चैप्टर 15 आग और धुआं आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 15 Aag Aur Dhuan Acharya Chatursen Shastri Ka Upanyas Novel

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Chapter 15 Aag Aur Dhuan Acharya Chatursen Shastri

Chapter 15 Aag Aur Dhuan Acharya Chatursen Shastri

हैदरअली के दादा वलीमुहम्मद एक मामूली फकीर थे, जो गुलबर्गा में दक्षिण के प्रसिद्ध साधु हजरत बन्दानेवाज गेसूदराज की दरगाह में रहा करते थे। इनके खर्च के लिये दरगाह से छोटी-सी रकम बँधी हुई थी। इनका एक पुत्र था, जिसका नाम मोहम्मदअली था। उसे शेखअली भी कहते थे। उसे भी लोग पहुंचा हुआ फकीर मानते थे। वह कुछ दिन बीजापुर में रहा, पीछे कर्नाटक के कोलार नामक स्थान में आकर ठहरा, कोलार का हाकिम शाह मुहम्मद दक्षिणी शेखअली का बड़ा भक्त था। शेखअली के चार बेटे थे। उन्होंने बाप से नौकरी की इजाजत माँगी। पर उसने समझाया- “हम साधुओं को दुनिया के धंधों में फंसना ठीक नहीं।” निदान, वे पिता की मृत्यु तक उसके पास रहे। पिता की मृत्यु पर बड़ा तो पिता के स्थान पर अधिकारी हुआ और सबसे छोटा अरकाट के नवाब के यहाँ फौज में जमादार हो गया और तंजोर के फकीर पीरजादा कुरहानुद्दीन की लड़की से शादी कर ली। इससे उसे दो पुत्र हुए-जिनमें छोटे का नाम हैदरअली था। उस समय उसका पिता सिरा के नवाव के यहाँ बाराँपुर कलाँ का किलेदार था। जब हैदरअली तीन वर्ष का था, तव उसका पिता किसी युद्ध में मारा गया। उनका सब सामान जब्त कर लिया गया और हैदरअली को भाई सहित नक्कारे में बन्द कराकर नक्कारे पर चोटें लगवानी शुरू करा दी गई। इस अवसर पर उसके चचा ने धन भेजकर उसका उद्धार किया और अपने पास रखा। वहाँ उसने युद्ध विद्या सीखी और समय आने पर दोनों भाई मैसूर की सेना में भर्ती हो गये।

मैसूर रियासत मरहठों को चौथ देती थी। इस समय निजाम और मैसूर राज्य का मिलकर अंग्रेजों से युद्ध हुआ। इस युद्ध में हैदरअली एक साधारण सवार की भाँति लड़ा।

इस युद्ध में हैदर ने जो कौशल दिखाया, उस पर मैसूर के दीवान की दृष्टि पड़ी और उसने हैदर को डिण्डीनल का फौजदार नियत कर दिया। वहाँ उसने अपनी सेना को फ्रांसीसी रीति से युद्ध करने की शिक्षा दी और तोपखाने में भी फ्रांसीसी कारीगर नियुक्त किये।

धीरे-धीरे उसका बल बढ़ता गया और वह प्रधान सेनापति हो गया। शीघ्र ही वह मैसूर का प्रधानमन्त्री हो गया। उस समय प्रधानमन्त्री ही राज-काज के कर्ता-धर्ता थे। महाराज तो साल में एकाध बार प्रजा को दर्शन देते थे। हैदरअली ने शीघ्र ही मैसूर की सम्पूर्ण सत्ता अधिकार में कर ली और प्रधानमन्त्री की पदवी उसकी खानदानी पदवी हो गई। दिल्ली के सम्राट ने भी उसे सीरा-प्रान्त का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

अब हैदरअली ने राज्य की व्यवस्था की ओर ध्यान दिया और शीघ्र ही प्रबन्ध उत्तमता से होने लगा। इसके बाद उसने आस-पास के प्रान्त में विजय प्राप्त कर, रियासत को बढ़ाना प्रारम्भ किया।

यह वह समय था, जब मराठे बढ़ रहे थे। मराठों का मैसूर पर चार बार आक्रमण हुआ, पर अंत में उन्हें हैदरअली से सन्धि करनी पड़ी।

इस समय अंग्रेज कम्पनी की शक्ति भी किसी शक्ति की वृद्धि सहन न कर सकती थी। उन्होंसे छेड़-छाड़ की और हैदरअली के मित्र कर्नाटक के नवाब को भड़काकर फोड़ लिया। हैदर ने यह देख, निजाम से सन्धि की और दोनों ने मिलकर कर्नाटक और अंग्रेजी इलाके पर हमला कर दिया। निजाम की ओर से ५० हजार सेना सहायतार्थ आई थी। इतनी ही अंग्रेजी सेना जनरल स्मिथ की आधीनता में मद्रास से बढ़ी। हैदर के पास दो लाख सेना थी। इसमें से पचास हजार सेना लेकर उसने अंग्रेजी सेना की गति रोकी। परन्तु निजाम को भी अंग्रेजों ने फोड़ने की चेष्टा की। यह देख, हैदर ने सन्धि की चेष्टा की-पर, अंग्रेजों ने उसके दूत को अपमानित करके निकाल दिया। यह देख, हैदर युद्ध को सन्नद्ध हो गया और शीघ्र ही समस्त छीना हुआ देश लौटा लिया तथा अंग्रेज सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया।

इस समय हैदर के पुत्र टीपू की आयु १८ वर्ष की थी और वह पिता के साथ युद्ध के मैदान में था। हैदर ने उसे ५ हजार सेना देकर दूसरे रास्ते मद्रास भेज दिया। वह इतना शीघ्र मद्रास पहुँचा कि उसकी सेना को सिर पर देख, अंग्रेज गवर्नर घबरा गया और वे लोग भाग खड़े हुए। टीपू ने सेण्ट टॉमस नामक पहाड़ी पर कब्जा किया और आसपास के अंग्रेजी इलाके भी कब्जे में कर लिये।

उधर त्रिचनापल्ली में हैदर और जनरल स्मिथ का मुकाबला हुआ। ऐन मौके पर अपनी तमाम सेना को निजाम के अफसर ने इसे बुरी तरह पीछे हटाया कि हैदर की तमाम फौज में खलबली मच गई। यह विश्वास घात देख हैदर ने अपनी सेना कुछ पीछे हटाई।

उधर अंग्रेजों ने उड़ा दिया कि हैदर हार गया और टीपू को भी समाचार भेज दिया। टीपू उस समय मद्रास से एक मील दूर था। वह अंग्रेजों के भरें में आ गया और मद्रास को छोड़कर पिता से मिलने को चल दिया।

इधर हैदर, बेनियमबाड़ी के किले की ओर बढ़ा और उसे फतह करके आम्बूर की ओर गया। वहाँ उसे बहुत-सा हथियार और गोला-बारूद हाथ लगा। जनरल स्मिथ हार-पर-हार खाकर पीछे हटता गया। तब उसको सहायता के लिये कर्नल कुड एक नई सेना लेकर बंगाल से चला।

इस बीच में अंग्रेजों ने पादरियों द्वारा हैदर के यूरोपियन अफसरों को फोड़ने की पूरी कोशिश की और सफलता भी प्राप्त की। पर अन्त में हैदर ने अपना तमाम इलाका अंग्रेजों से छीन लिया। उधर अंग्रेजों ने बंगलौर को हथिया लिया था-उसे टीपू ने छीना। इस युद्ध में अनेक अंग्रेज अफसर सेनापति सहित गिरफ्तार किये गये। अन्त में हैदर वीरपुत्र सहित सेना को खदेड़ते हुए मद्रास तक पहुँचा। अंग्रेजों ने कप्तान ब्रुक को सुलह की बातचीत करने भेजा। हैदर ने जवाब दिया- “मैं मद्रास के फाटक पर आ रहा हूँ। गवर्नर और उसकी कौंसिल को जो कुछ कहना होगा-वहीं आकर सुनूंगा।”

वह साढ़े तीन दिन के अन्दर १३० मील का फासला तय करके अचानक मद्रास जा धमका और किले से दस मील दूर छावनी डाल दी। अंग्रेज काँप उठे। हैदर और अंग्रेजी सेना के बीच में ‘सेण्ट टॉमस’ की पहाड़ी थी। अंग्रेजों ने देखा कि यदि हैदर इसपर अधिकार कर लेगा-तो खैर नहीं। वे जल्दी-जल्दी वहाँ तोपें जमा रहे थे। पर हैदर एक चक्कर काटकर मद्रास के किले के दूसरे फाटक पर आ पहुँचा। अंग्रेजी सेना किले के दूसरी ओर फसील से दो-तीन मील के फासले पर थी। अंग्रेजों के भय का ठिकाना न था। पर हैदर ने पूर्व वचन के अनुसार गवर्नर को कहला भेजा—’कहो, क्या कहना चाहते हो?”-

गवर्नर ने तुरन्त डुग्रे और वैशियर को सुलह की बातचीत करने को भविष्य के लिये गवर्नर नियुक्त हो चुका था। वैशियर उस समय के गवर्नर का सगा भाई था।

अन्त में सन्धि हुई। उसमें कम्पनी का किसी प्रकार का राजनैतिक अधिकार नहीं माना गया। सन्धि-पत्र हैदर ने जैसा चाहा, वैसा ही इंगलिस्तान के बादशाह के नाम से लिखा गया। इस सन्धि के आधार पर हैदरअली और इंगलैण्ड के राजा में मित्रता कायम रही। दोनों ने अपने प्रान्त वापस लिये और हैदर ने एक मोटी रकम युद्ध के खर्च के लिए ली। दूसरी सन्धि के आधार पर अरकाट का नवाब मैसूर का सूबेदार समझा गया और भेजा।

बतौर खिराज के ६ लाख सालाना का देनदार बना। इसके सिवा एक नया युद्ध का जहाज, जिस पर उम्दा ५० तोपें थीं, हैदरअली को अंग्रेजों ने भेंट किया।

इस सन्धि का यह असर हुआ कि इंगलैण्ड में इसकी खबर पहुँचते ही ईस्ट-इण्डिया कम्पनी के हिस्सों की दर ४० फीसदी गिर गई।

कुछ दिन बाद मरहठों ने मैसूर पर आक्रमण किया। हैदर ने अंग्रेजों से मदद माँगी। पर उन्होंने इन्कार कर दिया। हैदर अंग्रेजों की चाल समझ गया। उसने टीपू को मरहठों पर सेना लेकर भेजा और ६ वर्ष के लिए दोनों में सन्धि हो गई। जब हैदर को यह निश्चय हो गया कि अंग्रेज सन्धि को तोड़ रहे हैं तो उसने अंग्रेजों पर चढ़ाई करने की तैयारी कर दी और निजाम से मदद माँगी। पर निजाम इस बार भी ऐन मौके पर दगा कर गया।

इसी बीच में नाना फड़नवीस ने हैदर से सन्धि कर ली। अंग्रेजों ने फिर सन्धि की बहुत चेष्टा की पर हैदर ने स्वीकार नहीं किया। कर्नाटक का नवाब मुहम्मदअली अंग्रेजों का मित्र था। हैदर ने पहले उसी की ओर रुख किया और सेना के कई भाग कर तमाम प्रान्त में फैला दिये। अंग्रेजों और नवाब की सेनाएँ हार-पर-हार खाने लगीं। अन्त में तमाम प्रान्त को हैदर ने अपने कब्जे में कर लिया। नवाब भागकर मद्रास चला गया। हैदर की सेनाएँ भी मद्रास जा धमकीं। अंग्रेजों की दो सेनाएँ उसके मुकाबले को उठीं। घनघोर युद्ध हुआ और हैदर ने अंग्रेजी सैन्य को बिलकुल नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। अरकाट के किले और नगर पर भी अधिकार हो गया। वहाँ उसने एक हाकिम नियत किया और शासन-प्रबन्ध ठीक किया।

उस समय वारेन हेस्टिग्स गवर्नर जनरल थे। यह समाचार सुन वह घबरा गये। बंगाल की हालत भयानक हो गई थी। भयानक दुर्भिक्ष था। पर फिर भी पाँच लाख रुपया नकद और एक भारी सेना उसने मद्रास के लिये भेजी। मद्रास पहुँचकर इस सेना के सेनापति ने सात लाख रुपये मुहम्मदअली से और वसूल किये और सैन्य-संग्रह कर हैदरअली के मुकाबले को बढ़ा। कई बार मुठभेड़ हुई और अंग्रेजों को भारी हानि उठाकर पीछे हटना पड़ा। अन्त में सेनापति सर कूट बंगाल लौटं गये। हैदर ने लगभग समस्त अंग्रेजी इलाका फतह कर लिया था। पर अचानक उसकी मृत्यु आरकाट के किले में हो गई। हैदरअली की पीठ में अदीठ (कारबंकल) फोड़ा हो गया था। उसी से उसकी मृत्यु हुई। मृत्यु के समय वह साठ वर्ष का था।

मृत्यु के समय उस तमाम इलाके को छोड़कर जो उसने हाल के युद्ध में अपने शत्रुओं से विजय किया था-शेष का क्षेत्रफल ८० हजार वर्ग मील था, जिसकी सालाना बचत, तमाम खर्चा निकालकर, ३ करोड़ रुपये से अधिक थी। उसकी सेना ३ लाख २४ हजार थी। खजाने में नकदी और जवाहरात मिलाकर ८० करोड़ से ऊपर था। उसकी पशुशाला में ७०० हाथी, ६००० ऊँट, ११००० घोड़े, ४००००० गाय और बैल, १००००० भैंसे, ६०००० भेड़ें थीं। शस्त्रागार में ६ लाख बन्दूकें, २ लाख तलवारें और २२ हजार तोपें थीं।

यह पहला ही हिदुस्तानी राजा था, जिसने अपने समुद्र-तट की रक्षा के लिए एक जहाजी बेड़ा-जो तोपों से सज्जित था, रखा हुआ था। यह जल सेना बहुत जबर्दस्त थी, और उसके जल-सेनापति अली रजा ने मलद्वीप के १२ हजार छोटे-छोटे टापुओं को हैदर के राज्य में मिला लिया था।

वह पढ़ा-लिखा न था। बड़ी कठिनता से वह अपने नाम का पहला अक्षर ‘है’ लिखना सीख पाया था। पर, इसे भी वह उल्टा-सीधा लिख पाता था। फिर भी उसने योरोप के बड़े-बड़े राज्यनीतिज्ञों के दाँत खट्टे कर दिये थे। उसकी स्मरण शक्ति ऐसी अलौकिक थी, कि वह एक-साथ कई काम किया करता था। एक साथ वह तीस-चालीस मुंशियों से काम लेता था। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र टीपू ने युद्ध उसी भाँति जारी रखा। अंग्रेजों ने लल्लो-चप्पो करके सन्धि की। वह वीर था—पर अनुभव-शून्य था। उसने अंग्रेजों-से मित्रता की सन्धि स्थापित की, और जीता हुआ प्रान्त उन्हें लौटा दिया। कम्पनी ने उसे मैसूर का अधिकारी स्वीकार कर लिया था।

कुछ दिन तो चला। पीछे जब लॉर्ड कार्नवालिस गवर्नर होकर आयातो उसने देखा कि टीपू ने निजाम और मराठों से बिगाड़ कर लिया है। कॉर्नवालिस ने झट निजाम के साथ टीपू के बिरुद्ध एक समझौता किया।

इसके बाद उसने टीपू और मराठों में होती हुई सुलह में विघ्न डालकर मराठों से भी एक समझौता कर लिया। तीन बार उसने इंगलैंड से कुछ गोरी फौज तथा ५ लाख पौंड कर्ज भी मंगवाये।

अब त्रावनकोर के राजा से भी युद्ध छिड़वा दिया गया, और अंग्रेज उसकी मदद पर रहे। मुठभेड़ होने पर फिर टीपू ने अंग्रेजी सेना को हारपर-हार देनी आरम्भ की। अन्त में स्वयं कार्नवालिस ने सेना की बागडोर हाथ में ली। निजाम और मराठे उसकी सहायता को सेनाएँ ले-लेकर उससे मिल गये। ठीक युद्ध के समय तमाम योरोपियन अफसर और सिपाही शत्रु से मिल गये। टीपू के कुछ सेनापति और सरदार भी घूस से फोड़ लिये गये। यद्यपि टीपू की कठिनाइयाँ असाधारण थीं, पर उसने वीरता और दृढ़ता से कई महीने लोहा लिया। अन्त में बंगलौर अंग्रेजों के हाथ में आ गया-टीपू को पीछे हटना पड़ा।

अब कार्नवालिस ने मैसूर की राजधानी श्रीरंपपट्टन पर चढ़ाई की। टीपू ने युद्ध किया, और सुलह की भी पूरी चेष्टा की। अंग्रेजों ने लालबाग में हेदरअली की सुन्दर समाधि पर अधिकार कर लिया, और उसे लगभग नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। अन्त में दोनों दलों में सन्धि हुई, और टीपू का आधा राज्य लेकर कम्पनी, निजाम और मराठों ने बाँट लिया। इसके सिवा टीपू को ३ किस्तों में ३ करोड ३० हजार रुपया दण्ड देने का भी वचन देना पड़ा; और इस दण्ड की अदायगी तक अपने दो बेटों को-जिनमें एक की आयु १० वर्ष और दूसरे की ८ वर्ष की थी—बतौर बन्धक अंग्रेजों के हवाले करना पड़ा।

इस पराजय से टीपू का दिल टूट गया, और उसने पलंग-बिस्तर छोड़- कर टाट पर सोना शुरू कर दिया, और मृत्यु तक उसने ऐसा ही किया।

टीपू ने ठीक समय पर दण्ड का रुपया दे दिया, और बड़ी मुस्तैदी से वह अपने राज्य, राज्य-कोष और प्रबन्ध को ठीक करने लगा। युद्ध के कारण जो मुल्क की बर्वादी हुई थी, उसे ठीक करने में उसने अपनी सारी शक्ति लगा दी। सेना में भी नई भर्ती करना और उसे शिक्षा देना उसने आरम्भ किया। इस प्रकार शीघ्र ही उसने अपनी क्षति-पूर्ति कर ली।

उधर अंग्रेज सरकार भी बेखबर न थी। उधर भी सैन्य-संग्रह हो रहा था। निजाम सबसीडीयरी सेना के जाल में फंस चुका था, और पेशवा के पीछे सिन्धिया को लगा दिया था। पर प्रकट में दोनों ओर से मित्रता और प्रेम के पत्रों का भुगतान हो रहा था। अन्त में सन् १७६६ की ६ जनवरी को हठात् टीपू को वेलेजली का एक पत्र मिला, उसमें लिखा था-“अपने समुद्र-तट के समस्त नगर अंग्रेजों के हवाले कर दो, और २४ घण्टे के अन्दर जवाब दो।”

३ फरवरी को अंग्रेजी फौजें टीपू की ओर बढ़ने लगीं। परन्तु टीपू युद्ध को तैयार न था। उसने सन्धि की बहुत चेष्टा की, पर वेलेजली ने कुछ भी ध्यान न दिया। जल और थल दोनों ओर से टीपू को घेर लिया गया था। गुप्त साजिशों से बहुत से सरदार फोड़े जा चुके थे। अंग्रेजों के पास कुल तीस हजार सेना थी।

प्रारम्भ में टीपू ने अपने विश्वस्त सेनापति पुर्णियाँ को मुकाबले में भेजा। पर वह विश्वासघाती था। वह अंग्रेजी फौज के इधर-उधर चक्कर लगाता रहा और अंग्रेजी सेना आगे बढ़ती चली आई। यह देख, टीपू ने स्वयं आगे बढ़ने का इरादा किया। पर विश्वासघातियों ने उसे धोखा दिया और उसकी सेना को किसी और ही मार्ग पर ले गये। उधर अंग्रेजी सेना दूसरे ही मार्ग से रंगपट्टन आ रही थी। पता लगते ही टीपू ने पलटकर गुलशनबाद के पास अंग्रेजी सेना को रोका। कुछ देर घमासान युद्ध हुआ। सम्भव था, अंग्रेजी सेना भाग खड़ी होती-पर उसके सेनापति कमरुद्दीनखाँ ने दगा दी, और उलटकर टीपू की ही सेना पर टूट पड़ा। इस भाँति अंग्रेज विजयी हुए।

इसी बीच में टीपू ने सुना कि एक भारी सेना बम्बई की तरफ से चली आ रही है। टीपू वहाँ कुछ सेना छोड़, उधर दौड़ा, और बीच में ही उस पर टूटकर उसे भगा दिया। परन्तु उसके मुखबिर और सेनापति सभी विश्वासघाती थे। टीपू को वे बराबर गलत सूचना देते थे। ज्योंही टीपू लौटकर रंगपट्टन आया कि अंग्रेजी सेना ने शहर घेरकर तोपों से आग बरसाना शुरू कर दिया।

टीपू ने सेनायें भेजीं। पर सेनापतियों ने युद्ध के स्थान पर चारों ओर चक्कर लगाना शुरू कर दिया। अंग्रेज फतह कर रहे थे और टीपू को गलत खबरें मिल रही थीं। क्रोध में आकर टीपू ने तमाम नमकहरामों की सूची बनाकर एक विश्वस्त कर्मचारी को दी, और कहा-“इन्हें रात को ही कत्ल कर दो।” पर एक फर्राश की नमकहरामी से फण्डाफोड़ हो गया।

उसी दिन टीपू घोड़े पर चढ़कर किले की फसीलों का निरीक्षण करने निकला, और एक फसील पर अपना खेमा लगवाया।

ज्योतिषियों ने उससे कहा था-“आज का दिन दोपहर की सात घड़ी तक आपके लिए शुभ नहीं।”

उसने ज्योतिषियों की सलाह से स्नान किया, हवन-जप भी किया, और दो हाथी-जिन पर काली झूलें पड़ी थीं-और जिनके चारों कोनों में सोना, चाँदी, हीरा, मोती बँधे थे, ब्राह्मण को दान दिये, गरीबों को भी अटूट धन दिया। इसके बाद वह भोजन करने बैठा ही था, कि सूचना मिली-किले के प्रधान संरक्षक अब्दुलगफ्फारखाँ को कत्ल कर डाला गया है। टीपू तत्काल उठ खड़ा हुआ, और घोड़े पर सवार हो, स्वयं उसका चार्ज लेने किले में घुस गया। कुछ खास-खास सरदार साथ में थे।

उधर विश्वासघातियों ने सैयद गफ्फार को खत्म करते ही सफेद रूमाल हिलाकर अंग्रेजी सेना को संकेत कर दिया। यह देख, टीपू के सावधान होने से प्रथम ही दीवार के टूटे हिस्से से शत्रु के सैनिक किले में घुस गये।

एक नमकहराम सेनापति मीरसादिक यह खबर पा, सुल्तान के पीछे गया और जिस दरवाजे से टीपू किले में गया था, उसे मजबूती से बन्दकरवाकर दूसरे दरवाजे से मदद लेने के बहाने निकल गया। वहाँ वह पहरेदारों को यह समझा ही रहा था कि, मेरे जाते ही दरवाजा बन्द कर लेना और हरगिज न खोलना, कि एक वीर ने जो उसकी नमकहरामी को जानता था, कहा-“कम्बख्त मलऊन! सुलतान को दुश्मनों के हवाले करके यों जान बचाना चाहता है। ले, यह तेरे पापों की सजा है।” कहकर खट् से उसके दो टुकड़े कर दिये।

पर टीपू अब फंस चुका था। जब वह लौटकर दरवाजे पर गया, तो उसी के बेईमान सिपाही ने दरवाजा खोलने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजी सेना टूटे हिस्से से किले में घुस चुकी थी। हताश हो, वह शत्रुओं पर टूट पड़ा। पर कुछ ही देर में एक गोली उसकी छाती में लगी। फिर भी वह अपनी बन्दूक से गोलियाँ छोड़ता ही रहा। पर फिर और एक गोली उसकी छाती में आकर लगी। घोड़ा भी घायल होकर गिर पड़ा। उसकी पगड़ी भो जमीन पर गिर गई। अब उसने पैदल खड़े होकर तलवार हाथ में ली। कुछ सैनिकों ने उसे पालकी में लिटा दिया। कुछ लोगों ने सलाह दी, कि अब आप अपने आपको अंग्रेजों के सुपुर्द कर दें। पर उसने अस्वीकार कर दिया। अंग्रेज सिपाही नजदीक आ गये थे। एक ने उसकी जड़ाऊ कमरपेटी उतारनी चाही। टीपू के हाथ में अभी तक तलवार थी-उसने उसका भरपूर हाथ मारा, और सिपाही दो टूक हो दूर जा पड़ा। इतने में एक गोली उसकी कनपटी को पार करती निकल गई।

रात को जब उसकी लाश मुों में से निकाली गई, तो तलवार अब भी उसकी मुट्ठी में कसी हुई थी। इस समय उसकी आयु ५० वर्ष की थी।

इस समय उसका बेटा फतह हैदर कागी घाटी पर युद्ध कर रहा था। पिता की मृत्यु की खबर सुनते ही वह उधर दौड़ा। पर नमकहराम सलाहकारों ने उसे लड़ाई बन्द करने की सलाह दी साथ ही जनरल हेरिस स्वय कुछ अफसरों के साथ उससे भेंट करने आये, और कहा कि यदि आप लड़ाई बन्द कर दें, तो आपको आपके पिता के तख्त पर बैठा दिया जायगा। इस पर विश्वास कर, फतह हैदर ने युद्ध बन्द कर दिया। पर यह सिर्फ बहाना था। अंग्रेजी सेना ने किले पर कब्जा कर लिया, और रंगपट्टन में अंग्रेजी सेना ने भारी लूट-खसोट और रक्तपात जारी कर दिया।

अब अंग्रेजी सेना महल में घुसी। टीपू को शेर पालने का शौक था। बाहरी सहन में अनगिनत शेर खुले फिरा करते थे। अंग्रेजी फौज ने भीतर घुसते ही इन्हें गोली से उड़ा दिया। महल में टीपू का खजाना, धन, रत्न और जवाहरात से ठसाठस भरा था। इस सब माल, हाथी, ऊँट भाँति-भाँति के असबाब पर अंग्रेज-सेना ने कब्जा कर लिया। सुलतान का ठोस सोने का तख्त तोड़ डाला गया, और हीरे- जवाहरात व मोतियों की माला और जेवरों के पिटारे नीलाम कर दिये गये। सिर्फ महल के जवाहरात की लूट का अन्दाजा १२ करोड़ रुपया था। उसका मूल्यवान पुस्तकालय और अन्य मूल्यवान पदार्थ रंगपट्टन से उठाकर लन्दन भेज दिये गये। उसके बाद टीपू के भाई करीम साहब, टीपू के बहार बेटों और उसकी बेगमों को कैद करके रायविल्लुर के किले में भेज दिया गया।

टीपू का सिंहासन सोने का बना हुआ था। सिंहासन की छतरी की कलगी में मोर बना था। मोर की गर्दन जमरुदों, शरीर हीरों तथा बीच-बीच में लालों की तीन धारियों से भरा हुआ था। चोंच एक बड़े जमर्रुद की थी, जिसके सिरे स्वर्णमंडित थे। इसमें एक बड़ा लाल और दो मोती भी लटक रहे थे। सिर की कलगी जमरुद और मोती की थी। पंख और परलाल हीरों और जमरुद के थे, जिनमें दोनों ओर सफेद छोटे मोती लटकते थे।

टीपू का राज्यचिन्ह ‘सिंह’ था। सिंहासन का चरणासन स्वर्ण-निर्मित सिंह-मुख था। सिंह की आँखें और दाँत बिल्लौर के थे, सिर के ऊपर की धारियाँ भी स्वर्ण की थीं।

उसकी पताकाओं पर सूर्य का चिह्न होता था। दो पताकाएँ लाल रेशम की होती थीं, जिनके बीच में स्वर्णरश्मियों के सूर्य बने हुए थे। बीच की पताका हरे रंग की होती थी, जिसपर सुनहरी सूर्य कढ़ा था। पताकाओं के सिरे सोने के थे जिनमें लाल हीरे और जमरुंद जड़े हुए थे।

ये दोनों अमूल्य धरोहर आजकल इंगलैंड के विंडसर कैसेल में रखे हुए थे।

टीपू की समाधि पर यह शेर खुदा है-

चूँ आँ मर्द मैंदा निहाँ शुद्ज दुनिया।

थके गुफ्त तारीख शमशीर गुल शुद।।

अर्थात्-जिस समय वह शूर दुनिया से गायब हुआ, उसी समय इतिहास के लिये तलवार गुम हो गई।

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