चैप्टर 12 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 12 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 12 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 12 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas 

Chapter 12 Neelkanth Gulshan Nanda Novel 

Chapter 12 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

सवेरा होते ही वह सीधा रायसाहब के यहाँ पहुँचा। आज वह अपना निर्णय कर ही देना चाहता था।

वहाँ रायसाहब और मालकिन चिंता में खोए गोल कमरे में बैठे थे। संध्या बालकनी की सीढ़ियों पर सिर झुकाए बैठी थी। कुछ देर तक तीनों में से किसी ने आनंद को न देखा। हर ओर चुप्पी-सी थी।

‘ओह…आनंद आओ…’ रायसाहब ने चौंकते हुए कहा और कुर्सी से उठकर उसकी ओर बढ़े। आनंद लंबे-लंबे डग भरता उनके पास आ गया और कनखियों से संध्या को देखने लगा, जो अचानक उसे देख मुँह फेरकर खड़ी हो चुकी थी।

‘कहिए… सब ठीक तो है।’ आनंद ने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा।

किसी के उत्तर न देने पर आनंद ने अपने वाक्यों को दोहराया। ‘आनंद! मैं अभी तुम्हारे यहाँ ही जा रहा था।’ रायसाहब ने मौन भंग किया।

‘कहिए-मैं स्वयं आ गया।

‘संध्या अभी-अभी आई है।’

‘जी…वह मैं देख रहा हूँ।’

‘और निर्णय चाहती है।’

‘निर्णय?’ वह तनिक घबरा गया, पर संभलते हुए बोला-‘कैसा निर्णय?’

‘अपने जीवन का… यह तो तुम जानते ही हो कि वह मेरी लड़की नहीं…’

‘तो क्या हुआ। मेरा निश्चय अटल है और फिर भी यदि वह ऐसी बातें सोचे तो उसकी भूल है… आपने तो उसे अपनी लड़कियों से कम नहीं चाहा। वह कौन-सी वस्तु है, जो आपने उसे नहीं दी।’

‘हाँ आनंद! सब ठीक है, परंतु जो मूर्खता बेला से हुई उसका संध्या को भी बुरा नहीं मानना चाहिए। आखिर वह नादान है। उसकी छोटी बहन यदि यह भेद जानने पर किसी से कह भी दिया तो इसे बड़ी होने के नाते उसे क्षमा कर देना चाहिए।’

‘तो क्या दोनों में कोई झगड़ा हुआ है?’

‘यह तो इसी से पूछो, जाने दोनों में क्या-क्या बातें हुईं? यदि इससे कहूँ तो बिगड़ती है, उससे कहूँ तो घर सिर पर उठा लेती है। दो दिन से निशा के घर पर पड़ी है, यह भी कोई अच्छी बात है। सुनने वाले क्या कहेंगे?’ मालकिन बीच में बोलीं।

‘हँसेंगे, रायसाहब का उपहास करेंगे कि उसका बोझ उठाने से घबराते हैं।’ रायसाहब ने चिंतित स्वर में कहा।

‘तो आप सब मिलकर इस कथा को समाप्त ही क्यों नहीं कर देते? संध्या चिल्लाई।

‘क्या चाहती हो तुम?’ आनंद ने धीमे स्वर में कहा।

‘आपने उसे विवाह का वचन दिया है।’

‘विवाह?’ रायसाहब और मालकिन के मुँह से एक साथ निकला और वह आश्चर्य से संध्या और आनंद को देखने लगे, जो स्वयं यह शब्द सुनकर तनिक कांप गया था। आनंद ने अपनी घबराहट को शीघ्र ही मुस्कुराहट में बदलते हुए कहा-

‘बस, इतनी-सी बात, अभी निर्णय किए देता हूँ। रायसाहब किसी पंडित को बुलवाइए।’

‘किसलिए?’

‘मुहूर्त निकलवाइए मैं संध्या से शीघ्र ब्याह करना चाहता हूँ।’

संध्या यह सुनते ही सकुचा गई। रायसाहब और मालकिन हँसने लगे।

‘यह भी गुड़िया की लगन है, जो…’ वह हँसी रोकते हुए वाक्य पूरा भी न कर पाए कि आनंद ने बीच में टोक दिया-

‘आज्ञा हो तो जरा बेला से मिल आऊँ।’

‘यह भी कोई पूछने की बात है। जाओ उसे भी मना लाओ। ऐसी बिगड़े-दिल साली भी भाग्य से मिलती है।’ रायसाहब ने उत्तर दिया और मालकिन की ओर देखकर मुस्कराने लगे।

आनंद लपककर सीढ़ियाँ चढ़कर बेला के कमरे की ओर बढ़ा। बेला निढाल बिस्तर पर लेटी हुई थी। आहट पाते ही उसने गर्दन उठाई और आनंद को देखकर अपनी बिखरी दशा ठीक करने लगी। उसकी आँखों में क्रोध झलक रहा था। इससे पहले कि वह कुछ कहती, आनंद ने द्वार बंद कर लिया और बोला-

‘कहो बेला-तुम्हारा क्या निर्णय है।’

‘निर्णय-कैसा निर्णय?’ उसने असावधानी से पूछा।

‘आज ही निर्णय का दिन है और नीचे सब मेरे शब्द सुनने को व्याकुल हैं।’

‘मैं नहीं समझी-यह सब…’

‘तो समझ लो-मैं संध्या से विवाह कर रहा हूँ।’

यह सुनते ही आवेश में वह कांपने लगी, मानो किसी ने उसके सीने में विष-भरा तीर चुभो दिया हो।

‘आप बहुत शीघ्र अपने निर्णय बदलते हैं।’

‘किंतु यह मेरा अंतिम निर्णय है। अब इसे कोई बदल नहीं सकता।’

‘आपकी हर बात अंतिम होती है, कान के कच्चे जो हैं, जिसने भड़का दिया उसी के हो गए।’

‘किंतु अब तुम्हारी कोई चाल नहीं चलेगी। मैं यह न जानता था कि तुम आग पर तेल डालना चाहती हो।’

‘और मैं यह जानती थी कि उसका प्रेम धोखा है।’

‘कैसा प्रेम-कैसा धोखा-तुम जबरदस्ती मेरे गले में आ पड़ीं तो मैं क्या करूँ?’

‘अब यों ही कहोगे-धोखा देने के पश्चात् सब यों ही कहते हैं।’

‘धोखा मैंने दिया या तुमने-बलपूर्वक मेरी अतिथि बन बैठीं। अपने हाव-भाव से मुझे अपनी ओर खींचा और मेरी निर्बलता से लाभ उठाने के लिए तस्वीर के रूप में हमारे मिलने के प्रमाण रख लिए-तुमने समझा कि इन चालों से तुम मेरे प्रेम को जीत सकोगी-परंतु यह असंभव है-तुम जैसी कपटी मेरे मन में घर नहीं कर सकतीं-कभी नहीं।’

‘नहीं-ऐसा मत कहो आनंद-प्रेम में मानव क्या नहीं करता।’ वह आँखों में आँसू लाकर बोली।

‘प्रेम में मानव सब कुछ करता है। कभी-कभी निराश होकर विष खाकर आत्महत्या भी कर लेता है।’

‘ठीक है, ऐसा ही होगा।’ यह कहते हुए उसने तकिए के नीचे से एक छोटी-सी शीशी निकाली और उसका ढक्कन खोलकर मुख की ओर ले जाने लगी।

‘यह क्या?’ आनंद उसके पास आकर बोला।

‘विष-मेरा अंतिम साधन।’

‘तुम पागल हो? कभी ऐसा भी किया जाता है।’

‘अभी आप ही तो कह रहे थे कि विष खाकर आत्महत्या कर लूं।’

‘कह रहा था क्रोध में आकर, उठो मूर्ख न बनो, वास्तविकता को समझने का प्रयत्न करो। मैं तुम्हारे लिए अपने से बढ़कर धनी, सुंदर और भला वर ढूंढ दूंगा, यह प्रेम केवल मायाजाल है।’

‘बालकों की भांति बहला रहे हैं मुझे।’

‘हाँ, तुम बालिका ही तो हो, वरना तुम्हारी भूलें इतनी शीघ्र क्षमा क्यों कर देता। उठो, मेरी अच्छी बेला!’ आनंद ने प्यार से उसका हाथ पकड़ा और उसे उठाने लगा।

‘आनंद!’

‘क्या?’

‘तुम मुझे बच्चा समझते हो, परंतु जानते हो मैं क्या हूँ?’

‘क्या हो?’

‘एक डूबती हुई नाव-मुझे तुम्हारे सहारे की आवश्यकता है।’ वह उससे लिपटते हुए बोली-‘मैं अब बच्ची, नहीं-तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ।’

‘बेला!’ उसे झटके से अलग करते हुए आनंद चिल्लाया, ‘नहीं यह झूठ है। यह कभी नहीं हो सकता।’

‘नहीं आनंद यदि ऐसी बात न होती तो मैं संध्या और तुम्हारे बीच में दीवार खड़ी करने का प्रयास न करती।’

‘नहीं-नहीं, यह तुम क्या कह रही हो?’

‘देखो यह सब…’ उसने पर्स खोलकर दो-चार छोटी-सी शीशियाँ निकालीं और आनंद को दिखाते हुए बोली-‘ये मेरी मृत्यु के चिह्न हैं। तुम्हारा एक छोटा-सा निर्णय मेरे जीवन या मृत्यु का कारण बन सकता है।’

आनंद ने कोई उत्तर न दिया। उसकी आँखों में भय स्पष्ट था। वह कांपते हुए उठा और बाहर चला आया। बेला ने एक-दो बार पुकारा भी, पर उसने कोई ध्यान न दिया।

नीचे गोल कमरे में रायसाहब और मालकिन उत्साहपूर्वक उसकी ओर बढ़े, पर उसके मुख पर चिंता के गहरे चिह्न देखकर कोई प्रश्न न कर सकें। आनंद बिना रुके लंबे-लंबे डग भरता बाहर निकल गया। रायसाहब विस्मित से मूर्ति बने खड़े रहे। संध्या रायसाहब के संकेत पर उसके पीछे हो ली।

आनंद अभी गाड़ी स्टार्ट कर ही पाया था कि संध्या ने पहुँचकर कहा-

‘बिन मिले और बिना कुछ कहे जा रहे हो।’

‘संध्या?’

‘जी’

‘तुम्हें मेरे निर्णय की प्रतीक्षा थी न।’

‘जी…।’

‘तो सुनो, मुझे सदा के लिए भूल जाओ।’

‘यह आप क्या कह रहे हैं?’ संध्या और पास आकर बोली।

‘ठीक ही कह रहा हूँ। मेरा प्रेम धोखा ही था, उसकी लपेट में मैं तुम्हारे पवित्र प्रेम को नहीं लेना चाहता।’

‘यह क्या कह रहे हैं? आप कहीं…’

‘मन छोटा न करो। संसार बहुत बड़ा है-हमारे विचारों से भी बहुत बड़ा, और कोई आसरा ढूंढ लो जहाँ तुम्हें सुख और शांति मिल सके। मुझे एक छली और झूठा समझकर सदा के लिए बिसार दो।’

आनंद की बातों में आज एक दृढ़ता थी-ये सब बातें उसने बिना रुके एक ही साँस में कह डालीं और संध्या की बात सुने बिना गाड़ी स्टार्ट कर दी। एक झटका लगा और वह लड़खड़ाते हुए बची। एक शोर हुआ और घंटी की आवाज वातावरण में गूंजने लगी-दूर सड़क पर फायरब्रिगेड का इंजन तेजी से जा रहा था-कहीं आग लग गई थी-संध्या के मन में भी आग सुलग रही थी, जिसे उसके अतिरिक्त और कोई अनुभव न कर सका। आनंद के ये शब्द अभी तक उसके कानों में गूंज रहे थे-‘संसार बहुत बड़ा है, हमारे-तुम्हारे विचारों से भी बहुत बड़ा।’ ये लंबी-चौड़ी सड़कें, बड़ी-बड़ी इमारतें, गाड़ियाँ, लाखों-करोड़ों की भीड़, पर इन सबमें एक व्यक्ति भी ऐसा न था जो शांति न दे सकता।

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