चैप्टर 20 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 20 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 20 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास,  Chapter 20 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online, Dharmveer Bharti Ka Upanyas 

Chapter 20 Gunahon Ka Devta Novel

Chapter 20 Gunahon Ka Devta Novel

दूसरे दिन बिनती उठी और महराजिन के आने के पहले ही उसने चूल्हा जलाकर चाय चढ़ा दी। थोड़ी देर में चाय बनाकर और टोस्ट भूनकर वह डॉक्टर साहब के सामने रख आयी। डॉक्टर साहब कल की बातों से बहुत ही व्यथित थे। रात को भी उन्होंने खाना नहीं खाया था, इस वक्त भी उन्होंने मना कर दिया। बिनती चंदर के कमरे में गयी, चंदर, मामाजी ने कल रात को भी कुछ नहीं खाया, तुमने भी नहीं खाया, चलो चाय पी लो!”

चंदर ने भी मना किया, तो बिनती बोली, ”तुम पी लोगे, तो मामाजी भी शायद पी लें।” चंदर चुपचाप गया। बिनती थोड़ी देर में गयी, तो देखा दोनों चाय पी रहे हैं। वह आकर मेवा निकालने लगी।

चाय पीते-पीते डॉक्टर साहब ने कहा, चंदर, यह पास-बुक लो। पाँच सौ निकाल लो और दो हजार का हिसाब अलग करवा दो।…अच्छा देखो, मैं तो चला जाऊँगा दिल्ली, बिनती को शाहजहाँपुर भेजना ठीक नहीं है। वहाँ चार रिश्तेदार हैं, बीस तरह की बातें होंगी। लेकिन मैं चाहता हूँ अब आगे जब तक यह चाहे, पढ़े! अगर कहो तो यहाँ छोड़ जाऊँ, तुम पढ़ाते रहना!”

बिनती आ गयी और तश्तरी में भुना मेवा रखकर उसमें नमक मिला रही थी। चंदर ने एक स्लाइस उठायी और उस पर नमक लगाते हुए बोला, ”वैसे आप यहाँ छोड़ जाएं, तो कोई बात नहीं है, लेकिन अकेले घर में अच्छा नहीं लगता। दो-एक रोज की बात दूसरी होती है। एकदम से साल-भर के लिए…आप समझ लें।”

”हाँ बेटा, कहते तो तुम ठीक हो! अच्छा, कॉलेज के होस्टल में अगर रख दिया जाए!” डॉक्टर साहब ने पूछा।

”मैं लड़कियों को होस्टल में रखना ठीक नहीं समझता हूँ।” चंदर बोला, ”घर के वातावरण और वहाँ के वातावरण में बहुत अन्तर होता है।”

”हाँ, यह भी ठीक है। अच्छा तो इस साल मैं इसे दिल्ली लिये जा रहा हूं। अगले साल देखा जाएगा… चंदर, इस महीने-भर में मेरा सारा विश्वास हिल गया। सुधा का विवाह कितनी अच्छी जगह किया गया, मगर सुधा पीली पड़ गयी है। कितना दु:ख हुआ देखकर! और बिनती के साथ यह हुआ! सचमुच यह जाति, विवाह सभी परम्पराएँ बहुत ही बुरी हैं। बुरी तरह सड़ गयी हैं। उन्हें तो काट फेंकना चाहिए। मेरा तो वैसे इस अनुभव के बाद सारा आदर्श ही बदल गया।”

चंदर बहुत अचरज से डॉक्टर साहब की ओर देखने लगा। यही जगह थी, इसी तरह बैठकर डॉक्टर साहब ने जाति-बिरादरी, विवाह आदि सामाजिक परम्पराओं की कितनी प्रशंसा की थी! जिंदगी की लहरों ने हर एक को दस महीने में कहाँ से कहाँ लाकर पटक दिया है। डॉक्टर साहब कहते गये…”हम लोग जिंदगी से दूर रहकर सोचते हैं कि हमारी सामाजिक संस्थाएँ स्वर्ग हैं, यह तो जब उनमें धँसो तब उनकी गंदगी मालूम होती है। चंदर, तुम कोई गैर जात का अच्छा-सा लड़का ढूँढ़ो। मैं बिनती की शादी दूसरी बिरादरी में कर दूँगा।”

बिनती, जो और चाय ला रही थी, फौरन बड़े दृढ़ स्वर में बोली, ”मामाजी, आप जहर दे दीजिए, लेकिन मैं शादी नहीं करूँगी। क्या आपको मेरी दृढ़ता पर विश्वास नहीं?”

”क्यों नहीं, बेटी! अच्छा, जब तक तेरी इच्छा हो, पढ़!”

दूसरे दिन डॉक्टर साहब ने बुआजी को बुलाया और रुपये दे दिये।

”लो, यह पाँच सौ पहले खर्चे के हैं और दो हजार में से तुम्हें धीरे-धीरे मिलता रहेगा।”

दो-तीन दिन के अन्दर बुआ ने जाने की सारी तैयारी कर ली, लेकिन तीन दिन तक बराबर रोती रहीं। उनके आँसू थमे नहीं। बिनती चुप थी। वह भी कुछ नहीं बोली, चौथे दिन जब वह सामान मोटर पर रखवा चुकीं तो उन्होंने चन्दर से बिनती को बुलवाया। बिनती आयी तो उन्होंने उसे गले से लगा लिया-और बेहद रोयीं। लेकिन डॉक्टर साहब को देखते ही फिर बोल उठीं-”हमरी लड़की का दिमाग तुम ही बिगाड़े हो। दुनिया में भाइयौ अपना नै होत। अपनी लड़की को बिया दियौ! हमरी लड़की…” फिर बिनती को चिपटाकर रोने लगीं।

चंदर चुपचाप खड़ा सोच रहा था, अभी तक बिनती खराब थी। अब डॉक्टर साहब खराब हो गये। बुआ ने रुपये सँभालकर रख लिये और मोटर पर बैठ गयीं। समस्त लांछनों के बावजूद डॉक्टर साहब उन्हें पहुँचाने स्टेशन तक गये।

बिनती बहुत ही चुप-सी हो गयी थी। वह किसी से कुछ नहीं बोलती और चुपचाप काम किया करती थी। जब काम से फुरसत पा लेती, तो सुधा के कमरे में जाकर लेट जाती और जाने क्या सोचा करती। चंदर को बड़ा ताज्जुब होता था बिनती को देखकर। जब बिनती खुश थी, बोलती-चालती थी तो चंदर बिनती से चिढ़ गया था, लेकिन बिनती के जीवन का यह नया रूप देखकर पहले की सभी बातें भूल गया। और उससे फिर बात करने की कोशिश करने लगा। लेकिन बिनती ज्यादा बोलती ही नहीं।

एक दिन दोपहर को चंदर यूनिवर्सिटी से लौटकर आया और उसने रेडियो खोल दिया। बिनती एक तश्तरी में अमरूद काटकर ले आयी और रखकर जाने लगी। ”सुनो बिनती, क्या तुमने मुझे माफ नहीं किया? मैं कितना व्यथित हूँ, बिनती! अगर तुमको भूल से कुछ कह दिया, तो तुम उसका इतना बुरा मान गयीं कि दो-तीन महीने बाद भी नहीं भूलीं!”

”नहीं, बुरा मानने की क्या बात है, चंदर!” बिनती एक फीकी हँसी-हँसकर बोली, ”आखिर नारी का भी एक स्वाभिमान है, मुझे माँ बचपन से कुचलती रही, मैंने तुम्हें दीदी से बढ़ कर माना। तुम भी ठोकरें लगाने से बाज नहीं आये, फिर भी मैं सब सहती गयी। उस दिन जब मंडप के नीचे मामाजी ने जबरदस्ती हाथ पकड़कर खड़ा कर दिया, तो मुझे उसी क्षण लगा कि मुझमें भी कुछ सत्व है, मैं इसीलिए नहीं बनी हूँ कि दुनिया मुझे कुचलती ही रहे। अब मैं विरोध करना, विद्रोह करना भी सीख गयी हूँ। जिंदगी में स्नेह की जगह है, लेकिन स्वाभिमान भी कोई चीज है। और तुम्हें अपनी जिंदगी में किसी की जरूरत भी तो नहीं है!” कहकर बिनती धीरे-धीरे चली गयी।

अपमान से चंदर का चेहरा काला पड़ गया। उसने रेडियो बन्द कर दिया और तश्तरी उठाकर नीचे रख दी और बिना कपड़े बदले पम्मी के यहाँ चल दिया।

मनुष्य का एक स्वभाव होता है। जब वह दूसरे पर दया करता है, तो वह चाहता है कि याचक पूरी तरह विनम्र होकर उसे स्वीकार करे। अगर याचक दान लेने में कहीं भी स्वाभिमान दिखलाता है, तो आदमी अपनी दानवृत्ति और दयाभाव भूलकर नृशंसता से उसके स्वाभिमान को कुचलने में व्यस्त हो जाता है। आज हफ्तों के बाद चंदर के मन में बिनती के लिए कुछ स्नेह, कुछ दया जागी थी, बिनती को उदास मौन देखकर; लेकिन बिनती के इस स्वाभिमान-भरे उत्तर ने फिर उसके मन का सोया हुआ साँप जगा दिया था। वह इस स्वाभिमान को तोड़कर रहेगा, उसने सोचा।

पम्मी के यहाँ पहुँचा, तो अभी धूप थी। जेनी कहीं गयी थी, बर्टी अपने तोते को कुछ खिला रहा था। कपूर को देखते ही हँसकर अभिवादन किया और बोला, ”पम्मी अन्दर है!” 

वह सीधा अन्दर चला गया। पम्मी अपने शयन-कक्ष में बैठी हुई थी। कमरे में लम्बी-लम्बी खिड़कियाँ थीं, जिनमें लकड़ी के चौखटों में रंग-बिरंगे शीशे लगे हुए थे। खिड़कियाँ बन्द थीं और सूरज की किरणें इन शीशों पर पड़ रही थीं और पम्मी पर सातों रंग की छायाएँ खेल रही थीं। वह झुकी हुई सोफे पर अधलेटी कोई किताब पढ़ रही थी। चंदर ने पीछे से जाकर उसकी आँखें बन्द कर लीं और बगल में बैठ गया।

”कपूर!” अपनी सुकुमार अँगुलियों से चंदर के हाथ को आँखों पर से हटाते हुए पम्मी बोली और पलकों में बेहद नशा भरकर सोनजुही की मुस्कान बिखेरकर चंदर को देखने लगी। चंदर ने देखा, वह ब्राउनिंग की कविता पढ़ रही थी। वह पास बैठ गया।

पम्मी ने उसे अपने वक्ष पर खींच लिया और उसके बालों से खेलने लगी। चंदर थोड़ी देर चुप लेटा रहा, फिर पम्मी के गुलाबी होठों पर अँगुलियाँ रखकर बोला, ”पम्मी, तुम्हारे वक्ष पर सिर रखकर मैं जाने क्यों सबकुछ भूल जाता हूँ? पम्मी, दुनिया वासना से इतना घबराती क्यों है? मैं ईमानदारी से कहता हूँ कि अगर किसी को वासनाहीन प्यार करके, किसी के लिए त्याग करके मुझे जितनी शान्ति मिलती है, पता नहीं क्यों मांसलता में भी उतनी ही शान्ति मिलती है। ऐसा लगता है कि शरीर के विकार अगर आध्यात्मिक प्रेम में जाकर शान्त हो जाते हैं, तो लगता है आध्यात्मिक प्रेम में प्यासे रह जाने वाले अभाव फिर किसी के मांसल-बन्धन में ही आकर बुझ पाते हैं। कितना सुख है तुम्हारी ममता में!”

”शी!” चंदर के होठों को अपनी अँगुलियों से दबाती हुई पम्मी बोली, ”चरम शान्ति के क्षणों को अनुभव किया करो। बोलते क्यों हो?”

चंदर चुप हो गया। चुपचाप लेट रहा।

पम्मी की केसर श्वासें उसके माथे को रह-रहकर चूम रही थीं और चंदर के गालों को पम्मी के वक्ष में धड़कता हुआ संगीत गुदगुदा रहा था। चंदर का एक हाथ पम्मी के गले में पड़ी इमीटेशन हीरे की माला से खेलने लगा। सारस के पंखों से भी ज्यादा मुलायम सुकुमार गरदन से छूटने पर अँगुलियाँ लाजवन्ती की पत्तियों की तरह सकुचा जाती थीं। माला खोल ली और उसे उतारकर अपने हाथ में ले लिया। पम्मी ने माला लेने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि गले के बटन टच-से टूट गये…बर्फानी चाँदनी उफनकर छलक पड़ी। चंदर को लगा उसके गालों के नीचे बिजलियों के फूल सिहर उठे हैं और एक मदमाता नशा टूटते हुए सितारों की तरह उसके शरीर को चीरता हुआ निकल गया। वह काँप उठा, सचमुच काँप उठा। नशे में चूर वह उठकर बैठ गया और उसने पम्मी को अपनी गोद में डाल लिया। पम्मी अनंग के धनुष की प्रत्यंचा की तरह दोहरी होकर उसकी गोद में पड़ रही। तरुणाई का चाँद टूटकर दो टुकड़े हो गया था और वासना के तूफान ने झीने बादल भी हटा दिये थे। जहरीली चाँदनी ने नागिन बनकर चंदर को लपेट लिया। चंदर ने पागल होकर पम्मी को अपनी बाँहों में कस लिया, इतनी प्यास से लगा कि पम्मी का दीपशिखा-सा तन चंदर के तन में समा जाएगा। पम्मी निश्चेष्ट आँखें बन्द किये थी, लेकिन उसके गालों पर जाने क्या खिल उठा था! चंदर के गले में उसने मृणाल-सी बाँहें डाल दी थीं। चंदर ने पम्मी के होठों को जैसे अपने होंठों में समेट लेना चाहा…इतनी आग…इतनी आग…नशा…

”ठाँय!” सहसा बाहर बन्दूक की आवाज हुई। चंदर चौंक उठा। उसने अपने बाहुपाश ढीले कर दिये। लेकिन पम्मी उसके गले में बाँहें डाले बेहोश पड़ी थी। चंदर ने क्षण-भर पम्मी के भरपूर रूप यौवन को आँखों से पी लेना चाहा। पम्मी ने अपनी बाँहें हटा लीं और नशे में मखमूर-सी चंदर की गोद से एक ओर लुढ़क गयी। उसे अपने तन-बदन का होश नहीं था। चंदर ने उसके वस्त्र ठीक किये और फिर झुककर उसकी नशे में चूर पलकें चूम लीं।

”ठाँय!” बन्दूक की दूसरी आवाज हुई। चंदर घबराकर उठा।

”यह क्या है, पम्मी?”

”होगा कुछ, जाओ मत।” अलसायी हुई नशीली आवाज में पम्मी ने कहा और उसे फिर खींचकर बिठा लिया। और फिर बाँहों में उसे समेटकर उसका माथा चूम लिया।

”ठाँय!” फिर तीसरी आवाज हुई।

चंदर उठ खड़ा हुआ और जल्दी से बाहर दौड़ गया। देखा बर्टी की बन्दूक बरामदे में पड़ी है, और वह पिंजड़े के पास मरे हुए तोते का पंख पकडक़र उठाये हुए है। उसके घावों से बर्टी के पतलून पर खून चू रहा था। चंदर को देखते ही बर्टी हँस पड़ा, ”देखा! तीन गोली में इसे बिल्कुल मार डाला, वह तो कहो सिर्फ एक ही लगी वरना…” और पंख पकड़कर तोते की लाश को झुलाने लगा।

”छिह! फेंको उसे; हत्यारे कहीं के! मार क्यों डाला उसे?” चंदर ने कहा।

”तुमसे मतलब! तुम कौन होते हो पूछने वाले? मैं प्यार करता था उसे, मैंने मार डाला!” बर्टी बोला और आहिस्ते से उसे एक पत्थर पर रख दिया। रूमाल निकालकर फाड़ डाला। आधा रूमाल उसके नीचे बिछा दिया और आधे से उसका खून पोंछने लगा। फिर चंदर के पास आया। चंदर के कन्धे पर हाथ रखकर बोला, ”कपूर! तुम मेरे दोस्त हो न! जरा रूमाल दे दो।” और चंदर का रूमाल लेकर तोते के पास खड़ा हो गया। बड़ी हसरत से उसकी ओर देखता रहा। फिर झुककर उसे चूम लिया और उस पर रूमाल ओढ़ा दिया। और बड़े मातम की मुद्रा में उसी के पास सिर झुकाकर बैठ गया।

”बर्टी, बर्टी, पागल हो गये क्या?” चंदर ने उसका कन्धा पकड़ाकर हिलाते हुए कहा, ”यह क्या नाटक हो रहा है?”

बर्टी ने आँखें खोलीं और चंदर को भी हाथ पकड़ कर वहीं बिठा लिया और बोला, ”देखो कपूर, एक दिन तुम आये थे, तो मैंने तोता और जेनी दोनों को दिखाकर कहा था कि जेनी से मैं नफरत करता हूँ, उससे शादी कर लूँगा और तोते से मैं प्यार करता हूँ, इसे मार डालूँगा। कहा था कि नहीं? कहो हाँ।”

”हाँ, कहा था।” चंदर बोला, ”लेकिन क्यों कहा था?”

”हाँ, अब पूछा तुमने! तुम पूछोगे ‘मैंने क्यों मार डाला’ तो मैं कहूँगा कि इसे अब मर जाना चाहिए था, इसलिए इसे मार डाला। तुम पूछोगे, ‘इसे क्यों मर जाना चाहिए?’ तो मैं कहूँगा, ‘जब कोई जीवन की पूर्णता पर पहुँचा जाता है तो उसे मर जाना चाहिए। अगर वह अपनी जिंदगी का लक्ष्य पूरा कर चुका है और नहीं मरता तो यह उसका अन्याय है। वह अपनी जिंदगी का लक्ष्य पूरा कर चुका था, फिर भी नहीं मरता था। मैं इसे प्यार करता था लेकिन यह अन्याय नहीं सह सकता था, अत: मैंने इसे मार डाला!”

”अच्छा, तो तुम्हारे तोते की भी जिंदगी का कोई लक्ष्य था?”

”हरेक की जिदगी का लक्ष्य होता है। और वह लक्ष्य होता है सत्य को, चरम सत्य को जान जाना। वह सत्य जान लेने के बाद आदमी अगर जिन्दा रहता है, तो उसकी यह असीम बेहयाई है। मैंने इसे वह सत्य सिखा दिया। फिर भी यह नहीं मरा तो मैंने मार डाला। फिर तुम पूछोगे कि वह चरम सत्य क्या है? वह सत्य है कि मौत आदमी के शरीर की हत्या करती है। और आदमी की हत्या गला घोंट देती है। मसलन तुम अगर किसी औरत के पास जा रहे हो या किसी औरत के पास से आ रहे हो। और सम्भव है उसने तुम्हारी आत्मा की हत्या कर डाली हो…”

”ऊँह! अब तुम जल्दी ही पूरे पागल हो जाओगे?” चंदर ने कहा और फिर वह पम्मी के पास लौट गया। पम्मी उसी तरह मदहोश लेटी थी। उसने जाते ही फिर बाँहें फैलाकर चंदर को समेट लिया और चंदर उसके वक्ष की रेशमी गरमाई में डूब गया।

जब वह लौटा, तो बर्टी हाथ में खुरपा लिये एक गड्ढा बन्द कर रहा था, ”सुनो, कपूर! यहाँ मैने उसे गाड़ दिया। यह उसकी समाधि है। और देखो, आते-आते यहाँ सिर झुका देना। वह बेचारा जीवन का सत्य जान चुका है। समझ लो वह सेंट पैरट (सन्त शुकदेव) हो गया है!”

”अच्छा, अच्छा!” चंदर सिर झुकाकर हँसते हुए आगे बढ़ा।

”सुनो, रुको कपूर!” फिर बर्टी ने पुकारा और पास आकर चंदर के कन्धे पर हाथ रखकर बोला, ”कपूर, तुम मानते हो कि नहीं कि पहले मैं एक असाधारण आदमी था।”

”अब भी हो।” चंदर हँसते हुए बोला।

”नहीं, अब मैं असाधारण नहीं हूँ, कपूर! देखो, तुम्हें आज रहस्य बताऊँ। वही आदमी असाधारण होता है जो किसी परिस्थिति में किसी भी तथ्य को स्वीकार नहीं करता, उनका निषेध करता चलता है। जब वह किसी को भी स्वीकार कर लेता है, तब वह पराजित हो जाता है। मैं तो कहूँगा असाधारण आदमी बनने के लिए सत्य को भी स्वीकार नहीं करना चाहिए।”

”क्या मतलब, बर्टी! तुम तो दर्शन की भाषा में बोल रहे हो। मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी हूँ, भाई!” चंदर ने कौतूहल से कहा।

”देखो, अब मैंने विवाह स्वीकार कर लिया। जेनी को स्वीकार कर लिया। चाहे यह जीवन का सत्य ही क्यों न हो, पर महत्ता तो निषेध में होती है। सबसे बड़ा आदमी वह होता है, जो अपना निषेध कर दे…लेकिन मैं अब साधारण आदमी हूँ। सस्ती किस्म का अदना व्यक्ति। मुझे कितना दुख है आज। मेरा तोता भी मर गया और मेरी असाधारणता भी।” और बर्टी फिर तोते की कब्र के पास सिर झुकाकर बैठ गया।

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