चैप्टर 6 बड़ी दीदी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 6 Badi Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 6 Badi Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 6 Badi Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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सुरेन्द्र को अपने घर गए हुए छः महिने बीत चुके हैं। इस बीच माधवी ने केवल एक ही बार मनोरमा को पत्र लिखा था। उसके बाद नहीं लिखा।

दुर्गा पूजा के समय मनोरमा अपने मैके आई और माधवी के पीछे पड़ गई, ‘तू अपना बंदर दिखा।’

माधवी ने हँसकर कहा, ‘भला मेरे पास बंदर कहाँ है?’

मनोरमा उसकी ठोड़ी पर हाथ रखकर कोमल कंठ से बड़े सुर-ताल से गाने लगी,

‘सिख अपना बंदर दिखला दे, मेरा मन ललचाता है।‘

तेरे इन सुंदर चरणों में कैसी शोभा पाता है?’

‘कौन-सा बंदर?’

‘वही जो तूने पाला था।’

‘कब?’

मनोरमा ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘याद नहीं? जो तेरे अतिरिक्त और किसी को जानता ही नहीं।’

माधवी समझ तो पहले ही गई थी और इसलिए उसके चेहरे का रंग बिगड़ता जा रहा था। तो भी अपने को संयत करते बोली, ‘ओह, उनकी चर्चा करती हो। वह तो चले गये।’

‘ऐसे सुंदर कमल जैसे उसे पसंद नहीं आये?’

माधवी ने मुँह फेर लिया। कोई उत्तर नहीं दिया। मनोरमा ने बड़े प्यार से उसका मुँह हाथ से पकड़कर अपनी ओर घुमा लिया। वह तो मज़ाक कर रही थी। लेकिन माधवी की आँखों में मचलते आँसुओं को देखकर हैरान रह गई। उसने चकित होकर पूछा, ‘माधवी, यह क्या?’

माधवी अपने आप को संभाल न सकी। आँखों पर आंचल रखकर रोने लगी।

मनोरमा के आश्चर्य की सीमा न रही। कहने के लिए कोई उपयुक्त बात भी न खोज सकी। कुछ देर माधवी को रोने दिया, फिर जबर्दस्ती उसके मुँह पर से आंचल हटाकर उसने दुःखी स्वर में पूछा, ‘क्यों बहन, एक मामूली-सा मज़ाक भी बर्दाश्त नहीं हुआ?’

माधवी ने आँसू पोंछते हुए कहा, ‘बहन, मैं विधवा जो हूँ।’

इसके बाद दोनों काफ़ी देर तक चुपचाप बैठी रही। फिर चुपके-चुपके रोने लगीं। माधवी विधवा थी। उसके दुःख से दुःखी होकर मनोरमा रोने लगी थी, लेकिन माधवी के रोने कार कारण कुछ और ही था। मनोरमा ने बिना सोचे-समझे जो मज़ाक किया था कि ‘वह तेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता,’ माधवी इसी के बारे में सोच रही थी। वह जानती थी कि बात बिल्कुल सच है।

बहुत देर के बाद मनोरमा ने कहा, ‘लेकिन काम अच्छा नहीं हुआ।’

‘कौन-सा काम?’

‘बहन, क्या यह भी बताना होगा? मैं सब कुछ समझ गई हूँ।’

पिछले छः महिने से माधवी जिस बात को बड़ी चेष्टा से छिपाती चली आ रही थी, मनोरमा से उसे छिपा नहीं सकी। जब पकड़ी गई, तो मुँह छिपाकर रोने लगी। और एकदम बच्चे की तरह रोने लगी।

अंत में मनोरमा ने पूछा, ‘लेकिन चल क्यों गये?’

‘मैंने ही जाने के लिए कहा था।’

‘अच्छा किया था, बुद्धिमानी का काम किया था।’

माधवी समझ गई कि मनोरमा कुछ भी समझ नहीं पाई है, इसलिए उसने धीरे-धीरे सारी बातें समझाकर बता दीं। फिर बोली, ‘मनोरमा, अगर उनकी मृत्यु हो जाती, तो शायद मैं पागल हो जाती।’

मनोरमा ने मन-ही-मन कहा, ‘और अब भी पागल होने में क्या कसर रह गई है?’

मनोरमा उस दिन बहुत दुःखी होकर घर लौटी और उसी रात अपने पति को पत्र लिखने लगी-

‘तुम सच कहते हो, स्त्रियाँ का कोई विश्वास नहीं। मैं भी अब यही कहती हूँ। क्योंकि माधवी ने आज मुझे यह शिक्षा दी है। मैं उसे बचपन से जानती हूँ। इसलिए उसे दोष देने को जी नहीं चाहता। साहस ही नहीं हो रहा। समूची नारी जाति को दोष दे रही हूँ। विधाता को दोष दे रही हूँ कि उन्होंने इतने कोमल और जल जैसे तरल पदार्थ से नारी के ह्दय का निर्माण क्यों किया। उनके चरणों में मेरी विनम्र प्रार्थना है कि वह नारी ह्दय को कठोर बनाया करे, और मैं तुम्हारे चरणों पर सिर रखकर तुम्हारे मुँह की ओर देखती हुई मरूं। माधवी को देखकर बहुत ही डर लगता है। उसने मेरी जन्म-जन्मांतर की धारणायें उलट-पुलट दी हैं। मेरा भी अघिक विश्वास न करना और जल्दी आकर ले जाना।’

उसके पति ने उत्तर में लिखा-

‘जिसके पास सौंदर्यहै, गुण है, वह उसका प्रदर्शन करेगा ही। जिसके ह्दय में प्रेम है, जो प्रेम करना जानता है, वह प्रेम करेगा ही। माधवी की लता आम के वृक्ष का सहारा लेती है। संसार की यही रीति है। इसमें हम-तुम क्या कर सकते हैं। मैं तुम पर अत्यधिक विश्वास करता हूँ। इसके लिए तुम चिंतित मत होना।’

मनोरमा ने अपने पत्र को माथे से लगाकर और उनके चरणों में प्रणाम करके लिखा–

‘मुँहजली माधवी, उसने वह किया है, जो एक विधवा को नहीं करना चाहिए था। उसने मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम किया है।’

पत्र पाकर मनोरमा के पति मन-ही-मन हँसे। फिर उन्होंने मज़ाक करते हुए लिखा—

‘इसमें कोई संदेह नहीं कि माधवी मुँहजली है, क्योंकि उसने विधवा होकर मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम किया है। यह तुम लोगों के नाराज होने की बात है कि विधवा होकर सधवाओं के अधिकार में हाथ क्यों डाला? मैं जब तक जीता रहूंगा, तब तक तुम्हारे लिए चिंता की कोई बात नहीं है।’ यदि ऐसी सुविधा तुम्हें मिले, तो कभी मत छोड़ना, खूब मजे से किसी आदमी के साथ प्रेम कर लो, लेकिन मनोरमा, तुम मुझे चकित नहीं कर सकी हो। मैंने एक बार एक लता देखी थी। लगभग आधा कोस जमीन पर रेंगती-रेंगती अंत में एक वृक्ष पर चढ़ गई थी। अब उसमें न जाने कितने पत्ते और कितनी पुष्प मंजरियाँ निकल आई हैं। जब तुम यहाँ आओगी, तब हम दोनों उसे देखने चलेंगे।’

मनोरमा ने नाराज होकर इस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया।

लेकिन माधवी के आँखों के कोनों में लालिमा छा गई थी। उसका हर समय फूल की तरह खिला रहने वाला चेहरा कुछ गंभीर हो गया था। काम-धंधे में उतना जी नहीं लगता था। एक प्रकार की कमज़ोरी-सी आ गई थी। आज भी उसमें उसी प्रकार की सबकी देखभाल करने और सबसे प्रति आत्मीयता पूर्ण व्यवहार करने की इच्छी पहले जितनी ही है। बल्कि पहले की अपेक्षा बढ़ गई हैं, लेकिन अब सारी बातें पहले की तरह याद नहीं रहती। बीच-बीच में भूल हो जाती है।

अब भी सब लोग उसे ‘बड़ी दीदी’ कहते हैं। अब भी सब लोग उसी कल्पतरू की ओर देखते है, उसी के सामने हाथ फैलाते हैं और इच्छित फल प्राप्त कर लेते है। लेकिन अब वह कल्पवृक्ष उतना सरल नहीं हैं। पुराने आदमियों को बीच-बीच में आशंका होने लगती है कि कहीं आगे चलकर यह सूख न जाये।

मनोरमा रोज़ाना आती है और बातें तो होती हैं, लेकिन यही बात नहीं होती। मनोरमा समझती है कि माधवी को इससे दुःख होता है। अब इन बातों की आलोचना जितनी न हो, उतना ही अच्छा है। मनोरमा यह भी सोचती है कि किसी तरह यह अभागी यह सब भूल जाये।

सुरेन्द्र अच्छा होकर अपने पिता के घर चला गया है। विमाता उस पर नियंत्रण रखना कुछ कम कर दिया है। इसी से सुरेन्द्र का शरीर कुछ ठीक होने लगा है, लेकिन वह पूरी तरह ठीक नहीं हो पाया है। उसके अंतर में एक व्यथा है। सौंदर्य और यौवन की आकांक्षा और प्यास अभी तक उसके मन में पैदा नहीं हुई है। यह सब बातें वह नहीं सोचता। अब भी वह पहले की तरह लापरवाह है। आत्म-निर्भरता उसमें नहीं है, लेकिन किस पर निर्भर रहना चाहिए, वह यह नहीं खोज पाता। खोज नहीं पाता क्योंकि वह अपना काम आप कर ही नहीं पाता। अब भी अपने काम के लिए वह दूसरों के मुँह की ओर देखता रहता है, लेकिन अब पहले की तरह किसी भी काम में उसका मन नहीं लगता। सभी कामों में उसे कुछ-न-कुछ कमी दिखाई देती है। थो़ड़ा बहुत असंतोष प्रकट करता है। उसकी विमाता यह सब देख सुनकर कहती है, ‘सुरेन्द्र अब बदल गया है।’

बीच में उसे ज्वर हो गया था। बहुत कष्ट हुआ। आँखों में आँसू बहने लगे। विमाता पास ही बैठी थी। उन्होंने यह नई बात देखी, तो उसकी आँखों से भी आँसूबहने लगे। बड़े प्यार से उसके आँसू पोंछ कर पूछा, ‘क्या हुआ सुरेन्द्र बेटा?’

सुरेन्द्र ने कुछ बताया नहीं।

उसने एक पोस्ट कार्ड मंगाया और उस पर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा ‘बड़ी दीदी, मुझे बुखार चढ़ा है, बहुत कष्ट हो रहा है।’

लेकिन वह पत्र लेटर बॉक्सतक नहीं पहुँचा। पहले उसके पलंग पर से जमीन पर गिरा पड़ा। उसके बाद जो नौकर उस कमरे में झाड़ देने आया, उसने अनार के छिलकों, बिस्कुट के टुकड़ों और अंगूर के डंठलों के साथ वह पत्र भी बुहार कर फेंक दिया। सुरेन्द्र ह्दय की आकांक्षा धूल में मिलकर, हवा में उड़कर, ओस में भीगकर, और अंत में धूप खाकर एक बबूल के पेड़ के नीचे पड़ी रह गई।

पहले तो वह अपने पत्र के उत्तर की मूर्तिमती आशा की टकटकी लगाए रहा, उसके बाद हस्ताक्षरों की, लेकिन बहुत दिन बीत गए, उत्तर नहीं आया।

इसके बाद उसके जीवन में एक नई घटना हुई। यद्यपि नई थी, लेकिन बिल्कुल स्वभाविक थी। सुरेन्द्र के पिता राय महाशय बहुत पहले से इसे जानते थे और इसकी आशा कर रहे थे।

सुरेन्द्र के नाना पवना जिले के बीच के दजें के जमींदार थे। बीस-पच्चीस गाँवों में उनकी जमींदारी थी। लगभग पचास हजार रुपये सालाना की आमदनी थी। उनके पास कोई लड़का-बच्चा नहीं था, इसलिए खर्च बहुत कम था। उस पर वह एक प्रसिद्ध कंजूस थे। यह इसलिए वह अपने लंबे जीवन में ढेर सारा धन इकठ्ठा कर सके थे। यहा राय महाशय इस बात कि निश्चित रूप से जानते थे कि उसकी मृत्यु के बाद उनकी सारी धन-संपत्ति उनके एकमात्र दोहित्र सुरेन्द्रनाथ को ही मिलेगी। ऐसा ही हुआ भी। राय महाशय को समाचार मिला कि उनके ससुर मृत्यु शैया पर पड़े हैं। वह लड़के के लेकर तत्काल पवना चले गये, लेकिन उनके पहुँचने से पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया था।

बड़ी धूमधाम से उनका श्राद्ध हुआ। व्यवस्थित जमींदारी और अधिक व्यवस्थित हो गई। अनुभवी, बुद्धिमान, पुराने वकील राय महाशय की कठोर व्यवस्था में प्रजा और भी अधिक परेशान हो उठी। अब सुरेन्द्र का विवाह होना भी आवश्यक हो गया। विवाह कराने बाले नाइयों के आने-जाने से गाँव भर में एक तूफ़ान-सा आ गया। पचास कोस के बीच जिस घर में भी सुंदर कन्या थी, उस घर में नाइयों के दल बार-बार अपनी चरणधूल पहुँचाकर कन्या के माता-पिता को सम्मानित और आशान्वित करने लगे।

इसी प्रकार छह महीने बीत गये।

अंत में विमाता आई और उसके रिश्ते-नाते के जितने भी लोग थे, सभी आ गए। बंधु-बांधवों से घर भर गया।

इसके बाद एक दिन सवेरे तुरही बजाकर ढोल-ढक्के की भीषण आवाजों और करतालों की खनखनाहट से सारे गाँव को गुंजायमान कर सुरेन्द्रनाथ अपना विवाह कर लाया।

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