चैप्टर 2 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 2 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

चैप्टर 2 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 2 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

Chapter 2 Badnaam Gulshan Nanda Novel

Chapter 2 Badnaam Gulshan Nanda Novel

हम रहते तो थे शहर में ही, किन्तु एक छोर पर । श्रौर जिस बुढ़िया के पास वह अनोखी, इतिहास से भरी मूर्ति थी, वह गाँव में रहती थी। वह गाँव शहर से आधा मील दूर था। हम जिस छोर पर रहते थे, वहाँ से पास ही एक नहर थी। और नहर के उस पार से, रेलवे लाईन से होती हुई एक चौड़ी पगडण्डी उस गांव में गई थी। कहने को तो वह गाँव था, मगर सारा दिन शहर और गांव; गांव और शहर लोगों का तांता लगा रहता था। हम लोगों ने नहर पार की ओर चौड़ी पगडण्डी पर चल पड़े।

सवेरे का मौसम था। धूप अच्छी लग रही थी। लगभग आधा घंटा चलने के बाद हम लोग गांव के नजदीक पहुँचे। वैसे तो वह गांव रेलवे लाईन के पास से ही साफ दिखाई पड़ता है। पत्नी जी ने हाथ से इशारा किया और कहा – “वह जो एक दो मंजिला पक्का मकान दिख रहा है न, वही बुढ़िया का मकान है और वह उसी में अकेली रहती भी है।”

मैंने ध्यान से उस ओर देखा और आश्चर्य से कहा – “वह तो किसी अच्छे आदमी का घर दिखता है !’

“तो गोया आपकी नजरो में बुढ़िया । “

बीच से ही बात काटकर मैंने कहा – “ऐसी बात नहीं…” और मुझे चुप हो जाना पड़ा । पतली-चौड़ी, ऊबड़-खाबड़ गलियों को पार करते हुए हम लोग किसी तरह बुढ़िया के पास पहुंचे।

दरवाजे के अन्दर प्रवेश करते ही हमें एक नौकर मिला, जिसने मेरी पत्नी को एक लम्बी सलामी की और अन्दर फुर्ती से जाकर बैठक का दरवाजा खोलकर बैठने के लिए कहा। शायद मेरी धर्मपत्नी को वह पहचानता होगा । हम लोग कमरे में गए । कमरा बहुत ही सुन्दर ढंग से सजा हुआ था। उसके कोने में एक परदा टंगा हुआ था ।

हम लोगों के कमरे में बैठते ही वह नौकर अन्दर चला गया ।

नौकर के अन्दर जाते ही मेरी श्रीमतीजी ने धीरे से मुझसे कहना शुरू किया- “इस कोने में जो परदा टंग रहा है न, वहीं वह पत्थर की मूर्ति रखी हुई है। इस परदे को उस बुढ़िया के अलावा और कोई नहीं हटाता। वह जब आयेगी, तब इस परदे को हटायेगी ।”

उसी समय वही नौकर कमरे में आया और कहने लगा- ” तब तक आप लोग नाश्ता करें और चाय पीयें।” और सामने मेज पर चाय, कुछ नमकीन और कुछ मिठाइयां रखता हुआ वह बोला- “मालकिन जो स्नान करने के बाद ठाकुरजी की पूजा पर बैठी हैं। उन्हें पूजा पर बैठे काफी देर हो गई है। अब जल्द ही पूजा समाप्त होगी।” वह अन्दर चला गया, पुनः उसके जाते ही मैं बोला- “बड़ी पुजेड़ी हैं यह तो ?”

विजय मिठाइयों को देखकर, खाने के लिए मचलने लगा । श्रीमतीजी ने एक टुकड़ा तोड़कर सबसे प्रथम उसके मुंह में डाल दिया। मुंह में मीठा पड़ते ही वह शांत हो गया। तब उन्होंने कहा – “हां, पुजेड़ी तो हैं ही यह । ठाकुरजी की पूजा करने के बाद, वह यहां प्राकर इस मूर्ति की भी पूजा करेंगी । देखियेगा, किस तरह की श्रद्धा और भक्ति के साथ वह इस मूर्ति की पूजा करती हैं।”

“अच्छा! ” मुझे काफी विस्मय हुआ । सोचा, सिवा भगवान की मूर्ति के और किसी की मूर्ति को पूजना कठिन है । यदि तस्वीर होती तो अंदाज लगाया जा सकता था कि वह तस्वीर इनके माता- पिता या पति की हो सकती थी। मगर पूजने वाली वस्तु पत्थर की मूर्ति थी, तस्वीर या कैलेण्डर नहीं । तब भी मैंने जान-बूझकर पूछा – ” किसी देवता की मूर्ति है क्या यह ?”

“नहीं !” मेरी पत्नी ने कहा और विजय को अपनी गोद से नीचे उतार दिया

मेरा ग्राश्चर्य और बढ़ गया – ” तब ?”

” इस पत्थर की मूर्ति में चार व्यक्ति दिखाए गए हैं ।” मेरी पत्नी ने एक बार विजय की ओर देखा और कहने लगी, “दो युवती, एक लड़का और एक मर्द । मैं कभी इस सम्बन्ध में इनसे पूछा तो नहीं है, तब भी ध्यान से देखने पर पता चल जाता है कि दोनों युवतियों में एक का चेहरा इस बुढ़िया से काफी मिलता-जुलता है । मेरा अपना ख्याल है वह मूर्ति इस बुढ़िया की है जबकि यह जवान थी।” 

मैं यह सब चुपचाप सुन रहा था। मेरी श्रीमतीजी और न जाने क्या-क्या कहने जा रही थी कि तभी वह बुढ़िया इस कमरे में आयी, जिसमें हम सब बैठे हुए थे। उन्होंने एक नजर हम तीनों पर डाली और उस कोने में चली गई, जहाँ परदा था, पत्थर की मूर्ति थी । अब हम लोग आश्वस्त हो गये और नाश्ता करने में जुट गये। मीठा खाने के बाद हमने पानी पिया और चाय पीते हुए मैं उन्ही की ओर ध्यान से देखने लगा । वह वहां कोने में जाकर घुटनों के बल, जमीन पर, जहाँ एक कम्बल का छोटा आसन बिछा था, बैठ गयों और परदे को उन्होंने हटा दिया।

उसी समय एक बड़े थाल में, जिसमें तरह-तरह का पूजा का सामान था, लेकर पीछे से वही नौकर आया और उनकी दाहिनी ओर रख दिया। सारा काम पलक झपकते ही नियम और समय पर हुआ कि मैं अचंभे में पड़ा रह गया।

परदा हटाते ही बुढ़िया ने दोनों हाथ जोड़कर पत्थर की मूर्ति को प्रणाम किया, उस समय उनकी आंखें बंद थीं। उनका सारा शरीर अचल था । लगता था, स्वयं ही एक मूर्ति हों। कितनी श्रद्धा है इनकी इस मूर्ति में ! दो मिनट बाद उन्होंने अपनी आँखें खोलीं और आग में धूप डाली। मूर्ति के चरणों पर फूल चढ़ाये । शरीर में इत्र लगाया और आरती करते समय कुछ बुदबुद भी रही थीं, इतने धीरे-धीरे कि हम लोग भी न सुन सकें कि वह कोई मंत्र पढ़ रही थी या और कुछ ।

उन्होंने दो फूल मूर्ति के चरणों पर चढ़ाये और हाथ जोड़कर कुछ बुदबुदाई । कुछ देर बाद सिर झुकाकर मूर्ति को प्रणाम किया, फिर दो फूल मूर्ति के चरणों पर रखकर हाथ जोड़ दिए और बुद-बुदाती रहीं। फिर सिर को नवाकर मूर्ति को नमस्कार किया। यही क्रम काफी देर तक चलता रहा। इस तरह उन्होंने सात बार किया ।

मैं ध्यान से उनकी और उनकी गतिविधियों की ओर देख रहा था। मैं जानना चाहता था कि इस मूर्ति से इनका क्या संबंध हो सकता है कि इनकी भी इतनी भक्ति के साथ पूजा करती हैं।

मूर्ति की ओर मैंने गौर से देखा । उसकी चमक से तो ऐसा लगता था, मानो वह आज ही तैयार की गयी हो । कला की सफाई बेजोड़ थी । मूर्ति के किसी भी अंग में अस्वाभाविकता नहीं थी। हर अंग, हर दशा में प्राण होने का संदेह हो जाता था। एक साथ चार मूर्तियों का गढ़ना कठिन-सा होता है, उस पर भी इतनी सफाई ।

मेरी आंखें उसे हमेशा देखते रहना चाहती थीं । मैं उनकी पूजा समाप्त होने का इन्तजार करने लगा ।

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