चैप्टर 22 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 22 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 22 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 22 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 22 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 22 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

अप्रैल की एक शाम। दिन-भर लू चलकर अब थक गयी थी। लेकिन दिन-भर की लू की वजह से आसमान में इतनी धूल भर गयी थी कि धूप भी हल्की पड़ गयी थी। माली बाहर छिड़काव कर रहा था। चंदर सोकर उठा था और सुस्ती मिटा रहा था। थोड़ी देर बाद वह उठा, दिशाओं की ओर निरुद्देश्य देखने लगा। बड़ी उदास-सी शाम थी। सड़क भी बिल्कुल सूनी थी, सिर्फ दो-एक साइकिल-सवार लू से बचने के लिए कानों पर तौलिया लपेटे हुए चले जा रहे थे। एक बर्फ का ठेला भी चला जा रहा था। 

”जाओ, बर्फ ले आओ?” चंदर ने माली को पैसे देते हुए कहा। 

माली ने ठेलावाले को बुलाया। ठेलावाला आकर फाटक पर रुक गया। माली बर्फ तुड़वा ही रहा था कि एक रिक्शा, जिस पर परदा बँधा था, वह भी फाटक के पास मुड़ा और ठेले के पास आकर रुक गया। ठेलावाले ने ठेला पीछे किया। रिक्शा अन्दर आया। रिक्शा में कोई परदानशीन औरत बैठी थी, लेकिन रिक्शा के साथ कोई नहीं था, चंदर को ताज्जुब हुआ, कौन परदानशीन यहाँ आ सकती है! रिक्शा से एक लड़की उतरी, जिसे चंदर नहीं जानता था, लेकिन बाहर का परदा जितना गन्दा और पुराना था, लड़की की पोशाक उतनी ही साफ और चुस्त। वह सफेद रेशम की सलवार, सफेद रेशम का चुस्त कुरता और उस पर बहुत हल्के शरबती फालसई रंग की चुन्नी ओढ़े हुई थी। वह उतरी और रिक्शावाले से बोली, ”अब घंटे भर में आकर मुझे ले जाना।” रिक्शावाला सिर हिलाकर चल दिया और वह सीधे अन्दर चल दी। चंदर को बड़ा अचरज हुआ। यह कौन हो सकती है जो इतनी बेतकल्लुफी से अन्दर चल दी। उसने सोचा, शायद शरणार्थियों के लिए चन्दा माँगने वाली कोई लड़की हो। मगर अन्दर तो कोई है ही नहीं! उसने चाहा कि रोक दे फिर उसने नहीं रोका। सोचा, खुद ही अन्दर खाली देखकर लौट आएगी।

माली बर्फ लेकर आया और अन्दर चला गया। वह लड़की लौटी। उसके चेहरे पर कुछ आश्चर्य और कुछ चिन्ता की रेखाएँ थीं। अब चंदर ने उसे देखा। एक साँवली लड़की थी, कुछ उदास, कुछ बीमार-सी लगती थी। आँखें बड़ी-बड़ी लगती थीं जो रोना भूल चुकी हैं और हँसने में भी अशक्त हैं। चेहरे पर एक पीली छाँह थी। ऐसा लगता था, देखने ही से कि लड़क़ी दु:खी है पर अपने को सँभालना जानती है।

वह आयी और बड़ी फीकी मुस्कान के साथ, बड़ी शिष्टता के स्वर में बोली, चंदर भाई, सलाम! सुधा क्या ससुराल में है?”

चंदर का आश्चर्य और भी बढ़ गया। यह तो चंदर को जानती भी है!

”जी हाँ, वह ससुराल में है। आप…”

”और बिनती कहाँ है?” लड़की ने बात काटकर पूछा।

”बिनती दिल्ली में है।”

”क्या उसकी भी शादी हो गयी?”

”जी नहीं, डॉक्टर साहब आजकल दिल्ली में हैं। वह उन्हीं के पास पढ़ रही है। बैठ तो जाइए!” चंदर ने कुर्सी खिसकाकर कहा।

”अच्छा, तो आप यहीं रहते हैं अब? नौकर हो गये होंगे?”

”जी हाँ!” चंदर ने अचरज में डूबकर कहा, ”लेकिन आप इतनी जानकारी और परिचय की बातें कर रही हैं, मैंने आपको पहचाना नहीं, क्षमा कीजिएगा…”

वह लड़की हँसी, जैसे अपनी किस्मत, जिंदगी, अपने इतिहास पर हँस रही हो।

”आप मुझको कैसे पहचान सकते हैं? मैं जरूर आपको देख चुकी थी। मेरे-आपके बीच में दरअसल एक रोशनदान था, मेरा मतलब सुधा से है!”

”ओह! मैं समझा, आप गेसू हैं!”

”जी हाँ!” और गेसू ने बहुत तमीज से अपनी चुन्नी ओढ़ ली।

”आप तो शादी के बाद जैसे बिल्कुल खो ही गयीं। अपनी सहेली को भी एक खत नहीं लिखा। अख्तर मियाँ मजे में हैं?”

”आपको यह सब कैसे मालूम?” बहुत आकुल होकर गेसू बोली और उसकी पीली आँखों में और भी मैलापन आ गया।

”मुझे सुधा से मालूम हुआ था। मैं तो उम्मीद कर रहा था कि आप हम लोगों को एक दावत जरूर देंगी। लेकिन कुछ मालूम ही नहीं हुआ। एक बार सुधाजी ने मुझे आपके यहाँ भेजा, तो मालूम हुआ कि आप लोगों ने मकान ही छोड़ दिया है।”

”जी हाँ, मैं देहरादून में थी। अम्मीजान वगैरह सभी वहीं थीं। अभी हाल में वहाँ कुछ पनाहगीर पहुँचे…”

”पनाहगीर?”

”जी, पंजाब के सिख वगैरह। कुछ झगड़ा हो गया तो हम लोग चले आये। अब हम लोग यहीं हैं।”

”अख्तर मियाँ कहाँ हैं?”

”मिरजापुर में पीतल का रोजगार कर रहे हैं!”

”और उनकी बीवी देहरादून में थी। यह सजा क्यों दी आपने उन्हें?”

”सजा की कोई बात नहीं।” गेसू का स्वर घुटता हुआ-सा मालूम दे रहा था। ”उनकी बीवी उनके साथ है।”

”क्या मतलब? आप तो अजब-सी बातें कर रही हैं। अगर मैं भूल नहीं करता तो आपकी शादी…”

”जी हाँ!” बड़ी ही उदास हँसी हँसकर गेसू बोली, ”आपसे चन्दर भाई, मैं क्या छिपाऊँगी, जैसे सुधा वैसे आप! मेरी शादी उनसे नहीं हुई!”

”अरे! गुस्ताखी माफ कीजिएगा, सुधा तो मुझसे कह रही थी कि अख्तर…”

”मुझसे मुहब्बत करते हैं!” गेसू बात काटकर बोली और बड़ी गम्भीर हो गयी और अपनी चुन्नी के छोर में टँके हुए सितारे को तोड़ती हुई बोली, ”मैं सचमुच नहीं समझ पायी कि उनके मन में क्या था। उनके घरवालों ने मेरे बजाय फूल को ज्यादा पसन्द किया। उन्होंने फूल से ही शादी कर ली। अब अच्छी तरह निभ रही है दोनों की। फूल तो इतने अरसे में एक बार भी हम लोगों से मिलने नहीं आयी!”

”अच्छा…” चंदर चुप होकर सोचने लगा। कितनी बड़ी प्रवंचना हुई इस लड़की की जिंदगी में! और कितने दबे शब्दों में यह कहकर चुप हो गयी! एक भी आँसू नहीं, एक भी सिसकी नहीं। संयत स्वर और फीकी मुस्कान, बस। चंदर चुपचाप उठकर अन्दर गया। महराजिन आ गयी थी। कुछ नाश्ता और शरबत भेजने के लिए कहकर चन्दर बाहर आया। गेसू चुपचाप लॉन की ओर देख रही थी, शून्य निगाहों से। चंदर आकर बैठ गया और बोला-”बहुत धोखा दिया आपको!”

”छिह! ऐसी बात नहीं कहते, चंदर भाई! कौन जानता है कि यह अख्तर की मजबूरी रही हो! जिसको मैंने अपना सरताज माना उसके लिए ऐसा खयाल भी दिल में लाना गुनाह है। मैं इतनी गिरी हुई नहीं कि यह सोचूँ कि उन्होंने धोखा दिया!” गेसू दाँत तले जबान दबाकर बोली।

चंदर दंग रह गया। क्या गेसू अपने दिल से कह रही है? इतना अखंड विश्वास है गेसू को अख्तर पर! शरबत आ गया था। गेसू ने तकल्लुफ नहीं किया। लेकिन बोली, ”आप बड़े भाई हैं। पहले आप शुरू कीजिए।”

”आपकी फिर कभी अख्तर से मुलाकात नहीं हुई?” चंदर ने एक घूँट पीकर कहा।

”हुई क्यों नहीं? कई बार वह अम्मीजान के पास आये।”

”आपने कुछ नहीं कहा?”

”कहती क्या? यह सब बातें कहने-सुनने की होती हैं! और फिर फूल वहाँ आराम से है, अख्तर भी फूल को जान से ज्यादा प्यार से रखते हैं, यही मेरे लिए बहुत है। और अब कहकर क्या करूँगी! जब फूल से शादी तय हुई और वे राजी हो गये, तभी मैंने कुछ नहीं कहा, अब तो फूल की माँग, फूल का सुहाग मेरे लिए सुबह की अजान से ज्यादा पाक है।” गेसू ने शरबत में निगाहें डुबाये हुए कहा। चंदर क्षण-भर चुप रहा फिर बोला-

”अब आपकी शादी अम्मीजान कब कर रही हैं?”

”कभी नहीं! मैंने कस्द कर लिया है कि मैं शादी ताउम्र नहीं करूँगी। देहरादून के मैटर्निटी सेंटर में काम सीख रही थी। कोर्स पूरा हो गया। अब किसी अस्पताल में काम करूँगी।”

”आप…!”

”क्यों, आपको ताज्जुब क्यों हुआ? मैंने अम्मीजान को इस बात के लिए राजी कर लिया है। मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूँ।”

चंदर ने शरबत से बर्फ निकालकर फेंकते हुए कहा-

”मैं आपकी जगह होता, तो दूसरी शादी करता और अख्तर से भरसक बदला लेता!”

”बदला!” गेसू मुस्कराकर बोली, ”छिह, चंदर भाई! बदला, गुरेज, नफरत इससे आदमी न कभी सुधरा है न सुधरेगा। बदला और नफरत तो अपने मन की कमजोरी को जाहिर करते हैं। और फिर बदला मैं लूँ किससे? उससे, दिल की तनहाइयों में मैं जिसके सजदे पड़ती हूँ। यह कैसे हो सकता है?”

गेसू के माथे पर विश्वास का तेज दमक उठा, उसकी बीमार आँखों में धूप लहलहा उठी और उसका कंचनलता-सा तन जगमगाने लगा। कुछ ऐसी दृढ़ता थी उसकी आवाज में, ऐसी गहराई थी उसकी ध्वनि में कि चंदर देखता ही रह गया। वह जानता था कि गेसू के दिल में अख्तर के लिए कितना प्रेम था, वह यह भी जानता था कि गेसू अख्तर की शादी के लिए किस तरह पागल थी। वह सारा सपना ताश के महल की तरह गिर गया। और परिस्थितियों ने नहीं, खुद अख्तर ने धोखा दिया, लेकिन गेसू है कि माथे पर शिकन नहीं, भौंहों में बल नहीं, होठों पर शिकायत नहीं। नारी के जीवन का यह कैसा अमिट विश्वास था! यानी जिसे गेसू ने अपने प्रेम का स्वर्णमन्दिर समझा था, वह ज्वालामुखी बनकर फूट गया और उसने दर्द की पिघली आग की धारा में गेसू को डुबो देने की कोशिश की लेकिन गेसू है कि अटल चट्टान की तरह खड़ी है।

चंदर के मन में कहीं कोई टीस उठी। उसके दिल की धडक़नों ने कहीं पर उससे पूछा। ‘…और चंदर, तुमने क्या किया? तुम पुरुष थे। तुम्हारे सबल कंधे किसी के प्यार का बोझ क्यों नहीं ढो पाये, चंदर?’ लेकिन चंदर ने अपनी अन्त:करण की आवाज को अनसुनी करते हुए पूछा- ”तो आपके मन में जरा भी दर्द नहीं अख्तर को न पाने का?”

”दर्द?” गेसू की आवाज डूबने लगी, निगाहों की जर्द पाँखुरियों पर हल्की पानी की लहर दौड़ गयी-”दर्द, यह तो सिर्फ सुधा समझ सकती है, चंदर भाई! बचपन से वह मेरे लिए क्या थे, यह वही जानती है। मैं तो उनका सपना देखते-देखते उनका सपना ही बन गयी थी, लेकिन खैर दर्द इंसान के यकीदे को और मजबूत न कर दे, आदमी के कदमों को और ताकत न दे, आदमी के दिल को ऊँचाई न दे, तो इंसान क्या? दर्द का हाल पूछते हैं आप! कयामत के रोज तक मेरी मय्यत उन्हीं का आसरा देखेगी, चंदर भाई! लेकिन इसके लिए जिंदगी में तो खामोश ही रहना होगा। बंद घर में जलते हुए चिराग की तरह घुलना होगा। और अगर मैंने उनको अपना माना है, तो वह मिलकर ही रहेंगे। आज न सही कयामत के बाद सही। मुहब्बत की दुनिया में जैसे एक दिन उनके बिना कट जाता है वैसे एक जिंदगी उनके बिना कट जाएगी…लेकिन उसके बाद वे मेरे होकर रहेंगे।”

चंदर का दिल काँप उठा। गेसू की आवाज में तारे बरस रहे थे…

”और आपसे क्या कहूँ, चंदर भाई! क्या आपकी बात मुझसे छिपी है? मैं जानती हूँ। सबकुछ जानती हूँ। सच पूछिए तो जब मैंने देखा कि आप कितनी खामोशी से अपनी दुनिया में आग लगते देख रहे हैं, और फिर भी हँस रहे हैं, तो मैंने आपसे सबक लिया। हमें नहीं मालूम था कि हम और आप, दोनों भाई-बहनों की किस्मत एक-सी है।”

चंदर के मन में जाने कितने घाव कसक उठे। उसके मन में जाने कितना दर्द उमड़ने-सा लगा। गेसू उसे क्या समझ रही है मन में और वह कहाँ पहुँच चुका है! जिसने चंदर की जिंदगी से अपने मन का दीप जलाया, वह आज देवता के चरण तक पहुँच गया, लेकिन चंदर के मन की दीपशिखा? उसने अपने प्यार की चिता जला डाली। चंदर के मुँह पर ग्लानि की कालिमा छा गयी। गेसू चुपचाप बैठी थी। सहसा बोली, चंदर भाई, आपको याद है, पिछले साल इन्हीं दिनों मैं सुधा से मिलने आयी थी और हसरत आपको मेरा सलाम कहने गया था?”

”याद हैï!” चंदर ने बहुत भारी स्वर में कहा।

”इस एक साल में दुनिया कितनी बदल गयी!” गेसू ने एक गहरी साँस लेकर कहा, ”एक बार ये दिन चले जाते हैं, फिर बेदर्द कभी नहीं लौटते! कभी-कभी सोचती हूँ कि सुधा होती तो फिर कॉलेज जाते, क्लास में शोर मचाते, भागकर घास में लेटते, बादलों को देखते, शेर कहते और वह चंदर की और हम अख्तर की बातें करते…” गेसू का गला भर आया और एक आँसू चू पड़ा… ”सुधा और सुधा की ब्याह-शादी का हाल बताइए। कैसे हैं उनके शौहर?”

चंदर के मन में आया कि वह कह दे, गेसू, क्यों लज्जित करती हो! मैं वह चंदर नहीं हूँ। मैंने अपने विश्वास का मन्दिर भ्रष्ट कर दिया…मैं प्रेत हूँ…मैंने सुधा के प्यार का गला घोंट दिया है…लेकिन पुरुष का गर्व! पुरुष का छल! उसे यह भी नहीं मालूम होने दिया कि उसका विश्वास चूर-चूर हो चुका है और पिछले कितने ही महीनों से उसने सुधा को खत लिखना भी बन्द कर दिया है और यह भी नहीं मालूम करने का प्रयास किया कि सुधा मरती है या जीती!

घंटा-भर तक दोनों सुधा के बारे में बातें करते रहे। इतने में रिक्शावाला लौट आया। गेसू ने उसे ठहरने का इशारा किया और बोली, ”अच्छा, जरा सुधा का पता लिख दीजिए।” चंदर ने एक कागज पर पता लिख दिया। गेसू ने उठने का उपक्रम किया, तो चंदर बोला, ”बैठिए अभी, आपसे बातें करके आज जाने कितने दिनों की बातें याद आ रही हैं!”

गेसू हँसी और बैठ गयी। चंदर बोला, ”आप अभी तक कविताएँ लिखती हैं?”

”कविताएँ…” गेसू फिर हँसी और बोली, ”जिंदगी कितनी हमगीर है, कितनी पुरशोर, और इस शोर में नगमों की हकीकत कितनी! अब हड्डियाँ, नसें, प्रेशर-प्वाइंट, पट्टियाँ और मरहमों में दिन बीत जाता है। अच्छा चन्दर भाई, सुधा अभी उतनी ही शोख है? उतनी ही शरारती है!”

”नहीं।” चंदर ने बहुत उदास स्वर में कहा, ”जाओ, कभी देख आओ न!”

”नहीं, जब तक कहीं जगह नहीं मिल जाती, तब तक तो इतनी आजादी नहीं मिलेगी। अभी यहीं हूँ। उसी को बुलवाऊँगी और उसके पति देवता को लिखूँगी। कितना सूना लग रहा है घर जैसे भूतों का बसेरा हो। जैसे परेत रहते हों!”

”क्यों ‘परेत’ बना रही हैं आप? मैं रहता हूँ इसी घर में।” चंदर बोला।

”अरे, मेरा मतलब यह नहीं था!” गेसू हँसते हुए बोली, ”अच्छा, अब मुझे तो अम्मीजान नहीं भेजेंगी, आज जाने कैसे अकेले आने की इजाजत दे दी। आपको किसी दिन बुलवाऊँ तो आइएगा जरूर!”

”हाँ, आऊँगा गेसू, जरूर आऊँगा!” चंदर ने बहुत स्नेह से कहा।

”अच्छा भाईजान, सलाम!”

”नमस्ते!”

गेसू जाकर रिक्शा पर बैठ गयी और परदा तन गया। रिक्शा चल दिया। चंदर एक अजीब-सी निगाह से देखता रहा, जैसे अपने अतीत की कोई खोयी हुई चीज ढूँढ़ रहा हो, फिर धीरे-धीरे लौट आया। सूरज डूब गया था। वह गुसलखाना बन्द कर नहाने बैठ गया। जाने कहाँ-कहाँ मन भटक रहा था उसका। चंदर मन का अस्थिर था, मन का बुरा नहीं था। गेसू ने आज उसके सामने अचानक वह तस्वीर रख दी थी जिसमें वह स्वर्ग की ऊँचाइयों पर मँडराया करता था। और जाने कैसा दर्द-सा उसके मन में उठ गया था, गेसू ने अपने अजाने में ही चंदर के अविश्वास, चंदर की प्रतिहिंसा को बहुत बड़ी हार दी थी। उसने सिर पर पानी डाला, तो उसे लगा यह पानी नहीं है जिंदगी की धारा है, पिघले हुए अंगारों की धारा, जिसमें पड़कर केवल वही जिन्दा बच पाया है, जिसके अंगों में प्यार का अमृत है। और चंदर के मन में क्या है? महज वासना का विष…वह सड़ा हुआ, गला हुआ शरीर मात्र, जो केवल सन्निपात के जोर से चल रहा है। उसने अपने मन के अमृत को गली में फेंक दिया है…उसने क्या किया है?

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