चैप्टर 13 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 13 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 13 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 13 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas

Chapter 13 Neelkanth Gulshan Nanda 

Chapter 13 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

ज्यों-ज्यों रात का अंधेरा बढ़ता गया, बाजार की रौनक कम होती गई। लोग दिन की थकावट दूर करने को अपने-अपने बसेरों से जा मिले। बस्ती पर मौन छाने लगा। इस मौन को तोड़ती हुई एक टैक्सी सराय रहमत उल्लाह के द्वार पर रुकी। संध्या टैक्सी का भाड़ा चुकाकर कल्पना में बढ़ती हुई सराय में जा पहुँची, जहाँ उसकी माँ फटे- पुराने कपड़े पहने लोगों को कहवा पिला रही थी। वह एक आंतरिक भय से कांप उठी और डरते-डरते उसने भीतर प्रवेश किया।

वह अकेली सराय के भीतर किसी कमरे में जाने से डर रही थी। अभी वह इस उलझन में ही थी कि जाए या न जाए खाना बीबी स्वयं आ गई।

दोनों एक-दूसरे को मौन दृष्टि से काफी समय तक देखती रहीं, मानो आँखों द्वारा हृदय की गहराईयों में कुछ टटोल रही हों। एकाएक खाना बीबी चिल्ला उठी-

‘संध्या मेरी बेटी।’

‘हाँ, संध्या, परंतु तुम्हारी बेटी नहीं! मुझे अपनी बेटी मत कहो-’

खाना बीबी ने एक दृष्टि सराय में बैठे लोगों पर डाली और बोली-‘भीतर आ जाओ-’

वह खाना बीबी के पीछे-पीछे कमरे के भीतर चली गई। खाना बीबी ने भीतर से किवाड़ बंद कर लिए और कंपित स्वर में बोली-

‘तुम यहाँ?’

‘तुम्हें देखने चली आई थी कि किस आनंद में हो।’

‘बेटी, ऐसा न कहो।’

‘तुम्हारी बेटी कहलवाने में मुझे लज्जा आती है।’

‘यह तुम कह सकती हो, मैं नहीं।’

‘तुम क्यों कहने लगीं, जानती हो आज मैं अपना सब कुछ खोकर यहां आई हूँ।’

‘क्या!’

‘अपना सब कुछ।’ वह दोहराते हुए बोली-‘जब संसार वाले जान गए कि मैं रायसाहब की नहीं, एक नीच वेश्या की लड़की हूँ।’

‘संध्या!’ खाना बीबी चिल्लाई, ‘निर्धनता से ढंकी इस इज्जत को नीच न समझो।’

‘आँखों से देखते चुप क्यों रहूँ-यदि निर्धन ही थीं तो मजदूरी करके पेट पाल लेतीं, किसी मंदिर में जोगिन बन जातीं-यों सराय में बैठे गंदे और आवारा लोगों का मनोरंजन न करतीं।’

‘अबोध लड़की!’ किसी की भारी और डरावनी आवाज ने उसे चौंका दिया। द्वार में वही एक आंख वाला लंगड़ा खड़ा था, जो आँखों में चिंगारियाँ लिए संध्या को देख रहा था। खाना बीबी ने बढ़कर धीरे से परिचय कराते हुए कहा-

‘नन्हें पाशा! यह मेरी बेटी है संध्या।’

‘ओह! तो इसलिए अपनी माँ को वेश्या कह रही है। जी चाहता है इसकी जबान खींच लूँ।’

संध्या यह सुनते ही सटपटा गई। खाना बीबी के मुख पर डर और चिंता स्पष्ट थी, जिससे यह जान पड़ता था कि यह काना और लंगड़ा व्यक्ति सराय में एक विशेष महत्त्व रखता है। उसने अपने मन को कुछ दृढ़ किया और मुँह फेरकर उसे घृणा से देखते हुए चिल्लाई-

‘हाँ, खींच लो इस जुबान को इसलिए कि वह सच न बोल सके, नोच लो इन आँखों को कि वह अन्याय न देख सकें।’

संध्या की बात सुन नन्हें पाशा के भयानक चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई और वह अपने मोटे और भद्दे होंठों को खोलते हुए बोला-‘शाबाश! झूठ और अन्याय ये दोनों तुमको पसंद नहीं-यह जानकर हमें अत्यंत प्रसन्नता हुई, परंतु इनको परखने के लिए अक्ल से काम लेना चाहिए।’

‘अक्ल-सच-झूठ, क्या आप मेरी परीक्षा लेने आए हैं?’

‘हम क्या परीक्षा लेंगे, भाग्य स्वयं मानव की परीक्षा है।’

‘किंतु मुझे किसी के भाषण की आवश्यकता नहीं।’

‘तो तुम यहाँ क्या करने आई हो?’

संध्या निरुत्तर हो गई और विस्फारित दृष्टि से पाशा को देखने लगी, जिसने ऐसा प्रश्न किया था। आखिर वह किस उद्देश्य से यहाँ आई है-किस निश्चय से वह इस भयानक स्थान पर चली आई-क्या माँ के साथ अब उसे भी ऐसा ही जीवन काटना होगा-लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे-वह ऐसी ही बातें सोचे जा रही थी। उसकी जबान पर मानो किसी ने ताला लगा दिया हो। नन्हें पाशा के शब्दों ने फिर मौन भंग कर दिया। वह कह रहा था-

‘मैं जानता हूँ तुम यहाँ क्यों आई हो-अपनी दुखिया माँ को वेश्या कहने-उसकी निर्धनता का उपहास उड़ाने-उसकी वर्षों की दबी हुई आशाओं को जगाने-उसके पुराने घावों को कुरेदने’, वह क्षण भर साँस लेने के लिए रुक गया और फिर कहने लगा-‘इसलिए कि तुम पढ़ी-लिखी हो; अच्छे वस्त्र पहनती हो; साफ-सुथरे वातावरण में पली हो; भाग्य ने तुम्हारे पांवों में फूल बिछाए हैं कांटे नहीं; परंतु यह अधिकार तुम्हें किसने दिया कि आकर किसी की शांति भंग करो; उसकी आशाओं को लूटो; बिना सोचे-समझे किसी निर्दोष को आकर वेश्या कह दो, यही तुम्हारी शिक्षा है; यही तुम्हारा सभ्य वातावरण कहता है; यही तुम्हारे धन का घमंड है; हम जानते हैं कि तुम हमारे सुंदर संसार में बसती हो; परंतु हम भी एक सुंदरता रखते हैं; हमारा भी अपना सुनहरा संसार है। अपने मन का संसार-वह वस्तु जो तुम लोगों के पास नहीं। कमरे में मौन छा गया, संध्या स्थिर बनी खड़ी थी-नन्हें पाशा का हर शब्द उसके मस्तिष्क पर हथौड़े की-सी चोट कर रहा था।

वह पागलों की भांति बढ़ी और अपनी माँ के गले से लिपट गई-दोनों रो रही थीं।

नन्हें पाशा ने दोनों को एक-दूसरे की बांहों में देखा तो उसकी आँखों की कोरों में दो मोती-से टिमटिमाए, जिन्हें वह गिरने से पहले ही पी गया।

जब उसे पता चला कि नन्हें पाशा उसका मामा है तो बहुत प्रसन्न हुई और अपने कहे हुए शब्दों पर पछताने लगी। लड़ाई में बेचारे की एक आँख और एक टांग चली गई और अब जीवनयापन के लिए वह सराय चला रहा है, वह सराय उसकी पैतृक संपत्ति थी। इस भयानक चेहरे के नीचे वह एक प्यार-भरा दिल रखता है, इसलिए सब उसे नन्हें पाशा कहते हैं। इस हालत को जानकर संध्या की घृणा सहानुभूति में बदलने लगी।

जब वह माँ का सहारा लिए बाहर आई तो हैरान रह गई। सराय के सब लोग उसकी ओर देख रहे थे और नन्हें पाशा के संकेत पर उसके सम्मुख झुक गए, मानो कोई प्रजा अपनी राजकुमारी का स्वागत कर रही हो।

बारी-बारी सब चबूतरे के पास आए और सब खाना बीबी को बधाई देते हुए कुछ-न-कुछ उपहार के रूप में संध्या के पांवों में रखते गए।

थोड़े ही समय में उसके पास रुपयों और दूसरी वस्तुओं का ढेर लग गया। संध्या ने प्रश्न-सूचक दृष्टि से अपने मामा की ओर देखा, जिसने बताया कि ये सब लोग उसकी माँ के ऋणी हैं-उसके प्यार और सहानुभूति के आभारी…और यह उपहार उसकी बेटी के आने के उपलक्ष्य में दे रहे हैं।

संध्या के मस्तिष्क में आनंद के वे शब्द फिर गए, संसार बहुत बड़ा है… हम और तुमसे भी बड़ा… जाओ और सच्ची शांति खोजो… किसी का सहारा लेकर उसने अनुभव किया जैसे उसे आज का सहारा मिल गया हो… गरीबों का सहारा… जिनके मन में प्रेम का उमड़ता सागर है… जो जीवन की वास्तविक शांति का मार्ग बता सकेंगे… और वह अपने मन के नीलकंठ का प्यार बांट देगी इन गरीबों में एक नदी के समान… एक स्रोत की भांति…

खाना खाने के पश्चात् जब वह माँ के बिस्तर पर लेटी तो उसे एक आंतरिक सुख-सा मिलने लगा। उसके सामने वे सब चीजें पड़ी थीं, जो लोगों ने उसे उपहार में दी थीं।

उसने देखा कि उसके मामा खर्राटे ले रहे हैं और माँ उसके साथ लिपटी मीठी नींद में खोई हुई थी। वह धीरे से बिस्तर से उठी और दबे पांव बाहर की ओर बढ़ी। थोड़े समय पहले जहाँ शोर मचा हुआ था, अब वहाँ सन्नाटा था। चबूतरे पर से होती हुई वह उन लोगों के बीच में चलने लगी। छत से लटके तेल के लैंप के टिमटिमाते हुए उजाले में फर्श पर लेटे आदमियों का गिरोह यों प्रतीत होता था, जैसे पंक्तियों में लाशें बिछी हों।

सवेरे संध्या की आँख देर से खुली। अभी तक उसकी आँखों में रात-भर जागने की थकान थी। सुबह से ही सराय में चहल-पहल आरंभ हो गई। कहवे की प्यालियाँ बजने लगीं। संध्या अब इस शोर से घबरा रही थी, उसे लगता था जैसे वह भी उसी वातावरण का एक भाग है।

उसने अपने बिखरे हुए बालों को सुलझाया और साड़ी का पल्लू कमर के गिर्द लपेट लिया। उसे बाहर जाने से पहले अपने-आपको संवारने का कोई विचार न आया। लगा जैसे वह सब झूठी प्रदर्शनी अब और नहीं चलेगी।

वह चबूतरे पर आई। प्रसन्नता में कांपते हुए हाथों से माँ ने स्नेहपूर्वक कहवे का एक प्याला संध्या की ओर बढ़ाया। संध्या ने प्याला ले लिया और देखते हुए बोली-

‘आप…?’

‘सुबह से चार पी चुका हूँ।’

‘तो पांच सही…’ संध्या ने यह प्याला उसकी ओर बढ़ा दिया और माँ से एक प्याला और ले लिया। दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराए और कहवा पीने लगे। हॉल में बैठे लोगों को देखते हुए संध्या ने पूछा-‘ये सब क्या करते हैं?’

‘झक मारते हैं-’ नन्हें पाशा ने अपने शब्दों पर जोर देते हुए कहा-‘बम्बई की लंबी-चौड़ी सड़कों पर सवेरे से सांझ तक काम खोजते हैं-कोई नौकरी की खोज में और कोई मजदूरी की-किसी की दृष्टि भोले आदमियों की तलाश में रहती है कि उनकी जेब पर छापा मारें।’

‘तो क्या ये चोरी भी करते हैं?’ उसने फिर से पूछा।

‘यह बम्बई है, इसे चोरी नहीं कहते, यह भी एक धंधा है। वह देखो सामने छक्कन चाचा को-जानती हो क्या करते हैं?’

‘क्या?’ संध्या ने सामने खड़े एक वृद्ध की ओर देखते हुए पूछा।

‘अपाहिजों, भिखारियों की टोली का सरदार है-उन्हें हर चौक पर बिठाने की कमीशन लेता है कि पुलिस वाले तंग न करें।’

संध्या ने एक लंबी साँस भरी।

‘पगली यह अनोखी दुनिया है। धीरे-धीरे सब समझ जाओगी… आओ तुम्हारा परिचय करा दूँ-‘जॉन डले’ पाशा ने ऊँचे स्वर में पुकारा।

नन्हें पाशा को झुककर सलाम करते हुए एक व्यक्ति उनके सामने आ खड़ा हुआ-सिर पर फटा-पुराना हैट और किसी कबाड़ी से लिया पुराना डिनर सूट पहने वह इन भिखारियों में एक काला अंग्रेज दिखाई देता था।

‘हैलो जॉन-तुम्हारा ज्योतिष क्या कहता है?’

‘एक तूफान आने वाला है’, जॉन ने संध्या की ओर देखते हुए कहा।

‘कहाँ?’

‘तुम्हारी सराय में-बहुत बड़ा तूफान-इंकलाब।’

‘कौन लाएगा?’ नन्हें पाशा ने मुस्कुराते हुए पूछा।

‘यह मैडम-’ उसने संध्या की ओर देखते हुए उत्तर दिया।

उसकी यह बात सुनकर पाशा खिलखिलाकर हंसने लगा, जैसे उसकी यह बात बड़ी अनोखी लगी हो। जॉन उसे हंसते देखकर झेंपकर एक ओर हो गया।

‘तुम एक तूफान लाओगी-मेरी सराय में-यह ईसाई का बच्चा अपने-आपको ज्योतिषी बताकर बम्बई में आए यात्रियों की जेबों से चांदी खींचता है।’ पाशा ने सिर हिलाकर मुस्कुराते हुए संध्या को संबोधित करते हुए कहा।

‘यह भी तो एक धंधा है मामा!’

‘हाँ बेटा-अपने को जीवित रखना भी एक धंधा है।’

‘परंतु यों कीड़े-मकोड़ों की भांति जीने से मर जाना ही अच्छा है’, उसने कुछ गंभीर स्वर में उत्तर दिया।

‘सुंदर-पर यह विचार इन कीड़े-मकोड़ों में मत फैलाना, वरना ये अपनी चाल छोड़कर हवा में उड़ने लगेंगे-फिर जानती हो क्या होगा?’

‘क्या होगा?’ उसके स्वर में दृढ़ता थी।

‘धरती पर औंधे आ गिरेंगे, क्योंकि इनके भाग्य में रेंगना ही है।’

‘तो मैं इनका भाग्य बदल दूंगी, इन्हें पर देकर उड़ना सिखाऊँगी।’

‘तो जॉन डले ठीक कहता है-यह मैडम इंकलाब लाएगी।’ कहकर वह फिर हंसने लगा। इस हंसी में भयानकता थी।

संध्या ने कहवे का खाली प्याला चबूतरे पर रख दिया और धीरे-धीरे पांव उठाती हॉल में बैठे लोगों की ओर बढ़ी। खाना बीबी और नन्हें पाशा चुपचाप उसे देखते रहे।

आगे बढ़कर उसने सबको एक स्थान पर एकत्र होने का संकेत किया और जब वे उसके गिर्द जमघट बनाकर खड़े हो गए तो ऊँचे स्वर में उनको संबोधित कर बोली-‘मैं तुम लोगों का भाग्य बदल देना चाहती हूँ।’

सब आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगे, जैसे किसी ने विचित्र और अनहोनी बात कह दी हो। वे सब आपस में खुसर-फुसर करने लगे-मौन एक समझ न आने वाले अधूरी रागिनी में बदल गया। वह फिर बोली-

‘तुम लोगों को क्या चाहिए?’

‘पेट भर रोटी-’ उनमें से एक बोला।

‘हाँ-हाँ दो समय रोटी। हम भी इंसान हैं।’ सबने दोहराते हुए यह कहा।

‘तो अपने को पहचानने का प्रयत्न करो, इंसानों की भांति जीना सीखो।’

‘परंतु कैसे?’ एक ने आगे बढ़ते हुए पूछा।

‘इंसानियत के मार्ग पर चलकर…आओ मैं तुम सबको एक नया पथ दिखाती हूँ जहाँ रोटी, कपड़ा, मकान सबको एक समान मिलेगा-क्या तुम इस पथ पर मेरा साथ दोगे?’

‘अवश्य!’ हॉल लोगों की आवाज से गूंज उठा, जैसे सचमुच सबको कोई संभालने वाला मिल गया हो।

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