चैप्टर 2 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

चैप्टर 2 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 2 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 2 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 2 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

बनारस में महात्मा कबीर के चौरे के निकट मुंशी वज्रधरसिंह का मकान है। आप हैं तो राजपूत पर अपने को ‘मुंशी’ लिखते और कहते हैं। ‘मुंशी’ की उपाधि से आपको बहुत प्रेम है। ‘ठाकुर’ के साथ आपको गंवारपन का बोध होता है, इसलिए हम भी आपको मुंशीजी कहेंगे। आप कई साल से सरकारी पेंशन पाते हैं। बहुत छोटे पद से तरक्की करते-करते आपने अंत में तहसीलदारी का उच्च पद प्राप्त कर लिया था। यद्यपि आप उस महान् पद पर तीन मास से अधिक न रहे और उतने दिन भी केवल एवज पर रहे; पर आप अपने आपको ‘साबिक तहसीलदार’ लिखते थे और मुहल्ले वाले भी उन्हें खुश करने को ‘तहसीलदार साहब’ ही कहते थे। यह नाम सुनकर आप खुशी से अकड़ जाते थे, पर पेंशन केवल पच्चीस रुपए मिलती थी, इसलिए तहसीलदार साहब को बाजार-हाट खुद ही करना पड़ता था। घर में चार प्राणियों का खर्च था। एक लड़की थी, एक लड़का और स्त्री। लड़के का नाम चक्रधर था, वह इतना जहीन था कि पिता के पेंशन के जमाने में जब घर से किसी प्रकार की सहायता न मिल सकती थी, केवल अपने बुद्धि-बल से उसने एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ली थी। मुंशीजी ने पहले ही से सिफारिश पहुंचानी शुरू कर दी थी। दरबारदारी की कला में वह निपुण थे। हुक्काम को सलाम करने का उन्हें मरज था। हाकिमों के दिए हुए सैकड़ों प्रशंसापत्र उनकी अतुल संपत्ति थे। उन्हें वह बड़े गर्व से दूसरों को दिखाया करते थे। कोई नया हाकिम आए, उससे जरूर रब्त-जब्त कर लेते थे। हुक्काम ने चक्रधर का ख्याल करने के वादे भी किए थे; लेकिन जब परीक्षा का नतीजा निकला और मुंशीजी ने चक्रधर से कमिशनर के यहां चलने को कहा तो उन्होंने जाने से साफ इंकार किया !

मुंशीजी ने त्योरी चढ़ाकर पूछा-क्यों, क्या घर बैठे तुम्हें नौकरी मिल जाएगी?

चक्रधर-मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है।

वज्रधर-यह खब्त तुम्हें कब से सवार हुआ? नौकरी के सिवा और करोगे ही क्या?

चक्रधर-मैं आजाद रहना चाहता हूँ।

वज्रधर-आजाद रहना था तो एम.ए. क्यों किया?

चक्रधर-इसीलिए कि आजादी का महत्त्व समझूं।

उस दिन से पिता और पुत्र में आए दिन बमचख मचती रहती थी। मुंशीजी बुढ़ापे में भी शौकीन आदमी थे। अच्छा खाने और अच्छा पहनने की इच्छा अभी भी बनी हुई थी। अब तक इसी ख्याल से दिल को समझाते थे कि लड़का नौकर हो जाएगा तो मौज करेंगे। अब लड़के का रंग देखकर बार-बार झुंझलाते और उसे कामचोर, घमंडी, मूर्ख कहकर अपना गुस्सा उतारते थे-अभी तुम्हें कुछ नहीं सूझता, जब मैं मर जाऊंगा तब सूझेगा। तब सिर पर हाथ रखकर रोओगे। लाख बार कह दिया बेटा, यह जमाना खुशामद और सलामी का है। तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेंत भी न पूछेगा। तुम बैठे आजादी का मजा उठा रहे हो और तुम्हारे पीछे वाले बाजी मारे जाते हैं। वह जमाना लद गया जब विद्वानों की कद्र थी, अब तो विद्वान टके सेर मिलते हैं, कोई बात नहीं पूछता। जैसे और भी चीजें बनाने के कारखाने खुल गए हैं, उसी तरह विद्वानों के कारखाने खुल गए हैं, और उनकी संख्या हर साल बढ़ती जाती है।

चक्रधर पिता का अदब करते थे, उनको जवाब तो न देते; पर अपना जीवन सार्थक बनाने के लिए उन्होंने जो मार्ग तय कर लिया था, उससे वह न हटते थे। उन्हें यह हास्यास्पद मालूम होता था कि आदमी केवल पेट पालने के लिए आधी उम्र पढ़ने में लगा दे। अगर पेट पालना ही जीवन का आदर्श हो, तो पढ़ने की जरूरत ही क्या है। मजदूर एक अक्षर भी नहीं जानता, फिर भी वह अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट बड़े मजे से पाल लेता है। विद्या के साथ जीवन का आदर्श कुछ ऊंचा न हुआ तो पढ़ना व्यर्थ है। विद्या को जीवन का साधन बनाते उन्हें लज्जा आती थी। वह भूखों मर जाते; लेकिन नौकरी के लिए आवेदन-पत्र लेकर कहीं न जाते। विद्याभ्यास के दिनों में भी वह सेवाकार्य में अग्रसर रहा करते थे और अब तो इसके सिवा उन्हें और कुछ सूझता ही न था। दीनों की सेवा और सहायता में जो आनंद और आत्मगौरव था, वह दफ्तर में बैठकर कलम घिसने में कहाँ !

इस प्रकार दो साल गुजर गए। मुंशी वज्रधर ने समझा था, जब यह भूत इसके सिर से उतर जाएगा, शादी-ब्याह की फ्रिक होगी, तो आप-ही-आप नौकरी की तलाश में दौड़ेंगे। जवानी का नशा बहुत दिनों तक नहीं ठहरता। लेकिन जब दो साल गुजर जाने पर भी भूत के उतरने का कोई लक्षण न दिखाई दिया, तो एक दिन उन्होंने चक्रधर को खूब फटकारा-दुनिया का दस्तूर है कि पहले अपने घर में दिया जलाकर तब मस्जिद में जलाते हैं। तुम अपने घर को अंधेरा रखकर मस्जिद को रोशन करना चाहते हो। जो मनुष्य अपनों का पालन न कर सका, वह दूसरों की किस मुंह से मदद करेगा। मैं बुढ़ापे में खाने-पहनने को तरसूं और तुम दूसरों का कल्याण करते फिरो। मैंने तुम्हें पैदा किया दूसरों ने नहीं; मैंने तुम्हें पाला-पोसा, दूसरों ने नहीं; मैं गोद में लेकर हकीम-वैद्यों के द्वार-द्वार दौड़ता फिरा, दूसरे नहीं। तुम पर सबसे ज्यादा हक मेरा है, दूसरों का नहीं।

चक्रधर अब पिता की इच्छा से मुंह न मोड़ सके। उन्हें अपने कॉलेज ही में कोई जगह मिल सकती थी। वहां सभी उनका आदर करते थे, लेकिन यह उन्हें मंजूर न था। वह कोई ऐसा धंधा करना चाहते थे, जिससे थोड़ी देर रोज काम करके अपने पिता की मदद कर सकें। एक घंटे से अधिक समय न देना चाहते थे। संयोग से जगदीशपुर के दीवान ठाकुर हरिसेवकसिंह को अपनी लड़की को पढ़ाने के लिए सुयोग्य और सच्चरित्र अध्यापक की जरूरत पड़ी। उन्होंने कॉलेज के प्रधानाध्यापक को इस विषय में एक पत्र लिखा। तीस रुपए मासिक तक वेतन रखा। कॉलेज का कोई अध्यापक इतने वेतन पर राजी न हुआ। आखिर उन्होंने चक्रधर को उस काम पर लगा दिया। काम बडी जिम्मेदारी का था; किंतु चक्रधर इतने सुशील, इतने गंभीर और इतने संयमी थे कि उन पर सबको विश्वास था।

दूसरे दिन से चक्रधर ने लड़की को पढ़ाना शुरू कर दिया।

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