चैप्टर 11 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 11 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

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Chapter 11 Neelkanth Gulshan Nanda Novel 

Chapter 11 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

शाम के छह बजने को थे। बेला शाम की मेज पर अकेली बैठी उन प्यालों को देख रही थी, जो रायसाहब और मालकिन के लिए सजाए गए थे, परंतु आज उन्होंने चाय न पी थी। वर्षों से शाम की चाय संध्या के हाथों से पिया करते थे। आज उसकी अनुपस्थिति में चाय न पी सकें। उन्हें विश्वास था कि उनकी बेटी बोझ हल्का हो जाने के पश्चात् स्वयं लौट आएगी। वह स्वप्न में भी न सोच सकते थे कि इसकी तह में बेला का हाथ है, जो दोनों ओर एक समान आग लगा रही थी।

चाय का प्याला होंठों से लगाते बेला सोच रही थी कि कहीं आनंद ने उसका हाथ न पकड़ा तो उसका क्या होगा। एकाएक आनंद के स्वर ने उसके विचारों का तांता तोड़ दिया।

‘हैलो बेला! – बाकी सब कहां हैं?’

‘पापा और मम्मी अभी पड़ोस में गए हैं।’

‘और संध्या।’

बेला ने कोई उत्तर न दिया और आनंद के मुख की ओर देखने लगी। आनंद ने एक कुर्सी खींची और बैठते हुए पूछा-‘चुप क्यों हो गईं?’

‘दीदी चली गईं।’

‘कहाँ?’ वह चौंकते हुए बोला।

‘अपनी माँ के पास।’ बेला ने संध्या का दिया हुआ हार निकालकर उसके सामने रखते हुए कहा।

‘और यह हार?’

‘मुझे सौंप गईं। कहतीं थीं कि आनंद बाबू आएँ तो उन्हें लौटा देना।’

‘वह क्यों?’

‘कहती थीं, मैं तुम दोनों के मार्ग में नहीं आना चाहती। मेरा मार्ग अलग और उसका अलग है।’

‘परंतु इतनी बड़ी भूल उससे हुई क्यों कर?’

‘मैं क्या जानूँ, शायद अपनी वास्तविकता जानकर अपने-आप से लज्जित है।’

‘संभव है।’

‘इसलिए जब मैंने कहा, दीदी अपनी माँ के यहाँ अभी न जाओ। आनंद बाबू क्या सोचेंगे तुम्हारी वास्तविकता को जानकर…’

‘तो क्या बोली वह?’ आनंद ने पूछा।

‘कहने लगी-मैं जैसी भी हूँ तुम्हारे आनंद बाबू से बहुत अच्छी हूँ। किसी को मीठी छुरी बनकर नहीं काटती।’

‘ओह!’ आनंद दांत पीसकर चुप हो गया और चाय का प्याला शीघ्रता से पीकर बाहर जाने लगा। बेला ने पूछा-‘कहाँ चल दिए?’

‘संध्या के पास।’

‘ठहरो, मैं भी चलती हूँ तुम्हारे संग।’

आनंद ने कोई उत्तर न दिया और तेज कदम उठाता बाहर सड़क पर आ पहुँचा। बेला भी तुरंत उसके साथ आकर चुपके से गाड़ी की पिछली सीट पर आ बैठी।

‘वह कहाँ है, क्योंकर पता चलेगा उसका?’

‘निशा के यहाँ से सब पता चल जाएगा।’ बेला ने चिंतित मन से उत्तर दिया।

निशा के घर पहुँचने पर उन्हें यह जानकर सांत्वना हुई कि संध्या अभी तक वहीं है। आनंद चुपके से उसके समीप जा पहुँचा, जो उस समय कोई पत्रिका देखने में तल्लीन थी। आनंद के पाँवों की आहट पाकर वह उस ओर मुड़ी।

‘कोई सफाई देने आए हैं आप अब।’

‘हाँ, यही कहने आया हूँ कि मेरा बेला का कोई ऐसा संबंध नहीं, जो तुम हर समय जली-भुनी रहती हो।’

‘यह आपसे किसने कहा कि मैं आपसे जली-भुनी रहती हूँ।’

‘तुम्हारी संदेह भरी दृष्टि ने, जिसको पढ़ने में मैंने भूल नहीं की।’

‘और यदि आपकी बहकी आँखों में मैंने कुछ देखा हो तो।’

‘क्या?’

‘कि आप चोरी-छिपे बेला से प्यार करते हैं।’

‘संध्या।’ वह चिल्लाया।

‘आप मुझे तो धोखा दे चुके-अब उसका जीवन नष्ट न कीजिएगा।’

‘तुम मुझे इतना गिरा हुआ समझती हो, यह मैं आज जान पाया। शायद तुम मेरे मन की दशा न जान सकोगी, मैं तो अपनी मान-मर्यादा का विचार न करते हुए तुम्हें उन गलियों से लेने जा रहा था, जहाँ भले आदमी पाँव तक नहीं रखते।’

‘रहने दीजिए अपनी भलमनसी को और कृपया चले जाइए यहाँ से।’

‘मैं जानता हूँ संध्या, परंतु किसी दिन तुम अवश्य पछताओगी। मैं यह न जानता था कि ‘नीलकंठ’ के पवित्र प्रेमी की देवी इतनी गिरी हुई है, पर तुम्हारा क्या दोष…आखिर हो किसकी बेटी।’

संध्या यह सुनते ही बौखला उठी। इससे पूर्व कि वह इसका कोई उचित उत्तर दे पाती, आनंद नीलकंठ वाला हार फर्श पर पटक तेजी से बाहर निकल गया।

बेला सड़क पर गाड़ी में बैठी बेचैनी से आनंद के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी।

आनंद क्रोध में भर्राया हुआ आया और सीट पर बैठकर कार को स्टार्ट करने के लिए चाबी निकालने लगा। बेला झट से अपनी सीट पर आ गई और सहानुभूति जताने के लिए उसके माथे से स्वेद बिंदु साफ करने लगी। कुछ समय चुप रहने के बाद बेला ने झिझकते हुए प्रश्न किया-‘क्यों कुछ पता चला?’

‘वह यहीं थी।’ क्रोध में उत्तर देते हुए आनंद ने गाड़ी चला दी।

‘क्या कहती थी?’ बेला ने नम्रता से पूछा।

‘बंद करो यह बकवास-मैं उसके विषय में कुछ नहीं सुनना चाहता।’ उसने गाड़ी की गति और तेज कर दी। बेला उसके इस कठिन उत्तर और गाड़ी की तीव्र गति से उसके मन में बढ़ते हुए तूफान का अनुमान लगा रही थी। उसे इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।

वह सारी बातें सोच रही थी कि गाड़ी शहर से बाहर निकलकर समुद्र-तट पर जा पहुँची।

यह वह स्थान था, जहाँ एक सांझ संध्या और उसने मिलकर अपने प्रेम को ‘नीलकंठ’ का नाम दिया था और सदा एक-दूसरे का रहने का प्रण किया था। वहाँ पहुँचकर उसने उछलती हुई लहरों को देखा, जो डूबते हुए सूर्य को अंतिम प्रणाम करने को बार-बार उठ रही थीं।

‘झूठी कहीं की।’ वह स्वयं क्रोध में बड़बड़ाया।

‘कौन?’ बेला ने पीछे से कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।

‘तुम्हारी दीदी-बेला, उसे मैं कितना अच्छा समझता था, न जाने उसे क्या हो गया है?’

‘अब जाने दो इन बातों को। जीवन वह है, जो नदी के बहाव की भांति किनारों को छोड़ बढ़ता जाता है।’

‘किंतु, जब वह ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहाँ दूर तक कोई किनारा न मिले तो…’

‘ऐसा नहीं होता, जब संकीर्ण और पथरीले किनारे छोड़ नदी खुले मैदान में आती है तो उसे उनसे कहीं-कहीं अच्छे नर्म और कोमल मिट्टी के किनारे मिलते हैं, जिन्हें वह जब भी चाहे काटकर बहती चली जाए।’

उसने बेला की उम्मीद भरी आँखों में झांका और हृदय में भावना के उठते हुए तूफान को शांत करने के लिए उसे अपनी बांहों में भींच लिया-यह दूसरा किनारा था-नर्म और कोमल।

दोनों के दिलों की धड़कनें एक हो गईं-एक ओर दूर किसी मंदिर में घंटियाँ बज रही थीं और समुद्र में लहरों के टकराने का शोर-दोनों एक बार फिर खो-से गए।

‘बेला’, आनंद ने दबे स्वर में कहा-‘यह वही स्थान है, जहाँ एक दिन संध्या ने मुझसे प्रेम निभाने का प्रण किया था।’

‘और यह प्रण आज मैं करती हूँ।’

‘कहीं यह प्रण भी…’

‘ऊँ हूँ-’ बेला ने आनंद का मुँह अपनी हथेली से बंद करते हुए कहा-‘ऐसा मत कहिए।’

‘कितना अंतर है तुम दोनों में…मैंने कितना गलत समझा था तुम्हें।’

‘अब छोड़िए बीती बातें और चलिए घर, रात हो गई।’

आनंद ने बेला का हाथ पकड़ा और उसे कार तक सहारा दिए ले गया। बेला मन-ही-मन अपनी सफलता पर प्रसन्न थी।

घर लौटकर जब उसने बैठक में पांव रखा तो क्षण-भर के लिए वह चौंककर ठिठक-सा गया। सामने सोफे पर निशा बैठी हुई उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। अपनी घबराहट पर अधिकार पाते हुए उसने पूछा-

‘निश! तुम यहाँ…इस समय!’

‘जी। काफी समय से आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ।’

‘कहो-’ उसने असावधानी से अपना कोट उतारते हुए पूछा।

‘आज्ञा हो तो कुछ कह लूँ।’

‘तुम्हारी सहेली ने कुछ छोड़ा हो तो उसे पूरा कर लो।’

‘आपने ठीक समझा-दोनों की अधूरी बातों को मैं पूरा करने आई हूँ। क्या यह ठीक नहीं कि बेला को आप एक दिन चुपके से खंडाला ले गए थे?’

खंडाला का नाम सुनते ही आनंद के पांव तले की धरती खिसक गई और उसका मुख सफेद पड़ गया। वह निशा की ओर देखता-सा रह गया।

‘खंडाला?’ फूले हुए साँस से उसने कहा।

‘आप ही कहिए, क्या यह झूठ है?’

‘यह तुमसे कहा किसने?’ उसने अपनी घबराहट पर काबू पाते हुए कहा।

‘आपके मन ने, आपकी भटकती आँखों ने, बेला के उमड़ते यौवन और सौंदर्य ने।’

‘यह सब झूठ है।’

‘परंतु ये तस्वीरें कभी झूठ नहीं कह सकतीं, जो आपके रोमांस की जीवित झलकियां हैं।’

निशा की बात ने आनंद पर मानो घड़ों पानी डाल दिया। वह झूठ को कब तक छिपा सकता था और उसने इस चोरी को स्वीकार कर लिया।

जब उसे यह पता चला कि ये बातें बेला ने ही संध्या से कही हैं, तो वह क्रोध में जल-भुन गया। ‘तो यह सब आग उसी की लगाई हुई है’, वह घृणा से दांत पीसने लगा। वह सोचने लगा, जो बातें उसने संध्या के विरुद्ध उससे कही थीं, शायद वे सब भी असत्य हों और यह सब उसने उसे चले जाने के लिए कह डाली हों।

‘अब आप ही बताइए, यह सब जानकर संध्या की क्या दशा हुई होगी, आखिर वह स्त्री है।’

‘मैं बहुत लज्जित हूँ निशा, यह अच्छा ही हुआ, जो तुमने सब मुझे बता दिया।’

‘यही बार-बार मैंने संध्या से कहा, पर वह मन-ही-मन जलती रही और उससे चोरी-छिपे मुझे यहाँ आकर आपको सूचित करना पड़ा।’

‘तुमने अच्छा किया।’

‘अब क्या होगा?’

‘सब ठीक होगा। जाओ मेरी ओर से संध्या से कहना कि मुझे क्षमा कर दे और हाँ, तुम दोनों कल सवेरे ही घर आ जाना, रायसाहब के सामने इस बात का निर्णय हो जाएगा।’

‘किस बात का?’

‘कि मैं संध्या से शीघ्र विवाह करना चाहता हूँ।’

आनंद की ये बातें सुनते ही निशा प्रसन्न हो गई, उसका यहाँ आना सफल हो गया। वह शीघ्र यह सूचना संध्या को देने के लिए बाहर निकल गई।

आनंद बेला की चाल के विषय में रात-भर सोचता रहा। इसी चिंता में वह सो न सका- खंडाला के दृश्य उसकी आंखों के सामने आ-आकर भयानक रूप धारण करते रहे। किसी अज्ञात भय से वह कांप उठता। कहीं बेला उसकी निर्बलता का अनुचित लाभ न उठा ले और वह उसकी दृष्टि में गिर जाए। उसका शरीर पसीने से तर हुआ जा रहा था।

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