चैप्टर 28 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 28 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online
Chapter 28 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti
जब चंदर लौट आया, तो उसने देखा-सुधा तो उसी के कमरे में है। उसने उसके कमरे के एक कोने में दरी हटा दी है, वहाँ पानी छिड़क दिया और एक कुश के आसन पर सामने चौकी पर कोई पोथी धरे बैठी है। चौकी पर एक श्वेत वस्त्र बिछाकर धूपदानी रख दी है, जिसमें धूप सुलग रही है। लॉन से शायद कूछ फूल तोड़ लायी थी, जो धूपदानी के पास रखे हुए थे। बगल में एक रुद्राक्ष की माला रखी थी। एक शुद्ध श्वेत रेशम की धोती और केवल एक चोली पहने हुए पल्ले से बाँहों तक ढँके हुए वह एकाग्र मनोयोग से ग्रन्थ का पारायण कर रही थी। धूपदानी से धूम्र-रेखाएँ मचलती हुईं, लहराती हुईं, उसके कपोलों पर झूलती हुईं सूखी-रूखी अलकों से उलझ रही थीं। उसने नहाकर केश बाँधे नहीं थे…चंदर ने जूते बाहर ही उतार दिये और चुपचाप पलँग पर बैठकर सुधा को देखने लगा। सुधा ने सिर्फ एक बार बहुत शान्त, बहुत गहरी आकाश-जैसी स्वच्छ निगाहों से चंदर को देखा और फिर पढ़ने लगी। सुधा के चारों ओर एक विचित्र-सा वातावरण था, एक अपार्थिव स्वर्गिक ज्योति के रेशों से बुना हुआ झीना प्रकाश उस पर छाया हुआ था। गले में पड़ा हुआ आँचल, पीठ पर बिखरे हुए सुनहले बाल, अपना सबकुछ खोकर विरक्ति में खिन्न सुहाग पर छाये हुए वैधव्य की तरह सुधा लग रही थी। माँग सूनी थी, माथे पर रोली का एक बड़ा-सा टीका था और चेहरे पर स्वर्ग के मुरझाये हुए फूलों की घुलती हुई उदासी, जैसे किसी ने चाँदनी पर हरसिंगार के पीले फूल छींटे दे दिये हों।
थोड़ी देर तक सुधा स्पष्ट स्वरों में पढ़ती रही। उसके बाद उसने पोथी बन्द कर रख दी। उसके बाद आँख बन्द कर जाने किस अज्ञात देवता को हाथ जोड़कर नमस्कार किया…फिर उठ खड़ी हुई और फर्श पर चंदर के पास बैठ गयी। आँचल कमर में खोंस लिया और बिना सिर उठाये बोली, ”चलो, नाश्ता कर लो!”
”यहीं ले आओ!” चंदर बोला। सुधा उठी और नाश्ता ले आयी। चंदर ने उठाकर एक टुकड़ा मुँह में रख लिया। लेकिन जब सुधा उसी तरह फर्श पर चुपचाप बैठी रही, तो चंदर ने कहा, ”तुम भी खाओ!”
”मैं!” वह एक फीकी हँसी हँसकर बोली, ”मैं खा लूँ, तो अभी कै हो जाये। मैं सिवा नींबू के शरबत और खिचड़ी के अब कुछ नहीं खाती। और वह भी एक वक्त!”
”क्यों?”
”असल में पहले मैंने एक व्रत किया, पन्द्रह दिन तक केवल प्रात:काल खाने का, तब से कुछ ऐसा हो गया कि शाम को खाते ही मन बिगड़ जाता है। इधर और कई रोग हो गये हैं।”
चंदर का मन रो आया। सुधा, तुम चुपचाप इस तरह अपने को मिटाती रहीं! मान लिया चंदर ने एक खत में तुम्हें लिख ही दिया था कि अब पत्र-व्यवहार बन्द कर दो! लेकिन क्या अगर तुम पत्र भेजतीं, तो चंदर की हिम्मत थी कि वह उत्तर न देता! अगर तुम समझ पातीं कि चंदर के मन में कितना दुख है!
चंदर चाहता था कि सुधा की गोद में अपने मन की सभी बातें बिखेर दे…लेकिन सुधा कहे, कुछ शिकायत करे तो चंदर अपनी सफाई दे…लेकिन सुधा तो है कि शिकायत ही नहीं करती, सफाई देने का मौका ही नहीं देती…यह देवत्व की मूर्ति-सी पथरीली सुधा! यह चंदर की सुधा तो नहीं! चंदर का मन बहुत भर आया। उसके रुँधे गले से पूछा, ”सुधा, तुम बहुत बदल गयी हो। खैर और तो जो कुछ है, उसके लिए अब मैं क्या कहूँ, लेकिन अपनी तन्दुरुस्ती बिगाड़कर क्यों तुम मुझे दुख दे रही हो! अब यों भी मेरी जिंदगी में क्या रहा है! लेकिन एक ही सन्तोष था कि तुम सुखी हो। लेकिन तुमने मुझसे वह सहारा छीन लिया…पूजा किसकी करती हो?”
”पूजा कहाँ, पाठ करती हूँ, चंदर! गीता का और भागवत का, कभी-कभी सूर सागर का! पूजा अब भला किसकी करूँगी? मुझ जैसी अभागिनी की पूजा भला स्वीकार कौन करेगा?”
”तब यह एक वक्त का भोजन क्यों?”
”यह तो प्रायश्चित्त है, चंदर!” सुधा ने एक गहरी साँस लेकर कहा।
”प्रायश्चित…?” चंदर ने अचरज से कहा।
”हाँ, प्रायश्चित्त…” सुधा ने अपने पाँव के बिछियों को धोती के छोर से रगड़ते हुए कहा, ”हिन्दू गृह तो एक ऐसा जेल होता है जहाँ कैदी को उपवास करके प्राण छोड़ने की भी इजाजत नहीं रहती, अगर धर्म का बहाना न हो! धर्म के बहाने उपवास करके कुछ सुख मिल जाता है।”
एक क्षण आता है कि आदमी प्यार से विद्रोह कर चुका है, अपने जीवन की प्रेरणा-मूर्ति की गोद से बहुत दिन तक निर्वासित रह चुका है, उसका मन पागल हो उठता है फिर से प्यार करने को, बेहद प्यार करने को, अपने मन का दुलार फूलों की तरह बिखरा देने को। आज विद्रोह का तूफान उतर जाने के बाद अपनी उजड़ी हुई जिंदगी में बीमार सुधा को पाकर चंदर का मन तड़प उठा। सुधा की पीठ पर लहराती हुई सूखी अलकें हाथ में ले लीं। उन्हें गूँथने का असफल प्रयास करते हुए बोला-
”सुधा, यह तो सच है कि मैंने तुम्हारे मन को बहुत दुखाया है, लेकिन तुम तो हमारी हर बात को, हमारे हर क्रोध को क्षमा करती रही हो, इस बात का तुम इतना बुरा मान गयी?”
”किस बात का, चंदर!” सुधा ने चंदर की ओर देखकर कहा, ”मैं किस बात का बुरा मान गयी!”
”किस बात का प्रायश्चित्त कर रही हो तुम, इस तरह अपने को मिटाकर!”
”प्रायश्चित्त तो मैं अपनी दुर्बलता का कर रही हूँ, चंदर!”
”दुर्बलता?” चंदर ने सुधा की अलकों को घटाओं की तरह छिटकाकर कहा।
”दुर्बलता-चंदर! तुम्हें ध्यान होगा, एक दिन हम लोगों ने निश्चय किया था कि हमारे प्यार की कसौटी यह रहेगी चंदर, दूर रहकर भी हम लोग ऊँचे उठेंगे, पवित्र रहेंगे। दूर हो जाने के बाद चंदर, तुम्हारा प्यार तो मुझमें एक दृढ़ आत्मा और विश्वास भरता रहा, उसी के सहारे मैं अपने जीवन के तूफानों को पार कर ले गयी; लेकिन पता नहीं मेरे प्यार में कौन-सी दुर्बलता रही कि तुम उसे ग्रहण नहीं कर पाये…मैं तुमसे कुछ नहीं कहती। मगर अपने मन में कितनी कुंठित हूँ कि कह नहीं सकती। पता नहीं दूसरा जन्म होता है या नहीं; लेकिन इस जन्म में तुम्हें पाकर तुम्हारे चरणों पर अपने को न चढ़ा पायी। तुम्हें अपने मन की पूजा में यकीन न दिला पायी, इससे बढ़कर और दुर्भाग्य क्या होगा? मैं अपने व्यक्तित्व को कितना गर्हित, कितना छिछला समझने लगी हूँ, चंदर!”
चंदर ने नाश्ता खिसका दिया। अपनी आँख में झलकते हुए आँसू को छिपाते हुए चुपचाप बैठ गया।
”नाश्ता कर लो, चंदर! इस तरह तुम्हें अपने पास बिठाकर खिलाने का सुख अब कहाँ नसीब होगा! लो।” और सुधा ने अपने हाथ से उसे एक नमकीन सेव खिला दिया। चंदर के भरे आँसू सुधा के हाथों पर चू पड़े।
”छिह, यह क्या, चंदर!”
”कुछ नहीं…” चंदर ने आँसू पोंछ डाले।
इतने में महराजिन आयी और सुधा से बोली, ”बिटिया रानी! लेव ई नानखटाई हम कल्है से बनाय के रख दिया रहा कि तोके खिलाइबे!”
”अच्छा! हम भी महराजिन, इतने दिन से तुम्हारे हाथ का खाने के लिए तरस गये, तुम चलो हमारे साथ!”
”हियाँ चंदर भइया के कौन देखी? अब बिटिया इनहूँ के ब्याह कर देव, तो हम चली तोहरे साथ!”
सुधा हँस पड़ी, चंदर चुपचाप बैठा रहा। महराजिन खिचड़ी डालने चली गयी। सुधा ने चुपचाप नानखटाई की तश्तरी उठाकर एक ओर रख दी-चंदर चुप, अब क्या बात करे! पहले वह दोनों घंटों क्या बात करते थे! उसे बड़ा ताज्जुब हुआ। इस वक्त कोई बात ही नहीं सूझती है। पहले जाने कितना वक्त गुजर जाता था, दोनों की बातों का खात्मा ही नहीं होता था। सुधा भी चुप थी। थोड़ी देर बाद चंदर बोला, ”सुधी, तुम सचमुच पूजा-पाठ में विश्वास रखती हो…”
”क्यों, करती तो हूँ, चंदर! हाँ, मूर्ति जरूर नहीं पूजती, पर कृष्ण को जरूर पूजती हूँ। अब सभी सहारे टूट गये, तुमने भी मुझे छोड़ दिया, तब मुझे गीता और रामायण में बहुत सन्तोष मिला। पहले मैं खुद ताज्जुब करती थी कि औरतें इतना पूजा-पाठ क्यों करती हैं, फिर मैंने सोचा-हिन्दू नारी इतनी असहाय होती है, उसे पति से, पुत्र से, सभी से इतना लांछन, अपमान और तिरस्कार मिलता है कि पूजा-पाठ न हो, तो पशु बन जाये। पूजा-पाठ ही ने हिन्दू नारी का चरित्र अभी तक इतना ऊँचा रखा है।”
”मैं तो समझता हूँ यह अपने को भुलावा देना है।”
”मानती हूँ चंदर! लेकिन अगर कोई हिन्दू धर्म की इन किताबों को ध्यान से पढ़े तब वह जाने, क्या है इनमें! जाने कितनी ताकत देती हैं ये! अभी तक जिंदगी में मैंने यह सोचा है कि पुरुष हो या नारी, सभी के जीवन का एकमात्र सम्बल विश्वास है, और इन ग्रन्थों में सभी संशयों को मिटाकर विश्वास का इतना गहन उपदेश है कि मन पुलक उठता है।…मैं तुमसे कुछ नहीं छिपाती। चंदर, जब बिनती के ब्याह में तुमने मेरा पत्र लौटा दिया, तो मैं तड़प उठी। एक अविश्वास मेरी नस-नस में गुँथ गया। मैंने समझ लिया कि तुम्हारी सारी बातें झूठी थीं। एक जाने कैसी आग मुझे हरदम झुलसाती रहती थी! मेरा स्वभाव बहुत बिगड़ गया था। मुझे हरेक से नफरत हो गयी थी। हरेक पर झल्ला उठती थी…किसी बात में मुझे चैन नहीं मिलता था। धीरे-धीरे मैंने इन किताबों को पढ़ना शुरू किया। मुझे लगने लगा कि शान्ति धीरे-धीरे मेरी आत्मा पर उतर रही है। मुझे लगा कि यह सभी ग्रन्थ पुकार-पुकारकर कह रहे हैं-‘संशयात्मा विनश्यति!’ धीरे-धीरे मैंने इन बातों को अपने जीवन पर घटाना शुरू किया, तो मैंने देखा कि सारी भक्ति की किताबें और उनका दर्शन बड़ा मनोहर रूपक है, चंदर! कृष्ण प्यार के देवता हैं। वंशी की ध्वनि विश्वास की पुकार है। धीरे-धीरे तुम्हारे प्रति मेरे मन में जगा हुआ अविश्वास मिट गया, मैंने कहा, तुम मुझसे अलग ही कहाँ हो, मैं तो तुम्हारी आत्मा का एक टुकड़ा हूँ जो एक जनम के लिए अलग हो गयी। लेकिन हमेशा तुम्हारे चारों ओर चन्द्रमा की तरह चक्कर लगाती रहूँगी, जिस दिन मैंने पढ़ा-
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
तो मुझे लगा कि तुम्हारा खोया हुआ प्यार मुझे पुकारकर कह रहा है-मेरी शरण में चले आओ, और सिवा तुम्हारे प्यार के मेरा भगवान और है ही क्या…उसके बाद से चंदर, मेरे मन में विश्वास और प्रेम झलक आया, अपने जीवन की परिधि में आने वाले हर व्यक्ति के लिए। सभी मुझे बहुत चाहने लगे…लेकिन चंदर, जब बिनती यहाँ से दिल्ली जाते वक्त मेरे साथ गयी और उसने सब हाल बताया, तो मुझे कितना दु:ख हुआ। कितनी ग्लानि हुई। तुम्हारे ऊपर नहीं, अपने ऊपर।”
बातें भावनात्मक स्तर से उठकर बौद्धिक स्तर पर आ चुकी थीं। चंदर फौरन बोला, ”सुधा, ग्लानि की तो कोई बात नहीं, कम-से-कम मैंने जो कुछ किया है, उस पर मुझे जरा-सी भी शर्म नहीं!” चंदर के स्वर में फिर एक बार गर्व और कड़वाहट-सी आ गयी थी-”मैंने जो कुछ किया है, उसे मैं पाप नहीं मानता। तुम्हारे भगवान ने तुम्हें जो कुछ रास्ता दिखलाया, वह तुमने किया। मेरे भगवान ने जो रास्ता मुझे दिखलाया, वह मैंने किया। तुम जानती ही हो, मेरी जिंदगी की पवित्रता तुम थी, तुम्हारी भोली निष्पाप साँसें मेरे सभी गुनाह, मेरी सभी कमजोरियाँ सुलाती रही हैं। जिस दिन तुम मेरी जिंदगी से चली गयीं, कुछ दिन तक मैंने अपने को सँभाला। इसके बाद मेरी आत्मा का कण-कण द्रोह कर उठा। मैंने कहा, स्वर्ग के मालिक साफ-साफ सुनो। तुमने मेरी जिंदगी की पवित्रता को छीन लिया है, मैं तुम्हारे स्वर्ग में वासना की आग धधकाकर उसे नरक से बदतर बना दूँगा। और मैंने होठों के किनारे चुम्बन की लपटें सुलगानी शुरू कर दीं…धीरे-धीरे महाश्मशान के सन्नाटे में करोड़ों वासना की लपटें जहरीले साँपों की तरह फुँफकारने लगीं। मेरे मन को इसमें बहुत सन्तोष मिला, बहुत शान्ति मिली। यहाँ तक कि बिनती के लिए मैं अपने मन की सारी कटुता भूल गया। मैं कैसे कह दूँ कि यह सब गुनाह था। सुधा, अगर ठीक से देखो, गम्भीरता से समझो, तो जो कुछ तुम्हारे लिए मेरे मन में था, उसी की प्रतिक्रिया वह है, जो मेरे मन में पम्मी के लिए है। तुम्हारा दुलार और पम्मी की वासना दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। अपने पहलू को सही और दूसरे पहलू को गलत क्यों कहती हो? देवता की आरती में जलता हुआ दीपक पवित्र है और उससे निकला हुआ धुआँ अपवित्र! दीप-शिखा नैतिक है और धूम-रेखा अनैतिक? ग्लानि किस बात की, सुधा?” चंदर ने बहुत आवेश में कहा।
”छिह, चंदर! तुम मुझे समझे नहीं! मैं नैतिक-अनैतिक की बात ही नहीं करती। मेरे भगवान ने, मेरे प्यार ने मुझे अब उस दुनिया में पहुँचा दिया है जो नैतिक-अनैतिक से उठकर है। तुमने अपने भगवान से विद्रोह किया, लेकिन उन्होंने तुम्हारी बात पर कोई फैसला भी तो दिया होता। वे इतने दयालु हैं कि कभी मानव के कार्यों पर फैसला ही नहीं देते। दंड तो दूर की बात, वे तो केवल आदमी को समझाकर, उसकी कमजोरियाँ समझकर उसे क्षमा करने और उसे प्यार करने की बात कहते हैं, चंदर! वहाँ नैतिकता-अनैतिकता का प्रश्न ही नहीं।”
”तब? यह ग्लानि किस बात की तुम्हें!” चंदर ने पूछा।
”ग्लानि तो मुझे अपने पर थी, चंदर! रहा तुम्हारा पम्मी से सम्बन्ध, तो मैं बिनती की तरह नहीं सोचती, इतना विश्वास रखो। मेरी पाप और पुण्य की तराजू ही दूसरी है। फिर कम-से-कम अब इतना देख-सुनकर मैं यह नहीं मानती कि शरीर की प्यास ही पाप है! नहीं चंदर, शरीर की प्यास भी उतनी ही पवित्र और स्वाभाविक है जितनी आत्मा की पूजा। आत्मा की पूजा और शरीर की प्यास दोनों अभिन्न हैं। आत्मा की अभिव्यक्ति शरीर से है, शरीर का संस्कार, शरीर का सन्तुलन आत्मा से है। जो आत्मा और शरीर को अलग कर देता है, वही मन के भयंकर तूफानों में उलझकर चूर-चूर हो जाता है। चंदर मैं तुम्हारी आत्मा थी। तुम मेरे शरीर थे। पता नहीं कैसे हम लोग अलग हो गये! तुम्हारे बिना मैं केवल सूक्ष्म आत्मा रह गयी। शरीर की प्यास, शरीर की रंगीनियाँ मेरे लिए अपरिचित हो गयीं। पति को शरीर देकर भी मैं सन्तोष न दे पायी…और मेरे बिना तुम केवल शरीर रह गये। शरीर में डूब गये…पाप का जितना हिस्सा तुम्हारा उतना ही मेरा…पाप की वैतरणी के इस किनारे जब तक तुम तड़पोगे, तभी तक मैं भी तड़पूँगी…दोनों में से किसी को भी चैन नहीं और कभी चैन नहीं मिलेगा…”
”लेकिन फिर…”
”हटाओ इन सब बातों को, चंदर! तुमने व्यर्थ यह बात उठायी। मैं अब बात करना भूलती जा रही हूँ। मैं तो आयी थी तुम्हें देखकर कुछ मन का ताप मिटाने। उठो, खाना खाएँ!” सुधा बोली।
”नहीं, मैं चाहता हूँ, बातें सुलझ जाएँ, सुधा!” चंदर ने सुधा के हाथ पर अपना सिर रखकर कहा, ”मेरी तकलीफ अब बेहद बढ़ती जा रही है। मैं पागल न हो जाऊँ!”
”छिह, ऐसी बात नहीं सोचते। उठो!” चंदर को उठाकर सुधा बोली। दोनों ने खाना खाया। महराजिन बड़े दुलार से परसती रहीं और सुधा से बातें करती रहीं। खाना खाकर चंदर लेट गया और सोचने लगा, अब क्या सचमुच उसके और सुधा के बीच में कोई इतना भयंकर अन्तर आ गया है कि दोनों पहले जैसे नहीं हो सकते?
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बिराज बहू शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास