चैप्टर 21 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 21 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 21 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 21 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 21 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 21 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

वह घर पहुँचा, तो उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसने उफनी हुई चाँदनी चूमी थी, उसने तरुणाई के चाँद को स्पर्शों से सिहरा दिया था, उसने नीली बिजलियाँ चूमी थीं। प्राणों की सिहरन और गुदगुदी से खेलकर वह आ रहा था, वह पम्मी के होठों के गुलाबों को चूम-चूमकर गुलाबों के देश में पहुँच गया था और उसकी नसों में बहते हुए रस में गुलाब झूम उठे थे। वह सिर से पैर तक एक मदहोश प्यास बना हुआ था। घर पहुँचा, तो जैसा उल्लास से उसका अंग-अंग नाच रहा हो। बिनती के प्रति दोपहर को जो आक्रोश उसके मन में उभर आया था, वह भी शान्त हो गया था।

बिनती ने आकर खाना रखा। चंदर ने बहुत हँसते हुए, बड़े मीठे स्वर में कहा, ”बिनती, आज तुम भी खाओ।”

”नहीं, मैं नीचे खाऊँगी।”

”अरे चल बैठ, गिलहरी!” चंदर ने बहुत दिन पहले के स्नेह के स्वर में कहा और बिनती के पीठ में एक घूँसा मारकर उसे पास बिठा लिया-”आज तुम्हें नाराज नहीं रहने देंगे। ले खा, पगली!”

नफरत से नफरत बढ़ती है, प्यार से प्यार जागता है। बिनती के मन का सारा स्नेह सूख-सा गया था। वह चिड़चिड़ी, स्वाभिमानी, गम्भीर और रूखी हो गयी थी, लेकिन औरत बहुत कमजोर होती है। ईश्वर न करे, कोई उसके हृदय की ममता को छू ले। वह सबकुछ बर्दाश्त कर लेती है, लेकिन अगर कोई किसी तरह उसके मन के रस को जगा दे, तो वह फिर अपना सब अभिमान भूल जाती है। चंदर ने, जब वह यहाँ आयी थी, तभी से उसके हृदय की ममता जीत ली थी। इसलिए चंदर के सामने सदा झुकती आयी, लेकिन पिछली बार से चंदर ने ठोकर मारकर सारा स्नेह बिखेर दिया था। उसके बाद उसके व्यक्तित्व का रस सूखता ही गया। क्रोध जैसे उसकी भौंहों पर रखा रहता था।

आज चंदर ने उसको इतने दुलार से बुलाया, तो लगा वह जाने कितने दिनों का भूला स्वर सुन रही है। चाहे चंदर के प्रति उसके मन में कुछ भी आक्रोश क्यों न हो, लेकिन वह इस स्वर का आग्रह नहीं टाल सकती, यह वह भली प्रकार जानती थी। वह बैठ गयी। चंदर ने एक कौर बनाकर बिनती के मुँह में दे दिया। बिनती ने खा लिया। चंदर ने बिनती की बाँह में चुटकी काट कर कहा-”अब दिमाग ठीक हो गया पगली का! इतने दिनों से अकड़ी फिरती थी!”

”हूँ!” बिनती ने बहुत दिन के भूले हुए स्नेह के स्वर में कहा, ”खुद ही तो अपना दिमाग बिगाड़े रहते हैं और हमें इल्जाम लगाते हैं। तरकारी ठण्डी तो नहीं है?”

दोनों में सुलह हो गयी…जाड़ा अब काफी बढ़ गया था। खाना खा चुकने के बाद बिनती शाल ओढ़े चंदर के पास आयी और बोली, ”लो, इलायची खाओगे?” चंदर ने ले ली। छीलकर आधे दाने खुद खा लिये, आधे बिनती के मुँह में दे दिये। बिनती ने धीरे से चंदर की अँगुली दाँत से दबा दी। चन्दर ने हाथ खींच लिया। बिनती उसी के पलँग पर पास ही बैठ गयी और बोली, ”याद है तुम्हें? इसी पलँग पर तुम्हारा सिर दबा रही थी, तो तुमने शीशी फेंक दी थी।”

”हाँ, याद है! अब कहो, तुम्हें उठाकर फेंक दूँ।” चंदर आज बहुत खुश था।

”मुझे क्या फेंकोगे!” बिनती ने शरारत से मुँह बनाकर कहा, ”मैं तुमसे उठूँगी ही नहीं!”

जब अंगों का तूफान एक बार उठना सीख लेता है, तो दूसरी बार उठते हुए उसे देर नहीं लगती। अभी वह अपने तूफान में पम्मी को पीसकर आया था। सिरहाने बैठी हुई बिनती, हल्का बादामी शाल ओढ़े, रह-रहकर मुस्कराती और गालों पर फूलों के कटोरे खिल जाते, आँख में एक नयी चमक। चंदर थोड़ी देर देखता रहा, उसके बाद उसने बिनती को खींचकर कुछ हिचकते हुए बिनती के माथे पर अपने होंठ रख दिये। बिनती कुछ नहीं बोली। चुपचाप अपने को छुड़ाकर सिर झुकाये बैठी रही और चंदर के हाथ को अपने हाथ में लेकर उसकी अँगुलियाँ चिटकाती रही। सहसा बोली, ”अरे, तुम्हारे कफ का बटन टूट गया है, लाओ सिल दूँ।”

चंदर को पहले कुछ आश्चर्य हुआ, फिर कुछ ग्लानि। बिनती कितना समर्पण करती है, उसके सामने वह…लेकिन उसने अच्छा नहीं किया। पम्मी की बात दूसरी है, बिनती की बात दूसरी। बिनती के साथ एक पवित्र अन्तर ही ठीक रहता-

बिनती आयी और उसके कफ में बटन सीने लगी…सीते-सीते बचे हुए डोरे को दाँत से तोड़ती हुई बोली, “चंदर एक बात कहें, मानोगे?”

”क्या?”

”पम्मी के यहाँ मत जाया करो।”

”क्यों?”

”पम्मी अच्छी औरत नहीं है। वह तुम्हें प्यार नहीं करती, तुम्हें बिगाड़ती है।”

”यह बात गलत है, बिनती! तुम इसीलिए कह रही हो न कि उसमें वासना बहुत तीखी है!”

”नहीं, यह नहीं। उसने तुम्हारी जिंदगी में सिर्फ एक नशा, एक वासना दी, कोई ऊँचाई, कोई पवित्रता नहीं। कहाँ दीदी, कहाँ पम्मी? किस स्वर्ग से उतरकर तुम किस नरक में फँस गये!”

”पहले मैं भी यही सोचता था बिनती, लेकिन बाद में मैंने सोचा कि माना किसी लड़की के जीवन में वासना ही तीखी है, तो क्या इसी से वह निन्दनीय है? क्या वासना स्वत: में निन्दनीय है? गलत! यह तो स्वभाव और व्यक्तित्व का अन्तर है, बिनती! हरेक से हम कल्पना नहीं माँग सकते, हरेक से वासना नहीं पा सकते। बादल है, उस पर किरण पड़ेगी, इन्द्रधनुष ही खिलेगा, फूल है, उस पर किरण पड़ेगी, तबस्सुम ही आएगा। बादल से हम माँगने लगें तबस्सुम और फूल से माँगने लगें इन्द्रधनुष, तो यह तो हमारी एक कवित्वमयी भूल होगी। माना एक लड़की के जीवन में प्यार आया, उसने अपने देवता के चरणों पर अपनी कल्पना चढ़ा दी। दूसरी के जीवन में प्यार आया, उसने चुम्बन, आलिंगन और गुदगुदी की बिजलियाँ दीं। एक बोली, ‘देवता मेरे! मेरा शरीर चाहे जिसका हो, मेरी पूजा-भावना, मेरी आत्मा तुम्हारी है और वह जन्म-जन्मान्तर तक तुम्हारी रहेगी…’ और दूसरी दीपशिखा-सी लहराकर बोली, ‘दुनिया कुछ कहे अब तो मेरा तन-मन तुम्हारा है। मैं तो बेकाबू हूँ! मैं करूँ क्या? मेरे तो अंग-अंग जैसे अलसा कर चूर हो गये है तुम्हारी गोद में गिर पड़ने के लिए, मेरी तरुणाई पुलक उठी है तुम्हारे आलिंगन में पिस जाने के लिए। मेरे लाज के बन्धन जैसे शिथिल हुए जाते हैं? मैं करूँ, तो क्या करूँ? कैसा नशा पिला दिया है तुमने, मैं सब कुछ भूल गयी हूँ। तुम चाहे जिसे अपनी कल्पना दो, अपनी आत्मा दो, लेकिन एक बार अपने जलते हुए होठों में मेरे नरम गुलाबी होंठ समेट लो न!’ बताओ बिनती, क्यों पहली की भावना ठीक है और दूसरी की प्यास गलत?”

बिनती कुछ देर तक चुप रही, फिर बोली, चंदर तुम बहुत गहराई से सोचते हो। लेकिन मैं तो एक मोटी-सी बात जानती हूँ कि जिसके जीवन में वह प्यास जग जाती है, वह फिर किसी भी सीमा तक गिर सकता है। लेकिन जिसने त्याग किया, जिसकी कल्पना जागी, वह किसी भी सीमा तक उठ सकता है। मैंने तो तुम्हें उठते हुए देखा है।”

”गलत है, बिनती! तुमने गिरते हुए देखा है मुझे! तुम मानोगी कि सुधा से मुझे कल्पना ही मिली थी, त्याग ही मिला था, पवित्रता ही मिली थी। पर वह कितनी दिन टिकी! और तुम यह कैसे कह सकती हो कि वासना आदमी को नीचे ही गिराती है। तुम आज ही की घटना लो। तुम यह तो मानोगी कि अभी तक मैंने तुम्हें अपमान और तिरस्कार ही दिया था।”

”खैर, उसकी बात जाने दो!” बिनती बोली।

”नहीं, बात आ गयी तो मैं साफ कहता हूँ कि आज मैंने तुम्हारा प्रतिदान देने की सोची, आज तुम्हारे लिए मन में बड़ा स्नेह उमड़ आया। क्यों? जानती हो? पम्मी ने आज अपने बाहुपाश में कसकर जैसे मेरे मन की सारी कटुता, सारा विष खींच लिया। मुझे लगा बहुत दिन बाद मैं फिर पिशाच नहीं, आदमी हूँ। यह वासना का ही दान है। तुम कैसे कहोगी कि वासना आदमी को नीचे ही ले जाती है!”

बिनती कुछ नहीं बोली, चंदर भी थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, ”लेकिन एक बात पूछूँ, बिनती?”

”क्या?”

”बहुत अजब-सी बात है। सोच रहा हूँ पूछूँ या न पूछूँ!”

”पूछो न!”

”अभी मैंने तुम्हारे माथे पर होंठ रख दिये, तुम कुछ भी नहीं बोलीं, और मैं जानता हूँ यह कुछ अनुचित-सा था। तुम पम्मी नहीं हो! फिर भी तुमने कुछ भी विरोध नहीं किया…?”

बिनती थोड़ी देर तक चुपचाप अपने पाँव की ओर देखती रही। फिर शाल के छोर से एक डोरा खींचते हुए बोली, चंदर, मैं अपने को कुछ समझ नहीं पाती। सिर्फ इतना जानती हूँ कि मेरे मन में तुम जाने क्या हो; इतने महान हो, इतने महान हो कि मैं तुम्हें प्यार नहीं कर पाती, लेकिन तुम्हारे लिए कुछ भी करने से अपने को रोक नहीं सकती। लगता है तुम्हारा व्यक्तित्व, उसकी शक्ति और उसकी दुर्बलताएँ, उसकी प्यास और उसका सन्तोष, इतना महान है, इतना गहरा है कि उसके सामने मेरा व्यक्तित्व कुछ भी नहीं है। मेरी पवित्रता, मेरी अपवित्रता, इन सबसे ज्यादा महान तुम्हारी प्यास है।…लेकिन अगर तुम्हारे मन में मेरे लिए जरा भी स्नेह है तो तुम पम्मी से सम्बन्ध तोड़ लो। दीदी से अगर मैं बताऊँगी, तो जाने क्या हो जाएगा! और तुम जानते नहीं, दीदी अब कैसी हो गयी हैं? तुम देखो तो आँसू…”

”बस! बस!” चंदर ने अपने हाथ से बिनती का मुँह बन्द करते हुए कहा, ”सुधा की बात मत करो, तुम्हें कसम है। जिंदगी के जिस पहलू को हम भूल चुके हैं, उसे कुरेदने से क्या फायदा?”

”अच्छा, अच्छा!” चंदर का हाथ हटाकर बिनती बोली, ”लेकिन पम्मी को अपनी जिंदगी से हटा दो।”

”यह नहीं हो सकता, बिनती?” चंदर बोला, ”और जो कहो, वह मैं कर दूँगा। हाँ, तुम्हारे प्रति आज तक जो दुर्व्यवहार हुआ है, उसके लिए मैं तुमसे क्षमा माँगता हूँ।”

”छिह, चंदर! मुझे शर्मिन्दा मत करो।” 

काफी रात हो गयी थी। चंदर लेट गया। बिनती ने उसे रजाई उढ़ा दी और टेबल पर बिजली का स्टैंड रखकर बोली, ”अब चुपचाप सो जाओ।”

बिनती चली गयी। चंदर पड़ा-पड़ा सोचने लगा, दुनिया गलत कहती है कि वासना पाप है। वासना से भी पवित्रता और क्षमाशीलता आती है। पम्मी से उसे जो कुछ मिला, वह अगर पाप है, तो आज चंदर ने जो बिनती को दिया, उसमें इतनी क्षमा, इतनी उदारता और इतनी शान्ति क्यों थी?

उसके बाद बिनती को वह बहुत दुलार और पवित्रता से रखने लगा। कभी-कभी जब वह घूमने जाता, तो बिनती को भी ले जाता था। न्यू ईयर्स डे के दिन पम्मी ने दोनों की दावत की। बिनती पम्मी के पीछे चाहे चंदर से पम्मी का विरोध कर ले पर पम्मी के सामने बहुत शिष्टता और स्नेह का बरताव करती थी।

डॉक्टर साहब की दिल्ली जाने की तैयारी हो गयी। बिनती ने कार्यक्रम में कुछ परिवर्तन करा लिया था। अब वह पहले डॉक्टर साहब के साथ शाहजहाँपुर जाएगी और तब दिल्ली।

निश्चय करते-करते अन्त में पहली फरवरी को वे लोग गये। स्टेशन पर बहुत-से विद्यार्थी और डॉक्टर साहब के मित्र उन्हें विदा देने के लिए आये थे। बिनती विद्यार्थियों की भीड़ से घबराकर इधर चली आयी और चंदर को बुलाकर कहने लगी-”चंदर! दीदी के लिए एक खत तो दे दो!”

”नहीं।” चंदर ने बहुत रूखे और दृढ़ स्वर में कहा।

बिनती कुछ क्षण तक एकटक चंदर की ओर देखती रही; फिर बोली, चंदर! मन की श्रद्धा चाहे अब भी वैसी हो, लेकिन तुम पर अब विश्वास नहीं रहा।”

चंदर ने कुछ जवाब नहीं दिया, सिर्फ हँस पड़ा। फिर बोली, चंदर, अगर कभी कोई जरूरत हो, तो जरूर लिखना, मैं चली आऊँगी, समझे?” और फिर चुपचाप जाकर बैठ गयी।

जब चंदर लौटा, तो उसके साथ कई साथी प्रोफेसर थे। घर पहुँचकर वह कार लेकर पम्मी के यहाँ चल दिया। पता नहीं क्यों बिनती के जाने का चंदर को कुछ थोड़ा-सा दु:ख था।

गरमी का मौसम आ गया था। चंदर सुबह कॉलेज जाता, दोपहर को सोता और शाम को वह नियमित रूप से पम्मी को लेकर घूमने जाता। डॉक्टर साहब कार छोड़ गये थे। कार पम्मी और चंदर को लेकर दूर-दूर का चक्कर लगाया करती थी। इस बार उसने अपनी छुट्टियाँ दिल्ली में ही बिताने की सोची थीं। पम्मी ने भी तय किया था कि मसूरी से लौटते समय जुलाई में वह एक हफ्ते आकर डॉक्टर शुक्ला की मेहमानी करेगी और दिल्ली के पूर्वपरिचितों से भी मिल लेगी।

यह नहीं कहा जा सकता कि चंदर के दिन अच्छी तरह नहीं बीत रहे थे। उसने अपना अतीत भुला दिया था और वर्तमान को वह पम्मी की नशीली निगाहों में डुबो चुका था। भविष्य की उसे कोई खास चिन्ता नहीं थी। उसे लगता था कि यह पम्मी की निगाहों के बादलों और स्पर्शों के फूलों की जादू भरी दुनिया अमर है, शाश्वत है। इस जादू ने हमेशा के लिए उसकी आत्मा को अभिभूत कर लिया है, ये होंठ कभी अलग न होंगे, यह बाहुपाश इसी तरह उसे घेरे रहेगा और पम्मी की गरम तरुण साँसें सदा इसी प्रकार उसके कपोलों को सिहराती रहेंगी। आदमी का विश्वास हमेशा सीमाएँ और अन्त भूल जाने का आदी होता है। चंदर भी सबकुछ भूल चुका था।

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