चैप्टर 23 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास, Chapter 23 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Chapter 23 Neelkanth Gulshan Nanda Novel
Chapter 23 Neelkanth Gulshan Nanda Novel
आनंद की अनुपस्थिति में जो कुछ हुआ, उस पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था। वह घंटों उस झील के किनारे खड़ा उसकी नीली गहराईयां देखता रहा-शायद मोहन किसी लहर की उछाल में ऊपर आ जाए।
उसे झील में ले जाने की उत्तरदायी उसकी अपनी बीवी थी। इसलिए उसकी व्यग्रता और बढ़ती जा रही थी। कल उसके माँ-बाप बीनापुर आ रहे थे। शायद उन्हें भी ऐसे ही विश्वास न रहा हो और वे स्वयं उस हिंसक झील को देखना चाहते हों, जिसने बुढ़ापे में उनका सहारा निगला था।
आनंद पागलों की भांति अपना सिर किसी दीवार से टकरा देता और रोने लग जाता-कल माँ-बाप को क्या मुँह दिखाएगा-वह उन्हें कैसे कहेगा कि उनकी आँखों का उजाला उन्हें छोड़कर चला गया।
बेला की चिन्ता भी कुछ कम न थी। उसने यह भयानक कदम सब कुछ सोच-विचार कर ही उठाया था, परंतु विष्णु यह भेद जान गया है, यदि उसने यह बात प्रकट कर दी तो वह कहीं की न रहेगी। इसी चिन्ता ने उसकी नींद और चैन छीन रखी थी। वह खोई-खोई रहती।
वह कोई ऐसी युक्ति सोच रही थी, जिससे आनंद के मन में उसके प्रति कोई शंका उत्पन्न न होने पाए। इससे पूर्व कि इस अग्नि का लेशमात्र धुआं भी उठे, वह उसे दबा देना चाहती थी।
आनंद ने बेला को चिन्तित देखकर उसका सिर अपने सीने से लगा लिया और उसके बालों में उंगलियाँ फेरते हुए बोला-
‘यदि तुम यों ही रहने लगीं तो मेरा क्या होगा?’
‘यह सोचती हूँ-क्या था क्या हो गया?’
‘होनी के आगे चलती किसकी है-ढाढस रखो, कल बाबा और माँ जी आ रहे हैं।’
‘आनंद!’ बेला ने गर्दन उठाकर आँखें चार करते हुए कहा।
‘क्या है बेला?’
‘आपसे कुछ कहना है।’
‘हाँ-हाँ, कहो, चुप क्यों हो गईं।’
‘यह विष्णु है न-इसका घर में आना ठीक नहीं।’ बेला ने एक और पासा फेंका।
‘वह क्यों? क्या कुछ…’
‘बस, मैं उसकी सूरत भी देखना नहीं चाहती।’ आनंद की कमीज के बटनों को खोलते-बंद करते वह बोली।
‘परंतु बात क्या है? बेला पहेलियों में बात न करो। मुझमें अब इतनी सहन शक्ति नहीं।’ आनंद ने झुंझलाते हुए कहा।
‘मोहन के डूबने वाली शाम को जब मैं अकेली बैठी रो रही थी तो वह चुपके से आया…’ कहते-कहते बेला रुक गई। आनंद ने आश्चर्यचकित दृष्टि से बेला को देखते हुए कुछ और पूछना चाहा, परंतु वह स्वयं ही बोल उठी-‘और मुझे अकेला देख मेरी कलाई पकड़ ली।’
‘विष्णु!’ क्रोध से दांत पीसता हुआ आनंद बड़बड़ाया और झट बोला, ‘फिर क्या?’
‘मैंने डांटा तो गिड़गिड़ाकर मेरे पांव पकड़ लिए और बोला- ‘साहब से शिकायत न करना। जब मैं न मानी तो धमकी देकर चला गया।’
‘क्या?’
‘मैं बस्ती वालों से कह दूँगा कि मोहन की भाभी ने उसे स्वयं झील में डुबोया है-और मैं यह खबर पुलिस में भी दे दूँगा।’
‘उसकी यह मजाल! मैं उसका खून पी जाऊँगा।’ आनंद क्रोध से गरजते हुए बोला-‘तुमने आते ही मुझसे क्यों न कहा? मैं उसे जूते लगाकर इस बस्ती से बाहर निकाल देता।’
‘धीरज से काम लीजिए। इसलिए तो आपसे कहना न चाहती थी। खोटे और कमीने आदमियों को मुँह नहीं लगाना चाहिए।’
‘तो क्या मैं उस सांप को घर में रेंगने दूँगा।’ बेला ने झट से आनंद के होंठों पर हाथ रख दिया। उसी समय विष्णु आया और सलाम करता हुआ रसोईघर की ओर चला गया।
आनंद उसके पीछे जाने लगा, परंतु बेला ने रोक लिया और प्रार्थना भरे स्वर में कहा-‘धीरज से काम लीजिए। शीघ्रता अच्छी नहीं, कोई नई परेशानी खड़ी कर देगा। इनके पांव रुक सकते हैं पर जुबान को कौन रोकेगा।’ आनंद के पांव वहीं रुक गए।
सवेरे ही उसके माता-पिता आ पहुँचे और घर में फिर से कोहराम मच गया। माँ झील के किनारे पत्थरों से सिर फोड़-फोड़कर अपने लाल को पुकारने लगी। माँ की आँखों में मोतियाबिन्द उतर रहा था, जिससे उसकी दृष्टि वैसे ही जा चुकी थी और अब बेटे की मृत्यु ने तो उसे बिलकुल अंधा कर दिया। वह बार-बार लड़खड़ाकर गिर पड़ती और आनंद को संभालने के लिए लपकना पड़ता।
बाबा शोक की मूर्ति बने दूर और मौन धरती पर बैठे भाग्य की इस कठोरता का खेल देखने लगे। उन्हें किसी से कुछ शिकायत न थी, दुःख था तो बस इतना कि अपने जिगर के टुकड़े से दो प्यार की अंतिम बातें भी न कर सकें।
दूसरे दिन दोपहर की छुट्टी के लिए जब कारखाना बंद हुआ तो विष्णु सीधा आनंद के दफ्तर की ओर हो लिया। इस समय वह दफ्तर में न था, बल्कि किसी काम के विषय में बाहर किसी से बातचीत कर रहा था।
वहाँ से निपटकर जब वह घर जाने लगा तो विष्णु आगे आ पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला-
‘साहब!’
‘क्या है?’ असावधानी से कठोर स्वर में आनंद ने पूछा और उखड़ी हुई दृष्टि से विष्णु को देखने लगा।
‘आपसे कुछ कहना है।’ वह थरथराते स्वर में बोला।
‘कौन-सा जहर उगलना चाहते हो?’
‘मैं तो आपको इस बात की खबर देना चाहता हूँ कि मोहन डूबा नहीं डुबाया गया है। उसकी हत्या आपकी बीवी ने की है।’
‘और तुम पास खड़े तमाशा देखते रहे। कमीने! क्या तुझे और कोई न मिला था। जहाँ भलमनसी दिखा सकता। लज्जा होती तो स्वयं भी उस झील में डूब जाता। मुझे यह अपनी अशुभ सूरत दिखाने का साहस तुझे कैसे हुआ?’ आनंद यह सब एक ही सांस में कह गया और जब विष्णु ने कुछ कहना चाहा तो उसे पीटना आरंभ कर दिया और उसके गिर जाने पर लंबे-लंबे डग भरता हुआ घर की ओर चल पड़ा।
बेला ने जब आनंद को क्रोध में भरे हुए और पसीने से तर देखा तो चुप हो गई। वह उसकी असाधारण दशा देखकर समझ गई कि आज विष्णु से तकरार हुई होगी। तीर निशाने पर लगा जानकर वह अपनी विजय पर मन-ही-मन प्रसन्न थी।
कहीं आनंद पर उसकी बातों ने प्रभाव न डाल दिया हो-यह सोचकर वह एक अज्ञात भय से कांप उठी और शीघ्रता से खाने का प्रबंध करने लगी। बाबूजी भी खाने के लिए आ गए, परंतु माँ न आई। आज पूरे दो दिन से उसने कुछ न खाया था।
बेला ने सास-ससुर को प्रभावित करने का अच्छा अवसर देखा और विनती करके माँ को खाने के कमरे में ले आई। बेला को मां को सहारा देते लाते देखकर आनंद का क्रोध दूर हो गया। विष्णु से हुई झपट के बारे में उसने किसी से कुछ न कहा।
वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि इस भोलेपन के पर्दे में कोई विषैली नागिन छिपी है, जो हाथ उसके माता-पिता की सेवा में उठे, वे नागिन की भांति फन फैलाए हुए हैं।
क्रियाकर्म के दूसरे दिन ही बाबा खंडाला लौट आए, परंतु आनंद ने माँ को बलपूर्वक वहीं रख लिया। बेला को उसकी यह बात भाई तो नहीं, पर कुछ न कह सकी।
दिन बीतते गए और धीरे-धीरे मन का घाव पुराना होकर एक धुंधली-सी याद बनकर रह गया। बेला और आनंद की आँखों में फिर से चमक आने लगी। घर के उदास और मौन कोनों में कभी-कभी दोनों खिलखिला उठते और एक-दूसरे से प्यार करके मन की धड़कनों को परख लेते। बेला का सौंदर्य और आनंद की चाहत फिर से उन्हें उस सीमा पर ले आई, जहाँ आशाओं के उड़नखटोले में जीवन बहुत मधुर प्रतीत होता है।
परंतु एक छाया थी, जो हर समय अब भी उस पर बोझ-सा डाले रखती-वह थी आनंद की माँ, जो ज्योति कम होने के कारण घर के कोने में लड़खड़ाती फिरती-उसे चैन न था। बेटे की मृत्यु ने उसे पागल बना रखा था-वह एक बेचैन आत्मा के समान भटकती रहती पर किसी से कुछ न कहती।
उसे देखकर दोनों की चहचहाहट और हँसी बंद हो जाती। कहीं वह यह न सोच बैठे कि भाई का मरना भूलकर आनंद रंगरलियों में मस्त है। कभी वे पिकनिक या सैर का प्रोग्राम बनाते तो वह इस कारण से रह जाता कि माँ को अधिक समय अकेले छोड़ना उचित नहीं।
बेला की दृष्टि में अब सास एक कांटे के समान खटकने लगी-अपाहिज देवर की भांति, तो क्या उसे इसको भी अपने मार्ग से हटाना होगा-यह विचार आते ही वह कांप जाती-अब उसमें इतना साहस न था।
दिन बीतते गए और बेला विवश-सी होकर अपने विचारों में सिमटी बैठी रही। उसने सास से अधिक बातचीत करना छोड़ दिया और दिन-रात यही सोचती रही कि कोई ऐसी बात बन जाए कि उन दोनों में बिगाड़ हो जाए और तंग आकर वह स्वयं ही खंडाला चली जाए। आनंद से बेला की मानसिक दशा छिपी न रही।
थोड़े ही दिनों बाद आनंद ने माँ को खंडाला भिजवा दिया, जिससे वह अकेले में बीवी को समझा सके। किंतु उसकी उदासी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। वह किसी बात का भी पूरा उत्तर न देती। सारा दिन लेटी रहती और घर के किसी काम में रुचि न लेती, मानो किसी बड़े रोग का शिकार हो गई हो।
एक शाम जब आनंद वर्कशॉप से लौटा तो साधारणतः बेला को उदास न पाकर चकित रह गया। आज वह पलंग पर लेटी हुई नहीं थी, बल्कि बेल-बूटों में पानी दे रही थी। उसने बड़े दिनों पश्चात् आज अच्छे कपड़े पहने थे और श्रृंगार किया था। मुस्कुराते हुए आनंद का स्वागत किया और बोली- ‘पाँच बज गए क्या?’
‘हाँ बेला, साढ़े पाँच होने को आए… चाय तैयार है क्या?’
‘जी चाय भी और मैं भी।’
‘कहीं बाहर जाने का विचार है क्या?’
‘जी नहीं।’
‘तो फिर?’
‘आपको शुभ सूचना सुनाने को…’
‘ओह! सुनूं तो क्या है?’
‘यों नहीं! पहले चलकर हाथ-मुँह धो लीजिए, फिर कहूंगी।’
‘चलो, शुभ सूचना है तो धीरज का घूंट भर ही लेते हैं।’
जब दोनों चाय की मेज पर आमने-सामने बैठे तो दोनों की आँखों की पुतलियाँ नाच रही थीं। वे एक-दूसरे से कुछ कहना चाहते थे। बेला ने चाय बनाई और प्याला बढ़ाकर आनंद के सामने रख दिया। एक घूंट चाय पीते हुए आनंद ने पूछा-‘अब कहो क्या सूचना है?’
‘हमारा भाग्य खुल गया है। अब हमारा जीवन बदल जाएगा।’
‘वह कैसे? क्या कोई लॉटरी मिली है?’
‘जी लॉटरी ही समझिए।’ इसके साथ ही बेला ने एक लंबा लिफाफा आनंद के सामने कर दिया। आनंद ने कांपते हुए हाथों से उसे खोला और पढ़ने लगा। कमरे की सब चीजें उसके सामने घूमने लगीं। माथे पर पसीना फूट आया। उसे प्रतीत हुआ, जैसे किसी ने उसे बर्फ की सिल्लियों में दबा दिया हो।
पत्र को मेज पर रखते उसने कठिनाई से कहा-‘तो आज तक तुमने मुझसे छिपाए रखा।’ उसकी जुबान सूख रही थी, वह चाहता था कि एक घूंट चाय और गले में उतार ले, परंतु पी न सका।
‘यही सोच रखा था कि सफल होने पर बताऊँगी, किंतु यह चिंता क्यों?’
‘बेला! तुम्हारी यह बात मुझे भायी नहीं, यह खेल अब यहीं बंद होना चाहिए।’
‘वाह’ आप भी खूब हैं। दस हजार-इतना धन और उसे ठुकरा दूँ।’
‘हाँ-हमें ऐसा धन नहीं चाहिए।’
‘यह मुझसे न होगा। जरा सोचिए तो पहला ही चांस मुझे कहाँ ले जाएगा।’
‘मुझे उस ऊँचाई की आवश्यकता नहीं, जहाँ पहुँचकर तुम्हें फिर जमीन पर गिरना पड़े।’
‘जरा सोचिए तो, सौभाग्य हमारा द्वार खटखटा रहा है और हम कानों पर हाथ धरे सुनते रहें-भला सारा जीवन इस थोड़े से वेतन में क्या होगा।’
‘बहुत कुछ-परिश्रम के ये चंद सिक्के उस धन से कई दर्जा अच्छे हैं, जो अपने मान और सौंदर्य की प्रदर्शनी में बनाए जाएँ। यह वेतन थोड़ा सही, परंतु फिर भी बहुत है। अपने से अमीर लोगों को देखने से परेशानी तो होती है। यदि मन को सांत्वना देनी हो तो उन लाखों गरीबों की ओर देख लिया करो, जिन्हें सवेरे से शाम तक काम करने पर भी पेट भर खाना प्राप्त नहीं होता।’
बेला चुप बैठी रही। आनंद चाय छोड़कर चला गया। उसे बेला की यह बात बिलकुल न भायी थी-सामने बंबई से आया हुआ वह पत्र था, जो हुमायूं वाली फिल्म कंपनी के सेठ ने लिखा था-पहली ही फिल्म में हीरोइन का कांट्रेक्ट दस हजार रुपया-केवल हस्ताक्षर करने की देर थी और रुपया उसके पांव चूमने आ रहा था।
वह कई दिनों से फिल्म-कंपनी के सेठ से, आनंद से चोरी-छिपे इस विषय में पत्र-व्यवहार कर रही थी और आज जब आशा की किरण दिखाई दी तो वह आँखें बंद करके सो जाने को कहते हैं-यह क्योंकर हो? निकलते सूर्य को देखकर मैं द्वार बंद करके अपने घर में अंधेरा क्यों कर लूँ। शायद आनंद मेरी पिछली बातें सोचकर अब मनमानी नहीं करने देगा। शायद वह सोचता है कि पुरुष ही स्त्री का अंतिम और एकमात्र सहारा है। वह अपने बलबूते पर कुछ नहीं कर सकती। वह बैठी-बैठी न जाने क्या सोचने लगी-शोर मचाने से कुछ न होगा। जबरदस्ती वह असम्भव है। क्रोध दिखाने से और आग भड़केगी। तो उसे क्या करना चाहिए? बुद्धि से काम लेना होगा। इस ठण्डी आग को चिंगारी दिखाने से क्या लाभ।
दो-चार दिन बीत गए, फिल्म में काम करने के विषय में बेला ने कोई बात न की, बल्कि उसी चाव और लगाव से बर्ताव करती रही कि आनंद क्षण-भर के लिए भी संदेह न कर सके।
एक रात जब आकाश पर चांद को बादल के टुकड़ों ने अपनी ओट में छिपा रखा था, घाटी में ठहरी हुई हवा गूंजने लगी। प्रतीत हो रहा था जैसे तूफान आने वाला है। आनंद चुपके से उठा और कमरे में चारों ओर दृष्टि दौड़ाने लगा। रात का अंधेरा कभी इतना साफ न था। कमरे के बाहर एक विचित्र मौन था। इसी मौन में हर चीज बतला रही थी कि बेला भाग गई-वह एक नई दुनिया में भाग गई।
बिस्तर पर पड़ा बंद लिफाफा भी उससे यही कह रहा था। आनंद ने कांपती उंगलियों से उसे उठाया, किंतु पढ़ने का साहस न कर सका।
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प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास