे समय भी नहीं मिल पाता, इसलिए उसे बड़ी बहन बारे में कुछ भी मालूम नहीं था।

इस परिवार में उसके इतने दिन बीत गये। इन तीन महीनों तक अपना सारा भार बड़ी दीदी पर छोड़कर अपने दिन बड़े सुख से बिता दिये। लेकिन उसके मन में यह जानने की रत्ती भर भी जिज्ञासा नहीं हुई कि बड़ी दीदी नाम का प्राणी कैसा है? कितना बड़ा है? उसकी उम्र क्या है? देखने में कैसा है? उसमें क्या-क्या गुण है? वह कुछ भी नहीं जानता? जानने की इच्छा भी नहीं हुई और कभी ध्यान भी न आया।

सब लोग उसे बड़ी दीदी कहते हैं, सो वह भी बड़ी दीदी कहता है। सभी उस स्नेह करते हैं, उसका सम्मान करते हैं। वह भी करता है। उसके पास संसार की हर वस्तु का भंडार भरा पड़ा है। जो भी मांगता है, उसे मिल जाता है और यदि उसक भंडार में से सुरेन्द्र ने भी कुछ लिया है, तो इसमे अचंभे की बात कौन-सी है। बादलों का काम जिस तरह पानी बरसाना है, उसी तरह बड़ी दीदी का काम सबसो स्नेह करना और सबकी खोज-खबर रखना है। जिस समय वर्षा होती है, उस समय जो भी हाथ बढ़ता है, उसी को जब मिल जाता है। बड़ी दीदी के सामने हाथ फैलाने भी पर जो मांगो मिल जाता है। जैसे वह भी बादलों की तरह नेत्रों, कामनाओं और आकांक्षाओं से रहित है। अच्छी तरह विचार करके उसने अपने मन में इसी प्रकार की धारणा बना रखी है। आज भी वह जान गया है कि उनके बिना उसका काम एक पल भी नहीं चल सकता।

वह जब अपने घर था, तब या तो अपने पिता को जानता था या विमाता को। वह यह भी समझता था कि उन दोनों के कर्तव्य क्या हैं। किसी बड़ी दीदी के साथ उसका कभी परिचय नहीं हुआ था और जबसे परिचय हुआ है तब से उसने उसे ऐसा ही समझा है, लेकिन बड़ी दीदी नाम के व्यक्ति को न तो वह जानता है और न पहचानता है। वह केवल उनके नाम को जाना है और नाम को ही पहचानता है। व्यक्ति का जैसे कोई महत्व ही नहीं है, नाम ही सब कुछ है।

लोग जिस प्रकार अपने इष्ट देवता को नहीं देख पाते, केवल नाम से ही परिचित होते हैं। उसी नाम के आगे दुःख और कष्ट के समय अपना सम्पूर्ण ह्दय खोलकर रख देते हैं, नाम के आगे घुटने टेक कर दया की भिक्षा मांगते हैं, आँखों में आँसू आते हैं तो पोंछ डालते है और फिर सूनी-सूनी नजरों से किसी को देखना चाहते हैं, लेकिन दिखाई नहीं देता। अस्पष्ट जिह्वा केवल दो-एक अस्फुट शब्दों का उच्चारण करके ही रुक जाती है। ठीक इसी प्रकार दुःख पाने पर सुरेन्द्रनाथ स्फुर शब्दों में पुकार उठा-बड़ी दीदी।

तब तक सूर्य उदय नहीं हुआ था। केवल आकाश में पूर्वी छोर पर उषा की लालिमा ही फैली थी। प्रमिला ने आकर सोये हुए सुरेन्द्रनाथ का गला पकड़ कर पुकारा, ‘मास्टर साहब?’

सुरेन्द्रनाथ की नींद से बोझिल पलकें खुल गई, ‘क्या है प्रमिला?’

‘बड़ी दीदी आ गई।’

सुरेन्द्रनाथ उठकर बैठ गया। प्रमिला का हाथ पकड़कर बोला, ‘चलो देख आयें?’

बड़ी दीदी को देखने की इच्छा उसके मन में किस तरह पैदा हुई, कहा नहीं जा सकता और यह भी समझ में नहीं आता कि इतने दिनों बाद यह इच्छा क्यों पैदा हुई। प्रमिला का हाथ थामकर आँखें मलता हुआ अंदर चला गया। माधवी के कमरे के सामने पहुँचकर प्रमिला ने पुकारा, ‘बड़ी दीदी?’

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