चैप्टर 12 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 12 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 12 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 12 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 12 Gunahon Ka Devta Novel Dharmveer Bharti 

”अबकी जाड़े में तुम्हारा ब्याह होगा, तो आखिर हम लोग नयी-नयी चीज का इंतज़ाम करें न। अब डॉक्टर हुए, अब डॉक्टरनी आयेंगी।”‘ सुधा बोली।

खैर, बहुत मनाने-बहलाने-फुसलाने पर सुधा मिठाई मंगवाने को राजी हुई। जब नौकर मिठाई लेने चला गया, तो चंदर ने चारों ओर देखकर पूछा, ”कहाँ गयी बिनती? उसे भी बुलाओ कि अकेले-अकेले खा लोगी!”

”वह पढ़ रही है मास्टर साहब से!”

”क्यों? इम्तहान तो खत्म हो गया, अब क्या पढ़ रही है?” चंदर ने पूछा।

”विदुषी का दूसरा खण्ड तो दे रही है न सितम्बर में!” सुधा बोली।

”अच्छा, बुलाओ बिसरिया को भी!” चंदर बोला।

”अच्छा, मिठाई आने दो।” सुधा ने कहा और फाइल की ओर देखकर कहा, ”मुझे इस कम्बख्त पर बहुत गुस्सा आ रहा है।”

”क्यों?”

”इसकी वजह से तुम डेढ़ महीने सीधे से बोले तक नहीं। इम्तहान वाले दिन सुबह-सुबह तुम्हें हाथ जोड़ने आयी तो तुमने सिर पर हाथ भी नहीं रखा!” सुधा ने शिकायत के स्वर में कहा।

”तो अब आशीर्वाद दे दें। अब तो खत्म हुई थीसिस। अब जितना चाहो बात कर लो। थीसिस न लिखते, तो फिर तुम्हारे चंदर को उपाधि कहाँ से मिलती?” चंदर ने दुलार से कहा।

”तो फिर कन्वोकेशन पर तुम्हारी गाउन हम पहनकर फोटो खिंचायेंगे!” सुधा मचलकर बोली। इतने में नौकर मिठाई ले आया। 

”जाओ, बिनतीजी को बुला लाओ।” चंदर ने कहा।

बिनती आयी।

”तुम पढ़ चुकी!” चंदर ने पूछा।

”अभी नहीं।” बिनती बोली।

”अच्छा, अब आज पढ़ाई बन्द करो, उन्हें भी बुला लाओ। मिठाई खाई जाए।” चंदर ने कहा।

”अच्छा!” कहकर बिनती जो मुड़ी, तो सुधा बोली, ”अरे लालचिन! ये तो पूछ ले कि मिठाई काहे की है?”

”मुझे मालूम है!” बिनती मुस्कुराती हुई बोली, ”उनके यहाँ आज गये होंगे, पम्मी के यहाँ। फिर आज कुछ उस दिन जैसी बात हुई होगी।”

सुधा हँस पड़ी। चंदर झेंप गया। बिनती चली गयी बिसरिया को बुलाने।

”अब तो ये तुमसे बोलने लगी!” सुधा ने कहा।

”हाँ, यह है बड़ी सुशील लड़की और बहुत शान्त। हमें बहुत अच्छी लगती है। बोलना तो जैसे आता ही नहीं इसे।”

”हाँ, लेकिन अब खूब सीख रही है। इसकी गुरु मिली है गेसू। हमसे भी ज्यादा गेसू से पटने लगी है इसकी। दोनों ब्याह करने जा रही हैं और दोनों उसी की बातें करती हैं, जब मिलती हैं तब।” सुधा बोली।

”और कविता भी करती है यह, तुम एक बार कह रही थीं?” चंदर ने पूछा।

”नहीं जी, असल में एक बड़ी सुन्दर-सी नोट-बुक थी, उसमें यह जाने क्या लिखती थी? हमें नहीं दिखाती थी। बाद में हमने देखा कि एक डायरी है। उसमें धोबी का हिसाब लिखती थी।”

”तो कविता नहीं लिखतीं! ताज्जुब है, वरना सोलह बरस के बाद प्रेम करके कविता करना तो लड़कियों का फैशन हो गया है, उतना ही व्यापक जितना उलटा पल्ला ओढ़ना।” चंदर बोला।

”चला तुम्हारा नारी-पुराण!” सुधा बिगड़ी।

मिठाई खाने वाले आये। आगे-आगे बिनती, पीछे-पीछे बिसरिया। अभिवादन के बाद बिसरिया बैठ गया। ”कहो बिसरिया, तुम्हारी शिष्या कैसी है?”

”बस अद्वितीय।” कवि बिसरिया ने सिर हिलाकर कहा। सुधा मुस्कुरा दी, चंदर की ओर देखकर।

”और ये सुधा कैसी थी?”

”बस अद्वितीय।” बिसरिया ने उसी तरह कहा।

”दोनों अद्वितीय हैं? साथ ही!” चंदर ने पूछा।

सुधा और बिनती दोनों हँस दीं। बिसरिया नहीं समझ पाया कि उसने कौन-सी हँसने की बात की थी और जब नहीं समझ पाया तो पहले सिर खुजलाने लगा, फिर खुद भी हँस पड़ा। उसकी हँसी पर तीनों और हँस पड़े।

चंदर, मास्टर साहब भी खूब हैं। एक दिन बिनती को महादेवी की वह कविता पढ़ा रहे थे, ‘विरह का जलजात जीवन,’ तो पढ़ते-पढ़ते बड़ी गहरी साँस भरने लगे।”

चंदर और बिनती दोनों हँस पड़े। बिसरिया पहले तो खुद हँसा फिर बोला, ”हाँ भाई, क्या करें, कपूर! तुम तो जानते ही हो, मैं बहुत भावुक हूँ। मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। एक बार तो ऐसा हुआ कि पर्चे में एक करुण रस का गीत आ गया अर्थ लिखने को। मैं उसे पढ़ते ही इतना व्यथित हो गया कि उठकर टहलने लगा। प्रोफेसर समझे मैं दूसरे लड़के की कॉपी देखने उठा हूँ, तो उन्होंने निकाल दिया। मुझे निकाले जाने का अफसोस नहीं हुआ लेकिन कविता पढ़कर मुझे बहुत रुलाई आयी।”

सुधा हँसी तो चंदर ने आँख के इशारे से मना किया और गम्भीरता से बोला, ”हाँ भाई बिसरिया, सो तो सही है ही। तुम इतने भावुक न हो, तो इतना अच्छा कैसे लिख सकते हो? तो तुमने पर्चा छोड़ दिया?”

”हाँ, मैं पर्चे वगैरह की क्या परवाह करता हूँ? मेरे लिए इन सभी वस्तुओं का कुछ भी अर्थ नहीं। मैं भावना की उपासना करता हूँ। उस समय परीक्षा देने की भावना से ज्यादा सबल उस कविता की करुण भावना थी। और इस तरह मैं कितनी बार फेल हो चुका हूँ। मेरे साथ वह पढ़ता था न हरिहर टंडन, वह अब बस्ती कॉलेज का प्रिन्सिपल है। एक मेरा सहपाठी था, वह रेडियो का प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव है…”

”और एक तुम्हारा सहपाठी तो हमने सुना कि असेम्बली का स्पीकर भी है!” चंदर बात काटकर बोला। सुधा फिर हँस पड़ी। बिनती भी हँस पड़ी।

खैर मिठाई का भोग प्रारम्भ हुआ। बिसरिया कुछ तकल्लुफ कर रहा था तो बिनती बोली, ”खाइए, मिठाई तो विरह-रोग और भावुकता में बहुत स्वास्थ्यप्रद होती है!”

”अच्छा, अब तो बिनती का कंठ फूट निकला! अपने गुरुजी को बना रही है।” चंदर बोला।

बिसरिया थोड़ी देर बाद चला गया।

“‘अब मुझे एक पार्टी में जाना है।” उसने कहा। जब आखिर में एक रसगुल्ला बच रहा, तो बिनती हाथ में लेकर बोली, ”कौन लेगा?” आज पता नहीं क्यों बिनती बहुत खुश थी और बहुत बोल रही थी।

चंदर बोला, ”हमें दो!”

सुधा बोली, ”हमें!”

बिनती ने एक बार चंदर की ओर देखा, एक बार सुधा की ओर। चंदर बोला, ”देखें बिनती हमारी है या सुधा की है।”

बिनती ने झट रसगुल्ला सुधा के मुख में रख दिया और सुधा के सिर पर सिर रखकर बोली-

”हम अपनी दीदी के हैं!” सुधा ने आधा रसगुल्ला बिनती को दे दिया, तो बिनती चंदर को दिखलाकर खाते हुए सुधा से बोली, ”दीदी, ये हमें बहुत बनाते हैं, अब हम भी तुम्हारी तरह बोलेंगे, तो इनका दिमाग ठीक हो जाएगा।”

”हम-तुम दोनों मिलके इनका दिमाग ठीक करेंगे?” सुधा ने प्यार से बिनती को थपथपाते हुए कहा, ”अब हम तश्तरियाँ धोकर रख दें।” और तश्तरियाँ उठाकर चल दी।

”पानी नहीं दोगी?” चंदर बोला।

बिनती पानी ले आयी और बोली, ”हम तो आपका इतना काम करते हैं और आप जब देखो, तब हमें बनाते रहते हैं। आपको क्या आनन्द आता है हमें बनाने में?”

चंदर ने पल-भर बिनती की ओर देखा और बोला, ”असल में बनने के बाद जब तुम झेंप जाती हो तो…हाँ ऐसे ही।”

बिनती ने फिर झेंपकर मुँह छिपा लिया और लाज से सकुचाकर इन्द्रवधू बन गयी। बिनती देखने-सुनने में बड़ी अच्छी थी। उसकी गठन तो सुधा की तरह नहीं थी, लेकिन उसके चेहरे पर एक फिरोजी आभा थी, जिसमें गुलाल के डोरे थे। आँखें उसकी बड़ी-बड़ी और पलकों में इस तरह डोलती थीं, जैसे किसी सुकुमार सीपी में कोई बहुत बड़ा मोती डोले। झेंपती थी, तो मुँह पर साँझ मुस्कुरा उठती थी और गालों में फूलों के कटोरों जैसे दो छोटे-छोटे गड्ढो। और बिनती के अंग-अंग में एक रूप की लहर थ, जो नागिन की तरह लहराती थी और उसकी आदत थी कि बात करते समय अपनी गरदन जरा टेढ़ी कर लेती थी और अँगुलियों से अपने आँचल का छोर उमेठने लगती थी।

इस वक्त चंदर की बात पर झेंप गयी और उसी तरह आँचल के छोर को उमेठती हुई, मुस्कान छिपाकर उसने ऐसी निगाह से चंदर की ओर देखा जिसमें थोड़ी लाज, थोड़ा गुस्सा, थोड़ी प्रसन्नता और थोड़ी शरारत थी।

चंदर एकदम बोला उठा, ”अरे सुधा, सुधा, जरा बिनती की आँख देखो इस वक्त!”

”आयी अभी।” बगल के कमरे में तश्तरी रखते हुए सुधा बोली।

”बड़े खराब हैं आप?” बिनती बोली।

”हाँ, बनाओगी न आज से हमें? हमारा दिमाग ठीक करोगी न? बहुत बोल रही थी, अब बताओ!”

”बताएँ क्या? अभी तक हम बोलते नहीं थे तभी न?”

”अब अपनी ससुराल में बोलना टुइयाँ ऐसी! वहीं तुम्हारे बोल पर रीझेंगे लोग।” चंदर ने फिर छेड़ा।

”छिह, राम-राम! ये सब मजाक हमसे मत किया कीजिए। दीदी से क्यों नहीं कहते जिनकी अभी शादी होने जा रही है।”

”अभी उनकी कहाँ, अभी तो तय भी नहीं हुई।”

”तय ही समझिए, फोटो इनकी उन लोगों ने पसन्द कर ली। अच्छा एक बात कहें, मानिएगा!” बिनती बड़े आग्रह और दीनता के स्वर में बोली।

”क्या?” चंदर ने आश्चर्य से पूछा। बिनती आज सहसा कितना बोलने लगी है। बिनती बोली, नीचे जमीन की ओर देखती हुई-”आप हमसे ब्याह के बारे में मजाक न किया कीजिए, हमें अच्छा नहीं लगता।”

”ओहो, ब्याह अच्छा लगता है लेकिन उसके बारे में मजाक नहीं। गुड़ खाया गुलगुले से परहेज!”

”हाँ, यही तो बात है।” बिनती सहसा गम्भीर हो गयी-”आप समझते होंगे कि मैं ब्याह के लिए उत्सुक हूँ, दीदी भी समझती हैं; लेकिन मेरा ही दिल जानता है कि ब्याह की बात सुनकर मुझे कैसा लगने लगता है। लेकिन फिर भी मैंने ब्याह करने से इंकार नहीं किया। खुद दौड़-दौडक़र उस दिन दुबेजी की सेवा में लगी रही, इसलिए कि आप देख चुके हैं कि माँ का व्यवहार मुझसे कैसा है? आप यहाँ इस परिवार को देखकर समझ नहीं सकते कि मैं वहाँ कैसे रहती हूँ, कैसे माँजी की बातें बर्दाश्त करती हूँ, वह नरक है मेरे लिए, माँ की गोद नरक है और मैं किसी तरह निकल भागना चाहती हूँ। कुछ चैन तो मिलेगा!” बिनती की आँखों में आँसू आ गये और सिसकती हुई बोली, ”लेकिन आप या दीदी जब यह कहते हैं, तो मुझे लगता है कि मैं कितनी नीच हूँ, कितनी पतित हूँ कि खुद अपने ब्याह के लिए व्याकुल हूँ, लेकिन आप न कहा करें, तो अच्छा है!” बिनती को आँसुओं का तार बँध गया था।

सुधा बगल के कमरे से सब कुछ सुन रही थी। आयी और चंदर से बोली, ”बहुत बुरी बात है, चंदर! बिनती, क्यों रो रही हो, रानी? बुआ का स्वभाव ही ऐसा है, उससे हमेशा अपना दिल दुखाने से क्या लाभ?” और पास जाकर उसको छाती से लगाकर सुधा बोली, ”मेरी राजदुलारी! अब रोना मत, ऐं! अच्छा, हम लोग कभी मजाक नहीं करेंगे! बस अब चुप हो जाओ, रानी बिटिया की तरह जाओ मुँह धो आओ।”

बिनती चली गयी। चंदर लज्जित-सा बैठा था।

”लो, अब तुम्हें भी रुलाई आ रही है क्या?” सुधा ने बहुत दुलार से कहा, ”तुम उससे ससुराल का मजाक मत किया करो। वह बहुत दु:खी है और बहुत कदर करती है तुम्हारी। और किसी की मजाक की बात और है। हम या तुम कहते हैं तो उसे लग जाता है।”

”अच्छा, वो कह रही थी, तुम्हारी फोटो उन लोगों ने पसन्द कर ली है।” चंदर ने बात बदलने के खयाल से कहा।

”और क्या, कोई हमारी शक्ल तुम्हारी तरह है कि लोग नापसन्द कर दें।” सुधा अकड़कर बोली।

”नहीं, सच-सच बताओ?” चंदर ने पूछा।

”अरे जी,” लापरवाही से मुँह बिचकाकर सुधा बोली, ”उनके पसन्द करने से क्या होता है? मैं ब्याह-उआह नहीं करूँगी। तुम इस फेर में न रहना कि हमें निकाल दोगे यहाँ से।”

इतने में बिनती आ गयी। वह भी उदास थी। सुधा उठी और बिनती को पकड़ लायी और ढकेलकर चंदर के बगल में बिठा दिया।

”लो, चंदर! अब इसे दुलार कर लो, तो अभी गुरगुराने लगे। बिल्ली कहीं की!” सुधा ने उसे हल्की-सी चपत मारकर कहा। बिनती का मुँह अपनी हथेलियों में लेकर अपने मुँह के पास लाकर आँखों में आँख डालकर कहा, ”पगली कहीं की, आँसू का खजाना लुटाती फिरती है।”

”’चंदर!” डॉ. शुक्ला ने पुकारा और चंदर उठकर चला गया।

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