चैप्टर 5 बड़ी दीदी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 5 Badi Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 5 Badi Didi Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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बड़ी दीदी किसी काम में लगी थी। बोली, ‘क्या, है प्रमिला?’

‘मास्टर साहब…।’

वह दोनों कमरे में पहुँच चुके थे। माधवी हड़बडाकर खड़ी हो गई और सिर पर एक हाथ लंबा घूंघट खींचकर जल्दी से एक कोने में खिसक गई।

सुरेन्द्रनाथ ने कहा, ‘बड़ी दीदी, तुम्हारे चले जाने पर मैं बहुत कष्टय…।’

माधवी ने घूंघट की आड़ में अत्यंत लज्जा के कारण अपनी जीभ काटकर मन-ही-मन कहा, ‘छी!’ ‘छी!’

‘तुम्हारे चले जाने पर…।’

माधवी मन-ही-मन कह उठी, ‘कितनी लज्जा की बात है।’ फिर धीरे से बड़ी नर्मी से बोली, ‘प्रमिला, मास्टर साहब से बाहर जाने के लिए कह दे।’

प्रमिला छोटी होने पर भी अपनी बड़ी दीदी के व्यवहार को देखकर समझ गई कि यह काम अच्छा नहीं हुआ। बोली, ‘चलिए मास्टर साहब।’

सुरेन्द्र कुछ देर हक्का-बक्का खड़ा रहा, फिर बोला, ‘चलो।’

वह अधिक बातें करना नहीं जानता था, और अधिक बातें करना भी नहीं चाहता था, लेकिन दिन भर बादल छाये रहने के बाद जब सूर्य निकलता है, तो जिस तरह बरबस सब लोग उसकी ओर देखने लगते है और पलभर के लिए उन्हें इस बात का ध्यान नहीं रहता कि सूर्य को देखना उचित नहीं है या उसकी ओर देखने से उसकी आँखों में पीड़ा होगी, ठीक उसी प्रकार एक मास तक बादलों से धिर आकाश के नीचे रहने के बाद जब पहले पहल सूर्य चमका, तो सुरेन्द्रनाथ बड़ी उत्सुकता और प्रसन्नता से उसे देखने के लिए चला गया था, लेकिन वह यह नहीं जानता था कि इसका परिणाम यह होगा।

उसी दिन से उसकी देख-रेख में कुछ कमी होने लगी। माधवी कुछ लजाने लगी, क्योंकि इस बात को लेकर बिन्दुमती मौसी कुछ हँसी थी। सुरेन्द्रनाथ बी कुछ संकुचित-सा हो गया था। वह महसूस करने लगा था कि बड़ी दीदी का असीमित भंडार अब सीमित हो गया है। बहन की देख-रेख और माता का स्नेह उसे नहीं मिल पाता। कुछ दूर-दूर रहकर हट जाता है।

एक दिन उसने प्रमिला से पूछा, ‘बड़ी दीदी मुझसे कुछ नाराज है?’

‘हाँ।’

‘क्यों भला?’

‘आप उस दिन घर के अंदर इस तरह क्यों चले गए थे?’

‘जाना नहीं चाहिए था, क्यों?’

‘इस तरह जाना होता है कही? बहन बहुत नाराज हुई थी।’

सुरेन्द्रनाथ ने पुस्तक बंद करके कहा, ‘यही तो।’

एक दिन दोपहर को बादल घिर आये और खूब जोरों की वर्षा हुई। ब्रजराजबाबू आज दो दिन से मकान पर नहीं हैं। अपनी जमींदारी देखने गए हैं। माधवी के पास कोई काम नहीं था। प्रमिला बहुत शरारतें कर रही थी। माधवी ने कहा, ‘प्रमिला अपनी किताब ला। देखूं तो कहाँ तक पढ़ी है?’

प्रमिला एकदम काठ हो गई।

माधवी ने कहा, ‘जा किताब ले आ’

‘रात को लाऊंगी।’

‘नहीं, अभी ला।’

बहुत ही दुःखी मन से प्रमिला किताब लेने चली गई और किताब लाकर बोली, ‘मास्टर साहब कुछ नहीं पढ़ाते, खुद ही पढ़ते रहते है।’

माधवी उससे पूछने लगी। आरंभ से अंत तक सब कुछ पूछने पर वह समझ गई कि सचमुच मास्टर साहब ने कुछ नहीं पढ़ाया है, बल्कि पहले जो कुछ पढ़ा था, मास्टर लगाने के बाद इधर तीन-चार महिने में प्रमिला उसे भूल गई। माधवी ने नाराज होकर बिन्दु को बुलाया, ‘बिन्दु, मास्टर साहब से पूछकर आ कि इतने दिनों तक प्रमिला को कुछ भी क्यों नहीं पढ़ाया।’

बिन्दु जिस समय पूछने गई उस समय मास्टर साहब किसी प्रॉब्लम पर विचार कर रहे थे।

बिन्दु ने कहा, ‘मास्टर साहब, बड़ी दीदी पूछ रही हैं कि आपने प्रमिला को कुछ पढ़ाया क्यों नहीं?’

लेकिन मास्टर साहब को कुछ सुनाई नहीं दिया।

बिन्दु ने फिर जोर से पुकारा, ‘मास्टर साहब…।’

‘क्या है?’

‘बड़ी दीदी कहती हैं….।’

‘क्या कहती हैं?’

‘प्रमिला को पढ़ाया क्यों नहीं?’

अनमने भाव से उसने उत्तर दिया, ‘अच्छा नहीं लगता’

बिन्दु ने सोचा, यह तो कोई बुरी बात नहीं है, इसलिए उसने यही बात जाकर माधवी को बताया। माधवी का गुस्सा और भी बढ़ गया।
उसने नीचे जाकर और दरवाजे की आड़ में खड़े होकर बिन्दु से पूछवाया, ‘प्रमिला को बिल्कुल ही क्यों नहीं पढ़ाया?’

दो-तीन बार पूछे जाने पर सुरेन्द्रनाथ ने कहा, ‘मैं नहीं पढ़ा सकूंगा।’

माधवी सोचने लगी, ‘यह क्या कह रहे हैं?’

बिन्दु ने कहा, ‘तो फिर आप यहाँ किसलिए रहते है?’

‘यहाँ न रहूं तो और कहा जाऊं?’

‘तो फिर पढ़ाया क्यों नहीं?’

सुरेन्द्रनाथ को अब होश आया। घूमकर बैठ गया और बोला,‘क्या कहती हो?’

बिन्दु ने जो कुछ कहा था, उसे दोहरा दिया।

‘वह पढ़ती ही है, लेकिन आप भी कुछ देखते है?’

‘नहीं, मुझे समय नहीं मिलता।’

‘तो फिर किसलिए इस घर में रहते है?’

सुरेन्द्रनाथ चुप होकर इस बात पर विचार करने लगा।

‘तो फिर आप उसे नहीं पढ़ा सकेगें?’

‘नहीं, मुझ पढ़ाना अच्छा नहीं लगता।’

माधवी ने अंदर से कहा, ‘अच्छा तो बिन्दु पूछो कि फिर वह इतने दिनों से यहाँ क्यों रह रहे है?’

बिन्दु ने कह दिया।

सुनते ही सुरेन्द्रनाथ प्रॉब्लम वाला जाल एकदम छिन्न-भिन्न हो गया। वह दुःखी हो उठा। कुछ सोचकर बोला, ‘यह तो मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई।’

‘इस तरह लगातार चार महिने तक भूल?’

‘हाँ, वही तो देख रहा हूँ, लेकिन मुझे इस बात का इतना ख़याल नहीं था।’

दूसरे दिन प्रमिला पढ़ने नहीं आई। सुरेन्द्रनाथ ने भी कोई ध्यान नहीं दिया।

प्रमिला तीसरे दिन भी नहीं आई। वह दिन भी यों ही बीत गया। जब चौथे दिन भी सुरेन्द्रनाथ ने प्रमिला को नहीं देखा, तो एक नौकर से कहा,

‘प्रमिला को बुला लाओ।’

नौकर ने अंदर से वापस आकर उत्तर दिया, ‘अब वह आपसे नहीं पढ़ेगी।’

‘तो फिर किससे पढ़ेगी?’

नौकर ने अपनी समझ लगाकर कहा, ‘दूसरे मास्टर आयेगा।’

उस समय लगभग नौ बजे थे। सुरेन्द्रनाथ ने कुछ देर सोचा और फिर दो-तीन किताबें बगल में दबा कर उठ खड़ा हुआ। चश्मा खाने में बंद करके मेज पर रख दिया और धीरे-धीरे वहाँ से चल दिया।

नौकर ने पूछा, ‘मास्टर साहब, इस समय कहाँ जा रहे हैं?’

‘बड़ी दीदी से कह देना, मैं जा रहा हूँ।’

‘क्या आप नहीं आयेंगे?’

लेकिन सुरेन्द्रनाथ यह बात नहीं सुन पाया। बिना कोई उत्तर दिए फाटक से निकल गया। दो बज गए लेकिन सुरेन्द्रनाथ लौटकर नहीं आया। उस समय नौकर ने जाकर माधवी को बताया कि मास्टर साहब चले गये।
‘कहाँ गए है?’

‘यह तो मैं नहीं जानता। नौ बजे ही चले गए थे। चलते समय मुझसे कह गए थे कि बड़ी दीदी से कह देना कि मैं जा रहा हूँ।’

‘यह क्या रे? बिना खाये-पिये चले गये?’

माधवी बेचैन हो उठी। उसने सुरेन्द्रनाथ के कमरे में जाकर देखा, सारी चीते ज्यों की त्यों रखी हैं। मेज के ऊपर खाने में बंद किया चश्मा रखा है। केवल कुछ किताब नहीं हैं।

शाम हो गई। फिर रता हो गई, लेकिन सुरेन्द्र नहीं लौटा।

दूसरे दिन माधवी ने नौकरों को बुलाकर कहा, ‘अगर मास्टर साहब का पता लगाकर ले आओगे, तो दस-दस रुपये इनाम मिलेंगे।’

इनाम के लालच में वह लोग चारों ओर दौड पड़े, लेकिन शाम को लौटकर बोले, ‘कहीं पत्ता नहीं चला।’

प्रमिला ने रोते हुए पूछा, ‘बड़ी दीदी, वह क्यों चले गये?’

माधवी झिड़क कर बोली, ‘बाहर जा, रो मत।’

दो दिन, तीन दिन करके जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, माधवी की बेचैनी बढ़ने लगी।

बिन्दु ने कहा, ‘बड़ी दीदी, भला उसके लिए इतनी खोज और तलाश क्यों! क्या कलकत्ता शहर में कोई और मास्टर नहीं मिलेगा?’

माधवी झल्ला कर बोली, ‘चल दूर हो। एक आदमी हाथ में बिना एक पैसा लिए चला गया है और तू कहती है कि तलाश क्यों हो रही हैं?’

‘यह कैसे पता चला कि उसके पास एक भी पैसा नहीं हैं?’

‘मैं जानती हूँ, लेकिन तुझे इन सब बातों से क्या मतलब?’

बिन्दु चुप हो गई।

धीरे-धीरे एक सप्ताह बीत गया। सुरेन्द्र लौटकर न आया, तो माधवी ने एक तरह जैसे अन्न, जल का त्याग ही कर दिया। उसे ऐसा लगता था जैसे सुरेन्द्र भूखा है। जो घर में चीज मांगकर नहीं खा सकता, वह बाहर दूसरे से क्या कभी कुछ मांग सकता है। उसे पूरा-पूरा विश्वास था कि सुरेन्द्र के पास खरीदकर कुछ खाने के लिए पैसे नहीं हैं। भीख मांगने की सामर्थ्य नहीं है, इसलिए या तो छोटे बालकों जैसी असहाय अवस्था में फुटपाथ पर बैठा रो रहा होगा या किसी पेड़ के नीचे किताबों पर सिर रखे सो रहा होगा।

जब ब्रज बाबू लौटकर आये और उन्होंने सारा हाल सुना तो माधवी से बोले, ‘बेटी, यह काम अच्छा नहीं हुआ।’

कष्ट के मारे माधवी अपने आँसू नहीं रोक पाई।

उधर सुरेन्द्रनाथ सड़कों पर घूमता रहता। तीन दिन तो बिना कुछ खाये ही बिता दिया। नल के पानी में पैसे नहीं लगते, इसलिए जब भूख लगती तो पेटभर नल से पानी पी लेता।

एक दिन रात को भूख और थकान से निढ़ाल होकर वह काली घाट की और जा रहा था। कहीं सुन लिया था कि वहाँ खाने को मिलता है। अंधेरी रात थी। आकाश में बादल धिरे हुए थे। चौरंगी मोड़ पर एक गाड़ी उसके ऊपर आ गई। गाड़ीवान ने किसी तरह घोड़े की रफ्तार रोक ली थी, इसलिए सुरेन्द्र के प्राण तो नहीं गये, लेकिन सीने और बगल में बहुत गहरी चोट लग जाने से बेहोश होकर गिरा पड़ा। पुलिस उसे गाड़ी पर बैठाकर अस्पताल ले गई। चार-पांच दिन बेहोशी की हालत में बीतने के बाद एक दिन रात को उसने आँखें खोलकर पुकारा, ‘बड़ी दीदी।’

उस समय मेडिकल कॉलेज का एक छात्र ड्यूटी पर था। सुनकर पास आ खड़ा हुआ।

सुरेन्द्र ने पूछा, ‘बड़ी दीदी आई हैं?’

‘कल सवेरे आयेंगी।’

दूसरे दिन सुरेन्द्र को होश तो आ गया, लेकिन उसने बड़ी दीदी की बात नहीं की। बहुत तेज बुखार होने के कारण दिन भर छटपटाते रहने के बाद उसने एक आदमी से पूछा, ‘क्या मैं अस्पताल में हूँ?’

‘हाँ।’

‘क्यों?’

‘आप गाड़ी के नीचे दब गए थे।’

‘बचने की आशा तो है?’

‘क्या नहीं?’

दूसरे किन उसी छात्र ने पास आकर पूछा, ‘यहाँ आप का कोई परिचित या रिश्तेदार है?’

‘कोई नहीं।’

‘तब उस दिन रात को आप ब़ड़ी दीदी कहकर किसे पुकार रहे थे? क्या वह यहाँ हैं?’

‘हैं, लेकिन वह आ नहीं सकेंगी। मेरे पिताजी को समाचार भेज सकते हैं?’

‘हाँ, भेज सकता हूँ।’

सुरेन्द्रनाथ ने अपने पिता पता बता दिया। उस छात्र ने उसी दिन पत्र उन्हें लिख दिया। इसके बाद बड़ी दीदी का पता लगाने के लिए पूछा।

‘अगर स्त्रियाँ आना चाहें, तो बड़े आराम से आ सकती हैं। हम लोग उनकी व्यवस्था कर सकते हैं। आपकी बड़ी दीदी का पता मालूम हो जाये, तो उनके पास भी समाचार भेज सकते है।’ उसने कहा।

सुरेन्द्रनाथ ने कुछ देर तक सोचने के बाद ब्रज बाबू का पता बता दिया।

‘मेरा मकान ब्रज बाबू के मकान के पास ही है। आज मैं उन्हें आपके बारे में बता दूंगा। अगर वह चाहेंगे, तो देखने के लिए आ जायेंगे।’

सुरेन्द्र ने कुछ नहीं कहा। उसने मन-ही-मन समझ लिया था कि बड़ी दीदी का आना असंभव है।

लेकिन छात्र ने दया करके ब्रज बाबू के पास समाचार पहुँचा दिया। ब्रज बाबू ने चौंककर पूछा, ‘बच तो जायेगा न?’

‘हाँ, पूरी आशा है।’

ब्रज बाबू ने घर के अंदर आकर अपनी बेटी से कहा, ‘माधवी, जो सोचा था वही हुआ। सुरेन्द्र गाड़ी के नीचे दब जाने के कारण अस्पताल में है।’

माधवी का समूचा व्यक्तित्व कांप उठा।

‘उसने तुम्हारा नाम लेकर ‘बड़ी दीदी’ कहकर पुकारा था। उसे देखने चलोगी?’

उसी समय पास वाले कमरे में प्रमिला ने न जाने क्या गिरा किया। खूब जोर से झनझानहट की आवाज हुई। माधवी दौड़कर उस कमरे में चली गई। कुछ देर बाद लौटकर बोली, ‘आप देख आइये, मैं नहीं जा सकूंगी।’

ब्रज बाबू दुःखित भाव से कुछ मुस्कुराते हुए बोले, ‘अरे वह जंगल का जानवर है। उसके ऊपर क्या गुस्सा करना चाहिए?’

माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो ब्रज बाबू अकेले ही सुरेन्द्र को देखने चले गए। देखकर बहुज दुःखी हुए। बोले, ‘अगर तुम्हारे माता-पिता के पास खबर भेज दी जाये, तो कैसा रहे?’

‘खबर भेज दी है।’

‘कोई डर की बात नहीं। उनके आते ही मैं सारा इंतज़ाम कर दूंगा।’

रुपये-पैसे की बात सोचकर ब्रज बाबू ने कहा, ‘मुझे उन लोगों का पता बता दो जिससे मैं ऐसा इंतज़ाम कर दूं कि उन लोगों को यहाँ आने में कोई असुविधा न हो।’

लेकिन सुरेन्द्र इन बातों को अच्छी तरह न समझ सका। बोला, ‘बाबूजी आ जाएंगे। उन्हें कोई असुविधा नहीं होगी।’

ब्रज बाबू ने घर लौटकर माधवी को सारा हांल सुना दिया।

तब से ब्रज बाबू रोजाना सुरेन्द्र को देखने के लिए अस्पताल जाने लगे। उनके मन में उसके लिए स्नेह पैदा हो गया था।

एक दिन लौटकर बोले, ‘माधवी, तुमने ठीक समझा था। सुरेन्द्र के पिता बहुत धनवान हैं।’

‘कैसे मालूम हुआ?’ माधवी ने उत्सुकता से पूछा।

‘उसके पिता बहुत बड़े बकील हैं। वह कल रात आये हैं।’

माधवी चुप रही।

‘सुरेन्द्र घर से भाग आया था।’ ब्रज बाबू ने बताया।

‘क्यों?’

‘उसके पिता के साथ आज बातचीत हुई थी। उन्होंने सारी बातें बताई। इसी वर्ष उसने पश्चिम के एक विश्वविद्यालय से सर्वोच्च सम्मान के साथ एम.ए. पास किया है। वह विलायत जाना चाहता था, लेकिन लापरवाह और उदासीन प्रकृत्ति का लड़का है। पिता को विलायत भेजने का साहस नहीं हुआ, इसलिए नाराज होकर घर से भाग आया था। अच्छा हो जाने पर वह उसे घर ले जायेंगे।’

निःश्वास रोककर और उमड़ते हुए आँसुओं को पीकर माधवी ने कहा, ‘यही अच्छा है।’

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