चैप्टर 29 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 29 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 29 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 29 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 29 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

लगभग चार बजे वह जागा, तो उसने देखा कि उसके पाँवों के पास सिर रखकर सुधा सो रही है। पंखे की हवा वहाँ तक नहीं पहुँचती। वह पसीने से तर-बतर हो रही है। चंदर उठा, उसे नींद में ऐसा लगा कि जैसे इधर कुछ हुआ ही नहीं है। सुधा वही सुधा है, चंदर वही चंदर है। उसने सुधा के पल्ले से सुधा के माथे और गले का पसीना पोंछ दिया और हाथ बढ़ाकर पंखा उसकी ओर घुमा दिया। सुधा ने आँखें खोलीं, एक अजीब-सी निगाह से चंदर की ओर देखा और चंदर के पाँव को खींचकर वक्ष से लगा फिर आँख बन्द करके लेट गयी। चंदर ने अपना एक हाथ सुधा के माथे पर रख लिया और वह चुपचाप बैठा सोचने लगा, आज से लगभग साल-भर पहले की बात, जब उसने पहले-पहल सुधा को कैलाश का चित्र दिखाया था, और सुधा रो-धोकर उसके पाँवों में इसी तरह मुँह छिपाकर सो गयी थी…और आज…सुधा साल-भर में कहाँ से कहाँ जा पहुँची है! चंदर कहाँ से कहाँ पहुँच गया है! काश कि कोई उनकी जिंदगी की स्लेट से इस वर्ष-भर में खींची हुए मानसिक रेखाओं को मिटा सके, तो कितने सुखी हो जाएँ दोनों! चंदर ने सुधा को हिलाया और बोला-

”सुधा, सो रही हो?”

”नहीं।”

”उठो।”

”नहीं चंदर, पड़ी रहने दो। तुम्हारे चरणों में सबकुछ भूलकर एक क्षण के लिए भी सो सकूँगी, मुझे इसका विश्वास नहीं था। सबकुछ छीन लिया है तुमने, एक क्षण की आत्म-प्रवंचना क्यों छीनते हो?” सुधा ने उसी तरह पड़े हुए जवाब दिया।

”अरी, उठ पगली!” चंदर के मन में जाने कहाँ मरा पड़ा हुआ उल्लास फिर से जिन्दा हो उठा था। उसने सुधा की बाँह में जोर से चुटकी काटते हुए कहा, ”उठती है या नहीं, आलसी कहीं की!”

सुधा उठकर बैठ गयी। क्षण-भर चंदर की ओर पथरायी हुई निगाह से देखती रही और बोली, चंदर, मैं जाग रही हूँ। तुम्हीं ने उठाया है मुझे… चंदर! कहीं सपना तो नहीं है कि फिर टूट जाए!” और सुधा सिसक-सिसक कर रो पड़ी। 

चंदर की आँखों में आँसू आ गये। थोड़ी देर बाद वह बोला, ”सुधा, कोई जादूगर अगर हम लोगों के मन से यह काँटा निकाल देता, तो मैं कितना सुखी होता! लेकिन सुधा, अब मैं तुम्हें दुखी नहीं करूँगा।”

”यह तो तुमने पहले भी कहा था, चंदर! लेकिन इधर जाने कैसे हो गये। लगता है तुम्हारे चरित्र में कहीं स्थायित्व नहीं…इसी का तो मुझे दुख है, चंदर!”‘

”अब रहेगा, सुधा! तुम्हें खोकर, तुम्हारे प्यार को खोकर मैं देख चुका हूँ कि मैं आदमी नहीं रह पाता, जानवर बन जाता हूँ। सुधा, अगर तुम आज से महीनों पहले मिल जातीं, तो जो जहर मेरे मन में घुट रहा है, वह तुहारे सामने व्यक्त करके मैं बिल्कुल निश्चिन्त हो जाता। अच्छा सुधा, यहाँ आओ। चुपचाप लेट जाओ, मैं तुमसे सबकुछ कह डालूँ, फिर सब भूल जाऊँ। बोलो, सुनोगी?”

सुधा चुपचाप लेट गयी और बोली, चंदर! या तो मत बताओ या फिर सभी स्पष्ट बता दो…”

”हाँ, बिल्कुल स्पष्ट सुधी; तुमसे कुछ छिपा सकता हूँ भला!” चंदर ने हल्की-सी चपत मारकर कहा, ”आज मन जैसे पागल हो रहा है तुम्हारे चरणों पर बिखर जाने के लिए…जादूगरनी कहीं की! देखो सुधा-पिछली दफे तुमने मुझे बहुत कुछ बताया था, कैलाश के बारे में!”

”हाँ।”

”बस, उसके बाद से एक अजीब-सी अरुचि मेरे मन में तुम्हारे लिए होने लगी थी; मैं तुमसे कुछ छिपाऊँगा नहीं। तुम्हारे जाने के बाद बर्टी आया। उसने मुझसे कहा कि औरत केवल नयी संवेदना, नया स्वाद चाहती है और कुछ नहीं, अविवाहित लड़कियाँ विवाह, और विवाहित लड़कियाँ नये प्रेमी…बस यही उनका चरम लक्ष्य है। लड़कियाँ शरीर की प्यास के अलावा और कुछ नहीं चाहतीं…जैसे अराजकता के दिनों में किसी देश में कोई भी चालाक नेता शक्ति छीन लेता है, वैसे ही मानसिक शून्यता के क्षणों में बर्टी जैसे मेरा दार्शनिक गुरु हो गया। उसके बाद आयी पम्मी। उससे मैंने कहा कि क्या आवश्यक है कि पुरुष और नारी के सम्बन्धों में सेक्स हो ही? उसने कहा, ‘हाँ, और यदि नहीं है तो प्लेटानिक (आदर्शवादी) प्यार की प्रतिक्रिया सेक्स की ही प्यास में होती है।’ अब मैं तुम्हें अपने मन का चोर बतला दूँ। मैंने सोचा कि तुम भी अपने वैवाहिक जीवन में रम गयी हो। शरीर की प्यास ने तुम्हें अपने में डुबा दिया है और जो अरुचि तुम मेरे सामने व्यक्त करती हो वह केवल दिखावा है। इसलिए मन-ही-मन मुझे तुमसे चिढ़-सी हो गयी। पता नहीं क्यों यह संस्कार मुझमें दृढ़-सा हो गया और इसी के पीछे मैं तुम्हीं को नहीं, पम्मी को छोड़कर सभी लड़कियों से नफरत-सी करने लगा। बिनती को भी मैंने बहुत दुख दिया। ब्याह में जाने के पहले ही बहुत दुखी होकर गयी। रही पम्मी की बात, तो मैं उस पर इसलिए खुश था कि उसने बड़ी यथार्थ-सी बात कही थी। लेकिन उसने मुझसे कहा कि आदर्शवादी प्यार की प्रतिक्रिया शारीरिक प्यास में होती है। तुमको इसका अपराधी मानकर तुमसे तो नाराज हो गया लेकिन अन्दर-ही-अन्दर वह संस्कार मेरा व्यक्तित्व बदलने लगा। सुधा, पता नहीं, तुम्हारे जीवन में प्रतिक्रिया के रूप में शारीरिक प्यास जागी या नहीं, पर मेरे मन के गुनाह तो तूफान की तरह लहरा उठे। लेकिन तुमसे एक बात नहीं छिपाऊँगा। वह यह कि ऐसे भी क्षण आये हैं जब पम्मी के समर्पण ने मेरे मन की सारी कटुता धो दी है….बोलो, तुम कुछ तो बोलो, सुधा!”

”तुम कहते चलो, चंदर! मैं सुन रही हूँ।”

”हाँ…लेकिन उस दिन गेसू आयी। उसने मुझे फिर पुराने दिनों की याद दिला दी और फिर जैसे पम्मी के लिए आकर्षण उखड़-सा गया। अच्छा सुधा, एक बात बताओ। तुम यह मानती हो कि कभी-कभी एक व्यक्ति के माध्यम से दूसरे व्यक्ति की भावनाओं की अनुभूति होने लगती है?”

”क्या मतलब?”

”मेरा मतलब जैसे मुझे गेसू की बातों में उस दिन ऐसा लगा, जैसे तुम बोल रही हो। और दूसरी बात तुम्हें बताऊँ। तुम्हारे पीछे बिनती रही मेरे पास। सारे अँधेरे में वही एक रोशनी थी, बड़ी क्षीण, टिमटिमाती हुई, सारहीन-सी। बल्कि मुझे तो लगता था कि वह रोशन ही इसलिए थी कि उसमें रोशनी तुम्हारी थी। मैंने कुछ दिन बिनती को बहुत प्यार किया। मुझे ऐसा लगता था कि अभी तक तुम मेरे सामने थीं, अब तुम उसके माध्यम से आती हो। लगता था जैसे वह एक व्यक्तित्व नहीं है, तुम्हारे व्यक्तित्व का ही अंश है। उस लड़की में जिस अंश तक तुम थीं, वह अंश बार-बार मेरे मन में रस उभार देता था। क्यों सुधा! मन की यह भी कैसी अजब-सी गति है!”

सुधा थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली, ”भागवत में एक जगह एक टीका में हमने पढ़ा था चंदर कि जिसको भगवान बहुत प्यार करते हैं, उसमें उनकी अंशाभिव्यक्ति होती है। बहुत बड़ा वैज्ञानिक सत्य है यह! मैं बिनती को बहुत प्यार करती हूँ, चंदर!”

”समझ गया मैं।” चंदर बोला, ”अब मैं समझा, मेरे मन में इतने गुनाह कहाँ से आये। तुमने मुझे बहुत प्यार किया और वही तुम्हारे व्यक्तित्व के गुनाह मेरे व्यक्तित्व में उतर आये!”

सुधा खिलखिलाकर हँस पड़ी। चंदर के कन्धे पर हाथ रखकर बोली, ”इसी तरह हँसते-बोलते रहते तो क्यों यह हाल होता? मनमौजी हो। जब चाहो खुश हो गये, जब चाहो नाराज हो गये!”

उसके बाद वह उठी और बाहर से एक तश्तरी में कुछ फल काटकर लायी। चंदर ने देखा-आम। ”अरे आम! अभी कहाँ से आम ले आयीï? कौन लाया?”

”लखनऊ उतरी थी? वहाँ से तुम्हारे लिए लेती आयी।”

चंदर ने एक आम की फाँक उठाकर खायी और किसी पुरानी घटना की याद दिलाने के लिए आँचल से हाथ पोंछ दिये। सुधा हँस पड़ी और बड़ी दुलार-भरी ताड़ना के स्वर में बोली, ”बोलो, अब तो दिमाग नहीं बिगाड़ोगे अपना?”

”कभी नहीं सुधी, लेकिन पम्मी का क्या होगा? पम्मी से मैं सम्बन्ध नहीं तोड़ सकता। व्यवहार चाहे, जितना सीमित कर दूँ।”

”मैं कब कहती हूँ, मैं तुम्हें कहीं से कभी बाँधना ही नहीं चाहती। जानती हूँ कि अगर चाहूँ भी, तो कभी अपने मन के बाहुपाश ढीले कर तुम्हें चिरमुक्ति तो मैं न दे पाऊँगी, तो भला बन्धन ही क्यों बाँधूँ! पम्मी शाम को आएगी?”

”शायद…”

दरवाजा खटका और गेसू ने प्रवेश किया। आकर, दौड़ कर सुधा से लिपट गयी। चंदर उठकर चला आया। ”चले कहाँ भाईजान, बैठिए न।”

”नहा लूँ, तब आता हूँ…” चंदर चल दिया। वह इतना खुश था, इतना खुश कि बाथ-रूम में खूब गाता रहा और नहा चुकने के बाद उसे खयाल आया कि उसने बनियाइन उतारी ही नहीं थी। नहाकर कपड़े बदलकर वह आया, तब भी गुनगुना रहा था। कमरे में आया तब देखा गेसू अकेली बैठी है।

”सुधा कहाँ गयी?” चंदर ने नाचते हुए स्वर में कहा।

”गयी है शरबत बनाने।” गेसू ने चुन्नी से सिर ढँकते हुए और पाँवों को सलवार से ढँकते हुए कहा। चंदर इधर-उधर बक्स में रूमाल ढूँढऩे लगा।

”आज बड़े खुश हैं, चंदर भाई! कोई खोयी हुई चीज मिल गयी है क्या? अरे, मैं बहन हूँ कुछ इनाम ही दे दीजिए।” गेसू ने चुटकी ली।

”इनाम की बात क्या, कहो तो वह चीज ही तुम्हें दे दूँ!”

”हाँ, कैलाश बाबू के दिल से पूछिए।” गेसू बोली।

”उनके दिल से तुम्हीं बात कर सकती हो!”

गेसू ने झेंपकर मुँह फेर लिया।

सुधा हाथ में दो गिलास लिए आयी। ”लो गेसू, पियो।” एक गिलास गेसू को देकर बोली, चंदर, लो।”

”तुम पियो न!”

”नहीं, मैं नहीं पिऊँगी। बर्फ मुझे नुकसान करेगी!” सुधा ने चुपचाप कहा। चंदर को याद आ गया। पहले सुधा चिढ़-चिढ़कर अपने आप चाय, शरबत पी जाती थी…और आज…

”क्या ढूँढ़ रहे हो, चंदर?” सुधा बोली।

”रूमाल, कोई मिल ही नहीं रहा!”

”साल-भर में रूमाल खो दिये होंगे! मैं तो तुम्हारी आदत जानती हूँ। आज कपड़ा ला दो, कल सुबह रूमाल सी दूँ तुम्हारे लिए।” और उठकर उसने कैलाश के बक्स से एक रूमाल निकालकर दे दिया।

उसके बाद चंदर बाजार गया और कैलाश के लिए तथा सुधा के लिए कुछ कपड़े खरीद लाया। इसके साथ ही कुछ नमकीन जो सुधा को पसन्द था, पेठा, एक तरबूज, एक बोतल गुलाब का शरबत, एक सुन्दर-सा पेन और जाने क्या-क्या खरीद लाया। सुधा ने देखकर कहा, ”पापा नहीं हैं, फिर भी लगता है मैं मायके आयी हूँ!” लेकिन वह कुछ खा-पी नहीं सकी।

चंदर खाना खाकर लॉन में बैठ गया, वहीं उसने अपनी चारपाई डलवा ली। सुधा के बिस्तर छत पर लगे थे। उसके पास महराजिन सोनेवाली थीं। सुधा एक तश्तरी में तरबूज काटकर ले आयी और कुर्सी डालकर चंदर भी चारपाई के पास बैठ गया। चंदर तरबूज खाता रहा…थोड़ी देर बाद सुधा बोली-

चंदर, बिनती के बारे में तुम्हारी क्या राय है?”

”राय? राय क्या होती? बहुत अच्छी लड़की है! तुमसे तो अच्छी ही है!” चंदर ने छेड़ा।

”अरे, मुझसे अच्छी तो दुनिया है, लेकिन एक बात पूछें? बहुत गम्भीर बात है!”

”क्या?”

”तुम बिनती से ब्याह कर लो।”

”बिनती से? कुछ दिमाग तो नहीं खराब हो गया है?”

”नहीं! इस बारे में पहले-पहले ‘ये’ बोले कि चंदर से बिनती का ब्याह क्यों नहीं करती, तो मैंने चुपचाप पापा से पूछा। पापा बिल्कुल राजी हैं, लेकिन बोले मुझसे कि तुम्हीं कहो चंदर से। कर लो; चंदर! बुआजी अब दखल नहीं देंगी।”

चंदर हँस पड़ा, ”अच्छी खुराफातें तुम्हारे दिमाग में उठती हैं! याद है, एक बार और तुमने ब्याह करने के लिए कहा था?”

सुधा के मुँह से एक हल्का नि:श्वास निकल पड़ा-”हाँ, याद है! खैर, तब की बात दूसरी थी, अब तो तुम्हें कर लेना चाहिए।”

”नहीं सुधा, शादी तो मुझे नहीं ही करनी है। तुम कह क्यों रही हो? तुम मेरे-बिनती के सम्बन्धों को कुछ गलत तो नहीं समझ रही हो?”

”नहीं जी, लेकिन यह जानती हूँ कि बिनती तुम पर अन्धश्रद्धा रखती है। उससे अच्छी लड़की तुम्हें मिलेगी नहीं। कम-से-कम जिंदगी तुम्हारी व्यवस्थित हो जाएगी।”

चंदर हँसा, ”मेरी जिंदगी शादी से नहीं, प्यार से सुधरेगी, सुधा! कोई ऐसी लड़की ढूँढ़ दो, जो तुम्हारी जैसी हो और प्यार करे तो मैं समझूँ भी कि तुमने कुछ किया मेरे लिए। शादी-वादी बेकार है और कोई बात करनी है या नहीं?”

”नहीं चंदर, शादी तो तुम्हें करनी ही होगी। अब मैं ऐसे तुम्हें नहीं रहने दूँगी। बिनती से न करो, तो दूसरी लड़की ढूँढूँगी। लेकिन शादी करनी होगी और मेरी पसन्द से करनी होगी।”

चंदर एक उपेक्षा की हँसी हँसकर रह गया।

सुधा उठ खड़ी हुई।

”क्यों, चल दीं?”

”हाँ, अब नींद आ रही होगी तुम्हें, सोओ।”

चंदर ने रोका नहीं। उसने सोचा था, सुधा बैठेगी। जाने कितनी बातें करेंगे! वह सुधा से उसका सब हाल पूछेगा, लेकिन सुधा तो जाने कैसी तटस्थ, निरपेक्ष और अपने में सीमित-सी हो गयी है कि कुछ समझ में नहीं आता। उसने चंदर से सबकुछ जान लिया, लेकिन चंदर के सामने उसने अपने मन को कहीं जाहिर ही नहीं होने दिया, सुधा उसके पास होकर भी जाने कितनी दूर थी! सरोवर में डूबकर पंछी प्यासा था।

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