चैप्टर 22 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 22 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

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Chapter 22 Neelkanth Gulshan Nanda Novel

Chapter 22 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

‘और जब वह जान जाएगी तो प्रसन्नता से फूली न समाएगी।’ बेला ने मन-ही-मन यह बात सोची, पर मुँह तक न ला सकी और तेजी से चाय बनाने लगी।

हुमायूं के चले जाने पर बेला बोली-‘मैं भी संग चलूँगी।’

‘कहाँ?’

‘बंबई। पापा कई बार लिख चुके-अवसर भी अच्छा है, दोनों आ रहे हैं।’

‘नहीं बेला, तुम्हारा जाना ठीक नहीं।’

‘वह क्यों?’

‘मोहन जो है-उसे अकेले छोड़कर जाना उचित नहीं।’

‘परंतु हम अकेले इस सुनसान…’

‘विष्णु को कह दिया है, वर्कशॉप बंद होते ही वह यहाँ आ जाएगा। रात तक तो खाने आदि में सहायता देता ही है, दो-चार रात सो भी यहीं जाएगा।’

‘तो क्या मोहन दो दिन विष्णु के पास न रह सकेगा?’

‘नहीं, तुम भी विचित्र बातें करती हो, भला उसको अकेले छोड़कर हम क्योंकर जा सकते हैं।’

बेला चुप हो गई। गुप्त शक्ति आनंद को उससे दूर खींचकर लिए जा रही है। बेला के लाख साधन सोचने पर भी आनंद बंबई चला गया और वह वन में अकेली बैठी अपनी मानसिक उलझनों में पड़ी रही।

वर्कशॉप में आज छुट्टी थी और विष्णु सवेरे से ही घर में था। बेला बरामदे में बैठी झील का दृश्य देख रही थी। बत्तखों का एक सुंदर जोड़ा पानी चीरता हुआ धीरे-धीरे बढ़े जा रहा था। एकाएक ऊपर से किसी पक्षी ने झपट्टा मारा और दोनों अलग होकर भिन्न-भिन्न दिशाओं में भागने लगीं। बेला और मोहन दोनों ने यह दृश्य देखा। मोहन के होंठों पर भोली-भाली मुस्कुराहट बेला को जैसे सांप बनकर डस गई। उसे प्रतीत हुआ जैसे मोहन ने भी उसके सुहावने जीवन पर ऐसा झपट्टा मारा है जैसा कि इस पक्षी ने बत्तखों के जोड़े पर-लंगड़ा कहीं का।

उसके मस्तिष्क में गहरी झील का पानी अपनी छाया डालने लगा। वह उठी और उसके बिल्कुल किनारे बैठकर अपने पांव ठण्डे पानी में डाल दिए।

‘भाभी झील में कूद जाओ-भैया कहते थे तुम्हें खूब तैरना आता है।’ मोहन ने कहा।

‘कहीं डूब गई तो क्या कहोगे?’

‘छी-छी-छी, कैसी बातें करती हो।’

विष्णु बाहर आया तो मोहन ने उसे तेल लाने को कहा। सवेरे की सुनहरी किरणों में वह प्रतिदिन विष्णु से शरीर पर तेल की मालिश करवाता था, जिससे उसके जोड़ अच्छी तरह खुल सकें। बेला भी झट भीतर गई और तैरने का जोड़ा पहनकर बाहर आकर झील में कूद पड़ी। मोहन और विष्णु खिलखिलाकर उत्साह से पानी को चीरती हुई उस मछली को देखने लगे।

विष्णु ने मोहन की पीठ पर तेल मलते हुए कहा-‘तुम्हारी भाभी तो किसी मछली से कम नहीं।’

‘हाँ विष्णु-और फिर पानी और हवा दोनों में रहती हैं।’

मोहन की यह बात सुनकर विष्णु हँस पड़ा और उसकी नसों को जोर-जोर से मलने लगा। बेला तैरती हुई किनारे पर आ पहुँची और धड़ बाहर निकालकर बोली-

‘आओ मोहन, तुम्हें तैरना सिखाऊँ।’

मोहन की आँख भर आई, जैसे वह अपनी बेबसी पर रोना चाहता हो, पर रो न सका। विष्णु ने उसके मन की दशा भांपते हुए सांत्वना देते हुए कहा-

‘साहस न छोड़ो। मुझे विश्वास है कि एक दिन तुम अवश्य चल-फिर सकोगे।’

बेला ने बाहर निकलकर शरीर पर पड़ा तौलिया लपेटते हुए कहा-

‘साहस रखना चाहिए, आज मैं तुम्हें तैरना सिखाऊँगी।’

‘मेम साहब!’ विष्णु ने आश्चर्य से उसका दृढ़-निश्चय देखते हुए कहा।

‘हाँ विष्णु-लाओ मैं मोहन की मालिश करती हूँ-तुम जाओ काम पर देर हो रही होगी।’

‘आज तो वर्कशॉप में छुट्टी है।’

‘तो काम से छुट्टी करो, जाओ बस्ती में घूम-फिरकर आओ।’

विष्णु बस्ती की ओर चल पड़ा। वह बेला की आँखों में आज एक विचित्र चमक देख रहा था, जिसमें प्यार के साथ भयानक बिजली भी छिपी हुई थी।

वह घर से निकल पड़ा, पर उसके पांव न जाने बस्ती की ओर क्यों न उठ रहे थे। उसका अज्ञान मन कह रहा था कि उसकी अनुपस्थिति में कोई असाधारण घटना घटने वाली है। बाबूजी उस पर घर का पूरा उत्तरदायित्व छोड़ गए हैं और किसी को कुछ हो गया तो-वह यह सोचकर कांप उठा। इसी उलझन में वह एक घनी झाड़ी की ओट में बैठकर झील को देखने लगा। यहाँ से हिलने को उसका मन न किया।

बेला ने जब देखा कि विष्णु बस्ती में चला गया है और हर ओर फिर से नीरवता छा गई है, तो उसने संतोष की सांस लेते हुए दूर तक दृष्टि दौड़ाई। उसका हृदय तेजी से धड़क रहा था। जैसे कोई पक्षी पिंजरे में सिर पटक रहा हो।

बेला सीढ़ियाँ उतरकर झील के किनारे जा पहुँची और थोड़ी दूर बंधी सरकारी नाव को खोल चप्पू से खेती बरामदे की सीढ़ियों तक ले आई।

मोहन को कंधे का सहारा देकर उसको नाव में बिठाने के लिए उठाया तो वह लड़खड़ाकर गिरते-गिरते बचा। बेला ने उसे अपनी छाती से लगाकर प्यार करते हुए कहा-‘घबराओ नहीं, मेरी बांहों का सहारा जब तक है, तुम्हें कुछ न होगा।’

बेला ने मोहन को नाव के बीच वाले तख्ते पर लिटा दिया और स्वयं चप्पू लगाकर उसे झील के बीच में ले आई। ज्यों-ज्यों नाव धीरे-धीरे पानी को चीरती आगे बढ़ती जाती, त्यों-त्यों बेला के मन का भय और धड़कन तेज होती जाती।

नाव कुछ और आगे निकल आई। बेला ने देखा-दूर तक कोई जीव दिखाई न देता था। दिल दहला देने वाला मौन छा रहा था।

उसे लगा जैसे नाव में कोई लाश रखी हो, जिसे वह खींचकर कहीं ले जा रही है। भय से उसके माथे पर स्वेद बिन्दु एकत्र हो गए, जिन्हें उसने कुहनी उठाकर साफ कर दिया।

बेला में इतना साहस नहीं था कि मोहन की आँखों से आँखें मिला सकती। बिना उत्तर दिए ही वह, अपने मुँह पर एकाएक उभर आई कुरुपता को छिपाने के लिए झील में कूद गई।

मोहन झट से उठकर बैठ गया और भाभी को देखने लगा, जो मछली की भांति अपने शरीर का अंग-अंग निर्मल जल में लहरा रही थी। झील का मौन और नीला पानी बेला के शरीर से स्पर्श करते ही एक मधुर हल्की-सी ध्वनि करने लगा, जो घाटी में गूंज रही थी।

बेला तैरते-तैरते नाव तक आ पहुँची और उसका सहारा लेकर आधा धड़ पानी से बाहर निकाला। मोहन विस्मित उसे देखता हुआ बोला-‘भाभी यों लगता है जैसे तुम जलपरियों की राजकुमारी हो।’

‘तो आओ-राजकुमार तुम्हें भी अपनी नगरी की सैर करवा दूँ।’

मोहन अपनी भाभी का हाथ पकड़कर झील में उतर गया। गहरे पानी में उतरते ही उसे कंपकंपी-सी लगी, जैसे उसे गहरी खाई में अचानक धकेल दिया गया हो। भाभी का पकड़ा हुआ हाथ उसे एक स्थिर चट्टान का सहारा लगने लगा। दोनों ने भयभीत दृष्टि से एक-दूसरे को देखा और मुस्करा दिए। बेला ने कसकर दोनों हाथ पकड़ लिए और उसे पांव पानी में चलाने को कहा। मोहन ने धीरे-धीरे पैर उठाकर पानी में हिलाने आरंभ कर दिए। उसने अनुभव किया कि यह केवल उसका भय ही था। प्रयत्न करने पर वह अपनी विवशता पर विजय पा सकता है।

भाभी के सहारे वह धीरे-धीरे पांव चलाता गहरे पानी में बढ़ने लगा। साथ-साथ नाव भी बढ़ती गयी। बेला छिपी-छिपी चोर दृष्टि से झील के चारों ओर देख रही थी। दूर-दूर तक कोई मानव क्या कोई पशु-पक्षी भी दिखाई न देता था। चारों ओर चुप्पी का राज्य था।

नाव धीरे-धीरे लहरों पर अठखेलियां लेती भंवर की ओर बढ़ती जा रही थी-ठीक उसी भंवर के समान बेला की आन्तरिक दशा थी। मन की गहराइयों से उठता हुआ तूफान उसके मस्तिष्क में उलझनें भर रहा था। डाह, विवशता, विश्वासघात और प्रेम-सबसे एक विचित्र युद्ध हो रहा था-कुछ कहा न जा सकता था कि विजय किसकी होगी।

नाव भंवर के समीप आ पहुँची, बेला के हाथों की पकड़ पहले से ढीली पड़ गई, मोहन भी अभ्यास करते-करते थक चुका था और बार-बार भाभी से बाहर निकलने की प्रार्थना कर रहा था और वह मौन उसे देखे जा रही थी, उसमें इतना बल न था कि मोहन की बातों का उत्तर देती, उसने देखा कि वह थककर सांस से पानी के बुलबुले छोड़ रहा है, उसका जीवन भी तो उन बुलबुलों के समान चंद क्षण का था।

‘भाभी मैं थक गया हूँ, मुझे खींच लो। अब मुझसे और अभ्यास नहीं हो सकता, देखो तो मेरा सांस फूल रहा है।’ कठिनाई से निकलते हुए इन शब्दों को बेला ने ध्यान से सुना, जैसे ये शब्द किसी के जीवन के अंतिम शब्द थे-वह फिर चुप रही और उसने अठखेलियां लेती नाव को बढ़ने से न रोका।

सहसा किसी क्रूर शक्ति ने बेला पर अधिकार पा लिया और उसने मोहन का हाथ छोड़ दिया। वह तड़पा और बेबस होकर हाथ-पांव मारने लगा। उसने सहायता के लिए भाभी को पुकारना चाहा पर गले से निकले शब्द पानी के बुलबुले बनकर रह गए-उस गहरी झील के तल पर जीवन के ये चन्द बुलबुले जो एक क्षण में मिट जाएँगे।

बेला ने झट से चप्पू संभाले और नाव को भंवर से अलग कर दिया। उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई और उस सन्नाटे में जोर से चिल्लाई-‘मोहन! मोहन!’ वह दो बार ही चिल्लाई। आवाज घाटी में गूंज उठी और कहीं जंगल में दूर बैठे लकड़हारे बेला की चीख-पुकार सुनते ही उस ओर दौड़े-उसने ध्यानपूर्वक देखा, दूर की एक झाड़ी से विष्णु भी निकलकर उधर भाग रहा था। उसे देखते ही बेला पागलों की भांति चिल्लाने लगी-‘बचाओ-बचाओ-मेरे नन्हें राजा को बचाओ’, ‘मेरे मोहन को बचाओ।’

जब विष्णु जरा समीप आया तो बेला चिल्लाते हुए स्वयं झील में कूद पड़ी और इधर-उधर हाथ मारने लगी। उसे देखकर उन लकड़हारों में से दो-एक ने छलांग लगा दी, पर सब व्यर्थ था। कोई भी उसके शरीर को बाहर निकालने में सफल न हुआ। लगता था कि भंवर में उसे कोई जानवर निगल गया है या किसी पुराने दलदल में फंसकर रह गया है।

आधे घंटे की अथक खोज के पश्चात् जब बेला झील से बाहर आई तो सबसे पहले उसकी दृष्टि विष्णु से चार हुई। आँखें मिलते ही बेला सिर से पांव तक कांप गई। विष्णु ने उसे कड़ी और भयानक दृष्टि से देखा मानो उससे कह रहा हो कि नन्हें की मृत्यु की उत्तरदायी तुम हो।

लकड़हारे लौट गए। अपने कांपते होंठों को दाँतों तले दबाते बेला धीरे से बोली-

‘विष्णु! यह क्या अनर्थ हो गया?’

विष्णु चुप रहा।

‘विष्णु भैया, मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगी?’

विष्णु ने पहले आकाश की ओर देखा, फिर उसने झील की ओर देखते हुए कहा-‘मानव जब भी कोई पाप करता है तो उसे उसी समय भगवान का विचार आता है। बीबीजी, आपका भगवान कल ही आपसे पूछे तो क्या उत्तर देंगी। नन्हें की मृत्यु की उत्तरदायी आप हैं-आप ही ने उसे झील में डुबोया है।’

‘विष्णु!’ बेला उसी थरथराती आवाज में चिल्लाई और तेज-तेज कदम उठाती अपने कमरे की ओर बढ़ी। विष्णु भी धीरे-धीरे उसके पीछे हो लिया।

कपड़े बदलकर बेला ड्रॉइंग रूम में लौटी तो दरवाजे का सहारा लिए विष्णु पहले ही खड़ा था, जैसे वह बेला से अपने प्रश्न का उत्तर लेने के लिए खड़ा हो।

बेला उसके पास आ खड़ी हुई और होंठों पर फीकी मुस्कुराहट लाते हुए हाथ उसकी ओर बढ़ाया-बेला की पतली उंगलियों में एक सौ का नोट था, जो वह विष्णु को दे रही थी।

विष्णु ने एक दृष्टि नोट पर डाली और दूसरी बेला पर। उसकी उंगलियों के नाखूनों पर लगी क्यूटेक्स की लाली ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे किसी के ताजा लहू के धब्बे-वह नम्रता से बोली-

‘ले लो-कोई बात नहीं।’

‘शायद आप इससे मेरा धर्म खरीदना चाहती हैं।’

‘क्या यह कम है?’

‘जी-और शायद आप अपने धर्म को बेचकर भी मेरा धर्म नहीं खरीद सकतीं।’

‘बदतमीज।’ विष्णु के गाल पर जोर से एक थप्पड़ लगाते हुए वह हांफते हुए गरजती हुई आवाज में कहने लगी-‘शायद तुम अपनी औकात भूल गए हो।’

विष्णु क्रोध में दांत पीसता हुआ बाहर आ गया और बरामदे के मुंडेर पर सिर टेककर बच्चों की भांति फूट-फूटकर रोने लगा। खेद था तो उसे केवल इस बात का कि वह खड़ा तमाशा देखता रहा और नन्हें को बचा न सका-वह आनंद को क्या उत्तर देगा-वह उससे कैसे कहेगा कि इस भले बालक की हत्या करने वाली उसकी अपनी बीवी है।

थोड़े समय में बीनापुर में हाहाकार मच गया। पुलिस वालों ने झील में जाल फैलाकर खोज की, पर लाश का पता न चला।

कंपनी की ओर से ही आनंद को बंबई तार डलवा दिया गया।

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