चैप्टर 1 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 1 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online
Chapter 1 Badnaam Gulshan Nanda Novel
खिड़की के बाद आंगन । वाकी आंगन के तीनों ओर बरा- मदा । उत्तर की ओर दो कमरे, पूरब की ओर एक छोटा कमरा, जिसमें पेट-पूजा का उद्योग धन्धा होता था । उससे सटा पक्का कुआं । खिड़की के ऊपर दोमंजिला कमरा। पहला मिट्टी से पाटा हुआ, दूसरा खपरैल |
श्रांगन में आते ही चारों ओर नजर दौड़ाकर देखा, वहाँ कोई न था। मेरा छोटा-सा एकमात्र नन्हा मुन्ना, जिसकी उम्र एक साल की थी, खेल रहा था। उसके सामने कौड़ियां रखी थीं। जिगर का टुकड़ा विजय कौड़ियों को झपट्टे के साथ मुट्ठियों में पकड़ता और हँसता हुआ मुट्ठियों से छोड़ देता था
बच्चा कौड़ियों से खेलने में मग्न था। उसे किसी प्रकार का तनिक भी विचार न था । छिपकर खड़ा हुआ मैं थोड़ी देर तक उसकी इस सुलभ बाल लीला को देखता रहा । सोचा, ‘बचपन भी एक निराला और मस्ताना जीवन है । न चाह और न साध । न आशा और न फिक्र, चिंता ! सारा दिन खेलता रहा, उन बेजान चीजों से खेलना, जिनका कोई आकार भी नहीं होता, मानव के लिए मन बहलाना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है ।
मुझे देखते ही उसने कौड़ियों को तितर-बितर अवस्था में हीं छोड़ दिया और चारपाया की चाल से मेरी ओर दौड़ पड़ा। खम्भे की ओट से हटकर अब मैं उसके सामने खड़ा हो गया । मेरे नजदीक पहुँचकर उसने अपना दायां हाथ मेरी ओर बढ़ाया ।
उसकी इस सांकेतिक भाषा को मैं समझ गया। वह मेरी गोद में आना चाहता था । कौड़ियों का मोह उसने त्याग दिया था। मेरी माया के आगे वह प्राकृतिक आस्थाओं को भी भुल गया था। उसके दोनों हाथ और कमर से नीचे का हिस्सा मिट्टी से सना हुआ था। और मैं तुरन्त बाहर से लौटा था। अपने साफ और धुले हुए कपड़ों की ओर देखने के बाद मेरी यही इच्छा हुई कि विजय को इस अवस्था में गोद में न लूं, किन्तु पिता का वात्सल्य मेरे अन्दर उमड़ पड़ा, और मैंने हाथ बढ़ाकर उसे अपनी गोद में ले लिया ।
गोद में लिए हुए ही मैं सीढ़ियों से होकर ऊपर चढ़ने लगा । ऊपर पहुंचते ही मैंने आवाज दी- “अरे माई, क्या हो रहा है ?”
” जहन्नुम में जाए काम धन्धा और तुम्हारा यह लाड़ला ।” उन्होंने मेरी ओर देखा और बड़े कमरे में पलंग पर बैठकर तौलिये से हाथ साफ करती हुई कहने लगीं “काम-काज से तो मैं तंग आ ही गई हूं, ऊपर से यह लड़का नाकों दम कर दिया है। न गोद में चैन से रहेगा और न कहीं स्थिर बैठकर खेलेगा ही। जहां रहेगा, चीजों को उलटता-पलटता रहेगा। सबसे ज्यादा तो इस बात का डर बना रहता है कि कहीं यह गरम वस्तु न छू ले । उस दिन लालटेन का शीशा छू लिया था कि उंगली में फफोले उठ आये थे । मैं तो परेशान हो गई हैं, इससे ।”
मैं मी पलंग पर ही बैठ गया। विजय ने जब अपनी मां को देखा, तो हाथ-पांव पटक-पटककर उन्हीं की गोद में जाने को मचलने लगा। दूध पीने के लालच में वह छटपटाने लगा। उसकी इस प्रकार की उछल-कूद से मैं मी तंग आ गया और अपनी गोद से उतारते हुए मैंने कहा – “लो मई, यह तुम्हारे पास ही जाना चाहता है ।” और विजय को उनकी ओर बढ़ा दिया।
लड़के को अपनी गोद में सम्भालते हुए उन्होंने कहा – “यह मुझे अब जिन्दा नहीं छोड़ेगा । “
“बच्चों से घबड़ाया नही करते।” मैंने श्रीमतीजी से नम्र वाणी में कहा – “इसी बाल क्रीड़ा को देखने के लिए कितने लोग तरसते हैं, ललचाते हैं । किन्तु सबको यह सुख नसीब नहीं होता । महाकवि सूरदासजी ने कृष्ण भगवान की बाल लीला क्या लिखी, हमेशा के लिए अमर हो गए वे। “
“यह बात तो है ।” और उन्होंने बच्चे की ओर देखा । एक पत्थर की मूर्ति को अपनी जेब से निकालकर श्रीमतीजी की ओर बढ़ाते हुए मैंने कहा – “लो, यह पत्थर की मूर्ति । आज बाजार में बिक रही थी, पार्वतीजी की मूर्ति तुम्हें ज्यादा पसन्द है। न ?”
“जी हां।” उन्होंने विजय को अपनी गोद में लिटाकर अपना स्तन उसके मुंह में पकड़ा दिया और एक हाथ में मूर्ति लेकर उसको ध्यान से देखती हुई बोलीं- “यह मूर्ति तो बहुत ही अच्छी है । कहां बिक रही थी यह ?”
“चौक को छोड़ अन्यत्र कहाँ बिक सकती हैं ऐसी चीजें ?” श्रीमतीजी ने मुझसे सवाल किया- “इस तरह की मूर्तियां हमेशा तो नहीं बिका करती होगी ?”
जवाब देने के लिए मैंने मूर्ति की ओर देखा। वह लगभग नौ इन्च लम्बी होगी । हाथ-पांव छोटे-छोटे एवं सुघड़ लग रहे थे । चेहरे की मासूमियत ने तो चार चांद लगा दिये थे, जिसमें नाक और होंठों की बनावट देखकर लगता था कि उसको देखता ही रहूँ । एक हाथ सीध में था, तो दूसरा उठा हुआ। उठे हुए हाथ की उंगलियों को देखने से लगता था कि यह पार्वती की मूर्ति अपने प्रियतम पति शंकर भोले बाबा को अपने पास बुला रही है। इसके साथ महादेव की मूर्ति न होना मुझे खटका -‘ – “हमेशा तो नहीं बिका करती ये मूर्तियां ।” मैंने जवाब दिया- ” कभी कभार कोई कारी- गर इधर या भटकते हैं, तो अपने साथ लाई इस तरह की मूर्तियों को किसी भी छोटे शहर में बैठकर बेचते हैं। यही तो हम लोगों का दुर्भाग्य है कि ग्रामीण क्षेत्र और शहर में पत्थर की मूर्ति की कोई दुकान नहीं है ।”
” कारीगरी तो कमाल की है।” मेरी पत्नी की आवाज थी यह।
“यह भी कहने या कोई पूछने की बात है।” मैंने उनसे कहा- “पत्थर के बेडव और बेडौल टुकड़ों को सावधानी से काट-छांटकर इस रूप में लाना कितनी लगन एवं कितना कठिन काम है। लोहे की छेनी जरा-सा छूटी या छोटी सी सरिया ने जरा-सा जोर लगाया कि सारी मेहनत एकही क्षण में बेकार गई। पत्थर के केवल टुकड़े ही नजर आयेंगे।”
“इस पर पालिश करके इसको कितना चिकना कर दिया है। उन कारीगरों ने।” मेरी पत्नी ने मूर्ति पर हाथ फेरते हुए कहा “यह भी एक बेमिसाल एवं अदभुत कला है और लगता है, इस कारीगरी को सीखना कोई हंसी-खेल नहीं है ।”
“मेरा तो ख्याल है कि जो इस कला को सीखना चाहता होगा, वह बचपन से ही इस काम में रहकर प्रयास करता होगा।”
“तब तो उन्हें कारीगर बनने में बहुत समय लग जाता होगा ।” मेरी श्रीमतीजी ने कहा और चूल्हे की ओर चली गई। चूल्हे पर रखा गया कोयला अब आग हो गया था। उन्होंने उनको चिमटे से ठीक किया और केतली में पानी रखकर चूल्हे पर चाय के लिए रख दिया।
“आपने बताया नहीं कि तब तो एक अच्छा कारीगर बनने में काफी समय लग जाता होगा ?” मेरी श्रीमतीजी ने पुनः अपना प्रश्न दुहराया और उन्होंने मेरी ओर तिरछी नजरों से देखा और मुझे लगा कि वह थोड़ा-सा मुस्कुराई हैं । उनके सिर पर के आँचल को मैंने अपने हाथों से हटा दिया और उनके बालों सहित प्राकृतिक सुन्दरता को अपनी नजरों के द्वारा कलेजे में पीकर कहा – “हाँ, यह तो है ही। यह सब करने के कई साल बाद छेनी और सरिया पकड़ना सीखना पड़ता होगा, उन्हें । बाद में बड़े-बड़े टुकड़ों को मूर्ति बनाने के लिए काट-छाँटकर साईज में लाना पड़ता होगा, तब वे धीरे-धीरे कुछ सीखते होंगे। असल में यह महीन कारीगरी है। इसके बाद दूसरा नम्बर आता है सोने की कारीगरी का।”
“सोने की कारीगरी ?” पत्नीजी ने आश्चर्य से पूछा।
“हां, सोने की कारीगरी विश्व में द्वितीय स्थान रखती है। सोनार सोने के तरह-तरह के किस्म-किस्म के तथा तार एवं पत्थर के छोटे-बड़े अनेक टुकड़ों को जोड़कर एक प्रकार से खड़ा कर देता है, जिसकी सुन्दरता और कारीगरी देखते ही बनती है।”
“तब तो कोई अमीर घराने का लड़का इस कला को नहीं सीखता होगा ?”
“सोने की कारीगरी या पत्थर की कारीगरी ?” मैंने जान- बूझकर ऐसा उलझन भरा प्रश्न उनसे किया ।
“सोने की कारीगरी तो केवल सोनारों के सिवा कुछ कसेरा या फिर बंगाली मुसलमान ही करते हैं ।” श्रीमतीजी ने मुस्कराते हुए कहा -” प्रश्न को उलझाइये मत । मैंने पत्थर की कारीगरी की बात की थी। बताइये?”
“भला अमीर यह क्यों चाहने लगे कि उनका लड़का पढ़ना- लिखना त्यागकर मजदूरी करे और एक साधारण प्रादमी ( किन्तु पत्थर की कला का मर्मज्ञ ) के मातहत काम करे ।” मैंने अपना कहना जारी रखा – “हमारे देश में सभी प्रकार के कलाकारों को प्रायः मजदूर ही समझा जाता है। हाँ, यदि इसकी कोई पाठशाला खुल जाती, जैसा कि हर कला के लिए विद्यालय खुले हैं, तो श्रमीर घराने के कुछ बच्चे इस कला को सीख सकते हैं।”
“इतनी अच्छी कारीगरी जानते हुए भी वह कारीगर एक साधारण व्यक्ति समझा जाता है।” पत्नी ने क्यों ?” पूछा – “ऐसा की9n?”
‘यही तो दुर्भाग्य है, हम भारतवासियों के लिए। यहां शिक्षा, कला, राजनीति, होशियारी की कमी नहीं है । कमी है तो केवल सद्भावना और समझदारी की।” मैंने कहा “इसी कारण हमारी गरीबी ने इस कला की ओर से हमारा व्यान हटा लिया है। एक कहावत है- भूखे भजन न होंहि गोपाला, ले लेउ अपनी कंठी माला ।’ ठीक यही बात है यहां। यहाँ के लोग अधिकतर गरीबी के मारे हैं। दिन-रात उन्हें अपने पेट, चूल्हा-चौकी, लकड़ी – बासन और नमक तेल की ही चिन्ता लगी रहती है। यही कारण है कि इस तरह की कला का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है।”
‘ इस मूर्ति की नाक बहुत ज्यादा पसन्द है मुझे कितनी सुघड़ता दिखलाई गई है, इस मूर्ति की नाक में।” पत्नीजी मूर्ति के होंठों पर हाथ फेरती हुई बोलीं- “और होंठों की बनावट ने तो गजब ढा दिया है। लगता है, सच्च में यह मानव का ही एक अंग हो ।”
“मानव तो नहीं, किन्तु मानव की प्रतिमा तो है ही यह ।” मैंने कहा।
“पास के ही एक गांव में एक बुढ़िया के पास पत्थर की बहुत बड़ी और सुन्दर मूर्ति है ।” पत्नी ने कहा ।
मैंने अनमने भाव से कहा- “होगी ! “
“तारीफ यह है कि वह बुढ़िया उस मूर्ति को बेचना नहीं चाहती ।” पत्नी ने कहा- “अभी थोड़े ही दिन तो हुए हैं कि अखबारों में निकला था, इस मूर्ति के लिये सरकार एक लाख रुपये उस बुढ़िया को दे रही है, परन्तु वह बुढ़िया मूर्ति बेचने को तैयार नहीं ।”
“क्या ?” मैंने प्राश्चर्य से पूछा – “क्या उसके पास और भी मूर्तियाँ हैं ?
“नहीं, उसके पास केवल वही एक मूर्ति है, जिसे वह प्राणों से अधिक प्यार करती है तथा सावधानी से रखती है।” श्रीमतीजी बोली और विजय को पलंग पर सुलाकर ऊपर एक चादर डाल दी । वह सो गया था ।
“उस मूर्ति में कुछ रहस्य है, ऐसा मुझे लगता है ।”
“सन्देह की बात ही है ।” पत्नी ने भी हामी भरी।
“हम लोग एक दिन उस गाँव में बुढ़िया के पास चलें और देखें कि वह मूर्ति कैसी है और वह बुढ़िया उस मूर्ति को क्यों नहीं बेचने को तैयार है।” मैंने कहा और अपना कुरता उतारता हुआ बोला –“आज मौसम कितना सुहावना है ?”
“तो हम क्या करें ?” शरारत भरे शब्दों में पत्नी बोली । मैंने हाथ बढ़ाकर उनको पकड़ना चाहा, मगर वह एक अदा से घूमकर फौरन रसोई के पास चली गयीं।
काली घटा गुलशान नंदा का उपन्यास
कांच की चूड़ियां गुलशन नंदा का उपन्यास